truth about ghost in Hindi Short Stories by Kishore Sharma Saraswat books and stories PDF | भूत का सच

Featured Books
Categories
Share

भूत का सच

भूत का सच

 

 बात काफी पुरानी है। या यूँ कहिये कि उस समय तक टेलीविजन का आविष्कार नहीं हुआ था। देहात और दूर-दराज के छोटे कसबों में मनोरंजन का साधन पुराने किस्से-कहानियाँ व गप्पी लोगों की झूठी अपितु मसालेदार बातें हुआ करती थी। कहानी सुनने की ललक में बूढ़े दादा-दादी, नानी या कभी-कभी पड़ोस में रहने वाले बुजुर्ग की खुशामद व बेगार करनी भी भली और सुखदायी लगती थी। रबी और खरीफ की लहलहाती फसलों की ऋतुओं की भाँति किस्से, कहानियों और गप्पों की भी अपनी एक अलग ऋतु होती थी। जिसकी कालावधि जेष्ठ मास से आरम्भ होकर आषाढ़ मास के पूर्वार्ध तक हुआ करती थी। ऐसा होने का भी एक विशिष्ट कारण था। बच्चो को स्कूल से ग्रीष्मावकाश और ग्रामीणों को खेतीबाड़ी के काम से फुर्सत। बच्चे खेल-कूद और मनोरंजन में व्यस्त और बड़े ताश के पत्ते फैंकने और नींद की झपकी लेने में तल्लीन रहते। जहाँ और जिधर देखो मजमा और मजलिस जमें होते थे।

दोपहर का खाना खाने के पश्चात मंगल ने अपनी खटिया सिर पर उठाई और बगल के खेत में, आम की छाया के नीचे, आराम फरमाने के लिए निकल पड़ा। गाँव के बच्चो का झुण्ड बड़ी बेताबी से उसके आगमन की प्रतीक्षा में बैठा था। उस पर नज़र पड़ते ही वे उल्लास भरे शब्दों में चिल्लाए, ‘दादू आ गया.......दादू आ गया।’ मंगल को भी उनका संग बिलकुल नहीं अखरता था, बल्कि उसे अपनी गप्पे सुनाने के लिए एक अच्छी खासी भीड़ की दरकार रहती थी। पूरे इलाके में मंगल की भूतविद्या की तूती बोलती थी। वह जादू-टोने, झाड़-फूंक करने और विक्षिप्त लोगों को प्रेतआत्माओं से मुक्ति दिलाने के लिए मशहूर था। इसे चाहे ग्रामीणों की अज्ञानता या रूढ़ीवादी विचारधारा कहिये या मंगल की वाचालता, उसका यह धंधा पूरे ठाटबाट से चलता था।

आम के पेड़ के नीचे पहुँचकर मंगल ने खटिया को उतार कर जमीन पर रखा और बच्चो की ओर देखता हुआ बोलाः

‘बच्चो! आज तो दादू थक गया है, थोड़ा आराम करने दो।'

‘क्यों दादू, फिर किसी भूत से पाला पड़ गया था क्या?’ सभी एक स्वर में बोले।

‘बस ऐसा ही समझलो। तुम्हें क्या बतलाऊँ, इतना भारी और ताकतवर था, मेरा तो अंग-अंग हिलाकर रख दिया उस दुष्ट ने।

‘सच!’ बच्चो के मुँह से अनायास ही यह शब्द निकला।

‘हाँ, और क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ।’ मंगल की रोमांच भरी दास्तान सुनने की गरज से बच्चे सिमटते हुए उसके और नज़दीक हो गए।

‘दादू, ऐसे तो बात में कुछ मज़ा नहीं आया। विस्तार से बतलाओ न।’ उम्र में सब से बड़ा बालक खुशामद करता हुआ बोला। मंगल तो यही चाहता था,  वरना थकावट का तो एक बहाना था। अपनी कहानी को गूँथने के मकसद् से मंगल ने आँखें तरेर कर आकाश की ओर देखा और फिर उसी मुद्रा में विचारों का कुछ ताना-बाना बुनकर बच्चो के मुखातिब होकर बोला:

‘सचमुच घटना बहुत भयानक और दिल दहला देने वाली है, सुनकर डरोगे तो नहीं?’

