Komal ki Diary - 5 in Hindi Travel stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कोमल की डायरी - 5 - ओस सी पवित्र मुस्कान

Featured Books
Categories
Share

कोमल की डायरी - 5 - ओस सी पवित्र मुस्कान

पाँच 

ओस सी पवित्र मुस्कान                                                                          गुरुवार, उन्नीस जनवरी, 2006

आज सुबह ठंडक कुछ अधिक थी। मैं सबेरे उठा तो आसमान साफ था पर थोड़ी ही देर में कुहरा छाने लगा। उगते सूर्य को देखा नहीं जा सका। अखबार वाले गिनकर बताया करते हैं कि प्रदेश में ठंड से कुल कितनी मौतें हुई। उंगलियाँ कनकना रही थीं। रोटी के लिए आटा सान मैंने स्टोव जलाया। तवा रख दो रोटियां सेंकी। उसी पर मूली का साग छौंक दिया। भोजन किया पर कुहरा छँटा नहीं था। मैं सोच रहा था कि आज जेन और सुमित संभवतः अपनी यात्रा स्थगित कर दें। मैं गाँधी पार्क पहुँचा। दोनों वहाँ पहले से डटे हुए थे। ठंड से बचने के लिए जैकेट पहने हुए। 'भाई साहब आपने कोई?' जेन के मुख से निकला ही था कि मैं कह गया, 'मैंने कुर्ते के नीचे एक स्वेटर पहन लिया है, आप चिन्ता न करें।' आज श्रावस्ती देखने की योजना थी। थोड़ी देर में टैक्सी आ गई। हम तीनों उसमें बैठ गए। 'किसी समय यह क्षेत्र गौतम बुद्ध के पदचाप से निनादित था। अपने जीवन के पच्चीस वर्षावास उन्होंने श्रावस्ती में बिताए।' सुमित ने बात प्रारम्भ की। 'पर वैदिक धर्म में दीक्षित ब्राह्मणों के बहुत से गाँवों का भी उल्लेख मिलता है जैसे इच्छा नंगल, उकट्ठा उग्गनगर, उजुका, मनसाटक, तोरणवस्तु, नलकपान, दंडकल्प, नगरविंद, सेतव्या, वेणुद्वार, कामंडा, पांडुपुर, कट्टवाहन आदि।' जेन ने जोड़ा। कहा जाता है कि इच्वाकु की आठवीं पीढ़ी में युवनाश्व के पुत्र श्रावस्त ने श्रावस्ती बसाई । उनके पुत्र वंशक के कार्यकाल में बनकर तैयार हुई। राम ने अपने बेटे लव को श्रावस्ती का राज दिया। उन्होंने इसे विकसित करने का पूरा प्रयास किया। श्रावस्ती उत्तर कोशल की राजधानी थी। पर आज एक खंडहर है।''क्या राजधानियाँ अभिशप्त होती हैं ? बार-बार उन्हें उजड़ना और बसना क्यों पड़ता है ?' मेरे मुख से निकल गया। 'तुम्हारे प्रश्न का उत्तर यदि नगरियाँ दे पातीं तो शायद कोई बात बनती।' सुमित कह कर मुस्करा दिए। 'इसी सन्दर्भ में शायद कहा जाता है कि दलितों के जीवन को दलित ही अधिक अच्छी तरह लिख सकते हैं।''तब तो हाथी के बारे में हाथी लिखेगा, खरगोश के बारे में खरगोश।' सुमित कह गए।'हाथी और खरगोश में भी तो वर्ग होंगे? बच्चा बूढ़े के बारे में कैसे लिखेगा? नारी पुरुष के बारे में और पुरुष नारी के बारे में कैसे लिख सकेगा?' जेन ने अपना चश्मा उतार लिया था।'अनुभव करने की वृत्ति होनी चाहिए। अनुभव को व्यक्त करना एक कला है। विभिन्न खेमों में बाँट कर अनुभव की विभिन्न दृष्टियाँ तो बन सकती हैं पर किसी के बारे में अपने अनुभव लिखने का अधिकार तो सभी को है। क्या जानवर मनुष्य के बारे में कोई अनुभव नहीं रखते? यदि उनका कोई अनुभव है तो उसे व्यक्त किया जा सकता है। अनुभव कितना प्रामाणिक है यह बात अलग है।''अनुभव की प्रामाणिकता को कौन जाँचेगा। जो जाँचेगा उसकी अपनी दृष्टि उसे प्रभावित नहीं करेगी ?''अवश्य करेगी ?''तब''हाँ तब, एक सीमा तक ही प्रामाणिकता की बात की जा सकती है।''महात्मा बुद्ध के अधिकांश उपदेश भी जेतवनाराम परिसर से ही प्रसारित हुए। वर्षावास के लिए श्रावस्ती ने उन्हें अधिक आकृष्ट किया।''पहली बार उन्हें श्रावस्ती आने के लिए आमंत्रित किया था श्रेष्ठी सुदत्त ने। उन्हें अनाथपिंडद भी कहते हैं न?' जेन कुछ याद करती रहीं। 'हाँ, शास्ता ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया। सुदत्त उन्हें टिकाने के लिए उपयुक्त स्थल की खोज करने लगे। राजकुमार जेत का उपवन उन्हें उपयुक्त लगा। पर वह उपवन तो राजकुमार का था बिना उनकी अनुमति के उस पर किसी तरह का निर्माण कैसे किया जा सकता था? सुदत्त ने राजकुमार से सम्पर्क किया। जेत संभवतः उसे देने के पक्ष में न रहे होंगे पर मुँह से निकल गया मुद्राओं से ढक कर ले सकते हो ? सुदत्त तो किसी भी मूल्य पर जेतवन चाहते थे। उपवन मुद्राओं से ढका जाने लगा। जब उपवन का थोड़ा सा अंश शेष रह गया तो जेत ने रोक दिया। पर तब तक अठारह करोड़ मुद्राएँ बिछाई जा चुकी थीं।