Swayamvadhu - 19 in Hindi Fiction Stories by Sayant books and stories PDF | स्वयंवधू - 19

The Author
Featured Books
Categories
Share

स्वयंवधू - 19

बालकनी में-
"म्याऊँ!
", पहेली बगल में अपने खिलौने चूहे से खेल रही थी।
"तो हम लोंगो ने हँसो के जोड़े को चुना।", दिव्या ने कहा,
"क्या हो गया वृषाली इतनी गुमसुम क्यों बैठी हो?", साक्षी ने पूछा,
हमेशा की तरह वह मुस्कुराते हुए और 'कुछ नहीं' में सिर हिलाते हुए जवाब देने से बचने की कोशिश।
दिव्या ने कहा, "वह थकी हुई महसूस कर रही होगी। उसे ठीक होने के लिए आराम की ज़रूरत है।",
"यहाँ आराम करना चाहती हो? नरम धूप तुम्हें बेहतर महसूस करने में मदद करेगा, बस यहीं आराम करों।", कह दोंनो बालकनी से चले गए।
(ऐसा लग रहा है कि दुनिया खत्म होने वाली है।)
थोड़ी देर के आराम के बाद पहेली फिर मेरे पास आ गई। इन सब घटनाक्रमों कि वजह से पहेली ज़्यादातर वक्त मेरे साथ ही रहने लगी और हर एक पर अपनी पैनी नज़र बनाने लगी जैसे वो कह रही हो कि मैं तुम्हें सुरक्षित रखूँगी। प्यारी है ना?
वह मेरी गोद में बैठ कर लिपट गई और सो गई। उसके चेहरे पर संतुष्टि अनमोल थी। (ओह! वह म्याऊँ कर रही है। बहुत प्यारी!) वह इतनी प्यारी थी कि मैं उसे तुरंत खा जाना चाहती थी। मैंने भी एक छोटी सी झपकी ली और मेरा पेट और पहेली पेट खाने के लिए तैयार था।
"पहेली खाने के लिए तैयार?", मैंने उसके पेट को धीरे से सहलाते हुए उससे पूछा,
"...मियांउ...हियाऊँ...",
"...?! क्या? हा, हा, हा!", उसका जवाब बिल्कुल मानवीय भाषा में तानकर हाँ कहने जैसा था। मैंने पहेली को नीचे छोड़ दिया वो नीचे जाने के बजाए ऊपर की ओर दौड़ने लगी। मैं उसके पीछे भागते हुए गई। वह दूसरे माले के एक कमरे में चले गई। मैं उस कमरे के सामने खड़े हो गई। यह कमरा अधिक सरल था फिर भी अधिक स्वागतयोग्य था। मैं अंदर नहीं जाना चाहती लेकिन मुझे पहेली को अपने साथ ले जाना होगा।
"वृषा मुझे पंचायती ना समझे पर यह कमरा बँद रहने के लिहाज़ से कुछ ज़्यादा ही साफ नहीं, जैसे यहाँ कोई रहता हो?",
जैसे ही मैं अंदर गयी, मैंने वृषा दादी की एक खूबसूरत पेंटिंग देखी और उनके ठीक बगल में एक आदमी खड़ा था, शायद उनके पति होंगे। पहेली वहाँ धमा-चौकड़ी मचाए जा रही थी, उसे रोकना मुश्किल हो गया था। वह उस फोटो से खेलने लगी! (यह पुराना और अधिक महत्वपूर्ण लगता है। और इसे यहाँ रखा गया है मतलब...!)
"पहेली! बंदर नीचे उतरो!",
फोटो की कील से कर-कर आवाज़ आई रही थी।
(उसकी कील कमज़ोर है!)
