३: अमरत्व
एक गाँव में वैद्य रहा करता था। लोगों को जडी-बुटी देकर उनके रोग दूर करता ओैर इसके साथ वह दावा करता की अमरत्व की रहस्यता मुझे ज्ञात है। लोग बडे आँस लगाए उसके पास आते थे, क्युँ की कौन चाहेगा मरना? बहुत पैसा लेकर वह अमरत्व के नाम पर कुछ दवाई देता ओैर उसमें से कोई मर गया तो वह वैद्य लोगों को बताता की उस व्यक्ती को मैने अच्छी तरह से अमरत्व का रहस्य समझाया था लेकिन वह ठीक से समझ नही पाया इस कारण उसकी मृत्यु हो गई।
उस देश के राजा ने जब अमरत्ववाली बात सुनी तब राजा ने एक दुत को उस वैद्य को दरबार लाने के लिए भेजा। किसी कारणवश दुत को सफर करते-करते वैद्य तक पहुँचने में विलंब हो गया ओैर जब उसके घर पहुँचा तब वैद्य की मृत्यु की खबर सामने आयी। कुछ देर पहले ही उसकी मृत्यु हो चुकी थी।
फिर से सफर करते-करते, दुत घबराते हुए राजा के पास पहुँचा ओैर वहाँ जो घटित हुआ था वह सारी बात राजा को सुना दी। सब बात सुनकर राजा बहुत संतप्त हुआ, उसी क्रोध के आवेश में दुत को फाँसी की सजा सुना दी।
गुरु च्वांग-त्जूं ने दुत पर आए हुए संकट के बारे में सुना तो वह राजा के पास आ पहुंचे ओैर बोले “ राजन, आपके दुत ने वहाँ देरी से पहुँचकर भुल तो कर दी पर आपने भी उसे वहाँ भेजने की भुल की हुई है। वैद्य के मृत्यु से ही यह बात पता चलती है की उसे कोई अमरत्व का रहस्य पता नही था, अन्यथा उसकी मौत हो ही नही सकती थी। रहस्य की बात यही है की ऐसा कोई भी रहस्य इस दुनिया में नही है। केवल अज्ञान से भरे लोग ही ऐसे बातों पर विश्वास रखकर फँस जाते है।”
मतितार्थ, अज्ञानी लोग ही अपने ढोंग से ऐसे जताते है की मुझे दुनिया के रहस्य ज्ञात है। लोग भी उसकी बातों में आकर अपने दुःख निवारण, तथा कोई सिद्धी प्राप्ती, अतिरंजित कल्पनाओं की कामना करते हुए ऐसे लोगों का सहारा लेते है। कालांतर के बात उस व्यक्ती की असलियत सामने आ जाती है, उसका ढोंग पकडा जाता है। लेकिन तब तक लोग अपना समय, पैसा सब गवाँ बैठते है। प्रलोभन के कारण अंधश्रद्धा से किसी का बली भी चढाया जाता है।
जो सच्चे ज्ञानी होते है वह ऐसा कोई भी दावा नही करते की मुझे सब बातों का पता है। दिखावा करना उनकी मानसिकता नही होती। जिन लोगों कों ज्ञान की लालसा होती है उसे वह अवश्य मार्गदर्शन करते है। लोगों को समझाते है की जीवन कल्पनाओं में रममाण होने के लिए नही है बल्की वास्तवता में जीने की वह कला है। अपने हिस्से में जो आया है उसे स्वीकार करते हुए अच्छे तरह से जीवन जीना आना चाहिये। अवास्तव अपेक्षाओं के परबत व्यक्ती को जीना मुश्किल कर देते है। कभी भी ना पुरे होनेवाले सपनों को हासिल करना चाहा तो व्यक्ती निराशा के घेरे में आ जाएगी। सपना तो जरूर देखना है, उसके लिए कोशिश भी करनी है लेकिन प्रकृती के नियमों का उल्लंघन करने की भुल कभी नही करनी है। च्वांग-त्जू ने यह जो मौलिक बात बतायी है वह अपने जीवन में भी लाभदायी होगी।
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४ : चाय का कप
जपानी झेन मास्टर सुझुकी रोशी अपने शिष्यों के साथ चाय पिते बैठे थे। चर्चा-संवाद में एक शिष्य ने उनको पुछा “ गुरुदेव, जपानी लोग चाय के कप इतने नाजुक क्युँ बनाते है? कभी भी वह टुट सकते है ऐसी उसकी रचना क्युँ होती है?”
