Resident Night - 11.59 in Hindi Fiction Stories by Harsh Pal books and stories PDF | Resident Night - 11.59

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Resident Night - 11.59

प्रस्तावना
 अंतरा इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ। मालदा, पश्चिम बंगाल। 17 जून1998। उस रात फिज़ा की कैफियत कुछ अजीब ही थी। मूसलाधार बारिश ने आमों का शहर कहे जाने वाले मालदा की सड़कों को रात आठ बजे ही वीरान कर दिया था और ब्लैक आउट ने समूचे शहर को काली चादर में समेट लिया था। अस्पताल की इमारत भी निविड़ अँधकार से अछूती नहीं थी। राहदारी से लेकर रोगियों के वार्ड तक में रोशनी का और कोई जरिया उपलब्ध नहीं था, सिवाय लालटेनों के। इमारत में वीरानी थी और अगर भू-तल के कॉरिडोर के आख़िरी छोर पर मौजूद रिसेप्शन काउंटर की कुर्सी पर बैठी उस नर्स को, जो मोमबत्ती की रोशनी में किसी बहीखाते की खानापूर्ती में मशरूफ थी, नजरअंदाज कर दिया जाता तो फिलहाल अस्पताल में एक परिंदा तक नहीं नुमाया हो रहा था। काउंटर के पीछे वाली दीवार में कुछ ऊँचाई पर खिड़की थी, जिसकी कांच से तूफानी हवाएं अपना सिर टकराकर ये जता रही थीं कि बारीश के थमने के दूर-दूर तक कोई आसार नहीं हैं। लगभग दस से बारह मीटर के फासले पर टंगे लालटेनों के बावजूद उस लम्बी राहदारी का अधिकाँश हिस्सा अँधेरे में गर्त था। कुल मिलाकर अस्पताल का वर्तमान सेनेरियो ऐसा था कि उस क्षण अगर कोई नया इंसान वहाँ अपनी आमद दर्ज करा लेता तो उसे रामसे के किसी फिल्म के सेट की उपमा देने में तनिक भी संकोच न करता। हालाँकि अस्पताल में नर्स अकेली नहीं थी क्योंकि थोड़े समयांतराल पर परिवेश में पदचापों की गूँज या फिर वार्डबॉयज या नर्सों की बातचीत की आवाज़ सुनाई दे जा रही थी। बहीखाते की खानापूर्ती में नर्स की मशरूफियत का आलम ये था कि वह उस आदमी के कदमों की न तो आहट भाँप सकी और न ही उसकी झलक पा सकी, जो राहदारी में दाखिल होने के बाद सीधा काउंटर की ओर बढ़ा चला आ रहा था। नर्स को उसके आगमन का अंदेशा तब हुआ, जब वह काउंटर के ऐन सामने पहुँचकर ठिठका और गला खंखारकर उसका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। नर्स ने दृष्टि ऊपर उठायी और मोमबत्ती की पीली रोशनी में उस आदमी की शक्ल को तवज्जो दी। “घोष बाबू।” नर्स के भावों से लगा कि वह आगंतुक को पहचानती थी- “आप रिसेप्शन काउंटर पर? कोई मदद चाहिए?” “मदद नहीं, इजाजत चाहिए।” आदमी ने भावहीन स्वर में कहा। नर्स की व्यवसायिक मुस्कान का उस पर कोई असर नहीं हुआ था।
“कैसी इजाजत?” नर्स कलम कागज़ पर छोड़कर उससे पूरी तरह मुखातिब हुई। “मैं किसी को ले आया हूँ।” “किसी..किसी को ले आये हैं?” नर्स अचकचाते हुए बोली- “मगर किसे? डॉक्टर दास अभी-अभी तो मिसेज घोष का चेकअप करके वापस गए हैं।” “वह कोई डॉक्टर नहीं है।” घोष ने पूर्ववत् स्वर में कहा। “ड..डॉक्टर...डॉक्टर..नहीं है? तो फिर किसे ले आये हैं आप और क्यों ले आये हैं?” नर्स के चेहरे पर प्रतिकार नजर आने लगा। “क्योंकि मैं समझ चुका हूँ कि केस मेडिकल साइंस के दायरे से बाहर जा चुका है।” घोष ने लहजे पर जोर देकर कहा- “आप लोग मेरी पत्नी को ठीक नहीं कर सकते हैं। जब आप अपने सभी नुक्ते आजमाकर हार जायेंगे तो उसे पागलखाने भेज देंगे।” नर्स ने कोई उत्तर नहीं दिया। शायद वह भी कहीं न कहीं घोष की बातों से इत्तेफाक रखती थी और सहानुभूति भी। “हाँ, अंत में यही करेंगे आप लोग।” घोष ने नम्र पड़ते हुए कहा। “किसे ले आये हैं आप?” कुछ सोचने के बाद नर्स ने गहरी साँस लेकर पूछा। “प्लीज मेरे साथ आइये।” नर्स ने बहीखाते को बंद किया और मोमबत्ती को हाथ में लेकर घोष के पीछे-पीछे चल पड़ी। घोष उसे लेकर इमारत के मुख्य दरवाजे पर पहुँचे, जहाँ काले साये की शक्ल में कोई खड़ा था। वह जो कोई भी था, बाहर फ़ैले अँधेरे में इस कदर घुल-मिल गया था कि हवाओं के अंधड़ से उसके कपड़ों के उड़ने पर ही उसके वहाँ खड़े होने का भान हो पा रहा था। उसका दीदार करने के लिए नर्स ने मोमबत्ती का रुख उसकी ओर किया लेकिन अगले ही क्षण चौंककर पीछे हट गयी। कारण कि मोमबत्ती की पीली रोशनी में उसने एक भयानक चेहरा देखा था। “य...ये...ये किसे ले आये हैं आप?” नर्स का लहजा यूँ काँप रहा था, जैसे उसने मौत को देख लिया हो। उसकी हिम्मत दोबारा उस साये पर रोशनी डालने की नहीं हुई। “मेरे पास कोई रास्ता नहीं था।” घोष के लहजे में अफसोस भी था, पछतावा भी था और दीनता भी थी। “तो ये रास्ता चुन लिया आपने?” नर्स ने हिकारत भरे लहजे में कहा। “मैं बस अपनी पत्नी को ठीक करना चाहता हूँ, जो आप लोग नहीं कर पा रहे हैं।” घोष ने अधीर लहजे में कहा- “प्लीज सिस्टर, डू मी अ फेवर।” “और डॉक्टर दास? उन्हें क्या जवाब दूँगी मैं?” “उन्हें कुछ पता नहीं चलेगा। ये ज्यादा वक्त नहीं लगायेगी।”

नर्स ने शुष्क हो रहे अधरों पर जुबान फेरी और हिम्मत करके मोमबत्ती की रोशनी दोबारा उस साये पर डाली। वह जीर्ण-शीर्ण काया वाली एक बुढ़िया थी, जिसके बाल सन की मानिंद श्वेत थे। उसका झुर्रीदार चेहरा भी इस कदर सफ़ेद था कि आभास होता था मानो लम्बे समय से पानी में पड़ी कोई लाश उठकर आ गयी हो। वह अपनी कृशकाय काया का बोझ लाठी पर डाले हुए काँप रही थी। नर्स को अपनी ओर देखता पाकर उसके होंठ फैले, वह मुस्कुराई और इस दशा में उसकी मुखाकृति भयानक होने के साथ-साथ रहस्यमय भी हो उठी। नर्स ने भय और घृणा से चेहरा दूसरी ओर घूमा लिया। “य...ये है कौन घोष बाबू?” वह मोमबत्ती का रुख घोष की ओर करते हुए पूछी। “डायन है।” घोष ने दो टूक लहजे में जवाब दिया- “अब यही मेरी वासु को ठीक कर सकती है।” ‘डायन’ शब्द सुनकर नर्स को अपना जिस्म ठण्डा पड़ता महसूस हुआ। वह बुढ़िया की ओर तो नहीं देखी लेकिन ये अनुमान जरूर लगाई कि घोष की बेबसी पर वह मुस्कुरा रही है। “क्या आप सही कर रहे हैं?” नर्स के लहजे में इस बात को लेकर अब भी नायकिनी बरक़रार थी कि वह आदमी एक डायन को लेकर आया था। “मेरा धैर्य अब धराशायी हो चुका है सिस्टर।” घोष ने नर्स से निगाहें चुराते हुए कहा- “सही और गलत को पहचानने की मेरी कुव्वत नाउम्मीदी के उन घने बादलों में खो चुकी है, जो मेरे दिल-ओ-दिमाग पर छाये हुए हैं। मैं....मैं नहीं जानता कि अंजाम क्या होगा लेकिन इतना जरूर जानता हूँ कि अंजाम जो भी होगा, उसे भुगतने के लिए मेरी वासु मेरे साथ होगी, मैं अकेला नहीं होऊंगा।” नर्स ने कुछ नहीं कहा और एक नजर फिर से बुढ़िया पर डाली, जो अँधेरे में काले साये की शक्ल में निश्चल खड़ी थी। घोष ने नर्स के मौन की पहचान उसकी सहमति के रूप में की और फिर बुढ़िया से मुखातिब होकर बोले- “चलो।” बुढ़िया लाठी संभाली और उसकी ठक-ठक से राहदारी में फ़ैली खामोशी के गाल को थपथपाते हुए घोष के पीछे-पीछे आगे बढ़ी। उन दोनों के पीछे-पीछे मोमबत्ती थामे हुए चल रही नर्स को बार-बार ये एहसास हो रहा था कि बुढ़िया का रुख भले ही आगे की ओर था लेकिन उसकी निगाहें उस पर ही ठहरी हुई थी। अच्छी-खासी बारिश के कारण वातावरण में पर्याप्त शीतलता थी, बावजूद इसके नर्स के माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा रही थीं। कुछ देर पहले थोड़े समयांतराल पर अस्पताल के अन्य कर्मचारियों की जो आवाजें सुनाई दे रही थीं, वे भी करीब दस मिनट से खामोश थीं। फिलहाल स्थिति ऐसी थी, जैसे अस्पताल में उन तीनों के अलावा कोई और हो ही न। घोष का रोमांच से बुरा हाल था तो नर्स का डर से। थोड़ी देर में वे दोनों बुढ़िया को लेकर पहली मंजिल के एक वार्ड के दरवाजे पर पहुँचे। वार्ड के दरवाजे के ऊपर लिखे ‘तेरह’ को देखकर आज नर्स को पहली दफा ये याद आया कि तेरह की संख्या को अपशकुन से जोड़कर देखा जाता है अन्यथा इससे पहले उसे ये तेरह भी सामान्य संख्याओं जैसा ही नजर आता था। अस्पताल के बाकी हिस्सों की तरह वार्ड में भी लालटेन के अलावा रोशनी का कोई स्रोत नहीं था।