(मैं इस कीमती चीज़ को किसी भी हालात में टूटने नहीं दे सकती।)कील लगभग उखड़ चुकी थी।
"पहेली अभी इस कमरे से बाहर निकलो और नीचे जाओ!... भार!",
'भार!'- कोड वर्ड जिससे उसे पता चले कि उसने बड़ी गलती की है और उसे पीछे हट जाना चाहिए।
वो बदमाश नीचे भाग गयी।
बिस्तर पर चढ़, मैंने फ़ोटो को बिना छुए जाँचा, इसे ठीक करने की आवश्यकता थी। मैं इस जूते से उस कील को ठीक नहीं कर सकती जो वृषा ने मुझे पहनने पर मजबूर किया था। मरे हुए कि इज्ज़त का सवाल था। कमरे के कोने पर मुझे एक लकड़ी का बक्सा दिखा जैसा वृषा के कमरे में देखा था। मैंने इसे लिया और बिस्तर पर चढ़ गयी और फोटो ठीक कर दी। ठीक करने के बाद मैंने देखा कि फोटो के ग्लास से एक सफेद-भूरी चीज़ निकली। वह कागज जैसा था, जो बिस्तर पर गिर गया।
(क्या मुझे इसे उठाना चाहिए या नहीं उठाना चाहिए?)
मैं दुविधा में थी और मैंने इसे नज़रअंदाज़ करने का चुनाव चुना और वापस चलने का निश्चय किया जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। लेकिन मैं भूल गयी थी कि मेरी किस्मत मेरी मामी है। लकड़ी के बक्से ने अचानक पानी से चिपचिपा कुछ तरल छोड़ना शुरू कर दिया और मुझे, उस कागज और बिस्तर को भिगा दिया। फिसलन से मैं फिसल कर बिस्तर पर गिर पड़ी और वह बक्सा मेरे माथे पर लगा। यह दर्दनाक था लेकिन मुझे जल्द-से-जल्द इस कमरे से बाहर निकलना था।
मेरे पास सभी कमरों तक पहुँच थी, इसलिए मैंने सभी गंदे कंबल ले लिए और उन्हें वॉशिंग एरिया में फेंका और एक साफ सफेद कंबल बिछा दिया, जिससे बिस्तर वैसे का वैसा हो गया और सारा कचरा अपने साथ ले बाहर चले गई। अपने कमरे में मैंने उसे खोला तो उसमें वृषा के नाम पर कुछ वसीयत थी... (ये हुई ना बात! अब मैं इसका उपयोग मुझे इस नरक से बचाने के लिए कर सकती हूँ!) मैंने उन सभी चीजों को अपने गुप्त क्षेत्र में छिपा दिया। मैं नहाकर नीचे जाने लगी। मैं सीढ़ी के पास पहुँची की वापस उल्टे पैर बालकनी और छिप गयी।

बीच घर में कैसे?
"वो इतने कैसे खुल सकते है?!", मैंने, दिव्या और मिस्टर आर्य उन्हें पूरी भावना से चूमते देखा। और मुझे लगता है कि उसने मुझे देख लिया तभी वो मुझे आँख मार रही थी। (अवर्णनीय! कोई इतना कैसे हो सकता है!?!)
मैंने अपने जीवन के तेईस साल में पहली बार ऐसा कुछ देखा था, आम तौर पर मैं सीरीयल या फिल्में जैसी कोई चीज़ नहीं देखती। अगर मुझे देखने के लिए मजबूर भी किया जाता तो मैं आम तौर पर इसे छोड़ देती लेकिन यह! यह ठीक मेरे सामने हुआ! मैं ना तो इसे छोड़ सकी और ना ही नजरअंदाज कर पाई। मुझे खतरनाक शर्म आ रही थी तो मैं वहाँ से भाग आई। इतनी शर्म कि मेरी भूख-नींद उस वक्त मर गई और साक्षी के बुलाने के बाद ही नीचे खाने के लिए गई। वृषा घर पर नहीं थे मतलब वो आज देर से आऐंगे। (मुझे उनके कमरे में फिर जाकर देखना होगा शायद उनकी तिजोरी में?)
खिचड़ी का निवाला लिया, गरम! (अई, अम्मा!) मैंने अपनी जलती हुई जीभ को शांत करने के लिए जल्दी से पानी पी लिया। जब मैं अपना कॉमेडी शो कर रही थी तब हर कोई उठने के लिए तैयार थे जबकि मेरा आधा ही हुआ था। मैंने सुना कि वृषा के कदमों के साथ-साथ अन्य कदम इस तरफ आ रहे थे। मैं मेरा खाना ले ऊपर निकलने के लिए उठी। मैं किसी अजनबी के सामने नहीं खा सकती।
"हमें आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद मिस्टर बिजलानी।", एक स्त्री कि आवाज़ आई,
(यह आवाज! यह नहीं हो सकता...) मैं बिना कुछ सोचे जल्दी से लिविंग रूम से उठी और वहाँ से भाग गयी।
धम! बँद! दरवाज़ा ज़ोर से बँद कर दिया!
