Komal ki Diary - 2 in Hindi Travel stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कोमल की डायरी - 2 - शहर एक गांव है

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कोमल की डायरी - 2 - शहर एक गांव है

दो 
शहर एक गांव है
                               इतवार, पन्द्रह जनवरी, 2006 

            आज नित्य की भांति, मैं गांधी की मूर्ति के पास अशोक के पेड़ के निकट बैठा था। एक युवती एवं युवा झोला लटकाए वहीं पहुंच गए। मूर्ति का चित्र खींचा। उस समय वहाँ और कोई नहीं था।
दोनों मेरे पास आ गए। अपना नाम सुमित और जयन्ती बताया। सुमित जयन्ती को जेन कहता है। दोनों जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हैं। गोण्डा की धरती के सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिवेश का अध्ययन करने आए हैं। सामान्य परिचय के बाद ही उन्होंने इस अध्ययन में मेरा सहयोग मांगा। अपनी रुचि के कारण यथाशक्ति सहयोग के लिए मैं प्रस्तुत हो गया। वे प्रसन्न हुए। गोण्डा के बारे में उन्होंने काफी अध्ययन कर रखा है। पढ़े हुए तथ्यों का सत्यापन एवं वर्तमान का आकलन ही उनका मुख्य उद्देश्य है।
'यह मूर्ति तो इटैलियन संगमरमर से बनी है।' सुमित ने कहा।
'इसको बनाने वाला इटैलियन कलाकार कौन था?' सुमित के पूछते ही जयन्ती ने नोटबुक से देखकर बताया, 'एन्टोनियो मारजोलो। इस पार्क को पहले एडवर्ड पार्क कहा जाता था। इसकी स्थापना 1902 में हुई थी। एक वर्ष पूर्व एडवर्ड सप्तम् का ब्रिटेन में राज्यारोहण हुआ था। उन्हीं की स्मृति में यह पार्क। प्रतिमा की ऊँचाई साढ़े नौ फुट है। प्रतिमा का मॉडल राजकीय आर्ट्स एवं क्राफ्ट कालेज लखनऊ के प्राचार्य राय चौधरी ने बनाया था।' जयन्ती बोलती गईं।
'मूर्ति तो अच्छी है।' सुमित थोड़ी देर तक निहारते रहे। जयन्ती ने भी चारों ओर घूम कर मूर्ति को देखा।
'मूर्ति स्थापित कब हुई ?' सुमित पूछ बैठे। 
'1951 में मुख्यमंत्री द्वारा अनावरण किया गया। गांधी संस्थान के तत्कालीन अध्यक्ष लाल बिहारी टंडन का योगदान अप्रतिम रहा।' जयन्ती बता गईं। 'आप तो लगता है, गिनती करने आए हैं', मेरे मुख से निकल गया। 'हम लोगों के पास समय कम है। हमने काफी कुछ कर लिया है, एक बार देखकर संतुष्ट ही होना है।' सुमित मुस्करा उठे।
'समझ गया। आप तथ्यों का सत्यापन करना चाहते हैं। पर तथ्यों के भीतर भी एक आत्मा होती है। संभवतः आपकी दृष्टि उधर।' 'मुझे तथ्यों का सत्यापन तो करना ही है। रह गई आत्मा की बात. हम देखेंगे।' सुमित कुछ चौंक से गए।
'मूर्तियाँ तो आज भी बहुत लगती हैं। सब के अपने अपने अर्थ हैं। भाई साहब, हम तह तक जाने का प्रयास करेंगे। आत्मा तक पहुंचते हैं या नहीं यह बाद में देखा जाएगा।' जयन्ती ने बाल झटकते हुए कहा। चश्मे को एक बार रूमाल से पोंछ कर फिर लगा लिया।
'डा० अम्बेडकर की मूर्ति भी कहीं लगी होगी?'
'हाँ, लगी है। कचहरी के निकट चौराहे पर। अब उसे अम्बेदकर चौराहा कहा जाता है।' मैंने बताया।
'इसी लखनऊ रोड पर लाल बहादुर शास्त्री और डा० राममनोहर लोहिया की मूर्तियाँ भी लगी हैं। शास्त्री की मूर्ति लाल बहादुर शास्त्री कालेज द्वारा स्थापित की गई है। लोहिया की मूर्ति तो अभी जल्दी लगी है।' जयन्ती नोट करती रहीं।
'मूर्तियों से यहाँ के लोग कुछ सीखते हैं?' सुमित ने पूछ लिया 'इसी प्रश्न का उत्तर तो आपको खोजना चाहिए।'
'खोजेंगे इसका उत्तर, पर इसमें आपकी सहायता लेनी पड़ेगी।' जयन्ती के उत्साह में कोई कमी नहीं थी।
'गोनर्द से गोण्डा की उत्पत्ति बताई जाती है। कोशल नरेश की गाएँ यहाँ चरती थीं। क्या अब भी इस क्षेत्र में गाएँ अधिक हैं?' सुमित ने पूछ लिया। 'गाँवों में किसी समय हर घर में गाएँ अधिक हुआ करतीं थीं। मशीनीकरण, रासायनिक खादों के प्रयोग, आदमी की गतिशीलता बढ़ने से अब जानवर कम हो गए हैं। कुछ लोगों ने डेयरी उद्योग अवश्य खोल रखा है। दूध के लिए दोगली गाएँ और मुर्रा भैंसें पाली जा रही हैं। बैलों का दाम घटा है। पड़वों की तो पूछ ही नहीं रह गई है। पर चरने और चराने वाले अब भी बहुत हैं?' मेरे कहते ही सुमित बोल पड़े, 'जानवर कम हैं तो चरने-चराने वाले कैसे अधिक हो गए ?'
