प्रकरण - ५७
दिवाली का त्यौहार आया,
ढेर सारी खुशियाँ लेकर आया।
नई उम्मीदें लेकर आया,
तिमिरपंथ पे ज्योति लेकर आया।
अब दिवाली का त्यौहार आ गया था। हमारे घर में दिवाली की तैयारियां बड़े ही जोरोंशोरो से चल रही थी। मेरी मम्मी, पापा, नीलिमा, फातिमा और दर्शिनी सभी इस दिवाली की तैयारी में व्यस्त थे।
इस घर में दर्शिनी की ये आखिरी दिवाली थी। अगले साल तो वैसे भी उसकी शादी हो जानेवाली थी इसलिए वो दिवाली अपने ससुराल में ही मनानेवाली थी, इसलिए हम सभी इस दिवाली का भरपूर आनंद लेना चाहते थे। इस साल की दिवाली हमारे लिए बहुत खास थी, क्योंकि लंबे समय के बाद पूरा परिवार एकसाथ था।
समीर जल्द ही इस परिवार का हिस्सा बननेवाला था, इसलिए मेरे माता-पिताने समीर और उसकी मम्मी को यहाँ अहमदाबाद में आमंत्रित किया। वे भी ख़ुशी-ख़ुशी हमारे उत्सव में शामिल होने आये। समीर के आने से दर्शिनी भी बहुत खुश थी। उनके चेहरे पर भी रौनक थी।
वैसे भी दर्शिनी को पहले से ही कला और शिल्प में रुचि थी और इसीलिए उसने इस दिवाली के लिए विशेष दीपक बनाए थे। उसने उन मिट्टी की दियो को अपनी कला का उपयोग करके बहुत अच्छे से सजाया था। दीयों पर उसने बहुत अच्छे किस्म के डिजाइन बनाए थे। वैसे देखा जाए तो दीपावली का अर्थ होता है दीपों की माला। दर्शिनीने दीपावली उत्सव के इस नाम को बखूबी चरितार्थ किया था। उन्होंने हमारे पूरे घर के बाहर दीयों की कतार लगा रखी थी। हमारा पूरा घर दीपक की रोशनी से जगमगा उठा था। अब अँधेरे के लिए यहां कोई भी जगह नहीं थी। चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश छाया हुआ था।
दर्शिनी, नीलिमा और फातिमाने भी अलग-अलग रंगों को मिलाकर रंगोली बनाई थी। इस रंगोली में उन्होंने अपने-अपने सपने सजाए थे। इस रंगोली के ऊपर उन्होंने एक दीपक भी रखा था, जिसकी ज्योति चारों ओर फैल गई थी। ऐसा लग रहा था मानों वह दीपक मेरी आंख हो और अब प्रकाशित हो चुका था और कह रहा था की रोशन मैं बहुत जल्द तुम्हारे जीवन में रोशनी फैलाऊंगा।
कहा जाता है कि दिवाली का यह त्योहार भीतर के अंधेरे को भी उजाले में परिवर्तित करने का भी दिन है। मेरे भीतरमन में तो दूर दूर तक कोई अँधेरा नहीं था लेकिन मेरी आंखो में जो अंधेरा फैला हुआ था उसे मेरा भाई रईश अब बहुत ही जल्द दूर करनेवाला था। मेरे लिए दिवाली का ये त्यौहार तमस से ज्योति की ओर जाने का था। अब कहीं कोई तमस नहीं होगा। हर तरफ ज्योति ही ज्योति होगी। मैं इस तमसभरी दुनिया से फिर से एक बार रोशनी की और गति करनेवाला था। अब मेरा नाम भी सार्थक होनेवाला था।
दिवाली की पूजा खत्म होने के बाद रात को रईश और दर्शिनीने खूब पटाखे फोड़े। जब मैं देख सकता था तब बचपन में मैं और रईश हर दिवाली पर खूब पटाखे फोड़ते थे। हम दोनों को बचपन से ही पटाखे फोड़ने का बहुत ही शौक था, लेकिन जब से मेरी आंखों में यह तमस छाया है तब से यह संभव नहीं हो पा रहा था। इस बार मुझे ये उम्मीद जगी थी कि मैं भी एक बार फिर से जी सकूंगा और एकबार फिर से मैं भी दर्शिनी और रईश की तरह ही पटाखे फोड़ूंगा।
छोटी अरमानी पटाखों की आवाज सहन नहीं कर पा रही थी इसलिए नीलिमा उसे लेकर घर के अंदर चली गई थी। दर्शिनी और समीर दोनों भी पटाखे फोड़ने का आनंद ले रहे थे।
