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गुल की आँखें बंद थी। मंत्रोच्चार हो रहा था। केशव किसी समाधि में लीन हो गया था। उसे जो अनुभव हो रहा था वह उसने इससे पूर्व कभी नहीं किया था। उस अकथ्य स्थिति में प्रसन्नता थी।
गुल ने अंतिम मंत्र का गान किया-
अहम निर्विकल्पो निराकार रूपो, विभूत्वा च सर्वत्र स्सर्वेंद्रियाणम,
न च संगतर्नेव मुक्ति: न मेय: चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम।
गुल शिवोहम शिवोहम का जाप किए जा रही थी। सभी दिशाओं से उस ध्वनि की प्रतिध्वनि होने लगी। तट, पानी, समुद्र, समीर सभी एक ही ध्वनि में गा रहे थे - ‘शिवोहम शिवोहम…’
गुल ने मंत्र गान सम्पन्न किया। कुछ क्षण वह आँखें बंद कर बैठी रही। उसने जब आँखें खोली तो देखा कि केशव अभी भी ध्यान मग्न था। गुल ने चारों तरफ़ देखा। उसने देखा कि सब कुछ स्थिर सा है। उसने स्थिर खड़े समय की एक क्षण को देखा । वह उसे देखती रही तथा प्रतीक्षा करने लगी कि वह क्षण आगे बढ जाए तथा नूतन क्षण को प्रवेश करने का अवसर मिले। किंतु वह क्षण ने आगे बढ़ने की कोई मनसा प्रकट नहीं की।
चिंतित होकर गुल ने उस क्षण को कहा,“हे समय, तुम इस प्रकार रुको नहीं, गति करो। कालगति को इस प्रकार अवरुद्ध करना उचित नहीं है।”
उस क्षण ने स्मित किया,“गुल, गति करने की इच्छा नहीं है। मैं यहाँ रुक जाना चाहती हूँ।”
“क्यों?”
“तुमने जो अनन्य एवं अद्भुत अनुभूति का सर्जन कर दिया था उस अनुभव में डूबकर ही रहना चाहती हूँ।”
“किंतु अब तो उस सर्जन का विसर्जन हो गया है। कृपया गति करो। समय की आनेवाली क्षण तुम्हारी गति की प्रतीक्षा कर रही है।”
“गति तो करनी ही होगी। कालगति को स्वयं काल की कोई क्षण भी नहीं रोक सकती। मैं गति करती हूँ। किंतु मैं तुम्हारा धन्यवाद करती हूँ कि इस घटना के लिए तुमने मुझे चुना।”
समय की वह क्षण गति कर गई। स्थिर समय पुन: प्रवाहित हो गया। जो कुछ स्थिर था वह सब प्रवाहित होने लगा। कालगति के साथ गति करने लगा।
उस प्रवाह ने केशव की समाधि का भी अंत कर दिया। उसने आँखें खोली। उसके मन में प्रसन्नता थी, मुख पर आभा थी।
“गुल, तुमने इस क्षण को स्मरणीय बना दिया है। इस क्षण को मैं सदैव स्मरण में रखूँगा।”
“ऐसा क्या था उस क्षण में?”
“मैंने उस क्षण को जिया है। यह केवल एक अनुभूति ही नहीं थी, एक अनन्य जीवन भी था। जिस क्षण को हम पूर्ण श्रद्धा से जीते हैं वह क्षण का स्मरण सदैव रहता है। मैं इस क्षण के माध्यम से सदैव तुम्हें मेरे निकट पाता रहूँगा।”
गुल के अधरों पर मंद हास था जिसमें विषाद था।
“अब मुझे चलना चाहिए, गुल।”
केशव ने जाने की चेष्टा की।
“केशव मिठापुर में रहना आवश्यक है क्या? क्या यहाँ से प्रतिदिन आते जाते रहना सम्भव नहीं है? तुम इस गुरुकुल में रहकर भी ….।”
“ऐसा सम्भव हो सकता तो कितना अच्छा होता।”
“वह अध्ययन इतना कठिन है?”
“लक्ष्य कठिन है तो मार्ग कैसे सरल होगा?”
“अर्थात् आज के पश्चात हमारा मिलना कभी नहीं होगा।”
“ऐसा तो मैंने नहीं कहा। हाँ, मिलन दुष्कर अवश्य होगा।”
“वह कैसे?”
“समय समय पर मैं यहाँ आता रहूँगा। तब हम अवश्य मिलेंगे।”
“मैं प्रतीक्षा करूँगी। यही एकमात्र विकल्प शेष है मेरे पास।” गुल ने नि:श्वास के साथ कहा।
केशव ने गुल की आँखों में देखा। वहाँ शब्द थे- हो सके तो रुक जाओ।
केशव ने उसे पढ़ा किंतु उसे माना नहीं। मन ही मन विचार करने लगा, ‘गुल, तुम्हारी आँखें मुझे मोह में डाल रही है। बंधन में डाल रही है। रुक जाने का तुम्हारा या अनुनय, यह आग्रह मैं ठुकरा रहा हूँ। मुझे जाना ही होगा। रुकना मेरी नियति नहीं है। मुझे स्वयं अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना होगा। द्रढ होकर यहाँ से विदा होना होगा।’
केशव ने दृष्टि झुका ली। गुल से दृष्टि मिलाने का साहस नहीं रहा उसमें। वह जाने लगा। समुद्र के तट पर, जाते हुए केशव के पदचिह्न अंकित होने लगे।
उन पदचिह्नों को देखकर गुल स्वगत बोली, “केशव, मुझे ज्ञात है कि प्रतिदिन तुम मेरे जाते हुए पदचिह्नों को देखते रहते थे। समुद्र की तरंगें मेरे उन पदचिन्हों को मिटा देती थी। मैं दूसरे दिन पुन: आती थी। पुन: जाते समय पदचिह्नों को अंकित करती थी। तरंगें उसे पुन: मिटा देती थी।
आज मैं तुम्हारे पदचिह्नों को देख रही हूँ। समुद्र की कोई तरंग आकर अभी उसे मिटा देगी, सदा के लिए। पुन: कब अंकित होंगे तुम्हारे पदचिह्न इस तट पर, यह कोई नहीं जानता। समय की जिस क्षण यह होगा, मुझे उस क्षण की प्रतीक्षा रहेगी। किंतु वह क्षण कब आएगी? अहं ना ज़ानामि।”
केशव दूर जा चुका था। एक तरंग आइ, केशव के पदचिन्हों को मिटा गई, सदा के लिए। एक क्षण के लिए गुल ने आँखें बंद कर ली। पश्चात जब आँखें खोली तो समुद्र पर एक तीव्र दृष्टि डाली। समुद्र ने उस दृष्टि में रहे भावों को पढ़ लिया किंतु वह निर्लेप रहा। बहता रहा। गुल लौट गई। अवनी पर तमस् उतर आया, गहन तमस।