‘नहीं......नहीं......नहीं......नहीं डरेंगे दादू, आप जो हमारे साथ हो।’ बच्चो की इतनी ऊँची आवाज़ सुनकर बगल में सोये हुए बुज़ुर्गों की नींद खुल गई और वे उन्हें ‘बंदर’ और ‘गधे’ की औलाद कहकर डांटने लगे।

यह तो नित का बखेड़ा था। बुज़ुर्गों ने अपनी-अपनी खटिया उठाई और बुड़बुड़ाते हुए थोड़ी दूरी पर पीपल के पेड़ के नीचे चले गए। अब मंगल और उसकी मजलिस के लिए मैदान एक दम साफ था। वक्ता और श्रोताओं के बीच में विघ्न डालने वाला अब कोई शेष नहीं रह गया था। बात सुनने की उत्कंठा से बच्चो का सब्र टूटता चला जा रहा था। एक-एक क्षण उन पर भारी पड़ रहा था। अतः वे मंगल का हाथ पकड़ कर बोलेः

‘दादू! अब तो सब लोग पीपल के पेड़ के नीचे चले गए हैं, शुरू करो न।’

‘ठीक है ठीक है, मुझे क्या सुना रहे हो। मैं कोई उनसे डरता हूँ। ज्यादा चूँ-चपड़ करते तो भूतों से पिटवा देता एक-एक को। मेरा नाम भी मंगल है।’ वह अपनी मूछों पर ताव देता हुआ बोला।

‘आप ठीक कहते हो दादू।’ बच्चो ने उसके सुर में सुर मिलाया।

अपनी प्रशंसा सुनकर मंगल मानों विजय रथ पर सवार हो गया। उसे ललकारने वाला कोई माई का लाल अब वहाँ पर नहीं था। वह बेताज का बादशाह बच्चो की ओर देखता हुआ मुस्कराया और अपनी कल्पित बुद्धि का प्रयोग करते हुए आगे की बात सुनाने लगा:

‘कल सुबह की बात है। मैं अभी नींद में ही था। तभी टनकपुर गाँव के तीन-चार आदमी आ धमके। सभी के मुँह लटके हुए थे। कहने लगे बाबा जी हमारे बच्चे की जान बख्श दो, हम आपका एहसान जिंदगी भर नहीं भूलेंगे। बेचारा मौत और जिंदगी की जंग लड़ रहा है। मैंने उन्हें धीरज रखने को कहा और पूछा कि उसे क्या मर्ज है। तो कहने लगे कि उस पर किसी शैतान की छाया पड़ गई है। बहकी-बहकी बातें करता है। कभी अपने कपड़े फाड़ने लगता है तो कभी घूंसे उठाकर मारने को दौड़ता है। गाँव के किसी सयाने को उसके इलाज के लिए लाये थे। वह बोला कि उस के बस की बात नहीं है, इसलिये उसने ही, मुझे लाने के लिये, उन्हें भेजा था।

