कर्म और भाग्य का समीकरण
गोविंद एक सीधा सच्चा बालक था। संपन्नता के अभाव में भी उसने कभी निराश होना नहीं सीखा। वह हर छोटी से छोटी उपलब्धि में खुशियाँ और संतुष्टि तलाश ही लेता था। सत्कर्म, बौद्धिक कौशल शारीरिक सौष्ठव, मृदुव्यवहारिकता जैसे गुणों ने उसे नेक इंसान बना दिया था। बावजूद इनके यह सभी जानते हैं कि अभाव और संपन्नता के अंतर को कभी पाटा नहीं जा सका है। विद्यालयीन जीवन में उसने इस अंतर का कड़वा स्वाद चखा था। समय तो गतिमान रहा, लेकिन गोविंद में कभी चारित्रिक गिरावट नहीं आई। उसके संस्कारों तथा संतोषी स्वभाव को देखते हुए भविष्य में भी गिरावट की कोई गुंजाइश नहीं थी।
अक्सर वह अपने ऊपर किए गए उपहास और कटाक्षों का सामना तो कर लेता था लेकिन टीस उसके हृदय में होती ही थी। एक बार अपने शिक्षक के जन्मदिन पर उसके साथी एक से बढ़कर एक उपहार देने वाले थे। जिनकी कीमतें हजारों से भी अधिक रही होंगी। बेचारे गोविंद के घर में तो खाने के भी लाले पड़े रहते थे, भला वह अपने प्रिय शिक्षक को क्या देता। काफी सोच समझकर उसने अपने आँगन में लगे हुए कुछ फूल व पत्तियों से एक गुलदस्ता बनाया और उसे लेकर कार्यक्रम में पहुँचने ही वाला था कि वहीं पर उसके साथ पढ़ने वाले धनवान लड़कों ने उसका उपहास करना शुरू कर दिया। उन्होंने निम्नस्तरीय टिप्पणियों से उसकी गरीबी, बेबसी और साधारण से गुलदस्ते को लेकर ढेर सारे व्यंग्य कसने शुरू कर दिए। बात यहीं नहीं थमी। उनमें से एक उद्दंड बालक गोविंद के पास आया और बड़े समर्पण भाव से बनाये गोविंद के उस गुलदस्ते को छीनकर दूर फेक दिया। गुलदस्ते के फूल और पत्ते इधर-उधर बिखर गए। गोविंद को तो लगा मानो उसके दिल के टुकड़े टूट कर बिखर गए हों। वह किंकर्तव्य विमूढ़ सब कुछ देख-सुन रहा था। धन्नासेठों के लड़कों से प्रतिकार करने में वह सक्षम नहीं था, और न ही उसके संस्कार उसे ऐसा कुछ करने की अनुमति ही दे रहे थे। वह जानता था कि यह असभ्यता की श्रेणी में गिना जाए। चुपचाप उसने बिखरे हुए फूलों में से एक फूल उठाया और अपने शिक्षक को शुभकामनायें देने उनके पास पहुँच गया। अपने स्नेहिल छात्र की मानसिकता और परिस्थितियों से परिचित शिक्षक ने गोविंद के भाव और उसकी नम्रता को महत्त्व देते हुए उसे बड़ी आत्मीयता पूर्वक अपने सीने से ऐसा चिपकाया जैसे कोई गुरु अपने छात्र में अपनी सफलता देख रहा हो। यह प्रेमसिक्त कारुणिक दृश्य उन उद्दंड छात्रों और उपस्थित लोगों से भी छुप नहीं सका।
वक्त तो वक्त है, ये किसी के रोके नहीं रुकता और अपनी गति से बढ़ रहा था। गोविंद अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने के बाद भी कहीं नौकरी नहीं पा सका। चारों ओर भाई-भतीजावाद, रिश्वतखोरी, नेतागिरी, पहुँच और झूठी अर्हताओं के बल पर लोग अच्छे से अच्छी नौकरी पा लेते हैं। बाप-दादाओं के पैसों से अपना व्यवसाय खड़ा कर लेते हैं, लेकिन एक ईमानदार गरीब और पहुँच विहीन इंसान के पास दर-दर भटकने और फटेहाल रहने के अलावा कुछ भी नहीं होता। यही आज हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना भी है। गोविंद की उम्र बढ़ती जा रही थी। वह स्वयं को माँ-बाप पर बोझ समझता था। दुनियादारी की आग में तपे पिताजी सदैव उसका हौसला बढ़ाया करते थे। उसकी माँ भी अपने बेटे को अपनत्व लुटाती थी। शायद यही कारण था कि वह अपनी हिम्मत बरकरार रखे हुए था।
