grandfather Sir in Hindi Short Stories by Kishore Sharma Saraswat books and stories PDF | दादा जी

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दादा जी

दादा  जी

 

दादा जी यूँ तो अति दयालु और कोमल हृदय के धनी थे। परन्तु उनके दमकते चेहरे का रोआब कुछ भिन्न ही कहानी कहता था। गुँथा हुआ दोहरा बदन, सूर्ख चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें और चौड़े ललाट के ऊपर सफेद चंदन की तीन रेखाएं। यही उनकी पहचान थी। बेचारे अपने एक मात्र पौत्र से अति स्नेह रखते थे। परन्तु पता नहीं वह आठ वर्ष का नन्हा किशलय उनसे क्यों कन्नी काटता था। दादा जी उसे अपनी गोद में बैठा कर कहते:

‘'बेटा किशलय! मैं तुझे पढ़ने के लिये काशी जी भेजूंगा। वहाँ पर संस्कृत भाषा के एक महान प्राचार्य हैं। उनसे विद्या ग्रहण करके तुम एक दिन प्रगाढ़ पंडित बन जाओगे, मेरी तरह। दादा जी के मुख से निकले यह शब्द उस नन्हें के कोमल हृदय पर आघात करने के लिये पर्याप्त थे। मन में एक टीस उठती, मैं नहीं बनूंगा पंडित। भला छोटे बच्चे भी कभी धोती पहनते हैं। पंडित बन गया तो दादा जी की तरह दो-तीन घंटे पूजा-पाठ पर भी बैठना होगा। न बाबा न, मुझ से यह सब कुछ नहीं होगा। मुझे तो बच्चों के साथ खेलना अच्छा लगता है। मैं तो अपने ही स्कूल में पढ़ूंगा और खूब मौज-मस्ती करूंगा। शायद किशलय की दादा जी से पैठ न बैठने की एक वजह उनकी यह हठधर्मी भी रही होगी। अलबत्ता दादा जी से वह भी बहुत प्रेम करता था। उसके नन्हें मस्तिष्क में अभी भी उन दिनों की याद ताज़ा थी, जब वह दादा जी की बड़ी-बड़ी मूंछें पकड़कर उन पर अपने कोमल-कोमल हाथों का कमाल दिखाया करता था। विशेषकर उस समय जब दादा जी पूजा-पाठ करने में व्यस्त होते। वह भगवान के पूरे भक्त थे और उनकी इस अटूट श्रद्धा का प्रमाण था कि उस समय तक वह न तो आसन से उठते थे और न ही बोलते थे।

जून महीने का प्रथम सप्ताह था। दादा जी किसी काम से दो-तीन दिन के लिये घर से बाहर गए हुए थे। पीछे से किसी कार्यवश माँ और पिताजी को भी घर से बाहर जाना था। सो माँ किशलय से बोली: ‘

'बेटा! मैं और तुम्हारे पिता जी एक काम से बाहर जा रहे हैं। शाम तक घर लौट आएंगे। मैंने तुम्हारे लिए खाना बना कर रख दिया है। पीछे से भूख लगेगी तो खा लेना। और हाँ देखना, शरारत मत करना। तुम्हारे दादा जी भी शायद दोपहर तक घर वापस आ जाएंगे। हमारे बारे में पूछेंगे तो कह देना कि शाम तक लौटेंगे।'

‘'ठीक है अम्मा जी, आप मेरे बारे में कोई चिंता मत करना। मैं कोई शरारत नहीं करूंगा।' किशलय अपनी गर्दन हिलाता हुआ बोला।

माँ और पिता जी चले गए, परन्तु किशलय की छुट्टी का मज़ा किरकिरा हो गया। बेचारा घर की रखवाली में बंध कर रह गया। गाँव और गली के बच्चे खेलते कूदते और किलकारियाँ मारते जब इधर-उधर भागते तो किशलय का मन भी उनके साथ भागने को उतावला होता। परन्तु बेबश था।

दोपहर तक दादा जी घर वापस आ गए। किशलय ने भाग कर उनके पाँव छुएँ और प्रणाम किया। दादा जी भी अपने आप को रोक न पाये। उन्होंने हंसते हुए किशलय को अपने दोनों हाथों से ऊपर उठाया और उसके पेट में अपनी नाक से गुदगुदी करने लगे तो किशलय खिलखिला कर हंसने लगा। आखिर दादा जी का मन जब स्नेह से भर गया तो उन्होंने किशलय को नीचे उतार दिया। वह इसी क्षण के इंतजार में था। माँ और पिताजी के बारे में बतला कर वह दादा जी से बोलाः

‘'दादू! मैं खेलने जाऊँ?'