दिवाली की वो रात बीत गई और अगले दिन नया साल शुरू होनेवाला था। नये साल के दिन हम सब तैयार होकर सबसे पहले मंदिर में दर्शन करने के लिए गये थे। चाय नाश्ते और दोपहर के भोजन की भी व्यवस्था हमारी सोसाइटी में ही की गई थी ताकि दर्शन के बाद घर लौटने पर सभी लोग हमारी सोसायटी में एक दूसरे से मिल सके।
लंच ख़त्म होते-होते एक बज गया था। दोपहर को सब लोग अपने-अपने घर जाकर आराम करने लगे। इसके बाद रात में हमारी ओर से भी एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया।
उस नए साल की रात, मैंने और मेरे परिवारने हमारी पूरी सोसायटी में गरबा खेलने के उत्सव का आयोजन किया था और सभी को आमंत्रित किया था। सभीने मेरा निमंत्रण सहर्ष स्वीकार किया था।
निषाद मेहता को मैंने अपनी सोसायटी में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था, इसलिए हमारी सोसाइटी के सभी लोग उन्हें देखने के लिए बहुत ही उत्सुक थे। हमारे निमंत्रण का सम्मान करते हुए नये साल की पहली रात सभी लोग हमारी सोसायटी के प्रांगण में एकत्र हुए। मैंने गरबा की धुनें बजाई और हर कोई मेरी धुनों पर थिरकने लगा। गरबा खत्म होने के बाद हमने नीचे सोसायटी के गार्डन में डिनर का भी इंतजाम किया था।
नये साल का वो त्योहार हर्षोल्लास के साथ संपन्न हुआ था। अगले दिन हमने भाईबीज उत्सव भी बहुत अच्छे से मनाया। दर्शिनीने हम दोनों भाइयों के लिए प्यार से हमारा मनपसंद खाना बनाया था और हम दोनों को प्यार से खिलाया था। हम दोनों भाइयों के बीच दर्शिनी एक ही बहन थी, इसलिए हमने उसे एक आईफोन भी उपहार में दिया था जो उसे बहुत पसंद आया था। वैसे भी दर्शिनी काफी समय से आईफोन लेना चाहती थी। हमने उसकी इस इच्छा को पूरी कर दी थी। भाईबीज के त्यौहार के बाद समीर और उसकी मम्मी राजकोट वापस चले गए।
सभी त्यौहार कहाँ ख़त्म हुए और देखते ही देखते लाभपंचम का दिन कब आया पता ही नहीं चला। परिवार के साथ त्योहार मनाने का आनंद अद्वितीय होता है। उस वक्त कोई भी नहीं जानता था कि इस वर्ष का लाभपंचम हम सभी के लिए क्या लाभ लेकर आनेवाला है!
लाभपंचम के दिन रईश एक बार फिर नेत्रदीप रिसर्च सेन्टर पर आ पहुंचा था। उन्होंने मेरे ऑपरेशन की सारी तैयारियां शुरू कर दी थी। उसके लिए आवश्यक सभी उपकरण, उपभोग्य वस्तुएं आदि का ऑर्डर दिया गया था। कुछ ही दिनों में रईशने जो भी ऑर्डर किया था वह सब आ गया। मेरे ऑपरेशन की सारी तैयारियां अब हो चुकी थी।
मेरे ऑपरेशन की तारीख 2 नवंबर तय की गई थी। नवंबर की दूसरी तारीख आने को अभी दो दिन की दूरी थी लेकिन मैं अपने ऑपरेशन को लेकर बहुत ही उत्साहित था। ये दो दिन मुझे बहुत लंबे लग रहे थे। ऐसा लग रहा था कि वक्त भी थी नहीं रहा है। उस दिन मैं चुपचाप अपने कमरे की बालकनी में एक कुर्सी पर बैठा था की तभी मुझे फातिमा के कदमों की आहट सुनाई दी।
फातिमा वहा से वापस लौटने ही वाली थी की तभी मैंने उसे रोका और कहा, "अरे फातिमा! तुम यहां तक आकर वापस क्यों जा रही हो? तुम थोड़ी देर यहीं मेरे पास बैठो। मैं तुमसे कुछ जरूरी बात करना चाहता हूं।"
मेरी यह बात सुनकर फातिमा तुरंत मेरे पास आई। वह मेरे पास आकर बैठ गई तो मैंने उसे अपने मन की बात बताई।
(क्रमश:)