चतुर्थ अध्याय
सरित तीर पर, बुर्ज बैठकर, जल प्रवाह की क्रीड़ा देखी।
उठते थे बुलबुले, घुमड़ती , अन्तर मन की पीड़ा देखी।।
तीव्र दाहतम अन्तर ज्वाला, खौल रहा हो जैसे पानी।
छर्राटे-सा ध्वनित हो रहा, पेर रहा ज्यौं कोई घानी।।86।।
बायु वेग से, नभ मण्डल में, घुमड़ाते घन, घोरै करते।
जलधारा में उठत बुलबुले, किसका वेग, वेग को भरते।।
लगता विधि ने, निज रचना में, कितने ही ब्राह्माण्ड बनाए।
अगम निराली ही माया थी, क्षण निर्मित, क्षण ही मिट जाए।।87।।
हो मदमत लहर जब उठती, तट को उद्बोधन सा देती।
अथवा प्रिय की गोद, भुजाओं में लिपटी अंगड़ाई लेती।।
धारा इतनी वेग कि तट के, तरू अपने संग लिए जा रही।
मूल धाम को विकल लाडली, अद्भुत अनहद गीत गा रही।।88।।
इतनी उन्मत जीवन पथ के, प्रस्थरों को दी कठिन ताड़ना।
अगर हटे नहीं तो यह देखा, खण्ड-खण्ड कर उन्हें झाड़ना।।
दुर्गम पर्वत तोड़-तोड़ कर, सुगम पथ, अपने कर डाले।
जिसने इसका तांडव देखा, सच कानों पर ताले डाले।।89।।
मिट्टी कूल, तूल-सी बहती, तृण लहरों के संग सिधाए।
ज्यौं बरसाती कई जलधारा, कितने रूपक इसने पाए।।
जल में जलजी ऐसे चलतीं, ज्यौं दामिनी धन माही।
ऊर्मि हिड़ोलों में झूलत हैं, भारी सरित प्रवाह उछाही।।90।।
ध्वनित हो रहा गीत अलौकिक, लगता सरित लोरियां गाती।
नीर आवरण क्रोड़ लिए ज्यौं, जल जीवों को आप सुलाती।।
घन आतप, बृष तरनि तापत, सनन सनन हो रही दोपहरी।
अंग अंग से तपन उठ रही, प्रस्तर खण्ड बने ज्यौं प्रहरी।।91।।
मध्यधार में, समाधिस्थ से, जप तप क्रिया लीन दिखाए।
ना जाने कितने युग बीते, कितने और विताने आए।।
प्रस्तर पर उगते जल गोंदर, केशि राशि का रूप बनाए।
अहो। तपस्वी सा जीवन जिन, डूबत-उछरत खूब नहाए।।92।।
धारा के उस पार, जीर्ण-सा, कोई कूप पुरातन देखा।
उसने सरिता के मग में, अपना अलग बनाया लेखा।।
जल में रहकर, बना चुनौती, खारा जल, भेद दर्शाता।
पथिक अडि़ग वह, प्रकृति से भी, नहीं भय खाता।।93।।
बैठे पंथी सरिता तट पर, कूप नीर से प्यास बुझाते।
होता है उपहास सरित का, सरिता नीर न मीठा पाते।।
कूप नीर से अमरूदों ने, कितना सुन्दर जीवन पाया।
कीर कोकिला ने मधुरितु का, कोइ तो, संवाद सुनाया।।94।।
बुर्ज धरा पर लहरों बिम्बन, रवि की किरणों से यौं खेले।
मनहु कन्हैया ता – ता थैया, राश गोपियों स्मृति ले– ले।।।
जल ऊर्मि कलिकेल कर रहीं, स्वर्णिम हाथ पसारे जल में।
रवि किरणों के आलिंगन में, तैर रहीं हो गुम्बद थल में।।95।।
पाकर झलक अंशुमाली की, सरित सुहाती स्वर्ण वर्ण सी।
मोहक सी मादकता थिरके,जहां मंद गति, मृदुल चरण सी।।
गुम्बद के प्रस्तर हृदय पर, लहरों की क्रीड़ा रंग शाला।।
स्मृति रेखा सी लहरातीं, ताना बानायह कितने डाला।। 96।।
वीणा सा अनुगुंजन होता, विरला ही कोई सुन पाता।
हैं अगम्य नहि जाना, कौन राग, कोई क्या गाता।।
कभी तूलिका बन रचना की, कभी कई संहार दिखातीं।
