Dwaraavati - 50 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 50

Featured Books
Categories
Share

द्वारावती - 50

50

सूर्यास्त का समय हो रहा था। समुद्र की तरंगें अपना कर्तव्य निभाती हुई तट पर जाकर विलीन हो रही थी। वह अपना कर्तव्य शांत रूप से निभा रही थी। उनमें कोई उन्माद न था। समुद्र का यह रुप इतना शांत था जैसे कोई शांत नदी। 
इतनी शांति में पूर्णत: शांति से गुल की प्रतीक्षा कर रहा था केशव। एक असीम शांति व्याप्त थी वहाँ। 
सूर्य अपने लक्ष्य के प्रति गति कर रहा था। उसकी गति तीव्र होती जा रही थी। केशव उस गति को शांत चित्त से निहार रहा था। सूर्य क्षितिज पर आ गया। समुद्र के स्पर्श से अल्प अंतर पर था वह। सूर्य के समुद्र स्पर्श की क्षण की केशव प्रतीक्षा कर रहा था। 
‘यह केवल स्पर्श मात्र है या संगम? यह संगम प्रतिदिन होता है। किंतु आज से पूर्व मैं इस क्षण का साक्षी नहीं बन पाया। आज भी कदाचित यह संगम का अंतिम दर्शन होगा इस स्थान से। कल से किसी अन्य स्थान से संगम देखने का अवसर प्राप्त होगा। होगा या नहीं यह भी मुझे ज्ञात नहीं है। यदि इस समय गुल यहाँ होती तो…. तो गुल के साथ भी तुम्हारा संगम अंतिम होता।’
‘यदि आएगी तो।’
‘और यदि गुल नहीं आइ तो?’
‘तो अंतिम संगम आज प्रातः काल हो ही गया है।’
केशव के मन के तर्क वितर्क चल रहे थे उसी क्षण सूर्य ने समुद्र का स्पर्श कर लिया। उसे देख केशव उत्साह में उठ कर समुद्र की तरफ़ चलने लगा। उस स्पर्श में खो गया। सूर्य समुद्र के भीतर समा गया। केशव समुद्र से बाहर आ गया। तट पर उसके सम्मुख गुल खड़ी थी। 
“गुल? कब से आकर तुम यहाँ खड़ी हो?”
गुल ने उत्तर नहीं दिया। वह रेत पर बैठ गई। केशव उसके समीप बैठ गया। 
“केशव, आज तुम इस समय समुद्र के भीतर क्यों गए?”
“समुद्र के भीतर जाने का कोई निश्चित समय होता है क्या?”
“नहीं। मेरा तात्पर्य …।”
“तो ऐसे प्रश्न क्यों?” 
“पूछे जाने वाले प्रत्येक प्रश्नों के तात्पर्य हो यह आवश्यक नहीं।तथापि हम अनायास ही ऐसे प्रश्न पूछ लेते हैं।”
“ऐसे प्रश्नों के उत्तर देना आवश्यक होता है क्या?”
“नहीं। वास्तव में ऐसे प्रश्नों के कोई स्पष्ट उत्तर होते ही नहीं।”
“तो हम ऐसे प्रश्न पुछते ही क्यों हैं?”
“अहम न जानामि।”
“भवति संस्कृत जानाति?”
“यहाँ भवति के स्थान पर त्वम का प्रयोग करते तो उचित रहेता।”
“तुम इतना संस्कृत जानती हो गुल?”
“हाँ।”
“कैसे?”
“काच: कांचन संसर्गात मारकतीम ध्युतिम धत्ते।”
“ओह। तो तुम यह भी जानती हो।”
“अवश्य।”
“तो तुम काँच हो।काँच की प्रकृति को तुम जानती ही हो। वह सरलता से टूट जाते हैं।”
“तो क्या तुम गुल नाम के काँच को तोड़ने की मनसा से यहाँ आए हो?”
गुल की बात से केशव विचलित हो गया। 
‘जिस बात को कहने के लिए आज मैंने गुल को यहाँ बुलाया है यदि वह बात मैंने उसे कह दी तो क्या वह टूट जाएगी? और यदि इस समय वह टूट गई तो, टुकडों में बिखर गई तो? तो उसे पुन: समेटना कठिन हो जाएगा।’
‘यदि समेटना असम्भव ही हो गया तो?’ 
इस विचार पर केशव रुक गया। निश्चय कर लिया। स्वगत ही बोल पड़ा, “नहीं।नहीं।”
समुद्र को देख रही गुल ने केशव के शब्द सुने। 
“क्या हुआ केशव? किस बात पर नहीं, नहीं कह रहे हो?”
