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केशव ने जब गुरुकुल में प्रवेश किया तो उसे द्वार पर दो छात्र मिले। केशव ने उनको देखा, उन्होंने भी केशव को देखा। केशव ने उन्हें स्मित प्रदान किया किन्तु उन दोनों ने उसका कोई प्रतिभाव नहीं दिया। केशव आगे बढ़ा। कई और छात्र मिले। उनका व्यवहार भी वही था जो उन दो छात्रों का था। वह क्षण भर रुका, चारों तरफ उसने देखा। सभी छात्र वहीं थे जो उन्हें देख रहे थे। सबके मुख पर जो भाव थे वह केशव को अज्ञात लगे।
केशव सीधे अपने कक्ष में चला गया। द्वार भीतर से बंद कर बैठ गया। कुछ क्षण बिना किसी विचार के वह बैठा रहा। पश्चात वह उठा, गवाक्ष के द्वार खोल दिए। धीरे धीरे तमस में घिर रहे आकाश को देखने लगा। समुद्र से उठी एक पवन उसे स्पर्श कर गई। वह स्पर्श उसे अच्छा लगा। समुद्र की ध्वनि उसे सुनाई दी। भीतर की ध्वनि शांत होने लगी। उसने आकाश को देखा। तमस में लिप्त हो गया था वह। चंद्रोदय में अभी समय शेष था। अनेक तारें निकल आए थे। ऐसा आकाश उसे आकर्षक लगा। मन में उसके प्रसन्नता छाने लगी ।समय व्यतीत होता रहा।
सहसा किसीने द्वार खटखटाया। केशव तंद्रा से जागा। तारों भरे आकाश को गवाक्ष के बाहर छोड़कर वह कक्ष के द्वार पर आ गया। द्वार खोला। एक छात्र ने सूचना दी।
“केशव, भोजन का समय हो गया है। भोजन कर लो।”
“मुझे क्षुधा नहीं है।” केशव के उत्तर को सुने बिना ही छात्र चला गया। केशव ने द्वार बंद कर लिया। सभी विचारों को त्यागकर वह निंद्राधीन हो गया।
* * *
प्रात: जब केशव जागा तो सूर्य उदय हो चुका था। इस बात की पुष्टि उसने गवाक्ष खोलकर कर ली।
“आठ बज चुके होंगे। मैं इतने समय तक सोता रहा। यह कैसे हो गया? गुरुकुल में संध्या, पूजा, यज्ञ आदि सम्पन्न हो चुका होगा। कक्षा भी पूर्ण हो गई होगी। मैं इतने विलंब तक सोता कैसे रहा? किसी ने मुझे जगाया क्यों नहीं?” वह समुद्र को देखने लगा। उसके मन में तरंगें उठने लगी ।
‘गुरुकुल में ऐसा कभी नहीं होता है। यदि कोई छात्र जागने में विलंब करता है तो अन्य छात्र उसे जगा देते हैं। कोई भी छात्र प्रात:कर्म में अनुपस्थित नहीं रहता। कक्षा में भी नहीं। तो आज यह क्रम कैसे टूट गया? क्यों किसी ने मुझे जगाया नहीं?’
‘यह भी हो सकता है कि किसीने तुम्हें जगाने की चेष्टा की हो किन्तु तुम जागे ही नहीं। कितनी गहन निंद्रा में थे तुम।’
‘इतनी गहन तो नहीं थी मेरी निंद्रा।’
‘तो क्या कारण हो सकता है इन सब का, केशव ?’
‘यही तो ढूंढ रहा हूँ। किन्तु उत्तर नहीं मिल रहा।’
‘तो समुद्र तट पर जाओ। तुम्हारे सभी प्रश्नों के उत्तर वही तो देता रहा है आज तक। समुद्र से बातें करो। गुल से मिलो। वहीं उत्तर प्राप्त करो।’
केशव उठा, कक्ष से बाहर गया। गुरुकुल में सब कुछ नित्यक्रम अनुसार, समयानुसार चल रहा था। वह आगे बढ़। कुछने उसे देखा किन्तु अनदेखा कर दिया। अन्य सभी ने उसे देखने का कष्ट भी नहीं किया। उसने सभी के व्यवहार को देखा। समझने की चेष्टा किए बिना ही वह समुद्र तट पर चला गया। समुद्र को देखता रहा, गुल की प्रतीक्षा करता रहा। विचार करता रहा।
समय व्यतीत होने पर भी ना तो गुल आई, न ही उसके विचारों का अंत हुआ और न ही समुद्र की लहरें शांत हुई। वह लौट आया। मध्याह्न का भोजन भी उसने नहीं किया। अपने कक्ष में बैठा रहा, कुछ पढता रहा तो कभी गवाक्ष से समुद्र की लहरों को देखता रहा।
संध्या काल हो गया। एक छात्र ने आकर सूचना दी,“केशव, आचार्य तुमसे मिलने तुम्हारे कक्ष में आ रहे हैं।”
वह जागृत हो गया, “नहीं, नहीं। मैं ही चला जाता हूँ आचार्य से मिलने।” वह उठा तभी आचार्य ने प्रवेश करते हुए कहा,“नहीं केशव। तुम्हें मेरे पास आने की आवश्यकता नहीं है।”
आचार्य के शब्दों से केशव विचलित हो गया। स्वयं को संभाला और आचार्य को वंदन किया। आचार्य के मुख पर दिव्य भाव थे। उस भाव ने केशव को शांत कर दिया।
“केशव, भोजन कर लो।” एक छात्र भोजन की थाली ले आया। केशव के सम्मुख रख चल गया।
“कल से तुमने कुछ नहीं खाया, केशव। भोजन कर लो।”
“किंतु इस कक्ष में .. ?”
“यदि तुम भोजन के पास नहीं जाते हो तो भोजन स्वयं तुम्हारे पास इस कक्ष में आ गया। बस इसे न्याय दो।”
“किन्तु ऐसा नहीं .. ।”
“यदि तुम अपने कक्ष में भोजन नहीं करना चाहते .. ।”
“मैं सबके साथ भोजन कक्ष में भोजन करूंगा।”
“तो चलो।” आचार्य के साथ केशव भी चल दिया। उसने सबके साथ भोजन किया जैसे वह सदैव करता था। पश्चात केशव सभी दैनिक क्रियाओं में सम्मिलित हो गया। जब वह कक्ष में लौटा तो सब कुछ सामान्य हो चुका था। वह भी सामान्य हो गया था। किन्तु उसे समज नहीं आया कि यह सब कैसे हुआ। वह सो गया।