सुदत्त ने छत्तीस करोड़ और खर्च किया। अठारह करोड़ निर्माण में तथा अठारह करोड़ साज-सज्जा तथा अन्य व्यवस्था में। अवशेष उपवन में जेत ने स्वयं भव्य द्वार बनवा दिया।''जेतवनाराम के अतिरिक्त पूर्वाराम का भी उल्लेख मिलता है।' जेन ने टोक दिया। 'हां। केवल पूर्वाराम ही नहीं, राजकाराम, मल्लिकाराम के साथ ही अन्य छोटे-छोटे विहार और भी थे। पूर्वाराम एक हजार गर्भ कोठरियों से मंडित था, पांच सौ नीचे और पांच सौ ऊपर। इसको श्रेष्ठी मिगार की पुत्र वधू विशाखा ने एक उपवन क्रय करके बनवाया था। मिगार की प्रारम्भ में बौद्ध धर्म में रुचि न थी पर पुत्र वधू के प्रभाव से बौद्ध धर्म में आए। इसीलिए विशाखा को मिगारमाता भी कहा जाता है।' 'और राजकाराम?' उसे प्रसेनजित ने भिक्षुणियों के आवास के लिए नगर के भीतर बनवाया था, मल्लिकाराम को रानी मल्लिका ने ।'मैं सुमित और जेन के इस वार्तालाप को सुनता रहा। इन लोगों ने यहां के आसपास के बारे में काफी अध्ययन किया है। 'गांवों की क्या स्थिति थी ? क्या वे भी शास्ता के विचारों से प्रभावित थे?' मैंने पूछ लिया।'बौद्ध साहित्य में उस समय के अनेक गाँवों का विवरण मिलता है। ब्राह्मण समुदाय के अधिकांश जन वैदिक कर्मकाण्डों में विश्वास करते थे। अपनी शालाएँ भी चलाते थे। कुछ ब्राह्मणों को बुद्ध की शरण में जाते भी दिखाया गया है। प्रसेनजित भी पहले वैदिक धर्म में आस्था रखते थे पर धीरे-धीरे बौद्ध धर्म की ओर झुकाव हुआ। सत्ता जब किसी धर्म को अंगीकृत कर लेती है तो उससे जुड़ी प्रजा में भी वह धर्म अपनी जड़ें जमा लेता है।''ठीक है। ऐसा था। पर बुद्ध विरोधी जन भी थे। यह बात बौद्धों के ही साहित्य से स्पष्ट होती है।''समाज में विविधता होती ही है। पर अनेक चमत्कारिक घटनाएँ भी उनसे जोड़ दी जाती हैं।''वह तो होना ही है जब उन्हें अवतार के रूप में प्रतिष्ठित किया जाएगा। गौतम बुद्ध ने परात्पर शक्ति का कोई चित्रण नहीं किया। वे ऐसे प्रश्नों का उत्तर नहीं देते थे। उन्होंने समाज के कष्ट को समझने की कोशिश की। उसके निदान के लिए तत्पर हुए। आज के बाबाओं की तरह वे वातानुकूलित कारों में नहीं घूमे। चाहते तो वे भी रथों का उपयोग कर सकते थे पर उन्होंने पैदल चलकर धरती नापी। मच्छरों ने भी उन्हें तंग किया पर वे सामान्य जन की तरह रहे। जन्मना श्रेष्ठता का उन्होंने विरोध किया। स्पष्ट कहा, 'न तो जन्म से कोई ब्राह्मण या शूद्र होता है।' यह उस समय कहा गया जब परम्परागत रूप से जन्मना श्रेष्ठता प्रतिष्ठापित थी। बड़े साहस का काम था यह ?''था ही, पर क्या 'अप्प दीपो भव' का उद्घोष कोई सामान्य घटना है? मेरा मन श्रद्धा से भर जाता है जब मैं उनका यह उपदेश पढ़ती हूँ- देखो भिक्षुओं, क्या तुम कहना चाहते हो कि चूंकि हम अपने गुरु को आदर की दृष्टि से देखते हैं, इसीलिए उस आदर के कारण ही हम उसके अमुक अमुक वचन पर विश्वास करते हैं, तुम्हें ऐसा न करना चाहिए क्योंकि क्या जिसे तुमने अपनी आँखों से देखा अथवा अपनी बुद्धि से तोला,वह सत्य न होगा।''थेरी गौतमी को शास्ता ने जो उपदेश दिया उसे सुनो तो गहराई तक उतरने में सहायता मिलेगी।''क्या थी शिक्षा?''बताता हूँ, सुनो-ऐसी कोई भी शिक्षा जिसके विषय में तू निश्चयपूर्वक कह सकती है कि यह शान्ति के मार्ग पर ले जाने की अपेक्षा वासना की और ले जाती है, नम्रता की ओर न ले जाकर अभिमान की ओर ले जाती है, न्यूनतम की अपेक्षा अधिकाधिक की ओर ले जाती है, निष्कपट पुरुषार्थ की अपेक्षा निष्कर्मण्यता की ओर ले जाती है, एक ऐसे मन की अपेक्षा जिसे संतुष्ट करना सरल हो, ऐसे मन की ओर ले जाती है जिसे संतुष्ट करना कठिन हो-तो हे गौतमी, ऐसी शिक्षा धर्म शिक्षा नहीं है।''उपभोक्तावादियों के लिए तो यह बहुत कड़वी दवा है।''निष्कामकर्म, न्यूनतम में गुजर-बसर तो यहाँ की मुख्य शिक्षा रही है।''पर इस पर कोमल भाई साहब ही खरे उतरेंगे।'मैं जैसे चौंक गया। पूछा, 'मैं ही क्यों?''इस क्यों का उत्तर तो आप अच्छी तरह जानते हैं।' जेन के इस कथन पर सुमित मुस्करा उठे।'