कुछ समय बाद मोहल्ले के ही सेठ करोड़ी लाल जी अपने जीवन की पचहत्तरवीं वर्षगाँठ मनाने वाले थे। गोविंद को प्रतिभाशाली, ईमानदार और नेक इंसान मानने वाले सेठ जी ने उसे भी आमंत्रित किया। हमेशा की तरह ठाट-बाट से दूर, सादा जीवन जीने वाला गोविंद इस बार भी अपनी बदहाली पर अफसोस करते हुए सोचने लगा कि हमारे प्रतिष्ठित और धन-दौलत से सम्पन्न सेठ जी ने मुझे इतने अपनत्वभाव से बुलाया है, मेरे न जाने पर कहीं वे अपना अनादर न समझें और यदि मैं गया तो कहीं उनके सम्मान को ठेस न लगे! महोत्सव के दिन कुछ ऐसे ही उहापोह में गोविंद अमृत महोत्सव स्थल तक पहुँच गया। वहॉं पर गोविंद को अमूमन वही सब दिख रहा था जिसमें वह स्वयं को हमेशा असहज अनुभव करता था। लग्जरी सोफों से भरा लॉन, फूलों से सजा मंच और वहाँ शहर के नामी-गिरामी लोग, व्यवसायी, नेता, अधिकारी और स्तरीय मित्रगण उपस्थित थे। गोविंद काफी समय तक उनको बधाई देने हेतु मंच तक जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। उसने देखा कि जब बधाई और उपहार देने वालों की भीड़ कुछ कम हो गई है, तब वह उठा और मंच पर सौम्यता पूर्वक खड़े सेठ जी के समक्ष जा पहुँचा। गोविंद को आते देख सेठ जी के चेहरे पर खुशी के भाव उभर आये। तभी गोविंद हाथ जोड़कर उनसे बोला- सेठ जी, आज मैं लिफाफा लाता तो वह समुद्र की एक बूँद जैसा होता। मैं गुलदस्ता लाता तो इन विशाल और खूबसूरत गुलदस्तों में उसका कोई अस्तित्व नहीं रहता। कोई गिफ्ट लाता तब भी ईश्वर का दिया हुआ आपके पास सब कुछ है। मैंने बहुत सोचा कि मेरे पास ऐसा क्या है जो आपको अच्छा लगे और शायद आपके काम भी आए। इसलिए आज आपके जीवन के चौथे पड़ाव अर्थात पचहत्तरवीं वर्षगाँठ पर मैं 'अपनी पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी' आपको उपहार के रूप में समर्पित कर रहा हूँ। बस यही है मेरे जीवन की भर की कमाई। मैं कभी आपके काम आ पाया तो अपने आप को बड़ा सौभाग्यशाली मानूँगा। ऐसा कहते हुए वह झुक कर सेठ जी के चरण स्पर्श करने लगा।
अपने प्रति ऐसी निश्छल आस्था देखकर सेठ जी भावविह्वल हो गये। उनकी आँखें नम हो गईं। उनके दिल और दिमाग दोनों जैसे कह रहे थे कि इस जमाने में भी क्या कोई इंसान इतना सहृदयी और ईमानदार हो सकता है? मुझ निःसन्तान पिता का निश्चित तौर पर इससे योग्य कोई और उत्तराधिकारी नहीं हो सकता। आज ऐसा पावन और अनूठा दृश्य देखकर सेठ जी को लगा कि जैसे उन्हें कोई अनमोल धरोहर मिल गई हो, जिसे वे बीते कई वर्षों से खोज रहे थे और उस पर गंभीरता से चिंतन भी करते थे। तभी उन्होंने बड़े प्यार से गोविंद को अपने हाथों से उठाकर गले लगा लिया। उसके सिर पर अपने कोमल हाथ फेरने लगे जैसे कोई अपने पुत्र को पाकर स्नेह वर्षा कर रहा हो। उसमें कोई भविष्य की बड़ी संभावनाएँ देख रहा हो।
कहते हैं कि कर्म और भाग्य का समीकरण कब उलझे या सुलझ जाए किसी को पता नहीं होता। आपके कर्म तथा चरित्र भी आपका भाग्य बदल सकते हैं। राजा से रंक बनना तथा मृत्युदंड से अभयदान कर्म और चरित्र पर भी निर्भर होते हैं।
वहाँ उपस्थित लोगों को क्या, खुद गोविंद तक को पता नहीं था कि ठीक इस समय वह सेठ करोड़ी लाल जी और उनकी सारी संपत्ति का वारिस बन चुका है।
- डॉ. विजय तिवारी 'किसलय', जबलपुर