'जनता को लोग चरा ही तो रहे हैं। सामान्य जन ठगा ठगा घास ही चरता है। चराने वाले अरबों में खेलते हैं। उनके भवनों को देखिए।'
'ओ ! अपने प्रजातंत्र की यही स्थिति है।'
'आप का व्यंग्य अन्दर तक धँस जाता है। सुमित, भाई साहब से सीखो।' जयन्ती कह कर हँस पड़ीं।
'आप लोग अधिक पढ़े-लिखे हैं। मुझसे क्या सीखना है ?'
'अनुभव सिखाता है भाई साहब, अनुभव। हम लोग तो अभी कच्चे घड़े हैं न सुमित ?'
'कच्चे कहाँ ? अब तो आप पक्के घड़े हो गए हैं।'
'ज़िन्दगी भर आदमी पकता रहता है पर क्या पूरी तरह पक पाता है? उसकी भावनाएं, उसके आवेग क्या पकने देते हैं?' जयन्ती ने रूमाल को चेहरे पर फेरा।
'भावनाओं के बिना मनुष्य की कल्पना करके हम आप सिहर उठेंगे।'
'ठीक कहते हैं आप।'
'आप महानगर से आए हैं, वह भी देश की राजधानी से। कनाटप्लेस और चांदनी चौक की बहार यहाँ कहाँ मिलेगी? गोण्डा तो शुद्ध गांव है, यहां के रीति-रिवाज, रहन-सहन राजधानी से बिल्कुल भिन्न हैं। लड़के लड़कियां घरौंदों से बाहर नहीं हो पाते ।'
'मैंने पढ़ा है कि गाँवों का शहरीकरण हो रहा है और आप कहते हैं कि शहर गाँव ही है।' जयन्ती ने चश्मे को एक बार पुनः पोंछा।
'आइए, हम लोग बैठकर बात करें।' सुमित ने संकेत किया। तीनों एक सीमेंट की बेंच पर बैठ गए।
'मैडम, आप यहाँ किसी घर में जाकर पानी माँगिए। केवल पानी कभी नहीं मिलेगा। मिठाई, बिस्कुट, बताशा, गुड़, कोई न कोई चीज़ होगी, उसी के साथ पानी मिलेगा । पर राजधानी में पानी माँगिए तो केवल पानी देने में उनको संकोच नहीं होगा। राजधानी में आसपास ही लोग एक दूसरे को नहीं जानते पर यहाँ मुहल्ले के लोग जानते ही नहीं सहयोग भी करते हैं। यहाँ की हवा भी गाँव की ही हवा है। गाँव को आप लोग पिछड़ेपन से जोड़ देते हैं। पढ़ी लिखी लड़कियाँ गाँव में नहीं जाना चाहतीं।' 'क्या पढ़े लिखे लड़के गांव में जाना चाहते हैं ?' 'वे भी नहीं जाना चाहते।
अब तो गाँव कौन कहे, लोग राजधानी में ही बसना चाहते हैं। महानगर इसीलिए फूल कर कुप्पा हो रहे हैं।'
'सारी सुविधाएं राजधानी में ही केन्द्रित कर दी जाएँगी तो क्या होगा?' सुमित ने हस्तक्षेप किया। 'गाँवों से जो बच्चे रोजी की तलाश में शहर भागते हैं, उन्हें छोटा-मोटा काम चाहे मिल जाए पर रहने की जगह कहाँ मिल पाती है?'
उनकी बात तो हम करते रहे पर बहुत कुछ कर नहीं पाए।' सुमित ने जोड़ ' 'झुग्गी-झोपड़ी में भी एक दिल्ली बसती है, एक बम्बई भी।' 
'सच कहते हैं आप।' जेन के मुख से निकल गया। टीले पर बनी अंजुमन क्लब की इमारत का चित्र लिया। बगल में दीनदयाल शोध संस्थान का भी। टाउनहाल और मैरिज हाल को भी कैमरे में कैद किया। 'किसी कार्यक्रम के लिए टाउनहाल ही है।' मैंने बताया। धूप अच्छी लग रही थी। आसपास शोक हरने वाले अशोक के वृक्ष। उनकी पत्तियाँ हिलती हुई।
'भाई साहब, आपसे भेंट कहाँ होगी ?' सुमित ने पूछ लिया।
'मैं यहीं गांधीपार्क में मिल जाऊँगा। यही मेरा जनसम्पर्क कार्यालय है।' मैंने बताया।
'ओ ! आप अपना घर नहीं बताना चाहते।' जेन चहक उठीं।
घर बताने में कोई परहेज नहीं है किन्तु मेरा बैठका पूर्वार्द्ध में इसी पार्क में होता है।' '
' ओ!' एक बार फिर जयन्ती के मुख से निकला।
'क्यों जेन ? आज हम लोग अपने को व्यवस्थित कर लें।'
'भाई साहब। हम लोग एक परिवार में रुके हैं ददुआ बाजार में। कल से हम लोग अपना कार्य प्रारम्भ कर पाएंगे। आपकी मदद चाहिए।' सुमित कहते हुए उठ पड़े। 'यथाशक्ति में मदद करूँगा।' मैंने कहा। वे दोनों पार्क से निकल गए। मैं थोड़ी देर बैठा रहा।
सायँकाल मैं अपनी कोठरी में बैठा था। विचार उठा, क्यों न इन कार्यवाहियों को अंकित कर लिया जाए? आज के घटनाक्रम को मैंने डायरी में लिखा। एक नया अनुभव हुआ। यह तो स्मृति कथा हो गई। आगे भी लिखता चलूँ, मन में विचार उत्पन्न हुआ।