दिल्ली के भीड़-भाड़ वाले जीवन में आशीष एक साधारण सी ज़िन्दगी जीता था। काम का बोझ, दिन-रात की भागदौड़, और चार्टर्ड अकाउंटेंट होने की ज़िम्मेदारियाँ उसे शायद ही कभी सांस लेने का वक्त देती थीं। आशीष एक प्रसिद्ध CA फर्म में काम करता था और उसके क्लाइंट्स में बड़े-बड़े नाम शामिल थे। मगर इस बार उसे एक नए क्लाइंट के ऑडिट के लिए भेजा गया, देहरादून के एक प्राइवेट अस्पताल में।
देहरादून—दिल्ली से एकदम अलग। पहाड़ों की ठंडी हवाएं, शांत वातावरण, और शहर की आपाधापी से दूर। आशीष को ऑडिट के काम से कोई खास लगाव नहीं था, पर उसे लगा कि शायद इस बार कुछ नया होगा। अस्पताल में पहला दिन व्यस्त रहा, एकदम पेशेवर अंदाज़ में। लेकिन दूसरे दिन, उसकी मुलाकात हुई किसी खास से।
दीया, अस्पताल की एक यंग और तेज़-तर्रार डॉक्टर। जब आशीष अपने पेपर्स लेकर ऑफिस में बैठा था, तभी दीया अंदर आई। सफेद कोट में लिपटी, घुंघराले बाल, और आँखों में एक अलग सी चमक। “आप ऑडिट वाले हैं?” उसने सवाल किया, जैसे आशीष उसकी टीम का हिस्सा हो।
आशीष ने थोड़े सरप्राइज होकर कहा, “जी हां, ऑडिट ही कर रहे हैं... और आप?”
“डॉक्टर हूँ... पर आपकी फ़ाइलें देखकर ऐसा लग रहा है कि आपको ही डॉक्टर की ज़रूरत है। क्या इतनी मेहनत जरूरी है?” उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा।
“काम की आदत है, और आपको देखकर लग रहा है कि यहाँ का इलाज सही होगा,” आशीष ने जवाब दिया, और दोनों के बीच हंसी की हल्की सी लहर दौड़ गई।
आशीष और दीया की मुलाकातें बढ़ने लगीं। अस्पताल में उनके बीच छोटे-मोटे बहस और मज़ाक का सिलसिला चल पड़ा था। दीया अक्सर आशीष की टेबल के पास से गुजरते हुए उसकी ऑडिट रिपोर्ट पर टिप्पणी कर देती, "इतने पन्नों में क्या जाँच रहे हो, क्या अस्पताल बेच रहे हो?"
"आपका काम तो बस एक-दो इंजेक्शन देने का है, यहाँ हमें अस्पताल के हर कोने की पड़ताल करनी होती है," आशीष ने जवाब दिया।
अगले कुछ दिनों में, आशीष और दीया के बीच हर मुलाकात में हंसी-ठिठोली और तकरार बढ़ती चली गई। आरव हर बार कोई नई गलती ढूंढता, और दीया उसे फिर से गलत साबित करती। एक दिन, जब दीया कैंटीन में चाय पी रही थी, आशीष अचानक वहां आ गया और चिढ़ाते हुए बोला, "डॉक्टर साहिबा, इस चाय में तो कोई फाइल मिसिंग नहीं है ना?"
दीया हंसते हुए बोली, "नहीं मिस्टर अकाउंटेंट, यहाँ सब कुछ परफेक्ट है। वैसे आप इतनी फाइल्स में क्या ढूंढते रहते हैं?"