एक बार तो मन में आया कि इनकार कर दूँ। लोग पहले तो इधर-उधर भटकते रहते हैं। जब बात बस से बाहर हो जाती है तो फिर उन्हें मंगल बाबा की याद आती है। वो भी शायद इस बात को भाँप गए होंगें। दोनों हाथ जोड़ कर मिन्नत करने लगे। उनकी मजबूरी देखकर मेरा मन पसीज गया। पैदल का रास्ता था सो दोपहर बाद तक हम लोग टनकपुर पहुँचे। बेचारा चारपाई के ऊपर बेसुध पड़ा था। ज्योंही मैं उसके पैरों की ओर बैठकर मंत्र जाप करने लगा, भूत ने अपना जोश दिखाना शुरू किया। उसने दोनों टांगे पीछे की ओर इकट्ठी की और फिर दोनों पैर जोड़कर मेरी छाती पर पूरे बल से प्रहार किया। मैं पीठ के बल जमीन पर जा गिरा। यह चोट मेरी भूत विद्या को एक खुली चुनौती व ललकार थी। मेरी अस्मिता जाग उठी। इस दुष्ट की इतनी मजाल, मुझ से बराबरी करता है। मैने कहा इसे रस्सी से चारपाई के साथ बाँध दो। तत्पश्चात मैंने डण्डे के साथ भूत की पिटाई करनी जो शुरू की, फिर तो वह चिल्ला-चिल्ला कर क्षमा याचना करने लगा। मैं भला कहाँ मानने वाला था, उसे भगाकर ही दम लिया। गोधूली का समय हो चला था। मेरा अपने गाँव वापस पहुँचना अति आवश्यक था।

‘दादू, बस इतनी सी बात थी, फिर तो कुछ मज़ा नहीं आया।’ निराशा भरे लहजे़ में कहे यह शब्द सुनकर मंगल ने पुनः अपनी आँखें तरेरी और आगे की कहानी गढ़ने के लिए अपने मन ही मन सोच कर बोलाः

‘मेरे बच्चे इतना ज्यादा उतावला मत बन। असली कहानी तो अब शुरू होगी। हाँ तो मैं कह रहा था समय बहुत हो गया था। वापस गाँव पहुँचने के लिए मैंने एक छोटा, परन्तु बहुत ही कठिन और खतरनाक रास्ता चुना। यह रास्ता बहुत ही संकरे नाले से होकर गुज़रता था, जिसके दोनों ओर ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ थी। रात के अंधेरे में मैं धीरे-धीरे, सम्भल-सम्भलकर आगे की ओर बढ़ता चला जा रहा था। ज्योंही मैं बिल्ली के दरवाजे के समीप पहुँचा तो अचानक मुझे एक भयानक गर्जना सुनाई दी। आवाज इतनी भयंकर थी कि मेरे रोंगटे खड़े हो गए।’

‘दादू, ये बिल्ली का दरवाजा क्या होता है?’ एक बच्चे ने बीच में प्रश्न किया।

‘ओह! बीच में बोलकर सारी बात का मज़ा ही किरकिरा कर दिया।’ कई लड़के एक साथ बोले।

‘कोई बात नहीं बेटा, धीरज रखो। दादू यहीं पर हैं। वो कहीं नहीं जा रहा है। इसे भी अपने प्रश्न का उत्तर जानने का हक है। बेटा उस नाले के बीच में, एक जगह, दो विशाल चटानें आमने सामने खड़ी हैं। उन दोनों के दरमियान केवल इतना रास्ता है कि मुश्किल से एक आदमी गुज़र सकता है। उसी जगह को बिल्ली का दरवाजा कहते हैं।’

‘अच्छा, तो यह बात है। मैंने तो सोचा था कि शायद किसी बिल्ली का घर होगा।’

उसकी इस मासूमियत पर दूसरे लड़के खिलखिलाकर हंसने लगे। उनकी हंसी रूकी तो एक लड़का बोला ‘फिर क्या हुआ दादू?’

‘अरे, होना क्या था, ज्योंही मैंने सामने की ओर देखा एक विशाल काया उस दरवाजे को रोककर खड़ी थी। पूरे शरीर के ऊपर रीछ की भाँति लम्बे-काले बाल। हाथों के नाखून ऐसे मानों शेर के पंजे हों। कुत्ते जैसे दाँत और बड़ी-बड़ी मूछें। मैं अभी अपने मन में सोच ही रहा था कि यह बला क्या है? तभी वह दहाड़कर बोला:

