पन्द्रह
तुम भी गुनगुनाने लगे
मंगलवार, ग्यारह अप्रैल 2006
पूरा एक महीना हम लोग चलते रहे, इस गाँव से उस गाँव, इस पुरवे से उस पुरवे। चने के दाने ने बड़ी मदद की। भिगोकर चबाते दिन आराम से कट जाता। एक-दो गिलास मट्ठा पी लिया जाता। किसी सार्थक कार्य में लगने पर भूख प्यास का ध्यान कहाँ रह जाता है? गाँव के लोग आतिथ्य में पटु। कहीं गुड़ कही मट्टे से स्वागत। स्वागत में आत्मीयता। अनौपचारिकता का नाम नहीं। एक छोटे से पुरवे में रहता है भीखी। वह हम सब के लिए चुनौती है। एक व्यक्ति ने उसकी एक एकड़ ज़मीन अपने नाम करा ली पर भीखी को कोई क्षोभ नहीं। अन्दर कहीं कुछ हो भी तो बाहर नहीं आता। मैंने उससे सहयोग करने के लिए कहा। उसने हाथ जोड़ लिया। वह जानता है पानी में रहकर मगर से बैर नहीं चल सकता। इसलिए वह मगर को अपना हाथ दे देता है। मगर उसे हजम करता है और भीखी मुस्कराता रहता है बल्कि सुबह कटा हाथ देखकर कहता है, 'राम राम मालिक।' यह भी कठिन साधना है।
एक पुरवे में हम लोग घिर गए। एक आदमी ने उड़ाया कि आतंकवादी आ गए हैं। गाँव गाँव में घूम रहे हैं। रमजान की दाढ़ी देख लोगों ने हमें घेर लिया। कोई समझने को तैयार ही न होता। यह कहो गाँव का एक आदमी जियावन परिचित निकल आया। उसी ने लोगों को समझाया तब जाकर कहीं मामला शान्त हुआ। उस दिन से हम लोगों ने क्षेत्र के किसी आदमी को साथ लेकर चलना शुरू किया। भीखी जैसे लोग भी कम नहीं हैं। रीढ़ पैदा करना कठिन है। हम लोग भी पीछे हटने के लिए तैयार नहीं-
'रसरी आवत जात ही सिल पर होत निशान।'
आज सायं पाँच बजे अपनी कोठरी पर आया। दरवाज़ा खोला। डाकिया चिट्ठी डाल गया था। उठाकर देखा। जेन की चिट्ठी थी। पढ़ गया। उसने लिखा था कि थीसिस का काम रुका हुआ है। अपने बारे में सम्पूर्ण तथ्य लिखकर भेजो। बहुत ज़रूरी है। देर न हो। यदि थीसिस का काम रुका हुआ है तो उसे पूरा ही कर देना है। मैं तख्ते पर बैठ गया। अब तक जो लिखा था उससे आगे सोचने लगा।
सेठ जी की कोठी। पिंजरे में पंछी। वही गेट पर ड्यूटी। मैंने कभी ज़बान नहीं खोली। अपना काम मुस्तैदी से करता। सेठ जी प्रसन्न रहते। भैया और बहू जी के क्रिया कलाप में बहुत अन्तर नहीं आया। नौ बजे निकलना, दो बजे लौटना दोनों में से किसी एक का धुत्त रहना। कभी दोनों को एक साथ धुत्त नहीं देखा। ऐसा सामंजस्य बना पाना क्या सरल है? भैया और बहू जी से कोई सन्तान न भी। कभी कभी सेठ जी परिवार में बच्चे के अभाव में दुःखी दिखते। व्यक्त भी करते। हमें भी सेठ की चिन्ता जायज़ लगती। कभी कभी पंजाराम भी चर्चा करते। दिन वर्ष बीतते गए। एक दिन सेठ जी ने कहा कि चलो डाक्टरी जाँच करा लिया जाए। मैं सेठ जी के साथ गया। पैथालोजी डाक्टर की लैब थी। मैं बाहर ही बैठा। सेठ जी अन्दर गए। थोड़ी देर बाद रूई का फाहा, 'हाथ में मलते हुए सेठ जी बाहर आए। मुझ से कहा ' तुम्हारी भी जाँच हो जाए मैंने कहा, 'जैसा आप कहें।' मैं लैब में गया। खून, मूत्र आदि लिए गए। साथ ही वीर्य भी निकाला गया। मैंने समझा सभी की जाँच करते समय इन सब की जाँच होती होगी। मेरे लिए यह एक बिलकुल नया अनुभव था। सेठ जी के साथ गाड़ी में बैठा, लौट आया। दूसरे दिन सेठ जी बहुत खुश दिखे, कहा, 'कोमल तेरा स्वास्थ्य बहुत ठीक है, मैंने रिपोर्ट देख लिया।' मैंने अपने मन को तसल्ली दी, चलो अच्छा हुआ जो जाँच हो गई। अखबारों में अयोध्या के लिए कार सेवकों का तांता। बम्बई से भी बहुत लोग गए हैं पंजाराम बताता। देश के कोने कोने से कार सेवकों के पैदल, गाड़ी, बस किसी भी साधन से अयोध्या जाने की खबरें। राम लला मन्दिर बनाने का आह्वान करते कार सेवकों के समाचार। छः दिसम्बर का दिन आ गया। अयोध्या में कार सेवकों का सैलाब। उनके पीछे काम करने वाले संगठन गद्गद् । टी.वी. रेडियों पर पल पल की खबरें। लोग बार बार पूछते, 'कुछ हुआ तो नहीं?'
गुम्बदें ढह गई, शाम को समाचार सुना। हर आदमी दूसरे से पूछता, 'क्या कुछ अनर्थकारी तो नहीं घट जाएगा?' सेठ जी भी चिन्तित। मैं लोगों की बातें सुनता। आज भैया और बहू जी बाहर नहीं निकले।
कुछ अघटित घट गया है, सभी सोचते। सभी चौकन्ने सतर्क। कुछ संगठनों ने खुशी मनाई। पंजाराम का साथी मुहर्रम दूसरे दिन आया था। पंजाराम से कहने लगा, 'तुम्हारे हिन्दुओं ने बहुत गलत किया। अयोध्या में बाबरी ढहा दिया।' वह गुस्से से भरा था। पंजाराम के बहुत से संगी साथी हैं। एक आदमी आया। वह बहकी बातें कर रहा था जैसे गुम्बद ढहाकर कोई बड़ी जीत हासिल कर ली हो। टी.वी. पर देशवासियों से शान्ति बनाए रखने की अपील करते हुए प्रधानमंत्री का चेहरा देखा था मैंने। आश्वासन देते हुए भावुक हो उठे थे। अखबार में पढ़ा, उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। भारतीय काश्मीर, बाँग्लादेश, पाकिस्तान में मंदिरों के ढहाए जाने की खबरें छपती रहीं। प्रताड़ना की अनेक घटनाएँ भी छपतीं। अखबारों, टी० वी०, रेडियों में अयोध्या की घटना ही छाई रही। हम मनमानी क्रियाएँ कर बैठते हैं और सामान्य जन मारा जाता है। क्या हम कबायली संस्कृति को पुनः लौटा रहे हैं? आदमी विभिन्नताओं में रहना कब सीखेगा ? तीन महीने बीत गए पर अयोध्या की चर्चा निरन्तर होती रही। एक दिन मुहर्रम आया। कहा, 'अल्लाह का घर ढहाया गया है, कुछ न कुछ तो होगा ही।' दूसरे ही दिन बम्बई जल उठी। बमों विस्फोटों की बारिश । हताहतों से अस्पताल पट गए। इन्सानियत को दफन होना पड़ा। मासूमों की मौत से धरती काँप उठी। परिन्दों ने नगर छोड़ दिया।
पंजाराम जिस चाल में रहता था उसमें किसी ने आग लगवा दी। चाल धू- धू कर जल गया। अग्निशमन वाले बुझाते रहे केवल राख ही बच पाई। विस्फोटों के बीच आग लगवाने वाला अपनी कुशलता पर गद्गद् हो रहा था। वह उस ज़मी पर बहुमंजिली इमारत खड़ी करना चाहता है। पंजाराम का कुछ नहीं बचा था। वह आँय-बाँय बकने लगा। अपनी डयूटी पर आता पर कुछ न कुछ बोलता रहता। कहता, 'मैं जानता हूँ किसने आग लगवाई है। मैं बदला लेकर रहूँगा।' दो दिन से सेठ जी के यहाँ नहीं आया। तीसरे दिन सायं नौ बजे आया। बहुत आवेश में था, कहा, 'मेरे साथ चल।' मैंने कहा, 'कहाँ ?'
