Amber Pariyan - Baljinder Nasrali in Hindi Book Reviews by राजीव तनेजा books and stories PDF | अम्बर परियाँ - बलजिन्दर नसराली

Featured Books
Categories
Share

अम्बर परियाँ - बलजिन्दर नसराली

आमतौर पर कोई भी लेखक हर उस चीज़, वाकये या अपने आसपास के माहौल में घट रही या घट चुकी किसी न किसी ऐसी घटना से प्रेरित हो कर कुछ न कुछ ऐसा रचने का प्रयास करता है जो उसके ज़ेहन के भीतर चल रही तमाम हलचलभरी कवायद को व्यथा, उद्वेग या फ़िर भड़ास के ज़रिए बाहर निकाल उसके चित्त को शांत कर सके। इन घटनाओं से वह स्वयं भी किसी ना किसी माध्यम से जुड़ा हो सकता है अथवा उसने इन्हें घटते हुए स्वयं देखा अथवा किसी और से इनके बारे में जाना हो सकता है। उन साधारण या फ़िर असाधारण सी दिखने वाली घटनाओं को लेखक अपनी कल्पनाशक्ति, रिसर्च, तजुर्बे तथा अपने लेखनशिल्प के ज़रिए विस्तार देकर ऐसा रूप दे देता है कि वह घटना किसी कहानी या उपन्यास में पूर्णतः या फ़िर आंशिक रूप से समाहित होकर पठनीय बन जाती है। दोस्तों..आज मैं शिक्षाजगत की सच्चाइयों से रूबरू कराते एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'अम्बर परियाँ' के नाम से मूल रूप से पंजाबी में लिखा है लेखक बलजिन्दर नसराली ने। इसका पंजाबी से हिंदी में अनुवाद किया है प्रसिद्ध लेखक एवं अनुवादक सुभाष नीरव जी ने। मूलतः इस उपन्यास में कहानी है औसत शक्ल और सूरत के उस अम्बर की जिसने बचपन से अपने परिवार में शिक्षा का माहौल ना होने के बावजूद शिक्षा के महत्त्व को समझा और अपनी लग्न, मेहनत और जिजीविषा के बल पर उच्च शिक्षा ग्रहण कर पहले मलेरकोटला (पंजाब) के कॉलेज में अध्यापक की नौकरी और बाद में जम्मू-कश्मीर यूनिवर्सिटी में बतौर प्रोफ़ेसर मुकाम पाया। पारिवारिक एवं स्वयं की रज़ामंदी से उसका ब्याह औसत शक्लोसूरत की किरणजीत के साथ हो तो जाता है मगर अब भी उसका मन किसी न किसी ख़ूबसूरत सहचरी के लिए भटकता है। ऐसे में उसकी मुलाक़ात उसी के कॉलेज में बतौर संगीत शिक्षिका नियुक्त सुंदर रंग-रूप की अवनीत से होती है जिसका सपना मशहूर सिंगर बनना है। संयोग कुछ ऐसा बनता है कि अब तक तीन बच्चों का पिता बन चुके अम्बर की बौद्धिक क्षमताओं पर मोहित हो अवनीत उस पर आसक्त हो मर मिटती है और अम्बर भी उसके मोहपाश से बचा नहीं रह पाता।साथ ही इस उपन्यास में कहानी है कश्मीर के एक सिख परिवार में जन्मी उस ज़ोया की है जो जम्मू के एक बड़े होटल में बतौर मैनेजर नौकरी कर रही है और जम्मू यूनिवर्सिटी में कभी-कभी होटल मैनेजमेंट से संबंधित विषयों पर लैक्चर देने जाती है। वहाँ उसकी मुलाक़ात अम्बर से होती है और कुछ एक मुलाक़ातों के बाद वे दोनों एक-दूसरे को पसन्द करने लगते हैं।  अब देखना यह है कि अवनीत से किनारा कर चुका अम्बर क्या स्वयं को इस रिश्ते में इस हद तक सहज पाता है कि अपनी पत्नी किरणजीत से तलाक लेकर ज़ोया से विवाह कर ले जबकि किरणजीत को पढ़ा-लिखा कर उसने इसी वजह से स्वावलंबी बनवाया था कि उसके छोड़ जाने के बाद वह अपनी स्वयं की तथा उनके (किरणजीत और अम्बर के) बच्चों की अच्छे से देखभाल कर सके।  