पर हजार वर्षों के अन्दर ही श्रावस्ती उजाड़ क्यों हो गई?' मैं पूछ बैठा।'फाह्यान ने भी श्रावस्ती को काफी कुछ ध्वस्त देखा।''हज़ार वर्ष तो बहुत होते हैं भाई साहब। यहाँ तो सौ-दो सौ वर्ष में ही नगर उजाड़ हो जाते हैं।' सुमित जैसे कुछ खोजने लगे।'नगरियाँ जरूर ध्वस्त हो गईं, पर विचार कहाँ मरते हैं! भारत में बुद्ध धर्म का पुनर्नवन भी दिखता है।' जेन बोल पड़ीं।'उस समय भी वंचित, व्यवस्था से पीड़ित बुद्ध धर्म की ओर आकर्षित हुए थे, आज भी हो रहे है।''राजन्य, सम्भ्रान्त ओर श्रेष्ठी क्या बौद्ध धर्म में नहीं गए? 'वे तो गए ही पीड़ित भी काफी थे। शास्ता की वाणी एवं कर्म ने उन्हें बाँध लिया', सुमित ने व्याख्या की। 'वंचन एवं पीड़ा की आग जल्दी बुझती नहीं चाहे वह थेरी आम्रपाली हो या कोई और।' 'क्यों, क्या आम्रपाली पीड़ित नहीं थी ?''थी क्यों नहीं? आम्रपाली की कथा पढ़कर मेरे शरीर में आग लग जाती है सुमित।''क्यों ?''क्यों? तुम यही पूछोगे ही, पुरुष हो न ?''क्या पुरुष होना अपराध है?''काश! पुरुष होना अपराध न होता। आम्रपाली की भी इच्छा भी कि वह अपना घर बसाए। पर वैशाली का वह प्रजातंत्र उसकी भावना को घोट कर पी गया। धिक्कार है उस प्रजातंत्र पर जहाँ नारी स्वयं सहभागी का निर्णय न कर सके। इतनी सुन्दर नारी किसी एक के साथ कैसे रह सकती है? वह सभी के मनोरंजन का साधन हो। नगरवधू होना ही पड़ेगा उसे। सभी ने मिलकर निर्णय किया था। यही है आपका सहभागी प्रजातंत्र ? नाम दिया गया जनपद कल्याणी। कैसा अमोघ तंत्र विकसित किया था लोगों ने?'प्रजातंत्र तो अब भी है। हम इसी तंत्र में रह रहे हैं।''पर यह तंत्र भी तो अपराध और माफिया तंत्र में बदल रहा है। आम्रपाली को भी वही सब झेलना पड़ा जो हम झेल रहे हैं। यद्यपि आम्रपाली ने कड़ी शर्ते लगाई थीं पर वे सब स्वीकार कर ली गईं।''शर्तें ?''हाँ, उसने शर्तें रखी थीं रहने के लिए सप्तभूमि प्रासाद समस्त सज्जा एवं वैभव सहित तथा नौ कोटि स्वर्णभार, आवास की दुर्गीय व्यवस्था तथा उसके यहाँ आने जाने वालों पर गणिकाध्यक्ष की जाँच से मुक्ति।''क्या ये शर्तें मान ली गईं ?''हाँ, तीसरी में किंचित संशोधन किया गया था। गणिकाध्यक्ष पूर्व सूचना देकर कहीं कोई छानबीन कर सकते थे।''उसे कितना कष्ट हुआ होगा इसका अनुमान करना कठिन है सुमित। उसकी स्थिति में अपने को रखकर सोचो। शास्ता की शरण में आकर उसे शान्ति मिली। वह गा उठी- 'उच्चवादि वचनं अनथा।' सत्यवादी के वचन अन्यथा नहीं होते ।''सोचकर दुःख मुझे भी होता है। उसको नगरवधू बना देना बहुत बड़ी त्रासदी थी। यह त्रासदी प्रजातांत्रिक मुखौटे में घटी। इससे ही मिलती-जुलती घटनाएं उस समय और भी घटती रहीं। प्रसेनजित और कलिंग सेना की उम्र में कितना अन्तर था ? पर शादी हुई। कलिंग सेना ने अन्ततः स्वीकार ही कर लिया। आज भी हम विवाह में बच्चों को स्वतंत्रता कहाँ दे सके हैं ? उस समय बालिकाओं को नागकन्या बनने के लिए विवश किया जाता था, वह भी जनहित के नाम पर। अब तो घूस भी जनहित के नाम पर लिए जा सकते हैं।''क्या घूस ?''हाँ घूस भी।' जैसे ही सुमित ने कहा गाड़ी वीर विनय चौक से श्रावस्ती की ओर मुड़ रही थी। गोण्डा से बलरामपुर के बीच की चालीस किलोमीटर दूरी कैसे कट गई, पता ही न चला। दोनों तन्मयता से वार्तालाप कर रहे थे। रास्ते के किसी भी दृश्य पर कभी नजर टिकी ही नहीं। मैं उनकी बातों को सुन रहा था। 'श्रावस्ती की ओर हम मुड़ रहे हैं', मैंने कहा।'क्या श्रावस्ती आ गई ?' जेन ने प्रश्न किया।'नहीं अभी कुछ दूर है पर हम उसी रास्ते पर चल रहे हैं। आधे घण्टे में पहुँच जाएँगे।' मैंने बताया ।'