मैंने दरवाज़ा बँद किया, इतने दिनों में मैंने पहली बार दरवाज़े को अंदर से बँद किया।
(...दी यहाँ कैसे?! क्या उन्होंने मुझे ढूँढ लिया? अगर ऐसा होता तो वह उन्हें धन्यवाद क्यों दे रही थी? क्या उनके पास चली जाऊँ? नहीं...नहीं!
अगर दी को पता चला कि मैं यहाँ अपनी मूर्खतापूर्ण सहमति से आयी हूँ... तब तो वो मुझे ज़िदा दफ़ना देगी! वृषा ज़्यादा ठीक है।)
बिस्तर पर सीधे दरवाज़े को घूरते हुए मेरी साँस फूलती जा रही थी।
"...फूऊउउह...आ...क्या करूँ मैं...", मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने कोई गंभीर अपराध किया हो, "हे भगवान! प्लीज़ मुझे बचा लीजिए! प्लीज़, भगवान जी।", मैं दी से इस हालत और हालात में नहीं मिलना चाहती। वो बिना राशन पानी के मुझपर चढ़ाई कर देगी।
दी का गुस्सैल स्वभाव हमारे विषैले परिवार का परिणाम था। एक गुस्से से भरी हुई और दूसरी का अस्तित्व का ह पता नही था।
जब मैं किसी से मिलना नहीं चाहती तभी मुझे मेरे दरवाज़े पर तेज़ धम की आवाज़ सुनाई दी। मैंने इसे नज़रअंदाज कर दिया लेकिन यह लगातार बजता रहा।
"मुझे अकेला छोड़ दो!", मैं अपनी काँपती आवाज़ में गुस्से से चिल्लाया जो दो कदम दूर खड़े आदमी को भी सुनाई ना दे।
"वृषाली, साक्षी! मिस्टर बिजलानी ने तुमसे कुछ चर्चा करने के लिए विषय को भेजा है। उसे तुमसे बात करने की ज़रूरत है।", उसने कहा,
मुझे याद आया, वृषा ने कहा था इस प्रोजेक्ट से वे हमारी काबिलियत देखना चाहते थे पर मैं अब तक कुछ खास नहीं कर सकी।
"बस पाँच मिनट।", मैंने आराम से कहना चाहा पर मेरा जाना-पहचाना डर मुझपर भारी पड़ रहा था।
मुझे अपने बिस्तर के कोने से उठना पड़ा। मेरे बैगी पैंट, हल्के हरे रंग की हुडी पहना और मेरे बालों को सभ्य दिखने के लिए ठीक कर स्टडी रूम में प्रवेश कर रही थी।
प्रवेश करते हुए कहा, "हाँ विषय? मैं विषय पर निर्णय नहीं ले पा रही हूँ। मुझे तुम्ह-...!!", वहाँ मैंने देखा कि मेरा डरावना सपना मुझे हैरानी + गुस्से से घूर रही थी।
मैं उस समय बहुत हैरान और डरी हुई थी, फिर खुश भी थी और नहीं जानती थी कि क्या करूँ और दरवाज़ा बँद कर दिया। फिर क्या?
मैं जानती थी कि मैंने कुछ नहीं किया लेकिन दोषी होने की भावना मुझे अंदर से खाए जा रही थी। उसी समय मैंने दरवाज़ा ज़ोर से खुलने होने की आवाज़ सुनी। मैं सहम गई,
"...वृषाली?", यह वही पूर्ण आत्मविश्वास वाला स्वर था,
"क्या यह... वास्तव में तुम हो?",
"...मुझे बताओ कि यह तुम हो?",
"वृषाली। मुझे पता है कि यह तुम ही हो, बस मुड़ो।", उनकी आवाज़ बेसब्र हो रही थी,
"क्या तुम्हें किसीने ने डरा रखा है? इधर दी को कहो।", मैं एक इंच भी हिलने में सक्षम नहीं थी, 
"मैंने कहा, मुड़ो!", मैं सहम गई। दी ने बहुत गुस्से में कहा।
उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे खींचकर कहा, "जब मैं तुम्हें बुलाऊँ तब तुम्हें जवाब देना चाहिए!"
