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दूसरे दिन गुल ने निश्चय कर लिया कि वह अब किसी भी स्वर पर, किसी भी सुर पर तथा किसी भी ध्वनि पर विचलित नहीं होगी। वह अपना गीता गान पूर्ण करेगी। उससे पूर्व वह आँखें नहीं खोलेगी।
उसने श्री कृष्ण का ध्यान धरा, गीता गान प्रारम्भ कर दिया। उसके मुख से श्लोकों का प्रवाह बहने लगा। उसे सुनने के लिए समुद्र अपनी तरंगों के माध्यम से गुल के सम्मुख आने लगा। समुद्र पुन: सुमधुर संगीत का सर्जन करने लगा। गुल बोल रही थी-
सर्व धर्मान परित्यजय, मामेकम शरणम ब्रज।
अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिश्यामि, मा शुच:।।
शब्द एवं संगीत का अनुपम मिलन हो रहा था। शब्दों का सर्जन गुल कर रही थी । संगीत का सर्जन कर रहा था समुद्र। कुछ क्षण व्यतीत होते ही इन स्वरों के साथ एक और स्वर जुड़ गया। बांसुरी का सुर। गुल का ध्यान उस सुर पर गया। वह सुर मधुर थे। उसमें लय था, ताल था। गीत संगीत के युग्म में यह सुर भी घुल गया। उस युग्म को अधिक मोहक बनाने लगा। गुल नए सुरों से विचलित हुए बिना उसे सुनती रही। गुल के शब्द, समुद्र का संगीत और बांसुरी के सुर। अनूठा त्रिवेणी संगम !
समय पर गुल ने अपना गीता ज्ञान, गीत गान सम्पन्न किया। समुद्र का संगीत रुक गया। किंतु बांसुरी के सुर अभी भी बह रहे थे। गुल ने उस पर ध्यान केंद्रित किया।
‘सभी सुर शांत हो गए हैं किंतु बांसुरी की धुन अभी भी सुनाई दे रही है। अर्थात् यह सुर समुद्र की ध्वनि के नहीं है किंतु अन्य कोई इसका सर्जन कर रहा है। कौन है जो इसे आज भी उत्पन्न कर रहा है?’
जिज्ञासावश गुल ने आँखें खोली और दाहिनी तरफ़ देखा जहां से यह सुर आ रहे थे। वह चकित रह गई।
वहाँ अपने अधरों पर बांसुरी लगाए केशव खड़ा था। केशव आँखें बंद कर बांसुरी बजा रहा था।
गुल उन सुरों को सुनने लगी, उसके मोह में बंधने लगी।उसकी आँखें अनायास ही बंद हो गई। अब उसे केवल बांसुरी के सुर ही सुनाई दे रहे थे जो उसे कहीं खिंचकर ले जा रहे थे। वह उन सुरों के साथ खिंचती चली गई। उसे जो अनुभव हो रहा था वह उसके भीतर प्रसन्नता भर रहा था किंतु क्या है वह उसे समज नहीं रही थी। उसने उसे समजने का प्रयास, समजने का विचार त्याग दिया। वह बस उस अनुभूति में लीन हो गई।
समय के एक बिंदु पर केशव ने बांसुरी को विराम दिया। सभी सुर शांत हो गए। केशव ने आँखें खोली, अधरों से बांसुरी को पृथक किया, हथेलियों पर बांसुरी रखकर उसे नमन किया।
इसी अवधि में गुल की तंद्रा भी टूटी, उसने भी आँखें खोली। बांसुरी को नमन करते हुए केशव को उसने देखा। दोनों ने परस्पर देखा। किसी ने कुछ नहीं कहा किंतु दोनों के मध्य एक संवाद हो गया जिसमें दोनों के प्रश्नों के उत्तर थे। दोनों प्रसन्न थे। दोनों एक साथ समुद्र की रेत पर समुद्र के सम्मुख बैठ गए।
क्षितिज में आदित्य पृथ्वी से विदाय ले रहा था। समुद्र के प्रति गति कर रहा था। दोनों उस दृश्य को देखते रहे। दोनों में से किसी को शब्दों की आवश्यकता नहीं थी किंतु संवाद होता रहा। सूर्य चला गया। गुल उठी, केशव भी उठा। दोनोंने परस्पर आँखों में देखा और अपने अपने पथ पर चले गए। अवनी पर रात्रि के आगमन की क्षण आ गई।