‘मंगल के बच्चे! तू आज मेरे हाथ से बच कर कहाँ जाएगा? बड़ा खुश हो रहा था मुझे भगा कर। जरा इधर आ मैं तेरी खबर लेता हूँ। इससे पहले कि वह मेरे ऊपर प्रहार करता, मैंने अपने इष्टदेव को याद किया और फिर अपने हाथ में पकड़ी बैंत को उसके पेट में घुसेड़ दिया। कभी बैंत को वह अपनी ओर खैंचता और कभी मैं अपनी ओर, इसी मशक्कत में दो घंटे बीत गए। भूत पसीना-पसीना हो गया। उसकी साँस फूल गई। प्यास से उसका गला सूख गया। शर्म की वजह से उसका चेहरा सुर्ख हो गया। आखिर उसकी यह हालत मुझ से देखी नहीं गई। मैंने कहा जा दुष्ट इस बार तो मैं तुझे बख्श देता हूँ। परन्तु भविष्य में फिर कभी अगर ऐसी दुष्टता दिखाई तो मैं तुझे मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ूंगा। तब कहीं जाकर उसकी जान में जान आई। बोला, मेरे मालिक जिंदगी भर आपका गुलाम बनकर रहूँगा। इस तरह वह अपनी जान बचा कर वहाँ से भाग गया।’

मंगल की यह रोमांच भरी ओर तिलस्मी दुनियाँ बच्चो को बहुत भाती थी। परन्तु इसका दुष्परिणाम भी उनके जहन में अपनी जगह बना चुका था। दुपहर या अंधेरे में अकेले चलते हुए भूतों से डरना उनकी प्रवृत्ति में शुमार हो चुका था। अब अंधेरे में झाड़ी भी उन्हें भूत नज़र आने लगी थी। आखिर न चाहते हुए भी ग्रीष्मावकाश समाप्त हो गए। और इस प्रकार मंगल और बच्चो की मजलिस आगामी छुट्टियों तक मुलतबी हो गई।

रामानुज उम्र में सभी बच्चो से बड़ा था। वह आठवीं कक्षा का छात्र था तथा शहर के सरकारी स्कूल में पढ़ता था। गाँव से शहर की दूरी लगभग आठ किलोमीटर थी। सड़क का रास्ता तो था नहीं सो पगडंडी ही आवागमन का एक मात्रा साधन थी। रास्ते में एक बहुत बड़ी बरसाती नदी पड़ती थी, जिसके दोनों ओर कांटेधार झाड़ियों से भरी छोटी पहाड़ियाँ थीं। एक दिन स्कूल प्रशासन की ओर से छात्रों के लिए एक शिक्षाप्रद चलचित्र दिखाये जाने की व्यवस्था की गई थी। चलचित्र देखने की उत्सुकता में रामानुज यह भी भूल गया कि उसे गाँव भी जाना है। चलचित्र का प्रदर्शन समाप्त हुआ तो अंधेरा घना हो चला था। शहर में रूकने की कोई व्यवस्था थी नही, इसलिये गाँव जाना ही एकमात्र विकल्प था। भय और चिंताग्रस्त रामानुज गाँव की ओर चल पड़ा। जब वह नदी के छोर पर पहुँचा तो उस समय तक चन्द्रमा भी अपनी दुधिया रोशनी लिये पहाड़ी के पीछे से प्रगट हो चुका था। चाँदनी का सालिंगन पाकर उसे आगे चलने का एक सहारा मिल गया था। परन्तु यही चाँदनी उसके लिये एक भयावह दष्य भी लेकर आई। वह ज्योंही नदी के मध्य में पहुँचा उसे एक काली, लम्बी, भयंकर आकृति अपने आगे की ओर आती हुई दिखाई दी। यह क्या? आज तो सचमुच के भूत से सामना हो गया। वह बुरी तरह से घबरा गया। उसने सुना था कि भूत से डरना नहीं चाहिये। क्योंकि जब तक आदमी उससे डरता नहीं तब तक वह उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। ऐसी अवस्था में पीछे मुड़कर भागना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं था। अतः थोड़ा ठिठकने के पश्चात रामानुज अपने मन में ‘हनुमान चालीसा’ का सिमरन करता हुआ आगे की ओर बढ़ने लगा। थोड़ा नज़दीक पहुँचा तो आकृति साफ होने लगी थी। लम्बा-छरछरा बदन, चेहरे और सिर पर लम्बे काले घने बाल, शरीर पर गंदे, फटे हुए कपड़े, लाल घूरती हुई आँखें तथा कंधे के ऊपर एक बड़ा सा कुल्हाड़ा। रामानुज के शरीर में एक सिहरन सी उठी और पैरों के नीचे से मानों ज़मीन खिसकने लगी। लोग भी कितने पागल हैं। मंगल दादू की बातों पर यकीन नहीं करते। कहते हैं गप्पी हैं। अब अगर यहाँ पर होते तो देखते कि यह सामने क्या बला है? हो न हो यह तो वही दादू वाला भूत है। यह भी अच्छा हुआ। कुछ हुज्जत की तो दादू के नाम की धमकी दे दूंगा। यह सोच कर उसकी कुछ हिम्मत बंधी। थोड़े फरक से अब वह आकृति रामानुज के आगे-आगे चलने लगी। रामानुज ने अपनी चाल धीमी कर ली ताकि दोनों के दरमियान की दूरी कुछ और बढ़ जाए। रामानुज की किस्मत अच्छी रही कि उस आकृति ने पीछे की ओर मुड़कर उसे नहीं देखा, वर्ना उसकी सांस रूकने में देर नहीं लगती। नदी के दूसरे छोर पर पहुँचकर वह आकृति सीधा रास्ता छोड़ कर पहाड़ी के ऊपर की ओर मुड़ गई। यह देखकर रामानुज की जान में जान आई। वह बिना उस ओर देखे, तेज कदमों से आगे की ओर निकल गया। लगभग एक सौ मीटर की दूरी से उसने पलट कर, घबराते हुए, पीछे की ओर देखा। रास्ता बिलकुल साफ था।