उनकी मिश्रित भावनाएँ थीं लेकिन उसका गुस्सा चरम पर था, "..दी...?", मैंने गुस्से से बचने की कोशिश की लेकिन वह सुनने की सीमा पार कर चुकी थी।
"तो वो तुम थी जिसे चुना है?", उन्होंने कहा और गुस्से से फूट पड़ी,
"क्या?", मैं पूछना चाहा-
"उसी ने तुम्हारा अपहरण किया था और फिर हमें अपनी शक्ति दिखाने के लिए हमे आमंत्रित किया?!", वह गुस्से में भड़क रही थी,
"अब मुझे पता चला कि उसने मुझे क्यों आमंत्रित किया?
क्या उसने तुम्हें प्रताड़ित किया?
क्या उसने तुम्हें कैद कर रखा?
क्या उसने तुम्हें मारा-पीटा?
क्या उसने तुम्हें खाना खिलाया?
क्या उसने तुम्हारे साथ कुछ उल्टा-सीधा करने कि कोशिश की?
क्या उसने तुम्हें किसी तरह कि दवा दी थी?
क्या किसीने तुम्हें छूने कि कोशिश की?!", दी मुझ पर ऐसे प्रश्नों की बौछार कर रही थी कि मैं समझ नहीं पा रही थी और मुझे याद नहीं रहा कि वह क्या पूछ रही थी।
"...दी...", उन्होंने मुझे कुछ कहने की कोशिश करते हुए नज़रअंदाज कर दिया, वह और अधिक गुस्से में आ गईं और मुझे झंझोरने लगीं,
"डैम इट! तुम कुछ क्यों नहीं कह रही हो?!",
वह वृषा पर चिल्लाने लगी जो उस समय वहाँ खड़े थे।
"तू पापी! तुमने मेरी मासूम बहन को निशाना बनाया जिसे तुम कभी कही देखा नहीं था, जानते नहीं थे और उसका अपहरण कर लिया?!
तुम क्या हो? तुम खुद को समझते क्या हो? किसी रोमांटिक फिल्म के घिसे-पिटे नायक? जो दुनिया कि बर्बरता से बचाने के लिए अपने प्रेमिका का अपहरण कर यहाँ लाए हो!",
वह यहाँ नहीं रुकी। दी अपनी कभी ना खत्म होने वाली ऊर्जा और क्रोध के साथ वृषा पर चिल्लाए जा रही थी कि उन्होंने हमारे परिवार के साथ क्या किया,
"क्या तुम्हें ज़रा भी अंदाज़ा है कि तुम्हारे इस साहसिक कार्य के बाद हमारे परिवार का क्या हुआ होगा?",
वे चुप रहे।
"तुम्हारे कारण मेरे परिवार को आघात से गुजरना पड़ा!",
वे चुप थे।
"तुम्हारे वजह से मेरा परिवार बिखर गया। रो-रोकर मम्मी आधी हो गई थी! डैडी भी टूट गए थे। दोंनो को तुम्हारी वजह से उन लोगो के सामने झुकना पड़ा जिनकी गिनती तुच्छ में भी नीचे होती है!",
वे चुप रहे।
"तुम्हारे कारण मेरी बहन को 'प्लेगर्ल', 'चरित्रहीन' कहा जा रहा है। वह, जो एक मासूम शर्मीली बच्ची थी उसे आज लोग शर्मनाक नामों से बुला रहे है!",
ब्रर्रररर......
इस वक्त भी वे चुप रहे और सबकुछ नज़रअंदाज कर वहाँ से अपना फोन उठाकर चल दिए।
दी गुस्से से भड़क रही थी, "तुम्हें इसकी कीमत चुकानी होगी!",
वहाँ भैय्या बातचीत में आये, "उसका मतलब यह नहीं था! उसके कार्यों को गंभीरता से न लें। आपके माता-पिता के साथ पहले ही इस पर चर्चा हो चुकी है और यह उनकी सहमति से ही तय हुआ है। ",
"-'तय हुआ है'? तय कर लिया ने उसका मतलब क्या है?! क्या तय कर लिया?! उस आदमी से तय किया गया जिसकी बेटी उसके सामने बेहोश खून से लथपथ पड़ी थी, उससे तय 
किया गये कि वो क्या चाहता है, उसकी बेटी को उसे सौंप दे या ऐसे ही मरने तड़प तड़पकर मरता देखे?