कितनी मधुर,अगोचर क्रीड़ा, युग गुम्बद पर नृत्यरचातीं।। 97।।
धन्य बने हो कितने। गुम्बद, वाणी ने भी पार न पाया।
भारी प्यार मिला है तुमको, मानव कब उसके ढिंग आया।।
सुफल साधना भई तुम्हारी तुमको रचना का रूप मिला है।
अहो गुम्बदो। तुम्हें नमस्ते, मन का जीवन सुमन खिला है।।98।।
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पंचम अध्याय
सरिता के बौएदिश, तट पर, वृक्ष पुरातन एक।
नीम, असीम भुजा फैलाए, लिखे प्रकृति के लेख।।
अति विशाल भुजदण्ड, हरित पर्णों से गाता गीत।
युग बीते, झंकृत झंझा के, सबसे रहा अभीत।।99।।
गहरी जड़ैं पसार भूमिं में, लोमश ऋषि सा ध्यान।
काल कीट के, कर्तन क्रम का, उसको सब है ज्ञान।।
रवि आतप से तृषित खगों को, पथ का आश्रय एक।
चतुष्पाद, द्विपाद, अनेकन, पादों का अभिषेक।।100।।
श्रावण भादों की वर्षा में यह, देखत सरिता रूप।
अडि़ग देखता खड़ा निडर यही, कंपित कूलों रूख।।
घन संहार, प्रकृति का तांड़व, जिसके सम्मुख होय।
अडि़ग, साहसी, आत्म ज्ञान का, पाठ पढ़ाया मोय।।101।।
तेरी गोदी बैठ कल्पना, पाती है अति विश्राम।
जन –जन अनुभूति लेता है, मन पाता आराम।।
जन्म और मृत्यु संगम का, तूं लिखता अभिलेख।
तेरी छाया – गोदी ने ही, लिखे सभी हैं लेख।।102।।
युग गुम्बद पर तुम यौंछाए, रामकृष्ण पर शेष।
कितना क्या आज बतापाऐंगे, हम तेरा परिवेश।।
गोल गुम्बदों से पूर्व दिसि, सरिता तट के तीर।
धारा मध्य भुजा फैलाए, पीपल तरु गंभीर।।103।।
हरियल पर्णों से मदमाती, करतल ध्वनि सी ताल।
वट पीपल अरु नीम, संग संग, त्रिवेणी का जाल।।
सरिता के आवंटन में भी, जो फैलाए है बांह।
मध्य धार तक देता सबको, प्यारी सीतल छांह।।104।।
राजन का दरबार लगे यहां, बन बैठा शिर ताज।
इसके जीवन ने भी देखे हैं, कई युगों के राज।।
प्रस्तर खण्डों की छाती में, गढ़ा हुआ ज्यौं मेख।
अथवा दिखा रहा है सबको, जीवन के अभिलेख।। 105।।
सूरज के आतप में प्रस्तर, सोते शीतल छांव।
प्यार देय अपनी गोदी का, पकड़े उनकी बांह।।
खगकुल को आमोद दे रहा, भूख – तृषा कर दूर।
सब जीवों को जीवन देता, नित इनको भरपूर।।106।।
सरित धार के योवन क्रम में, इसने खेले खेल।
कभी तैरता, कभी डूबता, हरक्षण रखता मेल।।
धारा का अति वेग, चतुर्दिक से लेता जब घेर।
खड़ा मध्य यह मदराचल सा सागर मंथन हेर।।107।।
कितने जल से सरित भरी है, यह उसका परिमाप।
मानव जीवन सीख ले रहा, गहरी इसकी छाप।।
लगता, देता अर्घ्य सूर्य को, छर छर करता शोर।
करता पूजन यही प्रकृति का, मन मनमस्ती मोर।।108।।
सहस्त्रबाहु सा सरित मध्य में, यह करता स्नान।
लवण सरित के कूल खड़ा यह, गौरव का वरदान।।
अहो भाग्य, पीपल, पलाश, झेंकुर, कदम्ब के आज।
सभी साधनारत लगते हैं, इस पर युग को नाज।।109।।
यही रही है गुम्बद गीता, शिव मंदिर के पास।
ग्राम चिटौली पुण्य भूमि है, होता यौं आभाष।।
लगतायौं कालिन्द्री हैयहां, कदम्ब झूमते तीर।