सुझुकी रोशी ने जबाब दिया “ जपानी चाय के कप नाजुक रहते है लेकिन कमजोर नही रहते। उनको कैसे जतन करना है, यह बात शायद तुम्हे ठीक से पता नही। आप लोग वातावरण के साथ मिल-जुलकर रहने के बजाय वातावरण को ही बदलने का प्रयास करते हो।”
मतितार्थ, जीवन कैसे जीना है यह मनुष्य पहले से ही तय कर देता है, ओैर उसी तरह से जीवन बितता जाएगा इस भावना को मन में रखकर चलता है, इसी अपेक्षा में जीता है। परिस्थिती के नुसार अपेक्षाँए बढती रहती है। पैसा, श्रम, बुद्धिमत्ता जितनी जादा होती है उतनी अपेक्षा भी बढ जाती है। अपना नसीब कभी साथ देता है तो कभी नही। लेकिन मनुष्य सोचता है जैसे अच्छे से चल रहा है वैसा चलता रहे। जीवन में कुछ अच्छा होने के लिए कभी बुरा वक्त आना भी जरूरी होता है। बुरे वक्त का सामना करना होता है। तभी व्यक्ती छलांग लगाता है। अन्यथा जीवन साइकिल जैसा चल रहा हो, तो वह कभी गाडी नही बन सकता। वैसे देखा जाय तो आनंद, समाधान तो अपने मन में ही समाया हुआ रहता है। बुजुर्ग लोग भी हमेशा कहते है ‘ माना तो सुख नही तो दुःखं ’। इस वाक्य की यथार्थता हर कोई जानता है। हमेशा कार में ही घुमने में मजा आएगा यह जरूरी नही, अपने परिवार के साथ बच्चों के निरागसता भरे खिले चेहरे ओैर पती या पत्नी की आँखों से झलकती प्रेम की मधुरता में जो सुख है, वह कोई भी दुसरे भौतिक साधन, सुख-सुविधा की माँग नही करता। लेकिन मनुष्य आनंद की परिभाषा अलग-अलग तरीके के साथ हासिल करना चाहता है। वैसे ही चाय तो चाय है लेकिन कितने अलग-अलग डिझाईन के कप तैयार किये जाते है। लोग अपने मनपसंद रंग, डिझाईन, आकार, मिट्टी के, चांदी के कप, छोटे-बडे कप, नजाकत से भरे कप ऐसे अनेक प्रकार के कप पसंद करते हुए बडे चाव से उसमें चाय पिते है। चाय का स्वाद तो अंतरंग अवस्था है लेकिन आनंद बाह्य चिजों में ढुंढा जाता है। मनुष्य की यही चेष्टा जीवन के प्रति भी रहती है। नौकरी-धंदा, कुटुंब, पद-प्रतिष्ठा, मान-सन्मान, इस तरह के कप जीवन आनंद लेने के लिए मनुष्य इस्तमाल करता रहता है। इन सबके अति इस्तमाल के कारण जीवनरस पीने का सुख उपभोगना व्यक्ती भुल जाता है ओैर सबमें अभाव की मात्रा ढुंढता रहता है। जीवन की उत्कृष्टता, अस्सलता, जीवन की सुंदरता, निरामयता तो चारों ओर फैली हुई है। उन्ही क्षणों को जी कर चिरंतन बनाना यह कला हर व्यक्ती को सिखनी चाहिये। निसर्ग मनुष्य को हर पल ऐसे अवसर प्रदान करता रहता है, लेकिन हम अलग-अलग सामाजिक कपों में इतने उलझे हुए है की निसर्गता का जीवनरस सजगता में बहुत ही कम समय पी सकते है। इससे मनुष्य के मन की रिक्तता बढती जाती है। जीवन में एक खोकलापन सताने लगता है। इसीलिए बेहतर है वातावरण को बदलते रहने से अच्छा है मिलाप रखना।