ऐसे तय करना जिसमे उसे अपने बच्चो में चुनना पड़े में 'तय करना' कहाँ से आता है?
हमारे माता-पिता की कमज़ोरी का उपयोग करके, भाई को घायल करके और इस बेवकूफ का अपहरण करके वो क्या दिखाना चाहता था?
इन सबका कुछ मतलब बनाता है? एक ही मतलब बनाता है कि वो कमज़ोरो कि कमज़ोरी का फ़ायदा उठाना अपना बड़प्पन मानता है। वो माता-पिता होने कि वजह से अपने दो बच्चे के लिए शांत रह गए, पर मिस्टर मैं तुम्हें इतना बता दूँ हम इतने आसान नहीं है, तैयार रहो। चलो वृषाली!",
दी ने ऐसा कहा लेकिन फिर उन्होंने अचानक मुझसे पूछा, "तुम्हारा कमरा कहाँ है?",
मैं अभी भी पता लगाने कि प्रक्रिया में थी कि यहाँ आखिर हुआ क्या था?
"मुझे अनुमति दीजिए। यह इस कमरे का अगले वाला है। बालकनी के पास वाला ये, वृषा का है और यहाँ यह वृषाली का। यह वो स्टडी रूम है जहाँ वे एक साथ काम करते हैं।",
"एक साथ काम? हम्मम?...", दी क्या सोच रही थी मैं पढ़ नहीं पा रही थी।
"हाँ, मैम। वृषाली काफी प्रतिभाशाली है। वह अब इस युवक विषय के साथ नए थीम वाले कैफे पर काम कर रही है।", भैय्या ये क्या कह रहे थे और ये दी चाहती क्या थी? मैं क्या चाहती थी?
वह कुछ समय से मेरे कमरे में थी और वृषा दिखाई नहीं दे रहे थे लेकिन मैं उन्हें महसूस कर सकती थी। मेरे पूरे सिर और कानों में एक भिनभिनाहट की आवाज़ गूँजने लगी, यह परेशान कर रही थी। घर के सभी लोग सिर्फ देख रहे थे और गपशप कर रहे थे।
तभी एक हेल्पर आया और उसने मुझसे दी के बारे में पूछा और बोला, "उन्होंने कहा कि वो सुहासिनी राय के देवर है और उनका लैपटॉप लेकर आये हैं।",
"देवर?", शायद उस आदमी का भाई?
वह दी को प्रभावी ढंग से शांत कर रहे थे। पर ये कुछ जाना पहचाना है।
"मुझे रास्ता दिखाइए।", मुझे नीचे जाना पड़ा,
एक आदमी चेहरा दूसरी तरफ कर सोफे के पास खड़ा था।
"दी व्यस्त हैं लेकिन मैं उनकी छोटी बहन हूँ, आप मुझे यह दे सकते हैं।",
वह मेरी ओर मुड़ा, लैपटॉप को सोफे पर फेक वो मेरे इतना करीब आ गया कि मैं उसकी साँसों को खुद पर महसूस कर सकती थी।
"ओह! देखो तो यहाँ कौन है? लगता है मैं आज कुछ ज़्यादा ही व्यस्त रहने वाला हूँ। उस दिन का बचा हुआ काम यही पूरा करे?", उसकी नज़र मेरे पूरे शरीर पर घूम रही थी,
यह घृणित था लेकिन उसके इरादों जैसा नहीं, मैंने एक कदम पीछे हटकर पूछा, "क्या यह वह लैपटॉप है जिसे आप यहाँ डिलीवर करने आए हैं?" मैंने लैपटॉप की ओर इशारा किया,
अब उसने मुझे पीछे से पकड़ने की कोशिश की। मैंने उसके खींचने का इंतजार किया लेकिन किसीने मुझे पीछे खींच लिया गया। यह वृषा थे!
हर कोई नीचे की ओर आ रहा था। मैंने वृषा का हाथ छुड़ाया, दी ने उससे पूछा, "राज तुम यहाँ?",
"हाँ सुहासिनी, मेरे इस भुलक्कड़ भाई ने तुम्हारा लैपटॉप पीछे छोड़ दिया था उसे ही देने आया था।", उसने गिरगिट से तेज़ रंग बदल दिया,
"तुम वृषाली से मिले?", दी ने पूछा,
वह अच्छा नौटंकी करता था, "अभी-अभी मिला। तुमने जैसा कहा था छोटे कुत्ते बच्चे जैसी।",
(कुत्ते?)