रामानुज को मिले इस भूत की बात गाँव के बच्चो में आग की भाँति फैल गई। सभी उसकी बहादुरी की प्रशंसा करने लगे। कुछ एक तो यहाँ तक कहने लगे कि समय आने पर रामानुज, दादू से भी चार कदम आगे निकल जाएगा। आखिर उन्होंने यह बात मंगल दादू तक पहुँचाने की ठान ली। इतवार के दिन सभी बच्चे दादू के यहाँ दल बल सहित पहुँच गए। काफी समय पश्चात अचानक आए बच्चो को देखकर दादू भी खुश हो गया। सोचने लगा आज महफिल जमेगी। परन्तु आज बच्चो का पलड़ा भारी था। वे आज कुछ सुनने की अपेक्षा स्वयं सुनाना चाहते थे। दादू को बढ़ा-चढ़ाकर भूत वाली घटना का वृतांत सुनाया गया।

‘मेरे भोले बच्चो! तुम भी कितने नादान हो। रामानुज की क्या बिसात थी जो उस दुष्ट भूत से बच कर आ पाता। यह तो तुम्हारे दादू की करामात थी कि वह सकुशल घर पहुँच गया। दरअसल बात यह थी कि वह भूत जानता था कि रामानुज, दादू के गाँव का रहने वाला है। इसीलिये उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वह रामानुज को कुछ कह पाता। यह बात उस भूत ने मुझे दूसरे दिन आकर बतलाई थी। अभी दादू आगे की अपनी बात पूरी भी नहीं कह पाया था कि रामानुज भी वहाँ पर आ पहुँचा। उसे देखकर एक लड़का बोलाः

‘रामानुज, दादू का शुक्रिया अदा कर वर्ना उस दिन वह भूत तेरा बाजा बजा देता।’

‘कौनसा भूत? कैसा भूत? वह कोई भूत-वूत नहीं था। पिता जी ने बतलाया कि वह तो राम किसन बाबला था जो अकसर रात के समय इसी प्रकार घूमता रहता है। बच्चो ने गर्दन घूमाकर मंगल दादू की ओर प्रश्नात्मक दष्टि से देखा। बेचारा लज्जा के मारे आँखें झुकाये बैठा था।

*******