'चाल जलाने वाले को मारना है। देख यह हथगोलों से भरी झोरी। मेरे साथ चल।'
'मैं नहीं चल सकता,' मैंने कहा।
'तू डरपोक है। तुझसे कुछ नहीं होगा..... पैसे का गुलाम बुज़दिल।' गेट पर मुक्का मार पंजाराम चला गया।
अन्दर सेठ जी बैठे थे। पूछा, 'कौन था?'
मैंने कहा, 'कोई नहीं, मैंने ही गेट पर मुक्का मार कर गेट बन्द किया था।'
'पर किसी आदमी की आवाज़ थी।'
'कोई बाहर ही बड़बड़ाता जा रहा था। हो सकता है, पागल हो।' मेरे मुँह से निकला।
'पागलों से सावधान रहना कुछ भी कर सकते हैं।'
सेठ जी कहते हुए उठ गए।
सेठ जी के जाते ही मेरी आँखों ने प्रश्न किया। 'यह क्या किया मैंने? क्या पंजाराम पागल था? अपने हक के लिए लड़ना पागलपन है? कल तेरा ही घर कोई जला दे तो क्या तू चुप बैठेगा? माना पंजाराम के पास इतनी ताकत नहीं कि वह चाल जलवाने वाले से बदला ले सके? काट न सके तो क्या फुंकारे भी नहीं। पंजाराम की तो एक जड़ थी यहाँ। उसका गाँव भी बम्बई से सौ किलोमीटर पर ही है। पर तू अपने घर से हजारों किलोमीटर दूर बैठा है जड़ विहीन। मराठी कहते ही रहते हैं, 'भैया लोगों को भगाओ। दूर बैठी घरवाली इनके निक्कर से बच्चा पैदा कर लेती है।' उत्तर प्रदेश, बिहार से आए श्रमिकों को 'भैया लोग' कहकर चिढ़ाते हैं लोग। अपने ही देशमें जड़ विहीन कैसे हूँ? मन में प्रश्न उठता। जड़ विहीन तो लोग अपने ही शहर, गाँव में कर दिए जाते हैं? आदमी रोटी के लिए कहाँ-कहाँ नहीं भागता?
तेरी सोच कितनी भोली है कोमल? देश के कोने-कोने से लोग बम्बई आते हैं। कुछ बस जाते हैं, बहुत से अपने गाँव लौट जाते हैं। उत्तम अवसर की तलाश में लोग देश छोड़ जाते हैं। सेठ जी के दामाद अमेरिका में बस गए हैं। लौट कर नहीं आना चाहते।
मुझे लगता रहा कि पंजाराम लौटकर आएगा। पर वह नहीं आया। सेठ जी की नौकरी छोड़ दी। अपने गाँव लौट गया। अपनी माटी छोड़ पाना सरल नहीं होता। उसकी गन्ध हर साँस में भरी होती है। मुझे भी अपना गाँव याद आने लगा। नीम के तले पड़ी खाट। उस पर लेटा मैं, सर सर चलती पुरवा। मैं गुनगुना उठता हूँ। - 'सरसर चले पुरवैया हो रामा, सर सर चले पुरवैया। गुनगुनाते हुए कुछ आवाज़ निकल ही आई। सेंठ जी कमरे से बाहर आ गए। पूछा, 'कोमल क्या कोई पागल आ गया था।'
'नहीं तो'। 'कोई गुनगुना रहा था।'
'सेठ जी, मैं ही गुनगुना रहा था।'
'कोमल तुम?.... दंगों के बाद तुम भी गुनगुनाने लगे।'
'बापू'। बहू जी भी कमरे के बाहर आ गई थीं 'कोमल की आवाज अच्छी है। गुनगुनाने दो बापू ।'
'यह दंगों का समय है। ऐसे समय गाना।' सेठ जी कुछ विचलित हो गए थे।
'दंगे के बाद क्या कोई गुनगुनाएगा नहीं बापू ?'