अब बातें बन्द ।' जेन ने सुझाया। सुमित भी चुप हो गए। गाड़ी चल रही थी। सभी खेतों की हरियाली देख मग्न थे। लांग कसे बथुए एवं सरसों का साग खोंटती कुछ महिलाएं, सलवार कमीज़ में लड़कियाँ, खिलखिलाकर हँसती हुई। बीच बीच में गन्ने के खेत प्रेमकुंज की भूमिका निभाते। बच्चे विश्व की घमाचौकड़ी से अनजान, अपने में मग्न। गाड़ी निकल रही थी। कुछ खेतों में सरसों के खिले फूल वासन्ती राग छेड़ते हुए। पेड़ पीछे भागते हुए। आमों के बाग जैसे कुचियाँने को आतुर। कोहरा छँट चुका था। सूर्य की किरणें झलमलाती दिख रही थीं। उनमें जेठ का वह ताप कहाँ? दीवारों से सँटे जहाँ-तहाँ लोग धूप सेंकते हुए। पछुआ बहने लगी थी। खंजन मगन मन चुगने थिरकने के लिए पेड़ों से ज़मीन पर उतर आए थे। हम लोग सड़क के दोनों ओर देखते, कभी इस तरफ कभी उस तरफ। एक खेत में पानी चल रहा था। गेहूँ संभवतः देर से बोया गया था। गेहूँ में अभी बालियां नहीं निकली थीं। पचासों बगुले खेत में अपना भोज्य प्राप्त करने के लिए जुट गए थे जैसे किसान ने उन्हें आमंत्रित किया हो। कभी उड़ते कभी झपट्टा मारते कभी आत्मलीन संन्यासी से दिखते। केंचुए या दूसरे कीट दिखते ही गप कर जाते ।'बोरिंग यहाँ आसानी से हो जाती है ?' जेन ने पूछा।'हाँ', मेरा संक्षिप्त सा उत्तर था। हम लोग श्रावस्ती पहुँच रहे थे। सड़क के बाईं ओर कुछ मंदिर दिखने लगे। गाड़ी सीधे जेतवन के प्रांगण में रुकी। इसे सहेट कहा जाता है। कई और टोलियाँ भी श्रावस्ती देखने के लिए आईं थीं। टिकट लिया, मुख्यद्वार से हम लोग जेतवन में घुसे। सुमित ने अपना नक्शा निकाल लिया था। वे हमें और जेन को बताते जाते। गया के बोधिवृक्ष से लाई गई कलम से अनाथ पिण्डद सुदत्त द्वारा आरोपित आनन्द बोधि वृक्ष, गन्धकुटी जो शास्ता का आवास थी, करेरि कुटी, कोसम्बकुटी आदि को इंगित करते हुए सुमित ने हमें भ्रमण कराया। द्वार कोट्ठक जिसे कुमार जेत ने बनवाया था, पूर्वाराम, ओड़ाझार आदि देखकर श्रावस्ती की विशालता का कुछ अनुमान लगाया जा सकता था। म्यांमार, चीनी एवं थाई मंदिरों को देखा गया। महेठ की यात्रा करते समय अंगुलिमाल से सम्बद्ध स्थल देखते समय एक बज रहा था। जेन ने अपने बैग से आठ समोसे का एक पैकेट निकाला। दो-दो समोसा चालक सहित हम लोगों ने खाकर पानी पिया। थोड़ी हरी दूब देखकर बैठ गए। धूप अच्छी लग रही थी।'    सुमित पाल्थी मार कर बैठ गए। हम लोगों से कहा, 'सुनिए ।' 'कहें आचार्य', जेन ने अभिनय किया।प्रातः का समय तथागत के साथ भिक्षुओं के समूह सरयू पार करने के लिए नावों पर बैठे। वरुण के बेटे पानी को ढकेलते हुए नावों को खेते। पाल वाली बड़ी नावें। सरसर करती हवा। हवा में हलकी खुनक। तथागत की नाव पर आनन्द भी। दोनों पद्मासन की मुद्रा में। ईंगुरी दिनकर की छाया जल पर पड़ते ही पूरी सरयू ईंगुरी हो गई। दिनकर रंग के साथ ही जलधारा भी रंग बदल रही है। क्या चेतना के स्तर भी ज्योति पाकर इसी भाँति रंग बदलते हैं? धीरे-धीरे पीत होकर धवल शुभ्र रूप धारण कर रहा है सूर्य। धारा भी चाँदी की भांति चमक उठी है। तथागत धारा में उठती लहरों को देख रहे हैं। मुखमण्डल पर अभूतपूर्व मुस्कान। यही तो तथागत की शक्ति है। वे कहते हैं आनन्द अन्दर से उत्पन्न होता है। जन जन उनकी इसी मुस्कान पर मुग्ध है। राजपाट छोड़ दिया। जन समूह उनके पीछे भागता है। जन जन को सुखी बनाने निकल पड़े हैं वे। आनन्द शास्ता की बगल में बैठे उनके मन को पढ़ रहे हैं। शास्ता को भी भान हो जाता है। पूछ लेते हैं, 'आनन्द क्या देख रहे हो ?' 'भगवन के भावों को पढ़ने का प्रयास कर रहा रहा हूँ।?''मेरे भावों को?''हाँ।''अपने भावों को पढ़ो।''यत्न करूँगा भगवन् ।'       तट निकट आने लगा। भिक्षुओं के एक दल ने 'बुद्धं शरणं गच्छामि' दूसरे ने 'धम्मं शरणं गच्छामि' तथा तीसरे ने 'संघ शरणं गच्छामि' का उद्घोष किया।' इसके साथ ही अभिनय करते हुए जेन ने कहा, 'आचार्य शरणं गच्छामि।'मुझे हँसी आ गई पर सुमित आचार्य की गुरु गंम्भीर मुद्रा बनाए रहे। पुनः सुनाने लगे 'तब तक नावें तट पर आ लगीं। भिक्षु उतरने लगे। तथागत की नाव भी तट पर लगी। भगवन् नाव से उतरे। आगे आगे भगवन् उनके पीछे आनन्द। उनके पीछे भिक्षुओं का समूह चल पड़ा। भगवन को तटपर ही बताया गया कि आगे दस्यु आतंक मचाए हुए हैं। भगवन् हँस पड़े। 