‘'हाँ बेटा, मगर सम्भल कर। कहीं चोट मत लगवा लेना।' दादा जी उसे पुचकारते हुए बोले।

इतने शब्द सुनते ही वह हवा की भाँति गली में ओझल हो गया। दिन के दो बजे का समय रहा होगा। सूर्यदेव अपने प्रचंड रूप में विराजमान थे। भीषण गर्मी से राहत पाने के लिए सभी लोग अपने-अपने घरों में दुबके हुए थे। गलियों में केवल बच्चों का चहचहाना और उनका शोर ही सुनाई देता था। गली में गूंजती एक आवाज को सुनकर सभी बच्चे शांत हो गए। वह बड़े ध्यान से उस आवाज को सुनने लगे।

 'संतरे की खट्टी-मीठी गोलियां-संतरे की खट्टी-मीठी गोलियाँ। हाजमेदार गोलियाँ-खट्टी-मीठी गोलियों वाला।'

यह चिर-परिचित आवाज सुनकर बǔचों के मुँह में पानी आना स्वाभाविक था। अतः सभी बच्चे उस गोलियाँ बेचने वाले की ओर भाग गए। उसने अपने दाएँ हाथ में एक टीन का कनस्तर पकड़ रखा था, जिसके एक ओर लगे शीशे से हल्के लाल- पीले और गुलाबी रंग की संतरे की गोलियाँ साफ नज़र आ रही थीं। फूल के ऊपर मंडराती मधु-मक्खियों की भाँति बच्चे उस गोलियाँ बेचने वाले को चारों ओर से घेर कर उसके साथ-साथ चलने लगे। गोलियाँ बेचने वाला भी उनका संग पाकर अत्यंत प्रसन्न था। आखिर उसकी रोज़ी-रोटी का साधन यह बच्चे ही तो थे। कोई पाँच पैसे की, तो कोई दस पैसे की गोलीयाँ खरीदता। जिन बच्चों के पास पैसे नहीं थे, वे ललचाई नज़रों से गोलियाँ चूसने वाले बच्चों की ओर घूरते हुए नज़र आने लगे। मन में यही प्रबल इच्छा होती कि काश! इसके हाथ से गोली छूट कर नीचे ज़मीन पर गिर जाती तो मैं लपक कर उठा लेता। अभावग्रस्त होना भी एक अभिशाप है। ऐसी अवस्था में कुंठित मन अपने आप को दूसरों की नज़रों में बौना बना देता है। बच्चों की यह मनोदशा देखकर किशलय का मन व्यथित हो उठा। वह अपने मन में इस समस्या का समाधान खोजने लगा।

सूर्य देव की असहनीय तपिश से गोलियाँ बेचने वाला पसीने से तर-बतर हो रहा था। अतः गर्मी से राहत पाने के उद्देश्य से वह एक मकान की दीवार के साथ, जहाँ थोड़ी छाया थी, सट कर बैठ गया। किशलय उसके पास जाकर धीरे से बोलाः

‘'बाबा! अभी थोड़ी देर तक आप यहीं पर बैठना, मैं अपने घर से पैसे लेकर आता हूँ।'

किशलय जब घर पर पहुँचा तो दादा जी पूजा पर बैठे हुए थे। 'आहा! मजा आ गया। दादा जी से मांगता तो मुश्किल से पच्चीस या पचास पैसे मिलते। अब दादा जी तो बोलेंगे नहीं, अपनी मर्जी से जितना जी चाहे उठालो।' किशलय की मानो लाटरी लग गई थी। उसने भीतर जाकर माँ का पर्स उठाया और उस में से कुछ रूपये निकालकर अपनी जेब में डाल लिये। फिर वह चुपके से दादा जी की बगल से बाहर गली में निकल निकल आया। गोलियाँ बेचने वाला उसकी प्रतीक्षा में वहीं पर बैठा था। किशलय ने उसके समीप जाकर अपनी जेब से रूपये निकाले और बोलाः