'पता नहीं कब कोई दंगाई आ जाए?
चलो बहू, कोमल सावधान रहना। शहर की हालत तो जानते ही हो।'
'जी', मेरे मुख से निकला। बहू जी का यह रूप मैंने पहले नहीं देखा था।
'वे कुशल गृहिणी हैं,' पंजाराम बताया करता था।
सुबह तार मिला, 'पिता गम्भीर रूप से बीमार हैं शीघ्र आओ।'
तार सेठ जी को ही मिला था। उन्होंने बुलाकर तार देते हुए कहा, 'पिता बीमार हैं तो जाना है ही। कितने रुपये चाहिए?'
'सेठ जी जो भी रुपये मेरे बनते हों सब दे दीजिए।'
'क्यों पिठली बार तो सब नहीं ले गए थे। क्या फिर लौटने का इरादा नहीं है?'
'कौन जाने सेठ जी, क्या स्थिति बन जाए?' 'ठीक कहते हो। पर मैं चाहता था कि कुछ दिन मेरे यहाँ और रह जाते। बहू जी को बच्चे की उम्मीद बन रही है। अगर खुशी का मौका आता और तुम भी रहते तो अच्छी बात होती।'
'सेठ जी ऐसे अवसर पर मुझे भी खुशी होती पर पिता जी बीमार हैं पता नहीं क्या स्थिति बने।'
'ठीक कहते हो। मैं मुंशी को भेज कर टिकट मँगा लेता हूँ। दस हजार नकद ले लेना बाकी पैसों का ड्राफ्ट बनवा देता हूँ। समय बहुत खराब है, सावधान रहना।'
'ठीक है सेठ जी,' कहकर मैं अपनी कोठरी में आ गया। थोड़े से कपड़े और कुछ खाने पीने की चीज़े थीं उन्हें एक झोले में ठीक से रखा। खाना बनाने की तैयारी करने जा रहा था कि बहू जी का सन्देश आ गया, खाना मत बनाना। यहीं खा लेना।
सेठ जी ने बहू जी को बताया होगा। त्योहारों पर बहू जी भोजन कराती थीं पर आज? आज मैं जा रहा हूँ पता नहीं लौट पाऊँ या नहीं। बहू जी ने सोचा हो या सेठ जी ने ही कहा हो भोजन करा देना। मैं कोठरी की सफाई करने लगा। सोचा, जाने के बाद किसी को यह न लगे कि कोठरी को गन्दी छोड़ गया है।
दोपहर को बहू जी भोजन कराते समय मेरे सामने ही बैठ गईं। वे बार-बार मुझे कुछ और लेने के लिए कहती रहीं। उनमें वात्सल्य भाव उमड़ आया थां 'पिता ठीक हो जाएँगे तो फिर आ जाना,' बहू जी ने रस घोलते हुए कहा, 'इस घर को तुमसे बहुत कुछ मिला है।' खाकर अपनी कोठरी में आकर बैठा था कि सेठ जी ने बुलवा लिया। ड्राफ्ट, टिकट और दस हज़ार नकद दिया। वे भी बहुत भावुक हो गए। मैं अपना झोला उठा चलने लगा तो बहू जी भी आ गईं। सेठ और बहू जी दोनों के लिए मैं एक सम्मानित व्यक्ति बन गया था। मेरी भी आँखें भर आईं। उन्हें प्रणाम कर मैं चल पड़ा।
