प्रकरण - ५५
दर्शिनी और समीर की सगाई तय करने के बाद, जब सभी लोग अपने-अपने काम पर चले गए थे तब मैं और मेरी मम्मी घर में अकेले थे, तो हम दोनों अपने घर के हॉल में सोफे पर बैठ गए।
मैंने मम्मी से पूछा, "कहो मम्मी! तुम मुझसे क्या बात करना चाहती हो?"
मेरी मम्मीने उत्तर दिया, "रोशन! बेटा! मैं तुमसे फातिमा के बारे में कुछ बात करना चाहती हूँ। मैं फातिमा के साथ तुम्हारे रिश्ते के बारे में बात करना चाहती हूँ।"
मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरी मम्मी मुझसे ये बात करेगी!
मैं तुरंत बोल पड़ा, "मम्मी! ये तुम क्या कह रही हो?"
मेरी मम्मीने कहा, "मैं बिल्कुल सही कह रही हूं रोशन! मैं यह भी जानती हूं कि तुम और फातिमा एक-दूसरे से प्यार करते हो। मैं यह भी जानती हूं कि जब फातिमाने तुमसे अपने प्यार का इजहार किया था तो तुमने उसके प्यार को ठुकरा दिया था।"
मैंने पूछा, "लेकिन मम्मी! आपको इन सब बातों के बारे में कैसे पता चला? क्या रईशने तुम्हे इस बारे में बताया था?" मैंने अपनी मम्मी से पूछा।
मेरे प्रश्न का उत्तर देते हुए मेरी मम्मीने कहा, "नहीं! रईशने मुझे कुछ नहीं बताया था लेकिन नीलिमाने मुझे यह सब बताया। जब रईश अमेरिका गया था, तब वो तुम्हारे और फातिमा के रिश्ते की ज़िम्मेदारी नीलिमा पर छोड़कर गया था। उसने तुम्हे और फातिमा तुम दोनों को समझाने का काम नीलिमा पर छोड़ दिया था। लेकिन नीलिमा अकेले यह काम नहीं कर पाती। उसे इस कार्य में मेरी मदद की जरूरत थी और इसीलिए नीलिमाने मुझसे इस मामले पर बात की।
तब मैंने ही नीलिमा से कहा कि, "मैं जरूर रोशन के साथ इस मामले में बात करूंगी। मेरा यहां अहमदाबाद आने का कारण भी तुम ही हो बेटा! मैं तुम्हारे लिए ही यहां पर आई हूं बेटा। फातिमा एक बहुत ही अच्छी लड़की है। तुम क्यों उसको अस्वीकार कर रहे हो?"
मैंने मम्मी से कहा, "मम्मी! मैं फातिमा के प्यार को कैसे स्वीकार कर सकता हूँ? मेरी आँखें... मैं उसकी जिंदगी कैसे बर्बाद होने दे सकता हूँ मम्मी?"
मेरी मम्मीने मुझे समझाते हुए कहा, "बेटा! सबसे पहले तो तुम अपने मन से इस बात को निकाल दो की तुम उसके लायक नहीं हो। सबसे पहले तो तुम अपने आप के बारे में बुरा सोचना बंद करो। फातिमा तुम्हे तुम्हारे सभी गुणों और अवगुणों, तुम्हारी पूर्णताओं और अपूर्णताओं के साथ प्यार करती है। तो फिर तुम क्यो उसकी भावनाओं के साथ खेल रहे हो? ये तुम उसके साथ ठीक नहीं कर रहे हो। मुझे तुमसे बस इतना कहना है कि तुम उसकी भावनाओं को भी समझो।
मैंने मम्मी के साथ फिर से विवाद किया, "मम्मी! मैं अपने लिए उसकी भावनाओं को समझता हूँ लेकिन मुझे क्षमा करें मम्मी! मैं उसे स्वीकार नहीं कर सकता। सब कुछ जानते हुए मैं उसे कैसे अंधेरे में धकेल दूँ? आप भी तो मेरे मन की बात को समझिए न मम्मी!
मेरी मम्मी मेरी ये बात सुनकर मुझसे थोड़ी नाराज़ सी हो गई थी जो मुझे उसकी आवाज़ से समझ आ रहा था। उन्होंने उस गुस्से में मुझसे कहा, "बेटा! मुझे लगा था कि तुम मेरी बात को समझोगे, लेकिन तुम तो कुछ भी समझने को तैयार ही नहीं हो। तुमसे अब इस बारे में बात करना एकदम बेकार है। मेरी ही भूल थी की मैंने तुम्हे समझाने की कोशिश की।"
यह जानते हुए कि मेरी मम्मी इतनी क्रोधित है, मैंने उनसे कहा, "मम्मी! सबसे पहले तो आप शांत हो जाईए। सही समय आने पर मैं जरूर आपकी बात सुनूँगा। मैं आपसे वादा करता हूँ की जब सही वक्त आएगा तब मैं खुद ही फातिमा से अपने प्यार का इज़हार करुंगा।"
"और वो वक्त कब आएगा?" मेरी मम्मीने मुझसे पूछा।
जिस दिन मेरी आंखों का ऑपरेशन होगा, उस दिन ऑपरेशन थियेटर में जाने से पहले मैं फातिमा को अपने दिल की बात बताऊंगा! उस वक्त मैं यह नहीं सोचूंगा कि मेरी आंखों की रोशनी लौटेगी या नहीं? मैं बिना कोई नतीजा सोचे फातिमा से अपने दिल की बात कह दूंगा। ये मेरा आपसे वादा है। अब तो आप खुश है न मम्मी?"