इस उपन्यास में कहीं किताबों और लायब्रेरी की महत्ता एवं ज़रूरत का जिक्र चलता दिखाई देता है तो कहीं गाँव-देहात के पुराने हो चुके बुज़ुर्गों द्वारा कही जाने वाली बात कि.. ज़्यादा पढ़ने-लिखने से दिमाग़ ख़राब हो जाता है' की बात होती नज़र आती है। कहीं गाँव की औरतों के कष्टों से भरे जीवन की बात होती दिखाई देती हैं तो कहीं गाँवों के अविवाहित रह गए युवक किसी विधवा से विवाह कर या फ़िर किसी अन्य विवाहिता से संबंध बना अपनी हताशा दूर करने का प्रयास करते नज़र आते हैं।इसी उपन्यास में कहीं साहूकारों के द्वारा किसानों के हिसाब-किताब में कच्चा होने का फ़ायदा उठाने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं कहीं पंजाब के किसानों द्वारा खेती की ज़मीन के महंगे होने की वजह से उनके यूपी की तरफ़ माइग्रेट होने की बात उठती दिखाई देती है कि वहाँ पर खेती की ज़मीनों के दाम पंजाब के दामों के मुकाबले पाँच से छह गुणा तक कम हैं।कहीं पंजाब से पलाश के पेड़ों के लुप्तप्राय होने की बात उठती दिखाई देती है तो कहीं पाकिस्तान के हिस्से में आए शहर 'सियालकोट' के 'मदरपुर' से 'शाकला' और 'शाकला' से 'सियालकोट' होने की बात पता चलती है। इसी किताब में कहीं 'चन्द्रभागा' नदी के 'चिनाब' हो जाने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं कलकत्ता की ट्राम के बहाने बंगाल की प्रसिद्ध संस्कृति को जानने का प्रयास होता दिखाई देता है। कहीं बंगालियों के अतिआत्मविश्वासी होने की बात होती नज़र आती है तो कहीं कश्मीर और पुंछ के निवासियों के बीच उनके सामाजिक स्तर में व्याप्त अंतर को लेकर बात दिखाई देती है। कहीं पुंछ की भागौलिक परिस्थिति के कष्टप्रद और कश्मीर की भागौलिक परिस्थिति के आरामदायक होने की वजह से वहाँ के निवासियों के बीच आर्थिक स्तर का अंतर भी साफ़ परिलक्षित होता दृष्टिगोचर होता है। कहीं पैसे के लालच कॉलेजों के बड़े-बड़े प्रोफ़ेसरों तक के ईमान डोल जाने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं अम्बर सरीखा प्रोफ़ेसर कॉलेज छोड़ते समय कॉलेज के बकाया पैसों को भरने को उतावला होता नज़र आता है। कहीं कॉलेज में लेक्चरार की भर्ती के लिए हर कोई अपने-अपने उम्मीदवार के नाम की गोटियाँ सेट करता नज़र आता है तो कहीं किसी को अपने मुकाबले ना टिकने देने की कवायद चलती दिखाई देती है। कहीं यूनिवर्सिटी में क्षेत्रीयता के हिसाब से छात्रों के अलग-अलग गुट बने दिखाई देते हैं। इसी उपन्यास में कहीं पुलिस अफसरों द्वारा प्रमोशन के चक्कर में फर्ज़ी एनकाउंटर करवाए जाते दिखाई देते हैं तो कहीं कोई अपना ही इनके नापाक मंसूबों की बलि चढ़ता दिखाई देता है। कहीं कश्मीर के 'उजाड़ना' गाँव की कहानी पढ़ने को मिलती है कि किस तरह एक श्राप की वजह से उस गाँव के बाशिंदों को हर बारह साल बाद अपने घर का सारा सामान  लाद कर ले जाने (अपनी जगह से उजड़ने) की रस्म को निबाहना पड़ता है। तो कहीं कश्मीरी सिखों की पंजाब के सिखों के प्रति नापसंदगी भी उजागर होती नज़र आती है कि कश्मीरी सिख अपने मज़हब के अनुसार अपनी दाढ़ियों को बढ़ा कर रखते हैं जबकि पंजाब के सिख अपनी दाढ़ियों को कटवा लिया करते हैं।कहीं आज़ादी से पहले सियालकोट के निवासियों द्वारा जम्मू में आ के फ़िल्म देखने की बात होती नज़र आती है तो कहीं जालंधर से पुंछ तक बैलगाड़ियों और गड्डों के ज़रिए अपना व्यापार फैलाने वाले लुबाणों की बात होती दिखाई देती है। कहीं मलेरकोटला के जर्जर होते महल के बारे में पढ़ने को मिलता है तो कहीं मनुष्य के कबीलों से घर, खेतों और परिवार में तब्दील होने के पीछे की वजह तलाशी जाती दिखाई देती है।