'कोई बात नहीं, आगे बढ़ो आनन्द।' शास्ता की मधुर आवाज़ निकली। शास्ता के साथ ही सभी चल पड़े। रास्ते में निकट के ग्रामवासी शास्ता की एक झलक पाने के लिए दौड़ पड़ते। तथागत की मुस्कराती मुद्रा देख उनके चेहरों पर प्रसन्नता उमड़ पड़ती। शास्ता के कदमों की गति तेज़। सभी भिक्षुक लपकते हुए। आनन्द शास्ता के साथ किसी के पास विशेष भार नहीं। कभी कभी कदम अपने आप मिल जाते। जन जन को उद्वेलित करने वाली यात्रा। साकेत से श्रावस्ती राजमार्ग पर निरन्तर लोग चलते रहते। तेज़ रथ दौड़ते हुए दिन भर में साकेत से श्रावस्ती पहुंच जाते। छः योजन की दूरी खेल-खेल में नाप लेते। यदि आवश्यक होता तो अश्व बीच के अड्डों-तोरणवस्तु, सेतव्या आदि में बदल दिए जाते। श्रेष्ठियों के खनखन करते रथ, माल ढोने वाली गाड़ियाँ निरन्तर चलती रहतीं। उसी राजपथ पर आज जन समूह का रेला। शास्ता साकेत से श्रावस्ती जा रहे हैं।तोरणवस्तु नगर के निकट आम्रवन में पड़ाव। जनसमूह ने दल का स्वागत किया। सायं शास्ता का प्रवचन हुआ, 'जो भ्रान्तियों से मुक्त नहीं हुआ उसे मद्यपान का त्याग करना, नग्न रहना, सिर मुड़ाना, मोटे कपड़े पहनना, पुरोहितों को दान देना, देवताओं को बलि चढ़ाना आदि कर्म कभी पवित्र नहीं कर सकते।' भिक्षुओं और सामान्य जनों ने सुना, उसे देर तक गुना।       प्रातः पुनः यात्रा शुरू हुईं। तोरणवस्तु के आगे का मधुवन। घनी महुवारी। सूर्य की रश्मियाँ कहीं-कहीं झाँकती। मोर और पपीहा बोलते। बीच-बीच में कलकंठी इतराकर कहती, 'कू'। इस क्षेत्र में अंगुलिमाल का आतंक। उसका नाम सुनकर ही लोग काँप जाते। वह लोगों को मारकर उनकी तर्जनी काट लेता है। बहुत कम लोगों ने देखा होगा उसे। पर उसके क्रियाकलापों के बारे में अनन्त किंवदंतियाँ। जितने मुँह उतनी बातें। अफवाहों ने उसे और हवा दी। उंगलियों की माला पहनता है वह। गाँव के गाँव उसके आतंक से उजड़ने लगे हैं। श्रावस्ती नरेश प्रसेनजित भी चिन्तित हैं। उसे काबू में लाना है चाहे उसका वथ ही करना पड़े।'भय लग रहा है आचार्य। कहीं अंगुलिमाल निकट ही...।' जेन ने हाथ जोड़ लिया। पर सुमित पर जैसे कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मैं उनकी बातें सुनता रहा। वे अपनी रौ में पुनः आ गए।'अंगुलिमाल को पता लग गया कि शास्ता आज राजपथ से श्रावस्ती जा रहे हैं। वह सोचने लगा, 'निन्न्यान्नबे उंगलियाँ हो चुकी हैं। यदि शास्ता की भी उंगली ले ली जाय तो सौ उंगलियों की माला पूरी हो जाएगी। अपना उद्देश्य पूरा होते दिखा उसे। सुनता हूँ पूरी तरह अभय हैं वे। डर उन्हें छू नहीं गया है। देखूँगा कैसे हैं वे? आज मेरा अर्घ्य पूरा हो जायगा। सुनता हूँ जो भी उनके सम्मुख पड़ता है, प्रभावित हो ही जाता है। लोग कहते हैं उनकी मुस्कान ओसकणों सी पवित्र है। वे अभयदान देते हैं। लोगों को हिंसक कर्म से विरत करते हैं। पर मुझे क्या ? मुझे तो अंगुलिकर लेना है। आ गए हैं वे, मधुवन के निकट ही। चलता हूँ। खड्ङ्ग ले लूँ। कर लेकर रहूँगा। पवित्रात्मा की उंगली से समावर्तन। कैसा संयोग ? कितना उत्तम अवसर।' अंगुलिकर लेने निकल पड़ा वह, हाथ में खड्ग लिए। माँ भोजन की थाल लेकर आ गई है। 'नहीं, अवसर चूकना नहीं चाहिए। पवित्रात्मा से अंगुलिकर।' माँ पुकारती रह गई। 'बेटा, बेटा।' वह निकल गया खड्ग लपलपाता। शास्ता दिख गए। यही तो वह चाहता था। अंगुलिमाल को देखकर लोगों में भय व्याप गया था पर शास्ता मुस्करा रहे हैं। अंगुलिमाल बढ़ गया।शास्ता की आँखों में आँखें डालकर कहा, 'ठहरिए। अंगुलिकर दीजिए।' शास्ता की आँखें देख रही हैं। आँखों से आँखें मिलीं तो मिली ही रह गईं। अंगुलिमाल थरथरा उठा।'मैं सम्यक सम्बुद्ध हूँ। तुझे पीने के लिए धर्म रस का कर देता हूँ। देख तेरी माँ की आंखें आंसुओं से भरी हैं। तेरे लिए भोजन लेकर आई है। तुम दुर्मति आचार्य के वश हो अधर्म को धर्म समझ दूसरों के प्राण लेते हो। जैसे तुम हो वैसे ही दूसरे लोग हैं। तुम्हारा शरीर खून से दूषित है। घातक तीखा शस्त्र अपने कन्धे पर धारण करना तुम्हें शोभा नहीं देता। अंगुलिमाल उंगलियों की इस माला को हटा दो। किसी विद्वान पुत्र का क्या यह कार्य है ? तुम मोह के अन्धकार में पड़े हो। अधर्म को धर्म समझने वाले तुम जैसे प्राणी घोर कष्ट भोगते हैं। अपने को पहचानो अंगुलिमाल। अपने भीतर झाँको।' आँखों और अधरों ने काम किया। अंगुलिमाल का खड्ग गिर गया। वह संबुद्ध के चरणों में झुक गया। शास्ता ने उसे उठा लिया। 'शरण दें भगवन्।' 'अपनी माँ के चरण पड़कर क्षमा माँगो। उनसे प्रव्रज्या और उपसम्पदा के लिए अनुमति लो।' अंगुलिमाल ने देखा पीछे माँ थाल लिए खड़ी है, उसके पैरों पर सिर रख दिया। 