केशव सचेत हो गया। 
“गुल नाम के काँच को तोड़ना नहीं है मुझे।बस यही बात है।”
“मुझे इस समय यहाँ बुलाने का क्या प्रयोजन है, केशव?”
“बताता हूँ। प्रथम यह कहो कि तुम और तुम्हारा परिवार सुरक्षित तो है ना?”
“अभी तक तो है। कल क्या होगा कोई नहीं जानता।”
“कल क्या हो सकता है?”
“मृत्यु से अधिक कोई किसी की क्या क्षति कर सकता है?”
“मृत्यु?” विचलित हो गया केशव। उसने गुल के मुख को देखा। वहाँ भय के कोई भाव नहीं थे। सहज, सरल एवं निर्लेप होकर वह समुद्र को देख रही थी। 
“गुल, तुम्हारा अर्थ है कि वह लोग आप सबको मार डालेंगे?”
“हाँ। मैं यह बात पहले भी कह चुकी हूँ।”
“इस बात का तुम्हें कोई भय नहीं?”
“नहीं। केशव।”
“गुल, मैं मृत्यु की बात कर रहा हूँ। तुम समज रही हो ना? मृत्यु।”
“हाँ केशव। मेरे मन में कोई संदेह नहीं है। मृत्यु शब्द के अर्थ को मैं स्पष्ट रूप से समजती हूँ।”
“तो तुम इतनी निर्लेप, इतनी स्थिर कैसे रह सकती हो?”
“तो क्या मैं विचलित हो जाऊँ? मृत्यु के भय से भयभीत हो जाऊँ?”
“किंतु मृत्यु कभी भी आ सकती है।”
“जब मृत्यु से मिलन होगा तब मृत्यु के विषय में विचार करूँगी।”
“किंतु ….।”
“इस क्षण तो जीवित हूँ न?”
“तो …।”
“मृत्यु के विषय में इतना ना सोचो केशव। मृत्यु से पूर्व, मैं जो भी समय शेष है उसे जीना चाहती हूँ। और मैं जी रही हूँ। मृत्यु से पूर्व मृत्यु में मेरी कोई रुचि नहीं है।”
“यह धैर्य, यह परिपक्वता कहाँ से प्राप्त कर लेती हो तुम गुल?”
“गुरुकुल से।”
“क्या? तुम गुरुकुल समय समय पर आती जाती रहती हो।जब कि मैं वहाँ निरंतर निवास करता रहा हूँ। किंतु मैं मृत्यु के भय से मुक्त नहीं हो सका हूँ।तुम उस भय से मुक्त हो। यह कैसी विडम्बना है गुल?”
गुल ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह निर्लेप भाव से समुद्र को देखती रही। केशव विचारों के समुद्र में खो गया।
‘गुल मृत्यु के भय से भी विरक्त है। मेरी बात जो मैं कहना चाहता हूँ उस बात से भी वह विरक्त ही रहेगी। वह काँच की भाँति टूट नहीं सकती। उसका मनोबल कितना दृढ़ है।’
‘तो क्या गुल को वह बात कह देनी चाहिए?’
‘अवश्य कह दो, केशव।’
केशव कुछ निर्णय कर सके उससे पूर्व ही गुल ने कहा, “केशव, जिस बात के लिए तुमने मुझे यहाँ बुलाया था वह क्या है?”
केशव ने एक गहन श्वास ली, स्वयं को स्वस्थ करते हुए बोला, “गुल, कल प्रातः सूर्योदय से पूर्व मैं गुरुकुल छोड़कर चला जाऊँगा।” केशव ने आँखें बंद कर ली। 
“क्यों जा रहे हो? कहाँ जा रहे हो? कब लौटोगे?” बिना किसी उन्माद के गुल ने पूछा। 
“मैं मिठापुर जा रहा हूँ। यहाँ से बीस किलोमीटर पर वह नगर है। मेरी दसवीं कक्षा का परिणाम आ चुका है। ग्यारहवीं तथा बारहवीं कक्षा विज्ञान के विषयों के साथ करना चाहता हूँ। इसी कारण मैंने वहाँ के विद्यालय में प्रवेश प्राप्त कर लिया है। दो वर्ष तक मैं वहीं रहकर अध्ययन करूँगा।” केशव ने बंद आँखों से ही सारी बात कह दी।
“केशव, यह सब कब हुआ? कैसे हुआ? तुमने मुझे बताया ही नहीं।”
“बता तो रहा हूँ मैं।” केशव ने आँखें खोल दी।
“अब बता रहे हो? जब कल जाने का समय आ गया है तब तुम मुझे सूचित कर रहे हो? बिना बताए ही चले जाते।” गुल रुष्ट गई। 
“शांत हो जाओ गुल। तुमसे मुझे ऐसी प्रतिक्रिया की अपेक्षा न थी।”
“क्यों नहीं थी? क्या मुझे इतना भी अधिकार नहीं कि मैं इस बात पर तुमसे लड सकूँ? रूठ सकूँ?”
