अचानक सुभ्रत के दिमाग में धमाका हुआ। उसके इस सवाल ने सुभ्रत को अंधे बूढ़े और रहस्यम हरेन की याद दिला दी वो जिसने मधुलिका की खातिर उसे सजा दी थी और जिसके खण्डहर के दायरे में सुभ्रत इस वक्त भी मौजूद था।
अब आगे - प्रेमी आत्मा मरीचिका - भाग ०८
"सूरज निकलने से पहले हरेन मेरे घर पर आया था।" सुभ्रत की आवाज अचानक लरजने लगी थी - "उसे तुम्हारी तलाश थी। रात तुम मेरे ख्वाब में आई थीं और हरेन ने मुझे उसकी कड़ी सजा दे डाली थी।'
"हरेन...।" वो मुठ्ठियाँ भींचकर नफरत से बोली। फिर उसकी नजरें सुभ्रत के जख्मों से फिसलती हुई फटे हुए होंठ पर जा ठहरीं, "वो इस धरती का बोझ हे सुभ्रत।"
"और तुम... तुम उसकी कैदी हो?" सुभ्रत के स्वर में यन्त्रणा सिमट आई।
"हां। मुझे जीतने के लिए तुम्हें हरेन से टक्कर लेनी पड़ेगी सुभ्रत।" वह पास बढ़ आई। भावनाओं का उफान धीरे-धीरे रौब और ताज पर हावी होता जा रहा था।
सुभ्रत ने कोमलता से उसका हाथ थाम लिया- "मैं तुम्हारी कहानी सुनना चाहता हू मधुलिका। हरेन तो क्या, मैं तुम्हारे लिए पहाड़ों को भी टुकड़े में उड़ाने के लिए तैयार हूं।"
"ओह...तुम वाकई अच्छे इंसान हो सुभ्रत।" वो भाबुकता से उसके सीने से आ लगी थी।
मधुलिका की सासों की गति तेज होने लगी थी, तो वह कसमसाकर सुभ्रत की बाहों से निकल गई थी- "बैठ जाओ सुभ्रत ।" वो नजरें झुकाकर खुद एक पेड़ के नीचे बैठ गई।
"यह सदियों पुरानी बात है ।" उसने धीमी आवाज में कहना शुरू किया, "मेरा बाप झील से मीलों दूर बहुत दूर रहता था और बहुत दूर-दूर तक उसकी हकूमत का सिक्का चलता था। उसके पराक्रम और दबदबे का यह हाल था कि सहरा में फैले कई खूंखार कबीले उससे मुकाबला करने से गुरेज करते हुए उससे टकराये बगैर ही उसके झण्डे तले आ गए थे।
वो पत्थरों से तराशे गए बुतों का पुजारी था। उसे इलाके फतेह करने के लिए कभी खून के दरिया नहीं बहाने पड़े थे, लेकिन वो अपने इलाकों में किसी दूसरे धर्म का वजूद बर्दाश्त नहीं कर सकता था।
धर्म के लिए और धर्म के नाम पर उसने बस्तियां-की- बस्तियां आग लगाकर वीरान कर दी थीं। वो आग की पूजा करने वालों का जानी दुश्मन था । आखिर उसने अपने लश्कर सहरा के चारों तरफ फैला दिए थे, ताकि आग की पूजा करने वालों को मौत के घाट उतारा जा सके।
उसका नजरिया यह था कि आग इंसानों को सिर्फ नुकसान ही पहुंचा सकती है। इसलिए उसके पुजारी भी किसी नेक मकसद के लिए काम नहीं कर सकते। वो अग्नि-पूजकों की बस्तियों को घेर घेरकर उसमें आग लगवा देता था और उससे बचकर भागने की कोशिश करने वालों को भालों से भौंक-भौंक कर दोबारा आग में फिंकवा दिया करता था।
फिर उसके खौफ से बहुत से कबीले बेनाम इलाकों में जा छुपे थे, उसमें यह कबीला भी था, जो अब नागोनी के नाम से इन्सानियत के खून पर पल रहा है। इस कबीले का एक ओझा भी था, जिसके कब्जे में । बेशुमार ताकतें थीं ।
उसने कबीले की बेइज्जती और देश-निकाले का बदला लेने के लिए मेरे बाप पर कई वार किए थे, लेकिन मेरे बाप को आसमानी देवताओं की सुरक्षा हासिल थी । इसलिए वो काहन उसका कुछ नहीं बिगाड़ सका था। फिर उस जादूगर काहन ने मुझे अपना निशाना बनाया था। मेरे बाप के दरबान के पुरोहित को इस चाल का वक्त पर पता चल गया था।