रास्ते में पंजाराम मुझे याद आता रहा। कभी कभी छोटी छोटी घटनाएँ, कोई व्यक्ति, संगी-साथी बार बार याद आने लगता है। आप लोगों ने भी इसे अनुभव किया होगा। घर पहुँचा तो बापू का दाह संस्कार हो चुका था। चचेरे भाई ने दाह दिया था। वास्तव में बापू के निधन पर ही तार भेजा गया था पर मौत न लिखकर गम्भीर बीमार ही लिखा गया था। मुझे दुख हुआ यदि मैंने सेठ जी का फोन नम्बर घर पर दे दिया होता तो शायद मुझे सूचना जल्दी मिल जाती। तब भी दाह देने के लिए कहाँ पहुँच सकता था? होना तो यही था जो हुआ। गाँव वालों ने छुरी लोटा मुझे दिलवा दिया। तेरहवीं तक वे सभी काम मैं निपटाता रहा जो पंडित जी और गाँव के बुजुर्ग बताते रहे। तेरहवीं खिलाकर मुक्त हुआ तो ड्राफ्ट लेकर अपने खाते में जमा कर आया। माँ बहुत दुखी रहती। बापू की मृत्यु पर मैं उपस्थित नहीं हो पाया था यह बात उसे सालती रहती। कहती, 'अब न जाओ बेटा, नहीं तो मेरी मौत पर भी न पहुँच पाओगे।' मैं सोचता रहा। ठीक कहती है माँ। मैं ही इकलौता बेटा, माँ का एक सहारा। चार बीघे की खेती। अब बम्बई जाना सम्भव नहीं हो पाएगा। धीरे-धीरे एक वर्ष बीत गया। पिता जी की वर्षी हुई तो माँ शादी के लिए जोर देने लगी। मैं टालता रहा थोड़े दिन बाद माँ भी बीमार पड़ी। उसे कै-दस्त शुरू हो गया। दस्त में खून आने लगा। अस्पताल ले गया पर वह बच न सकी। दुखी मन से उसे गाँव लाया। दाह संस्कार किया। तेरहवीं के सभी संस्कार किए। मन जैसे उचट गया। घर में अकेला ही रह गया। इष्ट मित्र सभी शादी की चर्चा करते पर मैं टाल जाता। लोगों की छोटी मोटी मदद कर देता। लोगों को पता चल गया था कि मेरे खाते में कुछ पैसा जमा है। लोग अक्सर मुझसे पैसा माँगने आते। हजार, पाँच सौ तक मैं दे भी देता। मैं व्याज नहीं लेता था। गाँव में कुछ लोग ब्याज पर पैसे देते थे। पर मुझसे जो लोग ले जाते प्रायः नहीं लौटाते। मैं उन्हें तंग भी नहीं करता इससे निश्चिन्त रहते ।
गाँव के बच्चों को मैं पढ़ने के लिए प्रेरित करता। कुछ बच्चे ताश खेलते और अपने धन्धे में लग जाते। वे बहुत समझाने पर भी अपना रास्ता नहीं बदलते। मैंने गोंडा शहर में बहराइच रोड पर एक कोठरी ले ली। कभी वहाँ रह जाता, कभी गाँव चला आता। धीरे-धीरे गाँव जाना कम होता गया। एक वक़्त भोजन बनाता दोनो समय काम चला लेता। मैंने सामाजिक कार्यों में रुचि लेना शुरू किया। निर्धनों, बेसहारा लोगों से जुड़ा। यथा सम्भव उनकी मदद करने की कोशिश करता। पढ़ने की आदत पड़ चुकी थी। अतः पत्र, पत्रिकाएँ एवं पुस्तकें पढ़ना जारी रहा। अक्सर पुस्तकालय चला जाता। सुबह भोजन जल्दी बना लेता। कुछ खाकर गाँधी पार्क चला जाता। वहीं कभी पेड़ के नीचे, कभी बेंच पर बैठकर कोई पुस्तक पढ़ता। मिलने जुलने वालों से वहीं मिलता। एक दिन बहादुर दिख गया। मैंने उसे रोका। वह तुरन्त मुझे पहचान नहीं सका। मैंने बम्बई की बात बताई तो वह गले लग गया। कहने लगा, 'बहुत परेशान हूँ मैं। मेरे खेत को दूसरे लोगों ने अपने नाम करा लिया है।' मैं उसे पार्क में ले गया। वहीं उसकी सारी दास्तान सुनी। मैं भी बहुत दुखी हुआ। बहादुर अँगोछे में मक्का का लावा बाँधे हुए थे। दोनों लावा चबाते रहे और बात करते रहे। मैं ने उससे कहा, 'जब भी शहर आओ मुझसे ज़रूर मिलो। मैं वहीं गाँधी पार्क में मिल जाऊँगा। यथासंभव हम दोनों मिलकर इस समस्या का हल खोजेंगे।'