'माँ मुझे प्रव्रज्या की अनुमति दो।' माँ विह्वल हो उठी, 'भगवन्, क्षमा कर दें भगवन्। अपनी शरण में ले लें। बहुत सहा है इसने। भगवन्....।' माँ बिलख पड़ी। 'माँ, तेरी इच्छा पूरी होगी। भगवन् की मुस्कान आश्वस्त करती रही। इतना कहकर जैसे ही सुमित ने साँस ली, जेन कह उठी, 'प्रश्न हैं आचार्य ।''रुको' सुमित ने कहा। 'ज़रा पानी पी लूँ।' जेन ने पानी की बोतल निकालकर सुमित को दिया। दो घूँट जल पीकर सुमित आश्वस्त हुए। सुमित का यह रूप मेरे लिए बिलकुल नया था।'आचार्य, दो प्रश्न मेरे दिमाग में कुलबुला रहे हैं।' जेन से न रहा गया। 'कहो।' 'आखिर यह अंगुलिमाल कौन था ? इसका कोई अता-पता है ? वह उंगलियाँ क्यों काटकर रखता था ?''जेन तुमने सही प्रश्न किया। कौन था यह अंगुलिमाला ? बताया जाता है कि श्रावस्ती का माणवक था। अठारह वर्षीय युवक को माणवक कहा जाता है। कुछ लेखों में उसका नाम अहिंसक भी मिलता है। 'अंगुलिमाल सुत्त' में प्रसेनजित के राजपुरोहित गग्ग तथा उनकी पत्नी मतानी का पुत्र बताया गया है। महायानी आलेख में इसे दरिद्र ब्राह्मण पुत्र बताया गया है। वह स्वस्थ सुन्दर दर्शनीय तथा कुशाग्र बुद्धि का था। एक आलेख तक्षशिला का विद्यार्थी बताता है तो दूसरा उसे ग्राम हलहसे श्रावस्ती निवासी आचार्य मणिभद्र का शिष्य। पर इस पर सभी सहमत हैं कि अध्ययन समाप्त होते आचार्य माणवक से रुष्ट हो गए। उन्होंने हत्याकर तंत्र साधना की सलाह दे दी। आचार्य के रुष्ट होने का कारण अलग अलग बताया गया है। कुछ में कहा गया है कि माणवक पढ़ने में बहुत तेज़ था इससे अन्य विद्यार्थी ईर्ष्या करते थे। उन्होंने प्रयास करके माणवक से आचार्य को रुष्ट करा दिया। महायानी आलेख में यह बताया गया है कि आचार्य मणिभद्र शाला से बाहर गए हुए थे। मणिभद्र की पत्नी युवा थी। वह अपने को निर्वसन कर माणवक के सामने कामाचार की इच्छा से उपस्थित हुई। माणवक ने उसे माँ कहकर हाथ जोड़ लिया। गुरुपत्नी ने अपने को एक खम्भे में बाँध लिया और नाखून से शरीर पर निशान बना डाले। मणिभद्र लौटे। पत्नी को बँधी देखकर उसके बन्धन को खोलते हुए पूछा, 'शुभे, तुम्हें किसने ऐसा करने को प्रेरित किया।' पत्नी ने बताया कि आपके शिष्य माणवक ने मुझसे अनुचित कर्म करना चाहा। मैं सहमत नहीं हुई तो नोच-घसोट कर मुझे खम्भे में बाँध दिया। आचार्य को निश्चित रूप से क्रोध आया होगा। उन्होंने तांत्रिक अभिचार की खोह में ढकेल दिया। एक सौ लोगों को मारकर उनकी उंगलियों की माला बना पहनो तभी तेजस्वी ब्राह्मण हो सकोगे।' बताते हुए सुमित की आवाज़ भर्रा गई थी। हम और जेन भी आचार्य के निर्णय से अत्यन्त दुःखी हुए।'अध्यापक चाहे  तो बच्चे को खन्दक में ढकेल दे।' जेन के मुख से निकल गया। 'हर युग में ऐसे अध्यापक मिल ही जाते हैं।' मैं भी सोचता रहा।'कितना जघन्य कृत्य है यह ?' सुमित का भी अन्तर्मन कराह उठा था। कुछ क्षण हम लोग मौन बैठे रहे, बात नहीं निकली। 'कितने ही अनाथ, गरीब ही नहीं, समर्थ बच्चों को भी अन्धी खोह में ढकेला जा रहा है। हम कुछ कर नहीं पा रहे हैं।''बिलकुल सच कह रहे हो सुमित।' जेन की आवाज़ निकली। 'अंगुलिमाल के साथ आगे क्या हुआ?' मैंने पूछ लिया।'तथागत अपने साथ उसे सेतव्या होते हुए श्रावस्ती ले आए। प्रसेनजित उससे तंग थे ही, पांच सौ सैनिकों के साथ उसे पकड़ने के लिए निकले। वे शास्ता से मिलते हुए जाना चाहते थे। शास्ता से उन्होंने अपनी योजना बताई। तथागत ने राजा से पूछा कि यदि तुम अंगुलिमाल को सिर मुड़ाए चीवर धारण किए भिक्षु के रूप में पाओ तो क्या करोगे?'मैं उसका उचित सम्मान करूँगा।' राजा ने कहा। तब तथागत ने अपने दाहिने पार्श्व में बैठे भिक्षु की ओर राजा का ध्यान आकर्षित किया।यह भी कहा कि अब इनसे भय का कोई कारण नहीं है।''