हवेली छोड़ कर जाने से पहले यशोधरा एक बार फिर से दिग्विजय के कमरे में आई और उससे कहा, "दिग्विजय जी अब चाहे जो भी हो मुझे कभी भी वापस बुलाने या फिर ढूँढने की कोशिश मत करना। तुम्हारे लिए तो मैं और मेरे तीनों बच्चे मर चुके हैं और यह कभी भी मत भूलना कि जवानी किसी की भी रुकती नहीं। सुंदरता तो केवल क्षण मात्र की साथी होती है। असली साथ होता है विश्वास का, कर्तव्य का और सच्चे निःस्वार्थ प्यार का। देखना तुम्हें इनमें से क्या-क्या हासिल होता है?"
दिग्विजय चुपचाप खड़ा रहा। यशोधरा अपनी आंखों से बरसते आंसुओं को पोंछते हुए वहाँ से निकल गई।
भानु प्रताप और परम्परा अपने बेटे दिग्विजय का ऐसा दुर्व्यवहार देखकर शर्मिंदा थे। इस पीड़ा के कारण उनका दुख असहनीय हो रहा था। वह कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि उन्हें उम्र के इस पड़ाव पर शर्मिंदगी से भरे ऐसे दिन देखने पड़ेंगे।
परम्परा ने भानु प्रताप से कहा, "दिग्विजय ने हमें समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा।"
भानु प्रताप से कहा, "बेचारी यशोधरा उसके लिए मेरा दिल रो रहा है। भाग्य से ऐसी लड़की मिलती है। उसके माता पिता को अब हम क्या जवाब देंगे। हम अपनी बहू को न्याय नहीं दिला पाए, इस बात का दुःख मुझे मेरी अंतिम सांस तक रहेगा। हमने सपूत नहीं एक कपूत को जन्म देकर उसे पाला है, गुनहगार तो हम भी हैं," कहते हुए वह फफक कर रो दिए।
परम्परा अपने पति भानु प्रताप के बहते आंसुओं को पोछती रही उन्हें समझाने के लिए उसके पास कोई शब्द नहीं थे। ग़म से भरी उसी काली रात को भानु प्रताप को हार्ट अटैक आ गया और वह दुनिया छोड़कर चले गए।
परम्परा की तो पूरी की पूरी दुनिया ही उजड़ गई। बेटे ने तो जीते जी ही साथ छोड़ दिया और पति ने मर कर। बहू पहले ही घर छोड़ कर जा चुकी थी। इस वज्रपात का दुःख अब उन्हें अकेले ही झेलना था।
यूँ तो दिग्विजय भी अपने पिता की मृत्यु से बहुत उदास था। लेकिन उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह अपनी माँ को ढाढस बंधा सके।
भानु प्रताप के स्वर्गवास की ख़बर मिलने के बाद कुछ नज़दीकी रिश्तेदार हवेली पहुँच गए। यह खबर यशोधरा के मायके भी पहुँचा दी गई। परंतु तब पता चला कि यशोधरा तो मायके आई ही नहीं। यशोधरा के पिता की तबीयत ज़्यादा ख़राब होने के कारण उसके मायके से कोई भी हवेली नहीं पहुँच पाया।
भानु प्रताप के पार्थिव शरीर को जब अंतिम संस्कार के लिए ले जाया गया तो परम्परा के कदम अपने आप ही उनके साथ हो लिए।
अंतिम यात्रा की अंतिम घड़ी में जब दिग्विजय अपने पिता को अग्नि देने के लिए आगे बढ़ रहा था, तब परम्परा ने उसे रोक दिया और कहा, " रुक जा दिग्विजय तेरी वज़ह से वह मर गए और तूने तो यह अधिकार उसी समय खो दिया था जब तूने उस कुलटा से सम्बन्ध बाँधा था। तू यहाँ से दूर चला जा वरना उनकी आत्मा मुझे माफ़ नहीं करेगी कि मैंने एक चरित्रहीन के हाथों उन्हें अग्नि देने की अनुमति कैसे दी। यशोधरा यदि यहाँ होती तो मैं उसके हाथों अग्नि संस्कार करवाती परंतु पता नहीं वह कहाँ है। उसे तो शायद यह ख़बर भी नहीं है कि ये इस दुनिया में नहीं रहे वरना वह मुझे सांत्वना देने ज़रूर वापस आती और तब तो मैं भी उसी के साथ यहाँ से चली जाती। तू रहना अब अकेले उस पापन के साथ और अपनी एक नई दुनिया बसाना पर उस नई दुनिया में तुझे कितना सुकून मिलेगा यह भगवान जाने।"
वहाँ आए हुए सभी लोग हैरान थे कि खुशियों से झूमने वाली इस हवेली में ग़म के बादल आख़िर कैसे आ गए। इस समय वहाँ कानाफूसी का दौर चल रहा था।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः