Jivan Sarita Naun - 2 in Hindi Poems by बेदराम प्रजापति "मनमस्त" books and stories PDF | जीवन सरिता नौंन - २

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जीवन सरिता नौंन - २

पूर्व से गभुआरे घन ने, करी गर्जना घोर।

दिशा रौंदता ही आता था, तम का पकड़े छोर।।

ग्राम मृतिका उटज, प्‍यार से करतीं थीं, जो प्‍यार।

जिसे सहारा, महानीम का, मिलता था हर बार।। 5।।

खड़ा उटज के मध्‍य, कि जैसे- गिरवर नीचे श्‍याम।

अपने आश्रय से कुटिया को, देता सदां विराम।।

यहां बैठकर, जन-मानव को, मिलती न्‍यारी शांति।

जैसे कल्‍पवृक्ष के नीचे, मिट जातीं, सब भ्रान्ति।।6।।

मंद-मंद बह रहा पवन तहां, कुटिया के हर द्वार।

मनहु सरस्‍वती की वीणा के, बजते हों सब तार।।

सूरज घन पट से झांखा, ज्‍यौं मांद मध्‍य से शेर।

चांदी की वर्षा-सी हो रही, मन ने लई हिलोर।। 7।।

आज भूमि को वरुण देव से, मिलता कितना प्‍यार।

कैसे बड़े-बड़े हीरे- मोतिन का, पहनाता वह हार।।

इन्‍द्र धनुष ने, सात रंग से, रंग डाला भू-लोक।

बाल-बालिका कितने किलकत, अवनी भई अशोक।।8।।

कितनी रम्‍य, प्रकृति की आभा, कहो, कौन अब लेखे।

वीणा वादिनी, ग्राम गलीविच, अपने जन को देखे।।

सभी जगह पर परखत डोले, मिला न कोई मीत।

गलियों की कीचड़ में लथपथ, गाती फिरती गीत।। 9।।

महलों में मानव को, वैभव- गहन नींद में पाया।

वैभव- विधुत की आभा ने, था मनमस्‍त बनाया।।

कौन देखता था ? संकट में, आज कौन है भाई।

हर उर घर से यही निकलता, आगे बढ़जा माई।।10।।

आगे बढ़जा सुनकर मैया, मन में करत विचार।

कितना सारा बदल गया है, मानव का व्‍यवहार।।

चलूं त्‍याग, महलों का वैभव, करती यही विचार।

 निरीह फूंस कुटियों को अबतो, करना है गुल्‍जार।। 11।।

ग्राम्‍य उटज में आकर देखा, बैठा एक सुजान।

 मौन, शान्‍त, देखता चहुदिस, टपक रही थी छान।।

बूंद-बूंद गिन रहा कि, जैसे पग-पग थका बटोही।

कुटिया गीली, कपड़े भींगे, कीच सनी थी देही।।12।।

पाकरआहट मेरी, हंसकर वह, ऐसे लगा, बुलाने।

जैसे भटके किसी अतिथि को,जान लिया, अनजाने।।।

बोला हंस,माँ- आओ अन्‍दर, नहीं बनों, अंजान।

पाबन कर दो मेरी कुटिया, अबतो- अपना जान।। 13।।

तुम भींगी हो, मैं भी भींगा, मत करना संकोच।

गीले का गीला क्‍या होगा,क्‍यों करती हो सोच।।

अन्‍दर आओ बड़े प्रेम से, तुम मेरी मेहमान।

कई युगों से राह देखता, आज बना भाग्यवान।।14।।

यह कुटिया और छान टपकती, यही दीन का बास।

छाया पाऊं आज आपकी, यहीं पर करो निवास।।

सोच रही मां!- अन्‍य द्वार पर- आगे बढ़जा माई।

यहां, विचारा बुला रहा है, करने को पहुनाई।। 15।।

कितनी विनत गुहार, हृदय का आसन, लिए खड़ाहै।

करता नमन, हजार, युगम पद मस्‍तक, धरनि पड़ा है।।

अन्‍दर के उद्गार नेह के, ढोंगमय पूजा यहां नहीं है।

पावन मन,वाणी, हृदय में, कहीं कुछ छुपाव नहीं है।।16।।

और कहां अब ऐसा पूजन, पूजक भक्‍त मिलेगा।

इन कुटियों के ही दरवाजे, नित नब सूर्य उगेगा।।

झौंपडि़यों में सच्‍चा आदर, महलों में उपहास।

इसीलिए अब रहना होगा, इन कुटियों के पास।।17।।

अन्‍दर कुटी विराजीं, करतींमंद मंद मुस्‍कान।

झंकृत होगी ममवीणा की, यहां निराली तान।।

लपक छू लिए चरण,मातु ने धरा शीश पर हाथ।

ज्‍यौं कोई परदेश पुत्र को, आज मिली हो मातु।।18।।

मां मेरी विनती बस इतनी, कर लेना मंजूर।

मानव तन के नाते मैया, कई एक बनें कसूर।।

क्षमा चाहता, चरणकमल में,लगा रहे मम ध्‍यान।

हंसकर किया दुलार, आई हूं, देने तुझको ज्ञान।।19।।

कई जन्‍म की,रही साधना, सफल हो गई आज।

जीवन के, जीवन पहलू का, बतलाऊंगी राज।।

गोदी दिया दुलार, चल पड़ी नौन नदी के तीर।

शिव मंदिर पर समय बिताएं, ओ मनमस्‍त फकीर।।20।।

तट पर बैठ अलापा मां ने, सरिता का इतिहास।

उद्गम से ही मिलन सफल है, यही क्रमागत रास।।

बड़ा सरल जीवन है बचपन, पाबनता का रूप।

ऊषा- सी अरुणायी आभा, पावन- प्‍यारी धूप।।21।।

गोरज का गो रोचन लाकर, इस अबनी ने दीना।

कण-कण ने, नव रतनों सा, पाबन जीवन कीना।।

उदगम का स्‍थान, महा महिमा मंडित होता है।

हर कोई उसका आभारी, युग पातक धोता है।।22।।

लवणा- सा जीवचन है सबका, परहित, पाबन रूप।

रखना ध्‍यान सदां ही इसका, कथा कहूं अनुरूप।।

मैंटन जन मन पीर, दूर और निकट, सभी की जानों।

वाणी कल्‍याणी बन प्रकटी, जनहित कारण मानो।।23।।

गीतों सा गुंजार करन, गुल्‍जार धरनि की काया।

अगम्य शक्ति ने आकर अपना, पय मय रूप बनाया।।

सबके सुख के हेतु, प्रकट भई, सिया बाबड़ी आन।

इसका वह इतिहास सुनो। बनो अगम पहिचान।।24।।

इति पूर्वा