जहां कन्हैया की वंशी के स्वर गूंजत गंभीर।।110।।
जीवन लेता उन्मादें है, करीलों का गुंजा से प्यार।
शीपी, शंकुल, मुक्ति मोक्तिक, यहां खुला दरबार।।
जल दर्पण में, सूर्य आपना,यौं नित देखे रूप।
या मानो करता मुख मार्जन, कोई तट पर भूप।।111।।
है विस्तृत, अथाह जल यहां का, सागर सा दर्शात।
जहां बैठकर रागी कोई तो, निज गीतों कोगात।।
पनडुब्बी, जल कुक्कुट केलें, वक के गहरे ध्यान।
दादुर ने, गीतों की सरगम, अपनी दीनी ठान।।112।।
बजर कंद, धीग्वार फूलते, तट, सरिता के मध्य।
कमल दलों से मुस्काते हैं, देते रवि को अर्घ्य।।
लगता है जीवन सागर सा, सरिता का यह रूप।
अहो भाग्य, दर्शन से मुक्ति, मिलती है अनुरूप।। 113।।
यहां सच्चा शिवधाम, नौन सरिता के तट पर एक।
कालकूट, हरि, शिवा आदि का, नित होता अभिषेक।।
पुष्प बरसते हैं रजनी में,यहां तारागण से श्वेत।
सूर्य चन्द्र क्रम से आते नित, यहां पूजन के हेतु।।114।।
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षष्ट अध्याय
आत्मा होती शान्त, भ्रान्ति से मुक्त, मुक्ति के धाम।
अर्चन में मनमस्त गा रहे,यहां गीता प्रात: - शाम।।
लवणा तीर पर आशुतोष ने, अपना वैभव डाला।
गहन लता, संकुलित तरु में, रूप जगाया आला।।115।।
यहां रहैं बन राज, गर्जना जंगल को दहलाती।
करते करि चिंघाड़, घोर से अबनी भी हिल जाती।।
घन जंगल, बन जीव विचरते, क्रीड़ा की रंग शाला।
नील गगन के नीचे अबनी, पहनत नया दुशाला।।116।।
आल – बाल बहुलता, विटप से, रम्य रूप दर्शाया।
पावन प्रकृति स्थली में, शिव का शिव धाम सुहाया।।
यहां प्राचीन सुघर मंदिर में, शिव जी रहे विराज।
तपोनिष्ट जो, उस सेवक को, दर्शन देते आज।।117।।
साधू, सिद्ध, सुजान विचरते, निरा विघ्न, भय हीन।
कण कण में व्यापक हैं शिव, चरण कमल हो लीन।।
जो सेवा- मन- लीन दास को, शिव दर्शन देते हैं।
ध्यान लीन मानव केउर में, प्रति पल ही रहते हैं।।118।।
बना हुआ सुंदरमंदिर, परिकोटा चहु गिर्दी कीना।
आगे है दालान, उसी में, बजरंग आशन दीना।।
राम सिया, बजरंगी सम्मुख, मन पाता विश्राम।
पार्वती अन्दर में ब्राजी, श्री शिव के बामांग।।119।।
और कई देवों की आसन, मन को देत विराम।
ध्यान – साधना में सब होते, भक्तों के विश्राम।।
प्राची से रवि किरण द्वार होकर, शिव पर आती।
चरण कमल छू यहां प्रभाती, नित आरती गाती।।120।।
चौक मध्य के लघु मंदिर में, नंदीगण राजे।
अस्तांचल मुंह किए, रम्य मूर्ति में है विराजे।।
मंदिर ब्राजीं शिवा, अर्चना शिवजी की करतीं।
कर जोरत, हर समय, पुष्पहारों से सिंगरतीं।।121।।
ऊपर टंगी घंटिका बजतीं, हर हर उच्चारैं।
भक्तों की पूजा विधान में, होतीं न्योछारें।।
पूर्व दिशा में, बाग किनारे, है दालान विशाल।
रहता उत्तर दिश दरवाजा, स्वागत में हरकाल।।122।।
दक्षिण दिस छोटा दरवाजा, सीढ़ीं जहां से जात।
दोनों तरफ फूलते विरछा, जो मन को हर्षात।।
मंदिर से सीढ़ी सरिता तक, मानव मन: लुभातीं।