आशीष ने शरारत भरी आँखों से कहा, "शायद किसी की मुस्कान ढूंढ रहा हूँ।"
दीया ने उसकी बात को हल्के में लेते हुए कहा, "मुस्कान यहाँ फाइल्स में नहीं, दिल में होती है।"
एक दिन, दीया ने उसे चाय पीने के लिए बुलाया। देहरादून की एक छोटी सी चाय की दुकान पर, जहाँ अक्सर दीया अपने दोस्तों के साथ जाती थी। आशीष को पहली बार एहसास हुआ कि दीया सिर्फ एक डॉक्टर नहीं, बल्कि बहुत मज़ाकिया और खुशमिजाज इंसान थी। दोनों ने पहाड़ों की ठंडी हवाओं में चाय की चुस्कियाँ लेते हुए खूब बातें कीं—दिल्ली के शोरगुल से लेकर देहरादून की शांति तक।
दीया ने कहा, “तुम दिल्ली वाले बहुत तेज़ हो। सब कुछ फटाफट कर लेना चाहते हो, जैसे सब कुछ भाग रहा हो।”
आशीष ने मुस्कुराते हुए कहा, “और तुम देहरादून वाले बहुत धीमे। जैसे वक्त ही रुक गया हो।”
“कभी-कभी रुकना अच्छा होता है,” दीया ने धीमी आवाज़ में कहा, और आशीष को लगा कि उसके दिल की धड़कन सच में रुक गई हो।
कुछ दिनों बाद आशीष का ऑडिट का काम खत्म हो गया, और उसे वापस दिल्ली लौटना पड़ा। जाते वक्त, दीया से आखिरी बार मिलते हुए आशीष ने मज़ाकिया अंदाज़ में कहा, “तो अब मैं दिल्ली जा रहा हूँ, वहाँ के शोरगुल में तुम्हारी यादें शायद दब जाएंगी।”
दीया ने हंसते हुए जवाब दिया, “दिल्ली के शोरगुल में नहीं, पर दिल के कोने में थोड़ी सी जगह ज़रूर बना लेना मेरे लिए।”
आशीष दिल्ली आ गया, मगर उसका दिल वहीँ, देहरादून की वादियों में कहीं अटका हुआ था। उसने अपने दोस्तों से कहा, “चलो, इस वीकेंड जिम कॉर्बेट चलते हैं।” दोस्तों ने खुशी-खुशी हाँ कर दी, लेकिन उन्हें नहीं पता था कि आशीष की असली मंशा क्या थी—वह दीया से मिलने के बहाने देहरादून जा रहा था।
आशीष अपने दोस्तों के साथ देहरादून पहुँचा, और बिना किसी को बताए सीधे अस्पताल पहुंचा। दीया जब उसे वहां देखकर हैरान रह गई। “तुम यहाँ क्या कर रहे हो?” उसने चौंकते हुए पूछा।
“बस एक छोटा सा काम था, सोचा चाय पीते हुए निपटा लूँ,” आशीष ने शरारत भरे अंदाज़ में जवाब दिया।
दीया ने उसे घूरते हुए कहा, “सच बताओ। तुम मुझसे मिलने आए हो, है न?”
आशीष ने हंसते हुए कहा, “तुम्हें कैसे पता चला? और वैसे भी, जब दिल खींचता है, तो दूरी मायने नहीं रखती।”
दोनों ने फिर से चाय की दुकान पर जाकर खूब बातें कीं। इस बार उनकी नोकझोंक कुछ ज्यादा ही प्यारी हो चुकी थी। आशीष ने कहा, “तुम्हारे पास मेरे लिए वक्त ही नहीं होता, बस मरीजों के साथ ही मसरूफ रहती हो।”
दीया ने जवाब दिया, “तुम्हारे लिए डॉक्टर ही बनी रहती हूँ, अब समझ लो।”
अब दोनों का रिश्ता पहले से गहरा हो गया था। पहाड़ों की हवाओं में इश्क़ की महक थी, और दोनों के बीच एक अलग ही कनेक्शन बन गया था।
एक दिन, आशीष ने दीया से कहा, "कब तक तुम्हें यूं चुपचाप देखता रहूंगा? शायद अब वक्त आ गया है कि मैं अपने दिल की बात कह दूं।"
दीया ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "दिल्ली वाले कभी भी जल्दी में होते हैं, क्या तुमने देखा नहीं, यहाँ वक्त धीरे-धीरे चलता है?"
आशीष ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा, "पर इश्क़ का कोई वक्त नहीं होता, ना पहाड़ों में, ना शहरों में। वो बस हो जाता है, जैसे मुझे हो गया।"
दीया कुछ पल के लिए चुप रही, फिर धीरे से बोली, "मुझे लगा था कि तुम यह कभी नहीं कहोगे। लेकिन शायद तुम सही हो—इश्क़ का कोई समय नहीं होता।"
इस इकरार के बाद, दोनों के बीच प्यार और भी गहरा हो गया। आशीष अक्सर देहरादून जाने के बहाने ढूंढता, और दीया उसकी नोकझोंक का जवाब अपनी प्यारी मुस्कान और मीठी बातों से देती।
उनके बीच प्यार की इस कहानी में बहुत सारे छोटे-छोटे पल थे, जो किसी भी बड़े इश्क़ की नींव बनाते हैं। कभी चाय की दुकान पर बैठकर, कभी पहाड़ों के रास्तों पर चलते हुए, दोनों ने अपनी ढाई मन ज़िन्दगी को एक तोला इश्क़ में समेट लिया था।