‘'बाबा! इन रूपयों की गोलियाँ दे दो।'

बच्चे के हाथ में इतने सारे रूपये देखकर वह अचंभित होकर उसकी ओर देखने लगा। इसके पास इतने सारे रूपये कहाँ से आ गए? कहीं चोरी करके तो नहीं लाया? अगर ऐसा है तो बहुत बुरी बात है। नहीं- नहीं, मैं इस के रूपये नहीं लूंगा। वह अपने मन ही मन सोच रहा था कि तभी किशलय पुनः बोलाः

‘'बाबा! मीठी गोलियाँ दे दो न।'

‘'बेटा! तू इतने ढेर सारे रूपये कहाँ से लाया है? कहीं घर पर चोरी तो नहीं की? अगर ऐसा किया है तो तेरे साथ-साथ तुम्हारे घर वाले मेरी भी पीटाई कर डालेंगे। जा बेटा, जहाँ से ये निकाले हैं, इन्हें वहीं पर रख दे। मैं तुम्हें वैसे ही दो गोलियाँ दे दूंगा।' वह किशलय को समझाता हुआ बोला।

‘'न बाबा, मैंने कोई चोरी नहीं की है। मुझे यह रूपये मेरे दादा जी ने दिये हैं। कह रहे थे काफी सारी गोलियाँ लेकर दूसरे बच्चों में भी बांट देना। तभी तो उन्होंने इतने सारे रूपये दिये हैं।' किशलय सच्चाई को छुपाता हुआ बोला। उसने किशलय की बातों पर यकीन कर लिया और रूपये लेने के पश्चात खट्टी-मीठी गोलियों का कनस्तर उसके सम्मुख रख दिया। किशलय ने अपनी जेबें भरने के पश्चात बाकी गोलियाँ बच्चों में बांट दी। अभी मौज-मस्ती का यह आलम चल ही रहा था कि एक लड़का आकर किशलय से बोलाः

‘'किशलय! तुझे तेरे दादा जी घर पर बुला रहे हैं। मुझे भेजा है बुलाने के लिये। कह रहे थे कि उन्हें कोई जरूरी काम है।'

यह सुनते ही किशलय की सारी खुशी छू-मंतर हो गई। दादा जी पूजा से उठ गए थे। अब क्या किया जाए? घर पर गया तो पिटाई होगी। दादा जी सब कुछ अपनी आंखों से जो देख चुके हैं। अब तो कोई बहाना भी नहीं चलेगा।

‘'तुम दादा जी से कह देना कि पूरा गाँव ढूंढने पर भी किशलय कहीं नहीं मिला।' वह अति दयनीय भाषा का प्रयोग करते हुए उस लड़के से बोला।

‘'क्यों? मैं क्यों बोलूं झूठ। मैं तो सच बोलूंगा। कह दूंगा कि किशलय मुझे झूठ बोलने के लिए कह रहा था। तब देखना तुम्हारे दादा जी कैसे खबर लेते हैं तुम्हारी।'

‘'यह देख, मेरे हाथ में इतनी सारी गोलियाँ हैं। ये सारी गोलियाँ मैं तुम्हें दे दूंगा। तुम दादा जी से मत कहना। यह लो।' किशलय उस लड़के के आगे अपनी मुट्ठी खोलता हुआ बोला।