आवश्यकता की वस्तुएँ राजकोष', से प्रसेनजित के कहते ही, 'मेरे पास तीन चीवर हैं।' अंगुलिमाल ने उत्तर दिया। जेतवनाराम में शास्ता शिष्यों के साथ बैठे। अभी तक भिक्षु बारी-बारी से शास्ता का चीवर, पात्र लेकर परिचर्या करते थे। एक बार उनके पात्र एवं चीवर लुटेरों के हाथ लग गए जब परिचारक नाग समाल उन्हें चौराहे पर छोड़ शास्ता से भिन्न दिशा की ओर चला गया था। कुछ अन्य परिचारकों ने भी शास्ता के संकेतों पर ध्यान नहीं दिया। आज की तरह सफेदपोश लुटेरे नहीं थे तब। शास्ता को लगा कि परिचर्या के लिए किसी को लगाना पड़ेगा। उन्होंने कहा, 'मेरी अवस्था बढ़ रही है। मुझे विश्वसनीय परिचारक की आवश्यकता है।' सारिपुत्त खड़े हुए। उन्होंने परिचर्या के लिए अपने को प्रस्तुत किया। 'आपको बहुत से दायित्वों का निर्वहन करना है', शास्ता ने कहा। मोग्लान उठे। अपनी सेवाएं अर्पित की। शास्ता ने उन्हें भी अन्य कार्यों में लगे रहने के लिए कहा। बारी-बारी से शिष्य अपनी सेवाएं अर्पित करते रहे पर शास्ता ने स्वीकार नहीं किया।आनन्द चुपचाप बैठे थे।शास्ता की दृष्टि उनपर पड़ी। वे उठे, 'मैं प्रस्तुत हूँ पर भगवन् से कुछ निवेदन करना चाहता हूँ।''कहो', शास्ता ने कहा।'भगवन् के निमित्त दी गई वस्तुओं को अपने लिए नहीं स्वीकार कर पाऊँगा।' शास्ता हँस पड़े, कहा 'ठीक है।''व्यक्तिगत आमंत्रण के समय भी साथ रहने को मिले।''वह तो रहना ही होगा।' शास्ता के अधरों पर पुनः मुस्कान तैर गई।'जो भी मिलने के लिए आएगा उसे भगवन् तक पहुँचाने का अधिकार मिले।' 'तुम्हारा यह अधिकार सुरक्षित है।''मेरी उपस्थिति में जो भी उपदेश दिए जाएँ उसे भगवन की सन्निधि में दुहरा सकूँ।' 'इसकी आज्ञा है आनन्द।' शास्ता ने कहा। सुमित इतना बताकर जैसे ही चुप हुए, जेन कह उठीं 'क्या उठने की आज्ञा है आचार्य ?' हम सभी उठते हुए हँस पड़े। सुमित का प्रवचन जारी रहा। उन्होंने कहा, 'श्रावस्ती बौद्धों के साथ ही जैनियों का भी तीर्थस्थल है। तीसरे तीर्थंकर संभवनाथ का गर्भ, जन्म, तप एवं केवल ज्ञान कल्याणक श्रावस्ती में ही सम्पन्न हुआ। आठवें तीर्थकर भगवान चन्द्रप्रभ भी श्रावस्ती में ही पैदा हुए। जैन ग्रन्थों में श्रावस्ती को चन्द्रपुरी कहा गया है। जितशत्रु नरेश के पुत्र मृगध्वज ने श्रावस्ती के उपवन में मुनि दीक्षा ली। भगवान महावीर का पदार्पण भी कई बार हुआ था।' हम लोग गाड़ी में बैठ गए। जैन मंदिर सोभनाथ परिसर में गाड़ी रुकी। पुरातत्त्व विभाग द्वारा लगाया गया सूचना पट्ट सूचित कर रहा था, 'यह जैन मंदिर है। सोभनाथ भगवान संभवनाथ का अपभ्रंश ज्ञात होता है। संभवनाथ तीसरे जैन तीर्थंकर थे और उनकी जन्मभूमि श्रावस्ती थी। यहाँ से कितने ही जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इस मंदिर के किसी विशेष भाग की कोई निश्चित तिथि नहीं तय की जा सकती। इसके ऊपर का गुम्बद भी उत्तरकालीन भारतीय अफगान शैली का है, प्राचीन जैन मंदिर के शिखर के स्थान पर बनाया गया है।' कनिंघम आदि पुरातत्व-वेत्ताओं की मान्यता है कि इस मंदिर के आसपास अठारह जैन मंदिर थे। इन अवशेषों पर पेड़ और झाड़ियाँ उग आई हैं। चारों ओर का जंगल अवशेषों पर ही है। कुछ लोगों का विश्वास है कि भगवान चन्द्रप्रभ का जन्म स्थान यहीं था और वह ध्वस्त मंदिरों में कोई एक था।'         दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन मंदिरों के नए रूप काफी आकर्षक लगे। दिगम्बर जैन मंदिर के सिंहद्वार पर अश्वारोही सुहेलदेव की मूर्ति देखकर जेन ने पूछ लिया, 'सुहेलदेव कौन थे ?''ये श्रावस्ती नरेश थे जिन्होंने सैय्यद सालार मसऊद को हराया था।' मैंने बताया। जैन मंदिरों को देखकर हम निकले तो थाई उपासिका बंगकोट सिथीपाल द्वारा स्थापित अन्तरराष्ट्रीय ध्यान केन्द्र देखने के लिए गाड़ी मुड़वा दी। थाईलैण्ड में आज भी बौद्ध धर्म का प्रभाव अधिक है। बैंकाक में बौद्धभिक्षुओं की टोलियाँ हर जगह दिख जाएंगी। बौद्ध धर्मस्थल थोड़ी-थोड़ी दूर पर साफ सुथरे चमकते हुए। उपासिका बंगकोट सिथीपाल को भी बौद्ध धर्म ने आकृष्ट किया। वे अपना बैंकाक ब्यूटी स्कूल छोड़ आन्तरिक सौन्दर्य की साधना में लग गईं। मई, 1954 में अरण्य प्रतेत प्राचीनबरी प्रान्त थाईलैण्ड में जन्मीं वे बुद्ध, धम्म एवं संघ की शरण में आ मनुष्य के निर्माण में लगीं। सम्पूर्ण मानवता उनका परिवार हो गया। उन्होंने कंचनबरी थाईलैण्ड में बुद्ध धम्म अन्तराष्ट्रीय ध्यान केन्द्र की स्थापना की। उसी की एक शाखा श्रावस्ती में। वे आत्मिक सुख शान्ति