सरिता से संबंध जोड़तीं, जीवन गीत सुनातीं।।123।।
पावन भूमि जहां मंदिर, गौरव का प्रति रूप।
यहीं वाटिका में मिलता है, एक पुरातन कूप।।
ईंट और प्रस्तर का परिणय, चूना ने कर डाला।
एक शूत का बंधन देखो, आज तलक नहीं हाला।।124।।
जुड़े हुए ऐसे आपस में, एक प्राण दो देह।
परमानन्द यहां मिलता है, भरत राम स्नेह।।
इसी बाग में प्यार पा रहे, इन्नी, हींस, हिंगोट।
मारकरैरा, करील, विरविरा, विल्वपत्र के जोट।।125।।
इमली, नीम, पलास, रैमजा, अमरूदों की पांत।
नीबू, जामुन अरु कटहल के, रूप देख, हर्षात।।
मौल श्री, कचनार, तमालन, बदरी, साल, रसाल।
सुमन वाटिका भी मौसम के, पहिनत नए दुशाल।।126।।
अति पीवर दीवालें यहां पर, दालानों की देख।
जहां वेल बूटों में लिक्खे, जीवन के अभिलेख।।
नोंन सरित, मन इहां रम गया, नहिं आगे को जात।
शंकर जी की जटान निहारत, लगती यहां विलात।।127।।
इस मंदिर की छटा देखकर, करती शिव का ध्यान।
पशु –पक्षी भी यहां कर रहे,जय हो शिव,हरि गान।।
टोड़न पर बैठे तोता गण, बोलत जय सिया राम।
लगता यहां बैकुण्ठ आ गया, नहीं दुनियां से काम।।128।।
है सच्चा दरबार यहां पर, सन्ध्या करते आ देव।
आरति- शंख और झालर से, सब जन करते सेब।।
संसृति का विकराल जाल यहां, डाल न पाता फंद।
सभी जीव उन्मुक विचरते, रहित सकल पाबन्द।।129।।
चौर डुलावैंकैकी, मैना – तोता पाठ उचारैं।
धौरा और परेवा, डिमडिम डमरू सा हुंकारैं।।
तूर्य बना बोलत है मुर्गा, बांसुरी झिल्ली तान।
नागदेव आसन और छतर, दादुर करते गान।।130।।
सरिता चरण पलोटत, मंहदी अगर बनी है।
पुष्प चढ़ाबै वायु देवता, चंदन गंध घनी है।।
दीपक रवि और चंद्र बने हैं, उडगन फुंजरी घाले।
तडि़त शिखा आरती संजोवै, मेघ मृदंगी चालें।।131।।
पादप –लता बना रहीं मण्डप, गल बहियां सी डाल।
लिपटी हुयीं प्रेम आंगन में, ज्यौं बैजयन्ती माल।।
लता द्रुमौं से ऐसे लिपटीं, ज्यौं गोपी और श्याम।
झमू झूम सब ही लहराती, यह खुशियों का धाम।।132।।
यहां आतरी, पूजा प्रतिदिन, इसी भांति से होय।
प्रकृति यहां नांचती देखी, हो मनमस्त, न सोय।।
यह सब देख लवणा सरिता ने, दीनी धारा रोक।
दर्रा कुड़ीका, खड़ा हुआ आगे, प्रस्तर टालै ठोक ।।133।।
गईं शिवा घबड़ाय देख यह, इक चोटी बह छाई।
लगता है, दूसरी जटा में, यह भी जाय समाई।।
नौंन नदी की तब जलधारा, सागर सी लहराई।
विकल शिवा को देख, रहे शिव जी समुझाई।।134।।
मत भटको जंजाल जाल में, जो प्रण उसे निभाओ।
चलते रहो, यही जीवन क्रम, अब आगे बढ़ जाओ।।
भ्रमित नहीं होना यौं आगे, यह संसार निराला।
अति पावन हो नौंन तुम, सब तीर्थों की माला।।135।।
कितनी गंगा तुम में आयीं, तुम पावनतम न्यारी।
श्रेष्ठ हौ गयीं लवणा तुम तो, जाओ आशिष म्हारी।।
कई एक गंगौ की गंगा मन- करले यहां स्नान।
ध्यान साधना एहि तट करले, हो जाए कल्याण।।136।।
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