प्रकरण - ५९
मुझे अब ऑपरेशन थियेटर में ले जाया गया। मैं ऑपरेशन थियेटर में कुछ भी नहीं देख सकता था लेकिन मैं वहा डॉक्टर लोग जो भी बातें कर रहे थे वो सब सुन सकता था। अब तक रईश को मेरे लिए जो भी करना था वह सब वो कर चुका है। उसने मेरे लिए जो कृत्रिम कॉर्निया बनाई थी उसका प्रत्यारोपण अब डॉ. प्रकाश करनेवाले थे।
डॉक्टर प्रकाश, जो नेत्रदीप आई रिसर्च के कर्ताहर्ता थे वो अब मेरा ऑपरेशन करनेवाले थे। डॉक्टर प्रकाश रईश की बनाई कॉर्निया का ट्रांसप्लांट करने जा रहे थे। ऑपरेशन थिएटर के अंदर वे कह रहे थे, "डॉक्टर हर्ष! आप रोशन की आंखों में एनेस्थीसिया दे दीजिए।"
मैं समझ रहा था कि डॉ. प्रकाश, जिसे हर्ष कहकर संबोधित कर रहे थे वह अवश्य ही कोई एनेस्थेटिस्ट होंगे। कुछ ही मिनटों में मुझे लगा कि मेरी आँखें झूठी पड़ गई और सारी संवेदना ख़त्म हो गई। मेरी आंखें अब पूरी तरह से झूठी पड़ चुकी थी इसलिए उन्होंने तुरंत ऑपरेशन शुरू कर दिया। मुझे बस हल्का सा एहसास हुआ जैसे कि मेरी आँखों में कुछ हो रहा है लेकिन वास्तव में मुझे ये समझ नहीं आ रहा था कि मेरे साथ हो क्या रहा है! मुझे बताया गया था कि रईश भी ऑपरेशन थिएटर में मेरे साथ मौजूद रहनेवाला था और इसलिए मुझे कुछ शांति महसूस हो रही थी। इस विश्वास से कि रईश की उपस्थिति यहाँ थी उससे मेरा मनोबल बढ़ा रहा था।
मेरा ऑपरेशन करीब एक घंटे तक चला। उस दौरान मेरा पूरा परिवार ऑपरेशन थिएटर के बाहर मेरी आंखों की रोशनी वापस आने की प्रार्थना कर रहा था। एक घंटे बाद जब मेरा ऑपरेशन ख़त्म हुआ तो मुझे ऑपरेशन थियेटर से बाहर निकाला गया और एक विशेष कमरे में स्थानांतरित कर दिया गया।
डॉक्टर प्रकाशने मेरे पापा से कहा, "बधाई हो! सुधाकरजी! रोशनजी का ऑपरेशन बहुत सफल रहा है। उन्हें अभी चौबीस घंटे तक यहीं रखना पड़ेगा। चौबीस घंटे बाद जब उनकी आंखों की पट्टी खुलेगी तो हम सबको पता चल जाएगा कि क्या उसकी आंखों की रोशनी लौट आई या नहीं? अब चौबीस घंटे का इंतजार कीजिए और भगवान से प्रार्थना कीजिए की रोशन के जीवन में ज्योति प्रकाशित हो।
यह सुनकर मेरे पापा बोले, "डॉक्टर प्रकाश! हम सब जरूर रोशन के लिए प्रार्थना करेंगे लेकिन उससे पहले मैं आपको बहुत-बहुत धन्यवाद देना चाहता हूं। मेरे दोनों बेटों रोशन और रईश पर विश्वास करने के लिए मैं आपका बहुत ही आभारी हूं। आपने मेरे बड़े बेटे रईश पर विश्वास दिखाकर उसे अपने रिसर्च सेन्टर में नौकरी दी और मेरे छोटे बेटे रोशन का इस आशा के साथ सफलतापूर्वक ऑपरेशन किया कि उसकी आँखों की रोशनी वापस आ जाएगी। आपने हम सभी के जीवन में प्रकाश फैलाया है। अब तो केवल राह है रोशन की आंखो की ज्योति की।
