एक पत्र - ज़िंदगी के नाम
प्रिय ज़िंदगी,
मधुर स्मृति
कैसी हो तुम ? बहुत दिनों से तुमसे मुलाक़ात नहीं हो पाई । ना जाने कहाँ खो गई हो जो कभी मिलती ही नहीं | तुम जब से गई हो तबसे एक एक बार भी मेरी खबर नहीं ली | आज मुझे तुम्हारी बहुत याद आ रही थी इसलिए सोचा कि पत्र लिखकर ही तुम्हारा हालचाल जान लेती हूँ | इधर मैं भी तुम्हें ‘जीने की लालसा’ में इतनी व्यस्त हो गई कि मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं तुम्हें जी रही हूँ या काट रही हूँ ?
सखी ! तुम नहीं जानती कि मैंने सुकून से जीने की चाह में अपना सुकून ही गँवा दिया । मैं वर्तमान में तुम्हारा साथ छोड़कर हर पल अपना भविष्य संजोने में लगी रही और मुझे पता ही नहीं चला कि तुम कब मुझसे दूर होती चली गई | तुमने मुझे इतना कुछ तो दिया ही था जिससे मैं अपने परिवार के साथ रहकर तुम्हें ख़ुशी से बिता सकती थी पर और पाने की लालसा ने मुझे निरंतर इतना दौड़ाया कि अब चाहकर भी मैं बीते पलों को नहीं पा सकती | मैं केवल तुम्हें सुकून देना चाहती थी और तुमने मेरा ही सुकून छीन लिया ?
प्रिय ज़िंदगी ! कसूर केवल मेरा ही नहीं है, तुम भी कम आततायी नहीं हो । मैं तो फिर भी इन्सान हूँ | आखिर सबको ‘काटने का ग़ुर’ तो तुमने ही सिखाया है । पैदा होते ही नाभिनाल काट दी, हर जन्मदिन पर केक कटवाती हो, मशहूर होने पर किसीसे तुम रिबन कटवाती हो, कभी बूढ़ी आँखों को अपनों के इंतज़ार में कटवा देती हो, कभी अपनों से ही अपनों का गला कटवा देती हो, किसीको प्यार काट जाता है तो किसी को नफ़रत काट जाती है | और तो और तुम तो जुबान से भी कटवा देती हो | और अब न जाने कब तुम मेरी साँसों की डोर ही काट दो ? बचपन से लेकर बुढ़ापे तक सदा काटती ही तो आई हो | फिर मेरा क्या कसूर है ? मैं तो तुम्हारे हाथों की कठपुतली हूँ | जैसा तुम करवाती गई वैसा मैं करती चली गई | तुम जहाँ मुझे भगाती गई, मैं वहीँ भागती गई | तुम्हें सँवारते – सँवारते मेरे अनेक अनमोल पल बीत गए पर तुम अब तक नहीं सँवारी गई हो |
मेरा सुख – चैन, मेरे अपने सब कुछ तो मुझसे दूर कर चुकी हो | कहीं ना कहीं तुमने मुझे खुद से भी दूर कर दिया है | मैं तुझमें ही कहीं खो गई हूँ | केवल तुम्हारे कारण अब मैं, मैं नहीं रही | बहुत हुआ तुम्हारा रूठना और काटना, अब बस भी करो ! मैं तंग आ चुकी हूँ | अब तुम मेरे पास लौट आओ | अब मैं तुम्हारे साथ ही रहना चाहती हूँ | चलो, हम दोनों मिलकर एक बार फिर से बीते पलों को वापस लाने की कोशिश करते हैं | जितने पल बचे हैं उन्हें सुकून से जीते हैं | प्रिय सखी ! लौट आओ, मैं तुम्हें काटना नहीं, जीना चाहती हूँ ।
तुम्हारी अभिन्न सखी
सावी
उषा जरवाल ‘एक उन्मुक्त पंछी’
गुरुग्राम, हरियाणा