दी उसकी बात पर हँसकर बात कर रही थी और यहाँ मैं सदमे में थी कि वो रेपिस्ट अब मेरा रिश्तेदार होने वाला था। मैं उन्हें सब कुछ बताना चाहती थी लेकिन उनके गुस्से से डर लगा। कही गुस्से में अपना भविष्य ना बर्बाद कर ले। मैं यह नहीं कर सकती...मैं यह नहीं कह सकती।
"हाँ! हम जल्द ही एक परिवार बनने जा रहे हैं इसलिए हमे अपनी जान-पहचान बढ़ानी होगी क्यों है ना सुहासिनी, शिवम?", मेरी तरफ मुस्कुराकर कहा, "क्यों है ना, वृषाली?",
मैं कुछ नहीं कह पाई।
"बस करो राज।", शिवम ने कहा,
मुझे अभी याद आया ये आदमी उस दिन होटेल में और उस तस्वीर में भी था...तो वो औरत दी थी और सब एक दूसरे को जानते थे?
तो मम्मा और डैडा सब जानते थे?
वृषा ने उनसे क्या सौदा किया और उन्होंने मुझे ऐसे ही छोड़ दिया?
क्या वादे अनुसार वे मेरी सलामती का खबर भिजवाते थे?
वह रुका और बोला, "अगर वृषा के दोस्त यहाँ रह रहे हैं तो मुझे लगता है कि मुझे भी यहाँ रहना चाहिए क्योंकि मैं भी उसका बचपन का दोस्त हूँ।  राइट वृषा?"
"तुम्हें जो करना है करो।",
वहाँ भैय्या ने फिर से वृषा के वाक्य को सही करते हुए कहा, "यह स्वयंवधू प्रतियोगिता का एक हिस्सा है इसलिए आप जब दो दिनों तक रह सकते हैं।",
"वैसे तो यहीं हमारा मुख्य काम था लेकिन अब परिस्थितियों को देखते हुए मुझे लगता है कि हमें यहाँ से चलना चाहिए...", उस आदमी, शिवम ने कहा,
"नहीं! मुझे मेरा काम आधा अधूरा छोड़ना पसंद नहीं और शिवम को भी। और मैं इस अद्भुत प्रतियोगिता को देखना चाहती हूँ।", ताने वाले टोन में दी ने कहा।

कुछ समय पहले,
वृषाली के कमरे के अंदर,
"प्रिय, वृषा बुरा आदमी नहीं है बस उसकी ज़बान ऐसी है।", शिवम ने सुहासिनी से कहा,
"अगर वो इतना अच्छा आदमी है तो उसने ऐसा क्यों किया? वृषाली के बदले हमे वो दिलाने आया जिसे हम खुद अपना करने वाले थे?!", पर सुहासिनी समझने को तैयार नहीं,
"पर तुमने उसके गले पर और वृषाली के हाथ नज़र नहीं डाला? वृषाली भी -", शिवम ने कोशिश की लेकिन सुहासिनी पर हर तरफा गुस्सा हावी था।
इससे सुहासिनी और अधिक चिड़चिड़ी हो गई, "वृषाली नहीं! स्टॉकहोम सिंड्रोम? क्या आप मेरे साथ मज़ाक कर रहे हैं? मैं सुनिश्चित करूँगी कि वह स्वतंत्र हो!",
"ठीक है! लेकिन अभी देखते हैं कि वे कैसे साथ रहते हैं। वह इससे बहुत सदमे में होगी, तुम्हें इसके बाद उसे मनाना चाहिए।", शिवम अभी भी धीरे से उससे बात कर रहा था और वह थोड़ा शांत होती दिख रही थी,
"जी।", शिवम इस दुष्ट समाज के लिए बहुत नरम स्वभाव के आदमी थे इसलिए सुहासिनी जैसी उसके लिए बिल्कुल उपयुक्त थी। न्याय की महान भावना वाली एक मज़बूत इरादों वाली स्त्री वह उसके साथ हुई सभी षड्यंत्रों से उसकी रक्षा कर सकती थी।

अब समय पर वापस-
अब यह तय हो गया है कि वे यहीं रहेंगे, मुझे काम पर जाना चाहिए और खुद को व्यस्त रखना चाहिए ताकि मैं हर पल मरने के बजाय साँस ले सकूँ और जी सकूँ।