इसके बाद हम दोनों निरन्तर मिलकर, मुकदमें की पैरवी करते रहे। आज बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन का 'लज्जा' उपन्यास रेलवे स्टाल पर मिल गया। खरीद लाया। पूरा पढ़ गया। पुराने घाव फिर हरे हो गए। फिर वही प्रश्न । विविधता में जीना कब सीखेंगे हम ? दूसरे का भी सम्मान करना सीखें। पूरा विश्व इस समय आतंकवाद से जूझ रहा है। प्रश्न उठता है कि कोई आतंकवादी क्यों बनता है? ग्यारह सितम्बर को अमेरिका में बहुमंजिली इमारत को ढहाने का जो कार्य हुआ उससे उसे अफगानिस्तान और ईराक को सबक सिखाने का अवसर मिल गया। जो समर्थ है सब कुछ कर सकता है। शेर-बकरी की कथा भी यही सिद्ध करती है। शायद सद्दाम ग्यारह सितम्बर की घटना पर मुस्कराया था यद्यपि इसका भी कोई सुबूत नहीं पर उसे सज़ा भुगतनी ही थी क्योंकि जंगल का राजा शेर ऐसा चाहता था। जब से विश्व एक ध्रुवीय हो गया है शेर जो चाहता है, कर ही लेता है भले ही गीदड़ 'हुँवाँ हुँवाँ' करते रहें। इससे शेर की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। शेर, शेर है उसे सब कुछ करने का हक है। भारत, ब्रिटेन सभी जगह आतंकी घटनाएँ घट रही हैं। गोधरा और उसके बाद का दृश्य निरन्तर कचोटता है। भारत की संसद, मंदिरों के परिसर, आर्थिक केन्द्र सभी आतंकवाद के शिकार हुए। पर आतंकवाद की जड़ तक जाने का प्रयास कहाँ हो रहा है? न्यायालय भी पंगु हो रहे हैं। गवाहों को मार दिया जाता है। वे अपना बयान बदल देते हैं। गवाही के अभाव में अनेक आतंकवादी छूटेंगे ही। मारा जाता है सामान्य जन ही। आतंक के बीज कहाँ हैं इसकी तलाश करनी चाहिए। आत्मघाती मानव बम
मनुष्य ही बन रहा है कोई पशु पक्षी या जानवर नहीं। किसी गहरी समस्या या उन्माद का प्रकटीकरण आतंकवाद में दिख रहा है। उस समस्या का निराकरण करना होगा। स्वार्थो में उलझा, खाँचों में बँटा नेतृत्व क्या कुछ कर पाएगा?
कहीं ऐसा न हो पशु पक्षी के साथ भी आदमी आत्मघाती बम जोड़ दे? आदमी क्या नहीं कर सकता? कबूतर, तोते जब आत्मघाती बम लेकर उड़ेंगे, कैसा लगेगा? धार्मिक संगठनों के उन्माद का एक नया रूप उभर रहा है। उन्माद भड़काना बहुत आसान है। किसी स्वर्ग या जन्नत के नाम पर युवाओं को आग में कुदा सकते हो। आतंक के साथ शहीदी भाव विकसित किया जा रहा है। क्या इससे हम मुक्त हो सकेंगे?