के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था करती हैं। धम्मभूमि जिसका वे निर्माण कर रही हैं, में सभी धर्मों का आदर करते हुए मानवीय एकता एवं शान्ति का पाठ पढ़ाया जाता है। ध्यानकेन्द्र में कार्य निरन्तर चल रहा है। जितना कुछ बन गया है वह बहुत भव्य है। ध्यानकेन्द्र, आवासीय खण्ड सभी साफ सुथरे, सौन्दर्य को पारिभाषित करते हुए। छोटे-छोटे बरगद के वृक्ष जो थाईलैण्ड से लाकर लगाए गए हैं, अच्छे लगते हैं। उपासिकाओं से बातचीत मोहक रही। उनकी सेवाभावना देखकर मन प्रसन्न हो उठा। ध्यान केन्द्र में शुद्धजल पिया गया। सुमित और जेन थोड़े से समय में सब कुछ जान लेना चाहते थे। लगभग एक घण्टा हम लोगों ने वहाँ बिताया। गाड़ी में बैठे और गोण्डा के लिए चल पड़े। रास्ते में सभी के मन में कई प्रश्न घुमड़ रहे थे।'किसी मान्य परम्परा के विपरीत कोई व्यवस्था देना अत्यन्त कठिन होता है। गौतम को भी जन जन तक अपनी बात पहुँचाने में कितना कष्ट उठाना पड़ा। जन नेतृत्व पर भी तीखी नज़र रखता है। उसे आग में तपाता है। कंचन बन कर निकले तभी उसे स्वीकार करता है। नेतृत्व स्वयं तप सकता है पर संघ का संचालन कठिन दायित्व है। समस्याएँ तथागत को घेरतीं। वे उनका निराकरण कर आगे बढ़ते।' सुमित गंभीर मुद्रा में बात कर रहे थे।'आज का नेतृत्व तो तपना ही नहीं चाहता।' जेन ने टिप्पणी की।'ठीक कहती हो तुम। इसीलिए जन विश्वास भी उन्हें प्राप्त नहीं है।' सुमित कहते रहे। 'त्याग की भावना ही ख़त्म होती जा रही है', मेरे मुख से भी निकल गया। 'हम सबने दिशा ही बदल ली है। अधिक से अधिक उपभोग की दिशा त्याग के बिलकुल विपरीत है।''पर उस समय दस्यु अधिक सक्रिय थे। ऐसा क्यों?' जेन बोल पड़ीं। 'आज के नियम उस समय कहाँ थे। छोटे-छोटे राज्य उनके अपने अलग नियम । शक्ति का बोलबाला। जंगलों का आधिक्य ? एक ओर ऋषि तुल्य लोग साधना में रत तो दूसरी ओर दस्यु अपना वर्चस्व बनाने में संलग्न। दस्यु भी कभी श्रेष्ठियों, राजकोषागारों को लूटकर गरीबों असहायों में बांटते। इसीलिए जन समर्थन पाते। समाज रचना बड़ी जटिल होती है। इसमें अन्तर्विरोध साथ-साथ चलते हैं। मुख्य प्रश्न होता है अन्तर्विरोधों का समाहार।' सुमित बताते रहे। प्रश्नोत्तर का क्रम चलता रहा।'क्या सत्ता का लाभ इस क्षेत्र में बौद्धधर्म को मिलता रहा?' जेन ने प्रश्न कर दिया। आज सुमित का आचार्यत्व देखने लायक था। बिना किसी कागज पत्र को देखे वे अपनी बात कहते रहे जैसे वे सभी दृश्यों को हस्तामलक देख रहे हों। मुझे भी आश्चर्य हो रहा था।'नहीं, पुष्यमित्र और मिहिरकुल के शासन काल में बैदिकधर्म के कर्मकाण्ड अधिक महत्व पा गए। पुष्यमित्र के समय यवन सम्राट मिनान्डर ने साकेत पर आक्रमण किया किन्तु सफल नहीं हुआ। पुष्यमित्र ने उसे लौटने के लिए विवश किया। पुष्यमित्र के समकालीन गोणिकापुत्र गोनर्दीय महाभाष्यकार पतंजलि थे। पुष्यमित्र को शुंग वंशीय ब्राह्मण बताया जाता है। पाणिनि उसे भरद्वाज ब्राह्मण तथा कालिदास काश्यप गोत्री बताते हैं। उसने विशाल यज्ञ किए जिसमें पतंजलि ने भी भाग लिया। बौद्ध ग्रन्थों में पुष्यमित्र को बौद्धों का द्रोही चित्रित किया गया है। साकेत उसकी राजधानी थी। उसके काल में अनेक बौद्ध स्तूप एवं विहार नष्ट किए गए। मिहिरकुल ने शाकल (स्यालकोट) को राजधानी बनाया था। गन्धार तक उसका शासन था। कहा यह जाता है कि वह बौद्ध धर्म को जानना चाहता था। इस हेतु उसने बौद्ध संघ से किसी योग्य भिक्षुक को भेजने के लिए कहा। संभवतः कोई श्रेष्ठ भिक्षु तैयार नहीं हुआ। राजपरिवार के एक पुराने भृत्य को जो भिक्षु हो गया था, संघ ने भेज दिया। इस पर वह क्रुद्ध हो गया। उसने अनेक स्तूपों एवं विहारों को ध्वस्त कराने का कार्य किया। नरसिंह बालादित्य ने मिहिर कुल को परास्त कर दिया था पर उसकी माँ ने उसे क्षमादान दिला दिया। कहा जाता है बालादित्य मंदिर उसी समय बना बालादित्य नगर भी विकसित हुआ। वही बहराइच बन गया। कुछ लोग बहराइच को भरों से जोड़कर भराइच का रूपात्तर बताते हैं।'बातों में ही हम लोग गोण्डा आ गए। महिला अस्पताल चौराहे पर मैंने राम राम कहा और अपने आवास पर आ गया। शाम के आठ बज रहे थे। उंगलियाँ फिर कनकनाने लगी थीं।