"अगर ऐसा तय हो गया तो मैं दूसरी मंजिल के अतिथि कक्ष में तीन शयनकक्ष तैयार करवा दूँगी, इसमें कुछ समय लगेगा तब तक सब यहाँ आराम कर सकते है।
अभी छह बज रहे हैं और रात का खाना 8 बजे परोसा जाएगा। अगर आपको कोई ज़रूरत हो तो हमारे हेल्पर को बुला सकते है लेकिन ख़बरदार मैं उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं सुनना चाहती।", मैंने ये बात खासकर उस राज रेड्डी को देखते हुए कहा।
"मिस्टर खुराना और दिव्या कृपया आप सार्वजनिक रूप से अंतरंगता से बचें और दिव्या किसी भी शरारती चीज़ के बारे में मजाकिया विचार रखने की हिम्मत मत करना।",
"बू! तुममे कोई मज़ा नहीं है...", दिव्या को मेरा सुझाव ज़्यादा पसंद नहीं आया,
"धन्यवाद, लेकिन कृपया तुम्हें अपने परिवेश के बारे में पता होना चाहिए। बस इसे वहाँ करों जहाँ कोई ना हो और कोई कैमरा ना हो।", वह मुझ पर गर्व करते हुए मुस्कुराई,
"मुझे लगता है कि अभी के लिए बस इतना ही। यदि आपके पास पूछने के लिए कुछ है तो बस किसी से पूछ लेना।", पहेली मेरे बगल खड़ी थी, 
"पहेली तुम भी अपने खिलौने संभाल लो, जाओ। अच्छा बच्चा।", वो मेरी बात मानकर अपने खिलौने समेटने में लग गई।
दिव्या खुशी से मुझे लगाकर, "मेरी खड़ूस बच्ची वापस आ गयी है।",
"क्या? 'खड़ूस'?", साक्षी ने पूछा,
"हाँ मेरी निर्दय वृषाली जो मुझे टोकती रहे।"
सब बात कर रहे थे।
मैं भी दी से बात करना चाहती थी पर मेरी हिम्मत नहीं बन रही थी।
"दी...?", मैंने कोशिश की लेकिन मैं हिम्मत नहीं कर सकी।
"विषय काम पूरा करते है!", मैं खुद को व्यस्त रखना चाहती थी,
"अआ- मुझे लगता है तुम्हें-...", उसे बीच में टोककर, 
"बस इसे मुझे दे दो मैं इसे अकेले कर सकती हूँ।", मैंने उससे फ़ाइलें ले लीं और ऊपर अपने कमरे में चली गयी और दरवाज़ा बँद कर दिया।
मैंने खुद को उस काम के बोझ में डुबा लिया। अब यही एकमात्र तरीका था जिससे मैं अपने अपराध बोध से बच सकती थी। मैं काम पर इतना केंद्रित थी कि जब तक मेरा काम पूरा नहीं हो हुआ, मेरे ध्यान कही नहीं गया। मुझे प्यास लगी। मैं अपने लिए पानी का जग लेने नीचे गयी... गुरर्रर...
"लगता है अपराधबोध भी, भूख को नहीं हरा सकती?", मैंने खुद से कहा और भूखा रहने का फैसला किया।
"अगर तुम्हें भूख लगी है तो बस जो चाहो खा लो, अब तुम लगभग ठीक हो गई हो।", मैंने वृषा को वहाँ सोफे पर देखा, मैंने उन्हें नज़रअंदाज करना चुना, मुझे नहीं पता था कि कैसे प्रतिक्रिया दूँ।
मैंने चलने की कोशिश की तो उन्होंने कहा, "अगर तुम्हारे मन में कुछ है तो बस पूछो, 'बातचीत जवाब पाने का सबसे अच्छा तरीका है।' याद है किसीने पहले मुझसे कहा था? चलो बात करते हैं।", जिसने मुझे रोक दिया।
मैं सोफ़े पर हमारे बीच तीन हाथ की दूरी बनाकर बैठ गयी, आमतौर पर यह डेढ़ हाथ की दूरी होती थी।