गोलियाँ देखकर उस लड़के के मुँह में पानी भर आया। अब उसकी नीयत खराब होते देर न लगी। उसने आगे बढ़ कर किशलय के हाथ से गोलियां लीं और फिर गली में भाग गया। किशलय का दिल अब भय के मारे धक्-धक् करने लगा था। सोचने लगा घर में रक्षा करने के लिए माँ भी नहीं है। अब क्या होगा? दादा जी के हाथ पड़ गया तो बेरहमी से पिटाई करेंगे। अब उसका साथ देने वाला कोई नहीं था। वह एकदम अकेला पड़ चुका था। वह सोच में पड़ गया। साथी लड़के भाग चुके थे। गोलियाँ बेचने वाला कब निकल गया उसे पता ही नहीं चला। पल-पल दादा जी का भय सताने लगा था। अतः इस भय से कि कहीं वह यहाँ पर स्वयं न आ जाएँ, वह खेतों में जाकर छुप गया। दादा जी ने पूजा-पाठ से निवृत्त होकर भोजन किया और फिर किशलय की खोज में गाँव में निकल पड़े। परन्तु किशलय का कहीं अता-पता नहीं चल रहा था। बेचारे परेशान होकर घर पर आकर बैठ गए। उनका दिल किशलय द्वारा की गई बुराई की अपेक्षा उसकी जुदाई के कारण व्यथित होने लगा। पता नहीं इस भीषण गर्मी में कहाँ पर भटक रहा होगा? मैंने भी क्या मूर्खता की जो उसे बुलावा भेजा। आखिर बच्चा ही तो है। बच्चे शरारतें नहीं करेंगे तो क्या मुझ जैसे बड़े शरारतें करेंगे। इसमें उसका क्या दोष है। यह तो बचपन की प्रवृति है। हम भी तो इसी रास्ते से गुजरे हैं। तो फिर अपने अतीत को क्यों भूल गया हूँ। नहीं-नहीं किशलय को कुछ नहीं कहूँगा। मैं तो बस उसे गोद में बैठा कर प्यार से समझाऊँगा कि बेटा चोरी करना बुरी आदत ही नहीं बल्कि एक प्रकार से पाप भी है। अगर तुम्हें किसी चीज़ की आवश्यकता है तो दादा जी से मांग लिया करो। वह तुम्हें मना थोड़े न करेंगे। अपने भीतर इन्हीं ख्यालों में खोये हुए दादा जी न जाने कितनी देर तक सोचते रहे। उनके मन का चैन खो गया था। वह व्याकुल हो उठे। आखिर बच्चा ही तो है। न जाने कहाँ पर भटक रहा होगा। वह बार-बार अपने आपको कोसने लगे। किशलय को ढूंढने के लिए दादा जी के सभी प्रयत्न विफल हो गये थे। ऊपर से दिन ढलने लगा था। अब तो दादा जी से रहा नहीं गया। उन्होंने सहारे के लिए अपनी छड़ी उठाई और गली में निकल पड़े उसे ढूंढने। गलियों में घूमते-घूमते और लोगों से पूछते हुए काफी समय निकल गया। अंधेरा हुआ तो उन्होंने थक हारकर घर की राह पकड़ी। उधर छुप कर किशलय अपनी माता जी के घर वापस आने की प्रतीक्षा में था। और दादा जी का ऐसे समय घर से बाहर जाना उसके लिए मानो एक वरदान सिद्ध हुआ।

माँ-पिता जी घर वापस आए तो वह दौड़कर माँ की गोद में जा बैठा। माँ ने हाथ से उसके सिर को सहलाया और फिर बोलीः

‘'बेटा। तेरे दादा जी नहीं आए अभी तक क्या? किशलय तो इसी क्षण के इंतजार में था, सो चुपके-चुपके माँ से सारी बात कह दी। दादा जी किसी भी समय वापस आ सकते थे। इसलिये माँ ने उसे दोबारा ऐसी हरकत न करने की सीख दी और फिर जल्दी से उसे बिस्तर पर लिटा कर कपड़े से ओढ़ा दिया।

माथे पर दुःख और चिंता की शिकन लिये हुए दादा जी बिना किसी से बात किये आकर चारपाई पर चुपचाप बैठ गये। पति-पत्नी, दोनों ने उठकर उनके चरण स्पर्श किये और फिर उनकी कुशल-क्षेम पूछी। आशीर्वाद देते समय उनकी ज़ुबान और हाथ, दोनों कांप रहे थे। वह लड़खड़ाती आवाज़ से बोलेः ‘ 'बेटा! चप्पा-चप्पा छान मारा, किशलय कहीं नहीं मिला।'

‘पिता जी, यह आप क्या कह रहे हो? किशलय कहाँ गया है, वह तो घर पर ही है।'

‘'क्या कहा, घर पर है?'

‘'जी, पिता जी। वह तो सो रहा है।'

‘'अच्छा! मैं तो ढूंढ-ढूंढकर परेशान हो गया हूँ और वह बदमाश् मस्ती में सो रहा है।'

दादा जी के चेहरे पर मुस्कुराहट छा गई। वह अपने आप पर काबू न रख पाये और जा पहुँचे नन्हें किशलय के पास। धीरे से चेहरे से आवरण उठाया, एक पल निहारा और फिर गहरा सांस लेते हुए आराम कुर्सी पर बैठ गए।

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