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५ : ताओं कथा
एक गाव में एक किसान रहता था। उसके पास बहुत ही उमदा घोडा था। एक दिन वह घोडा अपनी बंधी रस्सी तोडकर भाग गया। यह बात सुनकर पडोसी, अफसोस जताने उसके पास आ गए ओैर बहुत बुरा हुआ एसी चर्चा करने लगे। सब लोगों की बात सुनकर वह किसान ने कहा “ तुम लोग कहते हो तो बुरा हो गया होगा।”
दुसरे दिन वह भागा हुआ घोडा वापिस आया ओैर साथ में तीन जंगली घोडे लेकर आ गया। यह खबर मिलने के बाद किसान के पडोसी फिर उसे मिलने आ गए ओैर यह तो बहुत अच्छा हुआ इस प्रकार की चर्चा करने लगे। किसान भी सब बातों को सुनकर फिर से कहने लगा “ तुम लोग कहते है अच्छा हुआ तो अच्छा हुआ होगा।
फिर एक दिन किसान का बेटा जंगली घोडे पर सवार होने की कोशिश करते समय घायल हो गया ओैर अपनी एक टांग को तुडवा बैठा। फिर से अफसोस करने पडोसी आ गए ओैर बेचारे का पैर कैसा टुटा इस बात पर चर्चा करते सहानुभूती प्रकट करने लगे। इस बात पर भी किसान ने फिर से लोगों के साथ हामी भर दी। आप जो सोच रहे हो वैसा हो गया होगा।
दुसरे दिन सुबह राजा के सेनाधिकारी गाव में आए ओैर युवावर्ग को सेना में भरती कराने जबरदस्ती अपने साथ ले गए। उस किसान का लडका घायल होने के कारण सेना में भरती नही किया गया। पडोसी फिर से उस किसान का अभिनंदन करने लगे, तुमहारा लडका सेना में शामिल होने से बच गया। किसान ने वही जबाब दोहराया आप लोग जैसा सोचते हो वैसा हुआ होगा।
मतितार्थ, किसान की मनोदशा इस तरह थी की जीवन में जो भी होता रहता है वह सिर्फ देखते रहना चाहिये। कोई प्रतिक्रिया देने से लाभ नही होगा, क्युं की जो होता है वह होता ही रहता है। बुरा हुआ तो भी उसका परिणाम कुछ अच्छी चीजों में हो जाता है ओैर अच्छा हुआ तो भी फलस्वरूप कुछ बुरा भी हो सकता है। यह शृंखला जीवनभर चलती ही रहती है। हर एक सिकके के दो पहलू होते है। उसी तरह जीवन में कभी हार कभी जीत चलती रहती है। इस तरह के संसार में बुद्धिमान व्यक्ती अपने मानसिकता में स्थिर रहता है। समाज जो भी बाते करता है उससे उसे कोई फर्क नही पडता। वह जानता है जीवन में कोई भी स्थिती एक जैसी नही रहती, इसलिए संकट में निराशा के घोर अधकार में नही डुबना है ओैर सफलता की प्राप्ती पर सुख में लीन नही होना है। बस जीवन में चलते रहना है। अर्थात एसी सहजता प्राप्त होने में समय, सराव, सहजता का निरंतर अभ्यास यह जरूरी है। मन को बार-बार काबू में लाना आवश्यक होता है, फिर एक बार मन को शांती, सहजता में लीन होने का मतलब समझ में आ गया तो वह स्थितप्रज्ञता की ओर बढ जाता है। कोई भी अवस्था में अनित्यता का अनुभव करने से भावनाओं का तुफान का सामना करने की जरूरत नही रहती।
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