मेरे पापा की यह बात सुनकर डॉ. प्रकाशने कहा, "वह वक्त भी अब बहुत जल्द आनेवाला है, सुधाकरजी! लेकिन मैं आपसे बस इतना कहना चाहता हूं कि अगर आपको मुझे धन्यवाद देना ही है, तो मुझसे ज्यादा अपने बेटे रईश को धन्यवाद दीजिए। उसके प्रयासों के बिना यह संभव नहीं हो पाता। अगर हम यह ट्रांसप्लांट कर पाए हैं तो यह सिर्फ और सिर्फ आपके बड़े बेटे रईश के कारण ही संभव हो पाया है।
नेत्रदीप आई रिसर्च से विज़न आई रिसर्च सेंटर और वहा से फिर वापस नेत्रदीप आई रिसर्च सेंटर तक का उसका सफर आसान तो नहीं रहा है, लेकिन फिर भी उसने कई बाधाओं को पार किया है और इसके लिए मैं उसके साहस की सराहना करता हूं।"
इतना कहकर डॉ. प्रकाश वहाँ से चले गये। हममें से किसी को पता ही नहीं चला कि चौबीस घंटे कहाँ बीत गए। अगले दिन एक बार फिर डॉ. प्रकाश उस कमरे में आये जहाँ मुझे रखा गया था। वो मेरी आंखों की पट्टी खोलने लगे।
जैसे-जैसे डॉक्टरने एक के बाद एक पट्टियाँ खोली, मेरी जिज्ञासा बढ़ती गई और इस दुनिया को देखने की इच्छा प्रबल होती गई। डॉक्टरने मुझे हिदायत दी थी कि पट्टी खोलने के बाद मुझे अपनी आंखें बहुत धीरे से खोलनी थी। मैं उनके निर्देशों का पालन करते हुए अपनी आँखें खोल रहा था। मेरी आँखों में अब तक जो काला अँधेरा छाया हुआ था, वह दूर होने का समय आ गया था।
मैं धीरे-धीरे अपनी आँखें खोल रहा था। मेरी आंखोने प्रकाश की पहली किरण पकड़ी। मैंने अभी अपनी आँखें खोली ही थी कि मुझे अपने सामने अपनी मम्मी और पापा के पैर खड़े हुए महसूस हुए। मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे मेरे चारों ओर ज्योति ही ज्योति छाई हुई थी।
मैंने अब अपनी आंखें हल्की सी खोली। मैं अपने सामने एक अत्यंत रोशनी से भरी दुनिया देख सकता था। मेरे लिए सब कुछ सफेद था। अब तक मेरी आंखो में जो काले रंग का अँधेरा छाया हुआ था वह अब सफ़ेद रंग का हो चुका था। मुझे आभास हो रहा था कि कोई मेरे सामने खड़ा है लेकिन मैं अभी तक किसी का चेहरा स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रहा था।
तभी मेरे परिवार के सभी सदस्य मेरे और करीब आ गये। जैसे ही वे मेरे करीब आए, मैंने तुरंत अपने मम्मी, पापा, दर्शिनी और रईश को पहचान लिया। लेकिन तभी दो औरतें मेरे पास आई, जिनमें से एक की गोद में छोटा बच्चा था। उस बच्चे को देखकर मैंने अनुमान लगाया कि यह अरमानी होगी।
जैसे ही वे दोनों मेरे पास आई, तुरंत दर्शिनीने मेरा मजाक उड़ाते हुए कहा, "कहो रोशनभाई! इन दोनों में से तुम्हारा प्यार कौन है? इन दोनों में से आपकी फातिमा को पहचानिए।"
दर्शिनी का ये सवाल सुनकर मैं तुरंत बोल पड़ा, "जिसने अरमानी को गोद में उठाया है वो ही मेरी फातिमा है।"
दर्शिनी बोली "अरे! बहुत खूब! भाई! आपने तो फातिमा को पहचान लिया। मुझे लगा था की आप अरमानी को देखकर उसे नीलिमा भाभी ही समझोगे, लेकिन आपने तो अपने प्यार को पहचान लिया..."