“मुझे आश्चर्य हो रहा है कि जो बालिका मृत्यु के भय से विचलित नहीं हो रही है वह मेरे जाने की बात से रुष्ट हो जाती है!”
“केशव मृत्यु और जीवन दो भिन्न अवस्था है। मृत्यु के समय कोई तृष्णा नहीं होती है किंतु मृत्यु से पूर्व जो जीवन है उसमें चंचलता, सुख, दुःख, भय, काम, क्रोध, मोह, तृष्णा आदि भाव होते हैं। यही तो जीवन है। और मैं अभी जीवित हूँ।”
“गुल, आज मुझे तुम्हारे भिन्न रूप का दर्शन हो रहा है। कितनी परिपक्व हो तुम?”
गुल ने अपने ओष्टों पर मंद हास लाकर प्रतिभाव दिया। उसे देख केशव को कुछ सांत्वना मिली। वह शांत हो गया। कुछ क्षण दोनों मौन बैठकर अवनी पर उतर रहे तमस को देखते रहे। जैसे जैसे प्रकाश अल्प होता गया, वैसे वैसे समुद्र का रंग भी बदलने लगा। गुल के मनोभाव भी बदलने लगे।
“दो वर्ष के अध्ययन के पश्चात क्या योजना है?” गुल ने केशव के दो वर्ष के वियोग को स्वीकार लिया। 
“मैं अंतरिक्ष विज्ञान का अध्ययन करना चाहता हूँ।”
“तो अब तुम अंतरिक्ष में जाने की योजना बना रहे हो?”
“मनसा तो यही है।”
“किस ग्रह पर जाओगे?”
“अहम न जानामि।”
केशव के इस उत्तर ने गुल के मुख पर हास उत्पन्न कर दिया। केशव भी हँस पड़ा। 
“तुम्हारी अनुमति है मुझे उस मार्ग पर जाने के लिए?”
“जो सब कुछ निश्चित करके आता है वह अनुमति नहीं विदाई माँगता है।”
“गुल।”
“तुम मेरी विदाई मांगने ही आए हो ना, केशव?”
केशव निरुत्तर हो गया। उसके मन में ग्लानि भर आइ जो उसके मुख पर स्वतः प्रकट हो गई। गुल ने उसे देख लिया।
“केशव, जाओ। अपने पथ पर आगे बढ़ो।लक्ष्य को प्राप्त करो। मैं तुम्हें प्रसन्नता से बिदा कर रही हूँ।” गुल खड़ी हो गई और आशीर्वाद मुद्रा में बोली, “तथास्तु।”
गुल की इस चेष्टा से प्रभावित केशव ने गुल के समक्ष अपना शीश झुका दिया, “हे देवी, आपके आशीष सदैव मेरी शक्ति बनी रहे।”
“उठो वत्स। और कहो कि अन्य क्या मनसा है तुम्हारे मन में?” अभिनय करते करते गुल हँस पड़ी। 
केशव उठा, “एक और प्रार्थना है देवी से।”
“कहो वत्स।”
“तुम्हारे मुख से पुन: एक बार निर्वाण षट्कम सुनना चाहता हूँ।”
गुल ने अपना ध्यान महादेव की पताका पर केंद्रित किया, आँखें बंद कर ली।
“केशव, तुम भी अपनी आँखें बंद कर शिवजी का ध्यान धरो।” केशव ने गुल की बात का अनुपालन किया। कुछ निमिष पश्चात गुल के मुख से निर्वाण षट्कम का गान होने लगा। 
मनो बुद्धि अहंकार …….
…………. शिवोहम शिवोहम।
मंत्रों का प्रवाह चलता रहा। केशव उसे ध्यान से सुनता रहा। अनन्य अनुभूति का अनुभव करने लग। जैसे मंत्रों के शब्द किसी प्रवाह का रुप धारण कर उसके तन को स्पर्श करने लगे हो। उस प्रवाह ने केशव को गुल के साथ एक सेतु से जोड़ दिया। उस क्षण केवल वह प्रवाह ही प्रवाहित था। अन्य सब कुछ स्थिर हो गया। समय वहीं ठहर गया। संध्या का प्रकाश तथा मद्धम तमस गतिहीन हो गए। पवन की लहरें जम गई। समुद्र की जो लहरें तट पर आ गई थी वह सभी पुन: समुद्र के भीतर जाने की चेष्टा ही नहीं कर रही थी। महादेव की पताका भी लहराना भूल गुल के मंत्रों को सुनने लगी। अद्वितीय दिव्य क्षण का निर्माण हो गया।