"तुमने कमल के पत्तों पर गिरी ओस देखी है कभी? अच्छी लगती है कितनी। है न?" नीलाभ ने पूछा।
"नहीं, कभी देखी नहीं, क्योंकि वह गिरती भी है तो तुरंत फिसल जाती है। कमल के पत्तों पर कभी ठहरती नहीं हैं पानी की बूंदें। तुरंत फिसल जाती हैं उन पर से। जानती हूं, हर चीज क्षणभंगुर होती है, लेकिन कमल उन ओस की बूंदों को अपने ऊपर कुछ पल के लिए ठहरने से कभी नहीं रोकता। हर बात विश्वास और उम्मीद से जुड़ी होती है, इसलिए प्रकृति हो या नियति, उससे जुड़ी किसी भी बात पर फिलॉसफर बनने की जरूरत नहीं होती।" संध्या ने अल्हड़ता से पानी की कुछ बूंदें उस पर उछालते हुए कहा।
दोनों उस समय एक झील के किनारे बैठे हुए थे। “पर पूछा क्यों? जानते तो हो कि मैं तुम्हारी तरह बेकार की उलझनों में खुद को फंसाने में यकीन नहीं रखती हूं।"
"यूं ही मन में ख्याल आया कि जिंदगी भी कभी-कभी बेवजह हाथ से फिसलती जाती है। जिंदगी के कितने पन्ने कोरे रह जाते हैं और उन्हें भरने की अक्सर या तो फुर्सत नहीं मिलती या मौका।"
"आज तुम कुछ अजीब बातें नहीं कर रहे हो?" संध्या ने वहीं पड़े एक पत्ते से खेलते हुए कहा। नरम पत्ते की छुअन से उसे महसूस हुआ मानो नीलाभ ने उसका हाथ थामा हुआ है। उसने पत्ता फेंक कर नीलाभ के हाथ में अपना हाथ फंसा दिया। "यह तो मानना पड़ेगा कि तुम्हारे हाथ लड़कियों से भी ज्यादा कोमल हैं," संध्या ने उसके कंधे पर सिर टिका दिया।
शाम उतर रही थी और धीरे-धीरे झील के पानी में डूबते सूरज की रोशनी खुद को समाती जा रही थी। फिर पूरी तरह से विलीन हो गई जैसे रोशनी जलमग्न होना चाहती हो।
"मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूं। इतना कि तुम मुझे मेरे भीतर समाए लगते हो।" संध्या की आंखें बंद थीं उस समय।
"मैं जानता हूं," नीलाभ ने कहा तो संध्या उसके कंधे से सिर हटाकर आंखें खोल, उसे एकटक देखने लगी। उम्मीद कर रही थी कि नीलाभ भी कहेगा कि वह भी उससे बहुत प्यार करता है। हालांकि यह बचकानी बात है, लेकिन कभी-कभी सुनना अच्छा लगता है। लेकिन नीलाभ चुप रहा। बस उसकी आंखों में झांकता रहा जिनमें प्यार का अथाह सागर बह रहा था।
"तुम कुछ नहीं कहोगे?" पूछ ही लिया संध्या ने।
नीलाभ को पता है कि वह बहुत चुलबुली है। जो मन में आता है, उसे तुरंत कह देती है। उसकी अल्हड़ता, उसकी मासूमियत, उसकी चाहतों में रंग भरती है। लेकिन वह कैसे बताए कि उसकी जिंदगी के पन्नों में वह उसका नाम नहीं लिख पाएगा! कैसे कहे की जिंदगी उसके बस में नहीं है। वह तो रेत हो गई है और उसकी मुट्ठी से फिसल रही है। कब उसकी मुट्ठी खाली हो जाएगी, वह समय के सिवाय कोई नहीं जानता। वह तो बस सिर्फ अनुमान लगा सकता है चिकित्सा की शब्दावली के अनुसार।
वह भी कहां जानता था कि कभी ऐसा भी होगा! वरना क्या संध्या को सतरंगी सपने देखने से रोक नहीं लेता? उसके साथ इंद्रधनुष के एक-एक रंग को मन के आकाश पर पूरी शिद्दत से बिखरने से रुक नहीं जाता? संध्या को कैसे बताए? वह तो पूरी तरह से टूट जाएगी। सच बता नहीं सकता तो क्या झूठ का सहारा ले? उसके दिल में अपने प्रति नफरत और कड़वाहट घोलकर क्या उसे बिखरने से बचा सकता है? लेकिन वह संध्या के प्यार से डरता है। वह नहीं करेगी विश्वास उसके झूठ पर। एक कोशिश तो करके देख ही सकता है। और देर करनी भी नहीं चाहिए, तो अभी ही सही !
"क्या सोच रहे हो?" संध्या ने उसकी सोच पर जैसे कंकरी उछाली। "कुछ बताना है मुझे।"