अपनी न नजर आने वाली ताकतों के उस खौफनाक टकराव के दौरान में चालीस दिन तक बेसुध अपने बिस्तर पर पड़ी मौत का इंतजार करती रही थी, पर मौत न आ सकी थी।
लेकिन मेरी रूह मेरे जिस्म से बिछुड़ गई थी। मेरी रूह आग के पुजारियों के काहन जादूगर की कैद में आ गई थी और मेरा बदन अपने महल में पड़ा रह गया था। मेरे बाप ने नागोनी की तलाश में चारों तरफ अपने लश्कर भेजे थे, लेकिन उनका कहीं सुराग नहीं मिल सका था।
आखिर मेरा बदन सुरक्षित करके संदल के एक बहुत बड़े गुम्बद में रख दिया गया था, ताकि जब भी मेरी रूह आग के पुजारियों के काहन के चंमधुलिका से छुटकारा पा सके तो अपने जिस्म में लोट सके। बस उसी दिन से उन काहनों ने मुझे कैद किया हुआ है- अपने इंतकाम की खातिर ।
हर काहन अपनी मौत से पहले मुझे नये काहन की कैद में दे देता है। यह राज हर काहन से दूसरे काहन के सीने तक ही रहता है कि वो ऐसा कैसे करते हैं। जिस दिन यह राज नागोनी के किसी जिंदा वासी को मालूम हो गया, उस दिन उनका यह तिलिस्म टूट जाएगा और मेरी रूह आजाद होकर अपने बदन में वापस लौट सकेगी।” कहकर वो सोचते हुए खामोश हो गई थी।
सुभ्रत हैरत के मारे दम साधे मधुलिका की कहानी सुनता रहा था। इस कल्पना से ही उसकी नस-नस में सनसनाहट दौड़ने लगी थी कि मधुलिका सिर्फ एक आत्मा है। अचानक उसे ख्याल आया कि वो तो उसके साथ प्यार मोहब्बत में डूबकर थोड़ी देर पहले उसके होंठों, गालों और पूरे जिस्म से आनंद उठाता रहा है।
किसी आत्मा के आकार के साथ तो यह सब होना मुमकिन ही नहीं था और फिर उसकी ये आशंकाएं सवाल बनकर होंठों पर आ गई- "मधुलिका... क्या तुम वाकई सिर्फ एक आत्मा हो?"
"हां।" वो नजरें उठाकर बोली- "रूह... यानि तुम्हारी जुबान में सिर्फ एक आत्मा ।" उसके होंठों पर मधुर मुस्कान निखरी हुई थी। जैसे वो सुभ्रत के मन में उठने वाली आशंकाओं को उसके माथे पर पढ़ चुकी थी ।
"फिर... फिर यह तुम्हारा बदन ... तुम्हारा वो जिंदा स्पर्श, तुम्हारे गुदाज बदन का यह...।" सुभ्रत उलझन भरे लहजे में इतना ही कहकर रुक गया।
"यह भी एक राज है। जिंदा हकीकत की तरह। " वो हंस कर बोली थी।
"मुझे उलझन में न डाल मधुलिका । "सुभ्रत व्याकुलता से उसका हाथ दबाता हुआ बोला था।
"वक्त आने पर तुम सब जान लोगे।" वो अपना खूबसूरत ताज उतारकर एक तरफ रखते हुए बोली थी।
"क्या तुम्हें मुझसे प्यार है मधुलिका?" कुछ देर की बोझिल खामोशी के बाद सुभ्रत ने झिझकते - झिझकते उससे पूछने की हिम्मत कर ही डाली ।
"अगर हरेन को इस बात का पता चल गया, तो वो मेरे ऊपर बहुत जुल्म करेगा। मेरी रूह अंधेरे खण्डहरों और धुआं उगलती खाईयों की मुसीबतों में डाल दी जाएगी। अगर मोहब्बत न होती, तो फिर मुझे यह खतरा मोल लेने की जरूरत ही क्या पड़ी थी? आखिर तुमने यह पूछा ही क्यों?"
"अब मैं बस्ती में जाकर चीख-चीखकर लोगों सें बताऊंगा कि हरेन ने तुम्हें कैद कर रखा है।' सुभ्रत जोशीले लहजे में बोला था - "हरेन का तिलिस्म टूटकर रहेगा और मैं तुम्हें अपनी जीवन साथी बना लूंगा।"
क्रमशः - प्रेमी आत्मा मरीचिका - भाग 09
लेखक - सतीश ठाकुर