Dwaraavati - 47 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 47

Featured Books
Categories
Share

द्वारावती - 47



47

गुल जब घर लौटी तो उसने देखा कि उसके आँगन में अनेक लोगों की भीड़ जमी हुई थी। भीड़ के मध्य में उसके पिता हाथ जोड़े मस्तक झुकाए खड़े थे। भीड़ में से कुछ लोग बुलंद स्वरों में कुछ बोल रहे थे। गुल की मां एक कोने में खड़ी खड़ी रो रही थी। 
गुल वहीं रुक गई। किसी का ध्यान उस पर पड़े उससे पूर्व वह छुप गई। 
कुछ समय पश्चात मां तथा पिता को डराकर भीड़ चली गई। गुल दौड़कर घर में चली गई। मां – पिता डरे हुए बैठे थे। गुल ने मां का हाथ पकड़ लिया। पिता ने गुल के कंधे पर हाथ रखा और गुल को देखते रहे। गुल की आँखों में प्रश्न थे जिनका उत्तर देना उस समय दोनों को उचित नहीं लगा। न ही उन दोनों में इतना साहस था उस समय। गुल ने अपने प्रश्नों को वहीं छोड़ दिया। वह दोनों के मध्य बैठ गई। स्वयं को सुरक्षित अनुभव करने लगी । मौन ही रात व्यतीत हो गई। 
प्रात: काल जब गुल ने समुद्र को देखा। वह उसी ऊर्जा से अपनी लहरों को तट तक भेज रहा था जो ऊर्जा उसमें सदैव होती है। पवन उसी लय में बह रहा था। सूर्योदय से पूर्व चंद्रास्त की तरफ गति कर रहा चंद्र अपनी ज्योत्सना को पूर्ववत सौम्यता से समुद्र तथा रेत पर बरसा रहा था। समय की उस क्षण की सौन्दर्य वृद्धि कर रहा था। प्रकृति का यह रूप गुल को आकृष्ट कर रहा था। कुछ क्षण देखते देखते वह अनायास ही समुद्र की तरफ जाने लगी तब उसे मां ने रोका, “गुल, तुम घर से बाहर कहीं नहीं जाओगी। कभी नहीं।” गुल रुक गई। 
“मां, तुम तो सो रही थी।”
“नहीं। मैं रात्री भर जागती रही हूँ।”
“क्यों? क्या बात है मां ?”
“तुम पर दृष्टि रख रही थी।”
“किन्तु क्यों?”
“तुम घर से बाहर नहीं जाओगी। इसके आगे कोई बात नहीं। कोई प्रश्न नहीं।”
गुल ने देखा कि मां की आँखों में पिछली संध्या का भय अभी भी था। गुल ने उसे पढ़ लिया। संकेत में ही मां को कह दिया कि मैं वही करूंगी जो तुम कहोगी। इस पर मां संतुष्ट हो गई। किन्तु पिता को वह स्वीकार्य नहीं था। 
“गुल, तुम जहां जाना चाहो जा सकती हो। गुल की मां, उसे रोकना नहीं।” 
“क्या मैं जा सकती हूँ पिताजी?” गुल उत्साहित हो गई। 
पिता से पूर्व ही मां ने उत्तर दिया, “नहीं। एक बार कहा ना कि तुम कहीं नहीं जाओगी।”
“मां। क्या बात है? कल क्या हुआ था?” मां ने कोई प्रतिभाव नहीं दिया। 
‘कल जो कुछ भी हुआ था वह अवश्य ही गंभीर था। किन्तु क्या हुआ था? जब तक मां अथवा पिताजी बताएंगे नहीं तब तक कुछ भी ज्ञात नहीं होगा। मैं क्या करूँ?’ 
कुछ क्षण विचार के पश्चात गुल मां के समीप जाकर बोली, “तुम बताओगी नहीं तो मैं बाहर चली जाऊँगी। लो, मैं तो चली।”
मां ने उसे रोक लिया, “बताती हूँ। बैठ मेरे पास।” गुल बैठ गई। मां ने गुल के माथे पर, बालों में अंगुलियाँ घुमाई।
कुछ समय पश्चात बोली,“देखो बेटा, हम जिस समाज में रहते हैं उससे बैर नहीं रख सकते।” गुल ध्यान से मां के हाव भाव देखती रही। 
“कल जो लोग आए थे वह जमात के लोग थे। कुछ लोग मदरसा से भी थे। वह कहते हैं कि हमारा गुरुकुल से कोई संबंध ना रहे।”
“क्यों? ऐसा करने से क्या होगा?” 
“क्यों कि गुरुकुल से संबंध रखने से हमारे मजहब को खतरा है।”
“कैसा खतरा, मां?”
“यही कि तुम्हें देखकर अन्य लोग भी हिन्दू धर्म के प्रति आकृष्ट हो रहे हैं। हमारे मजहब पर प्रश्न कर रहे हैं।”
“और उन्हीं प्रश्नों के उत्तर उन लोगों के पास नहीं है।” पिताजी ने कहा। 
“तो इसमें हमारा क्या दोष?”
“प्रश्न उत्तरों का अथवा किसका दोष है वह नहीं है। प्रश्न यह है कि वह हमें डरा रहे हैं।”
“मां। हिन्दू नाम का कोई धर्म ही नहीं है। वास्तव में वह सनातन धर्म है जो युगों युगों से चला आ रहा है। गुरुकुल तो केवल इस संस्कृति का प्रतीक है। जिनके पास प्रश्नों के उत्तर देने के लिए कुछ भी नहीं है वही लोग डराने का प्रयास करते हैं।”
“उसे तुम से समस्या है।”
“मेरे साथ उसे क्या समस्या है?”
“कल संस्कृत प्रतियोगिता में तुमने जो कुछ किया है उससे उन्हें समस्या है।” पिताजी ने कहा। 
“कैसी समस्या?”
“कल तक तुम गुरुकुल से ज्ञान प्राप्त कर रही थी वह तुम्हारा व्यक्तिगत कार्य था। किन्तु कल तुमने सभी के सम्मुख मंत्रोच्चार करके उनकी भावनाओं को आहत कर दिया। तुम्हें इस प्रकार से सार्वजनिक रूप में मंत्रोच्चार नहीं करना चाहिए था ऐसा उन लोगों का कहना था।”
“और आपका क्या कहना था, पिताजी?” 
“वह कुछ कह नहीं पाए। बस वह टोली आई और डराकर चली गई। अत: मुझे अत्यंत भय लग रहा है। उन्होंने कहा है कि तुम अब गुरुकुल नहीं जाओगी। तो तुम अब कहीं नहीं जाना।”
“और यदि मैं उनकी बात न मानूँ तो?”
“तुम उन लोगों को नहीं जानती। वह लोग कुछ भी कर सकते हैं।”
“कुछ भी का क्या अर्थ होता है?”
“वह हमें मार डालेंगे, काट डालेंगे।”
“मैं मृत्यु से नहीं डरती।” 
“और न ही मैं डरता हूँ।”
“किन्तु मैं डरती हूँ। आप दोनों ऐसा कुछ भी नहीं करोगे जिससे हमारे जीवन पर खतरा हो।”
पश्चात उसके सभी तर्क, वाद, विचार वहीं समाप्त हो गए। गुल उस दिन कहीं नहीं गई। केशव समुद्र तट पर गुल की प्रतीक्षा करता रहा, वह नहीं आई।