शिक्षा विभाग में व्याप्त अनिमितताओं एवं भ्रष्टाचार की परत दर परत उधेड़ते इस उपन्यास में कहीं बिना ज़रूरी योग्यता के कोई सिफ़ारिश के बल पर कोई प्रिंसिपल की कुर्सी हासिल करता दिखाई देता है। तो कहीं पंजाबी-अँग्रेज़ी मिश्रित भाषा को क्रियोल कहे जाने का पता चलता है। कहीं विदेशों में प्रचलित हो रही डायवोर्स पार्टी जैसी नई कुरीति के भारत के महानगरों और फ़िर छोटे शहरों-कस्बों में सेंध लगाने की बात होती नज़र आती है।इसी उपन्यास में कहीं पढ़ने को मिलता है कि भारत-पाक विभाजन के दौरान पंजाब के मलेरकोटला शहर में ना कोई दंगा हुआ था और ना ही कोई मुसलमान पाकिस्तान की तरफ़ पलायन कर गया था। तो कहीं मलेरकोटला के 'हाय का नारा' गुरुद्वारे के बारे में पता चलता है कि उसका नामकरण मलेरकोटला के नवाब शेर मोहम्मद के नाम पर हुआ है क्योंकि गुरु गोविंद जी के बच्चों को शहीद करने के लिए उसी ने मुग़ल सल्तनत के विरुद्ध बच्चों के हक़ में आवाज़ उठाई थी। बेहतरीन अनुवाद और बढ़िया से प्रूफ़रीडिंग होने के बावजूद मुझे दो-चार जगहों पर कुछ कमियाँ भी दिखाई दीं। एक बड़े उपन्यास में इस तरह की छिटपुट ग़लतियाँ रह जाना आम बात है।पेज नंबर 21 में लिखा दिखाई दिया कि..'उसके अंदर संशय जाग उठा था कि कई बार एक बार बिछड़े लोगों से दोबारा मेल-मुलाकात होती ही नहीं'यहाँ 'कई बार एक बार बिछड़े लोगों से दोबारा मेल-मुलाकात होती ही नहीं' की जगह 'कई बार बिछड़े लोगों से दोबारा मेल-मुलाकात होती ही नहीं' आएगा। पेज नंबर 43 में लिखा दिखाई दिया कि..'आसमानी रंग की उसने कार उनके पास साल भर रही थी'यहाँ 'उसने कार' की जगह 'ऊनो कार' आएगा। पेज नंबर 105 में लिखा दिखाई दिया कि..'मुसलमान डोगरे उसको अपना समझते थे, पर वे खुलकर उसके साथ नहीं खड़ा होते थे'यहाँ 'उसके साथ नहीं खड़ा होते थे' की जगह 'उसके साथ नहीं खड़े होते थे' आना चाहिए। पेज नंबर 262 में लिखा दिखाई दिया कि..'वे दोनों चुपचाप बैठे व्हिस्की शिप करते रहे थे''यहाँ 'व्हिस्की शिप करते रहे थे' की जगह 'व्हिस्की सिप करते रहे थे' आएगा। पेज नंबर 264 में लिखा दिखाई दिया कि..'जंगल के वृक्षों के पत्तों उनके नीचे उड़ रहे थे'यहाँ 'वृक्षों के पत्तों उनके नीचे उड़ रहे थे' की जगह 'वृक्षों के पत्ते उनके नीचे उड़ रहे थे' आएगा। पेज नंबर 267 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..'बच्चों का पालन-पोषण माता-पिता के बजाय पेशावर लोगों द्वारा किया जाता है'यहाँ 'माता-पिता के बजाय पेशावर लोगों द्वारा किया जाता है' की जगह 'माता-पिता के बजाय पेशेवर लोगों द्वारा किया जाता है' आएगा। * लकलीफ़ - तकलीफ़* होशियर - होशियार* अस्टेट (फॉर्म) - अटेस्ट (फॉर्म) * इंग्लिस - इंग्लिश यूँ तो यह पठनीय उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से बतौर उपहार मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस बढ़िया उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है राधाकृष्ण पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 350/- रुपए जो कि कंटैंट की दृष्टो से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।