यह सुनकर मेरी मम्मी तुरंत उत्तेजित हो गई और बोली, "सचमुच! रोशन! तुम ऐसा करोगे? अगर तुम ऐसा करोगे तो मुझे सबसे ज्यादा खुशी होगी। चलो! अब मुझे खाना बनाना है। मैं अब रसोई में जा रही हूं।" इतना कहकर मेरी मम्मी रसोई में जाकर खाना बनाने लगी और मैं भी अपना रियाज़ करने में व्यस्त हो गया।
इधर फातिमा, ममतादेवी और मेरे पापा स्कूल पहुंच गये थे। विद्यालय के आंगन में कदम रखते ही ममतादेवी को एक अनोखा आनंद महसूस हुआ। वहां आकर उन्हें एक अनोखी शांति का अनुभव हुआ। वो बोली, "आज तुम्हारा सपना सच हो गया विजय!"
ममतादेवी के मुँह से पहली बार किसी आदमी का नाम सुनकर फातिमाने पूछा, "मैडम! यह विजय कौन है? आप किसके बारे में बात कर रही हो? मैंने पहलीबार आपके मुँह से किसी आदमी का नाम सुना है। आप हमे ये बताओ की यह विजय कौन है?”
फातिमा के सवाल का जवाब देते हुए ममतादेवी ने कहा, "विजय मेरे पति का नाम था। मैं एक विधवा हूं। विजय के पिता अंधे थे और यहां अहमदाबाद में ही रहते थे। उनका सपना था कि वह नेत्रहीन लोगों को शिक्षा दिलाने के लिए एक स्कूल स्थापित करे। समय और परिस्थितियाँ अनुकूल न होने के कारण वे ऐसा नहीं कर सके। जब उनकी मृत्यु हुई थी तो उन्होंने मुझसे कहा था, "ममता! आप मेरा यह सपना पूरा करना।" उन्होंने मुझसे वादा लिया था कि मैं उनका वो सपना जरूर पूरा करूंगी।"
विजय की मौत के बाद मेरी सास मुझे उसकी मौत का जिम्मेदार मानने लगी और मुझे घर से निकाल दिया। मैं अब राजकोट में अपने माता-पिता के घर चली गई, लेकिन अभी भी मेरा संघर्ष खत्म नहीं हुआ था। जल्द ही मेरे माता-पिता की भी एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई।
मैं अपने मातापिता की एक ही संतान थी, इसलिए उन्होंने अपनी सारी संपत्ति मेरे नाम कर दी थी। जब मुझे अचानक एक साथ इतना सारा पैसा मिल गया तो मैंने सोचा कि मैं अपने इस पैसे का इस्तेमाल किसी अच्छे काम में करूंगी। मैंने तय किया की मैं विजय के पापा का विद्यालय बनाने का जो सपना था उसे जरूर पूरा करूंगी। मैं अपना सारा पैसा इसी कार्य में लगाऊंगी।
इस विद्यालय को बनाने में मैंने कड़ी मेहनत की है और आज उसका नतीजा आपके सामने है। मैंने इस विद्यालय की स्थापना राजकोट में की थी लेकिन विजय की इच्छा थी कि यह संस्थान अहमदाबाद में स्थापित हो और इसीलिए मैंने अहमदाबाद में दूसरा विद्यालय बनाने का यह काम फातिमा को सौंपा था और फातिमाने भी इसे बखूबी निभाया। आज विजय और उसके पापा दोनों का वो सपना सही मायने में पूरा हुआ।
फिर वह फातिमा की ओर मुड़ी और कहा, "फातिमा! मेरा और विजय का सपना पूरा करने के लिए मैं तुम्हें बहुत-बहुत धन्यवाद देती हूं।"
फातिमा बोली, "इस तरह मुझे धन्यवाद देकर आप मुझे शर्मिंदा ना करे। हम इस बात से पूरी तरह अनजान थे कि आपके जीवन में इतना कुछ हो चुका है। मैं सचमुच आपको दिल से सलाम करती हूं।"
अब तक मेरे पापा जो अब तक चुपचाप ममतादेवी की बात सुन रहे थे वे भी बोल उठे, "ममतादेवी! आप सच में महिला सशक्तिकरण की मिसाल हो और उसके लिए मैं आपको तहे दिल से सलाम करता हूं।"
उसके बाद उन्होंने पूरे स्कूल का दौरा किया और वह हमारे घर वापस आये। ममतादेवीने हमें अपने जीवन की कहानी बताई जो सुनकर हमें थोड़ा दु:ख भी हुआ पर साथ साथ उन पर गर्व भी महसूस हुआ।
अगली सुबह ममतादेवी राजकोट के लिए रवाना हो गईं।
(क्रमश:)