मोची ,बाजार और कुत्ता
यशवंत कोठारी
कस्बे के बाजार के बीचों -बीच के ढीये पर कल्लू मोची बैठता था। उसके पहले उसका बाप भी इसी जगह पर बैठकर अपनी रोजी कमाता था। कल्लू मोची के पास ही गली का आवारा कुत्ता जबरा बैठता था। दोनों में पक्की दोस्ती थी। जबरा कुत्ता कस्बे के सभी कुत्तों का नेता था और बिरादरी में उसकी बड़ी इज्जत थी। हर प्रकार के झगड़े वो ही निपटाता था। कल्लू मोची सुबह घर से चलते समय अपने लिए जो रोटी लाता था उसका एक हिस्सा नियमित रूप से जबरे कुत्ते को देता था।
दिन में एक बार कल्लू उसे चाय पिलाता था। सायंकालीन डिनर का ठेका झबरे कुत्ते ने पास वाले हलवाई को स्थायी रूप से दे दिया था। रात को नौ बजे से बारह बजे तक जबरे कुत्ते का डिनर हलवाई के बर्तनों में चलता रहता था। कल्लू मोची के पास लोग-बाग केवल अपने जूतेंचप्पल की मरम्मत के लिए ही आते हो, ऐसी बात नहीं थी। कल्लू की जाति के लोग, सड़क के आवारा लोग, भिखारी, पागल आदि भी कल्लू के आसपास मण्डराते रहते थे। आज कल्लू के पास के गांव का उसकी जात का चौधरी आया हुआ था। जबरा कुत्ता भी उनकी बातों में हुंकारा भर रहा था।
चौधरी बोला-अब बता कल्लू क्या करंे। गांव मंे बड़ी किरकिरी हो रही है। भतीजा रहा नही। भतीजे की बहू के एक लड़की है और भतीजे के मरते समय से ही वह पेट से है................। ‘कैसे सुधरे यह सब।’
‘अब इसमंे चौधरी साफ बात है। छोरी का नाता कर दो।’
‘यह क्या इतना आसान है। एक लड़की है और एक ओर बच्चा होगा...........।’
‘अरे तो इसमंे क्या खास बात है। नाते मंे जो मिले उसे छोरी के नाम से बैंक मंे डाल दो। दादा-दादी इसी बहाने पाल लंेगे। और जो पेट मंे है उसकी सफाई करा दो।’
‘राम........राम..........। कैसी बाते करते हो।’
‘भईया यहीं व्यवहारिक है। लड़की अभी जवान है, सुन्दर है, घर का काम-काज आसानी से कर लेती है। कोई भी बिरादरी का आदमी आसानी से नाता जोड़ लेगा। सब ठीक हो जायेगा। रामजी सबकी भली करते है।
‘कहते तो ठीक हो............मगर....................।
‘अब अगर............मगर छोड़ांे। कहो तो बात चलाऊं।’
‘कहाँ।’
‘यही पास के गांव मंे एक विधुर है।’
‘यह ठीक होगा।’
‘तो क्या तुम पूरी जिन्दगी उस लड़की की रखवाली कर सकोगे। जमाना बड़ा खराब है।’
‘‘हां ये तो है।’
‘तो फिर..............।’
‘सोचकर..........घर मंे बात कर के बता देना।’
‘या फिर पंच बिठाकर फैसला कर लो।’
‘अन्त मंे शायद यही होना है।’
कल्लू ने चाय मंगाई। जबरे के लिए एक कप चाय पास के पत्थर पर डाली। जबरे ने चांटी। और चौधरी ने चाय सुड़क ली। तम्बाकू बनाई खाई और चौधरी चला गया। कल्लू अपना काम शुरू करता उससे पहले ही बाजार मंे हल्ला मच गया। जबरा दौड़कर चला गया। वहां बाजार मंे कुत्तांे के दो झुण्ड एक कुतिया के पीछे दौड़ रहे थे। जबरे ने उन्हंे ललकारा, झुण्ड चले गये। झबरा वापस कल्लू के पास आया और बची हुई चाय चाटने लगा। जबरा कुत्ता किसी से नहीं डरता था। डॉक्टर का अलेशेशियन कुत्ता भी उसे देखकर भांेकना बन्द कर देता था। जबरे का गुर्राना डॉक्टर को पसन्द नहीं आता था, मगर उसे क्या करना था। कुत्तांे के बीच की यारी-दुश्मनी से उसे क्या मतलब था। कुत्तांे की कुत्ता-संस्कृति पूरे कस्बे की संस्कृति का ही हिस्सा थी।
कुछ कुत्ते आदमियांे की तरह थे और कुछ आदमी कुत्तांे की तरह थे। कस्बे मंे रामलीला भी चलती थी और कुत्तालीला भी। कुत्ते संस्कृति के रक्षक भी थे और भक्षक भी। कुत्ते बुद्धिजीवी भी थे और नेता भी। कुछ कुत्ते तो स्वर्ग से उतरे थे और वापस स्वर्ग मंे जाना चाहते थे।
कल्लू मोची जूतांे-चप्पलांे की मरम्मत के अलावा मोहल्ले समाज, बाजार, मंहगाई, चोरी, बेईमानी, रिश्वत आदि की भी मरम्मत करता रहता था। उसका एक मामला कोर्ट मंे था, उसको लेकर वह वकीलांे, अदालतांे और मुकदमांे पर एकदम मौलिक चिन्तन रखता था, कभी-कभी गुस्से मंे जबरे कुत्ते को सुना-सुना कर अपना दिल का दुःख हल्का कर लेता था। लेकिन जबरे कुत्ते के अपने दुःख दर्द थे जो केवल कल्लू जानता था। वह जबरे को लकी कुत्ता मानता था। क्यांेकि जबरे के बैठने से ही उसका व्यापार ठीक चलता था। कुत्ता के पास कुत्तागिरी थी और कल्लू के पास गान्धीगिरी।
००
यशवंत कोठारी ,८६,लक्ष्मी नगर ब्रह्मपुरी बाहर जयपुर -३०२००२ मो-९४१४४६१२०७