मैंने कहा, "मैं उसे कैसे नहीं पहचान सकता? जब वो मेरे आसपास होती है तो मुझे हमेशा इसका अहसास होता है।"
मेरी यह बात सुनकर फातिमा थोड़ा शरमा गई और उसने अपनी नजरें झुका लीं।
तभी डॉ. प्रकाशने मुझसे पूछा, "रोशनजी! आपको क्या दिख रहा है?"
मैंने कहा, "मुझे बहुत सफ़ेद रोशनी दिखाई दे रही है। मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरे सामने कुछ लोग खड़े हैं लेकिन मैं दूर से उनके चेहरे स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रहा हूँ। लेकिन जब वे मेरे पास आते हैं तो मुझे उनके धुंधले चेहरे दिखाई देते है लेकिन मैं उन सभी चेहरों को करीब से तो पहचान ही पा रहा हूं लेकिन दूर से ठीक से नहीं पहचान पा रहा हूं।"
यह सुनकर डॉ. प्रकाश तुरंत बोले, "अरे! रोशनजी! आप बिल्कुल भी चिंता न करें। आपको सही दृष्टि प्राप्त करने में लगभग चार से छह सप्ताह लगेंगे। उसके बाद आप सब कुछ स्पष्ट रूप से देख पाएंगे। लेकिन आप प्रकाश देख सकते है ये बहुत ही अच्छी बात है। अब आपकी दृष्टि में सुधार होने में लगभग चार सप्ताह जितना वक्त लगेंगा।"
उसकी यह बात सुनकर मेरी ख़ुशी चरमसीमा पर पहुँच गई थी। मुझे अब अस्पताल से छुट्टी मिल गई थी। ऑपरेशन के बाद मुझे जो सावधानियां बरतनी थीं और आई ड्रॉप डालने थे, वे सब मुझे समझा दिए गए थे। मुझसे कहा गया था कि इस बात का ध्यान रखें कि आंखों में कोई गंदगी न जाए और इसके लिए चश्मा पहनें।
देखते-देखते चार सप्ताह बीत गए। और एक सुबह जब मेरी आँख खुली तो मुझे सब कुछ बहुत ही अच्छा और स्पष्ट दिखाई देने लगा था। अब तक मेरी आंखों में जो धुंधलापन छाया हुआ था वह बिल्कुल ही गायब हो चुका था। मेरी दृष्टि अब बिल्कुल ही पहले की तरह वापस लौट चुकी थी। जैसे ही मेरी आंखों की रोशनी लौटी, मैं उछल पड़ा और चिल्लाया। मैंने चिल्लाकर घर के सभी लोगों को अपने पास बुलाया, "मम्मी! पापा! रईश! नीलिमा! दर्शिनी! फातिमा..! जल्दी यहाँ आओ सब लोग।"
मुझे इस तरह चिल्लाता देख पूरा परिवार मेरी ओर दौड़ा। मेरी नज़र सबसे पहले मेरी मम्मी और मेरे पापा पर पड़ी और मैंने कहा, "पापा! मम्मी! मैं आप दोनों के चेहरों को अब पहले जितना ही सुंदर देख पा रहा हूँ। रईश! मैं अब तुम्हें भी देख पा रहा हूँ। और दर्शिनी तुम्हे भी मैं अब बहुत अच्छे से देख पा रहा हूं। मेरी आंखें अब बिल्कुल पहले की तरह ही हो गई है।"
मेरी यह बात सुनकर रईश तो एकदम खुश हो गया और बोला, "यस! आई डिड ईट। मैंने यह कर दिखाया। उसका और मेरे पूरे परिवार का सपना आज पूरा जो हुआ था।
(क्रमश:)