Ravi ki Laharen - 13 in Hindi Fiction Stories by Sureshbabu Mishra books and stories PDF | रावी की लहरें - भाग 13

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रावी की लहरें - भाग 13

बड़े ठाकुर

 

दरबान बुद्धा सिंह ने दीवार पर लगी घड़ी पर नजर डाली। रात के ग्यारह बज चुके थे। इतनी रात बीत गई, मगर एम. एल. ए. साहब अभी क्षेत्र के दौरे से नहीं लौटे थे। बुद्धा सिंह उन्हीं के आने की प्रतीक्षा में जाग रहा था। 

सुस्ती दूर करने के लिए उसने बीड़ी सुलगाई। जब इससे भी सुस्ती दूर न हुई तो वह उठकर लॉन का चक्कर लगाने लगा। तभे गेट पर किसी गाड़ी की हैड लाइट्स पड़ी। दरबान बुद्धा सिंह ने लपक कर गेट खोला। एम.एल. ए. साहब लौट आए थे। गाड़ी लॉन में आकर चरमरा कर रुक गई। एम.एल. ए. साहब गाड़ी से नीचे उतरे । वह पूरी तरह नशे में थे। लड़खड़ाते कदमों से वह ड्राइंग रूम की ओर चल दिए । 

पीछे की सीट से लम्बी-लम्बी मूँछों वाला एक भारी-भरकम आदमी उतरा। उसके पीछे-पीछे सत्रह - अठारह साल की एक बेहद खूबसूरत युवती गाड़ी से उतरी। युवती की वेशभूषा साधारण थी, और वह बेहद घबराई हुई दिखाई दे रही थी। कार से उतरकर उसने भयभीत हिरणी की भांति चारों ओर देखा 

युवती को ठिठकता देख उस भारी-भरकम आदमी ने उसे एम.एल.ए. साहब के पीछे-पीछे चलने का संकेत दिया। युवती मंद-मंद कदमों से चलने लगी । भय से उसका चेहरा पीला पड़ गया। युवती की मनोदशा देखकर दरबान बुद्धा सिंह समझ गया था कि युवती अपनी मर्जी से यहाँ नहीं आई है बल्कि उसे जबर्दस्ती यहाँ लाया गया था । वही भारी-भरकम आदमी शायद उसे यहाँ लेकर आया था। 

युवती को ड्राइंगरूम तक छोड़ने के बाद वह आदमी एम. एल. ए. साहब को अभिवादन करके चला गया था। 

दरबान बुद्धा सिंह की नींद और आलस्य दोनों काफूर हो गए थे। बेचैनी से यह लॉन में इधर-उधर टहलने लगा। उसके अन्दर विचारों का तूफान सा उठ रहा था। तभी उसे एम.एल.ए. साहब की आवाज सुनाई दी। वह उसे बुला रहे थे। 

अनमने भाव से बुद्धा सिंह ड्राइंग रूम में पहुँचा। एम.एल.ए. साहब ने स्कॉच व्हिस्की लाने का आदेश दिया। मशीनी अंदाज में बुद्धा सिंह ने व्हिस्की की बोतल, सोडा तथा गिलास मेज पर लाकर रख दिया । बुद्धा सिंह ने एक नज़र उस युवती पर डाली। युवती सोफे पर घबराई हुई सी बैठी थी । युवती ने याचना भरी नज़रों से बुद्धा सिंह की ओर देखा । 

बुद्धा सिंह अंधेरे में उस युवती को ठीक से देख नहीं पाया था। अब उजाले में गौर से उसने उस युवती का चेहरा देखा तो युवती की शकल हू-ब-हू उसकी बेटी गौरी जैसी थी । एक पल के लिए तो बुद्धा सिंह का सिर चकरा गया परन्तु दूसरे ही क्षण उसने अपने विचारों को झटक दिया था और ड्राइंग रूम से वापस लौट आया था। उस युवती की कातर निगाहें दूर तक उसका पीछा करती रही। 

बुद्धा सिंह अपने कमरे में आकर चारपाई पर लेट गया। कम्बल को सीने तक ओढ़कर उसने सोने की कोशिश की, मगर नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी । वह जब भी सोने की कोशिश करता, उस अन्जान लड़की का मासूम चेहरा उसके सामने आ जाता। उसका चेहरा गौरी से कितना मिलता-जुलता था। उसके चेहरे ने बुद्धा सिंह के सीने में दफन वर्षों पुरानी गौरी की यादों को ताज़ा कर दिया। वह अपने अन्दर एक अनजानी सी बेचैनी, एक अनजाना सा दर्द महसूस कर रहा था। 

बुद्धा सिंह को जब काफी कोशिशों के बाद भी नींद नहीं आई तो वह उठकर बाहर टहलने लगा। वह कोठी की चारदीवारी के सहारे टहलता - टहलता काफी दूर निकल गया। 

उसने एक नज़र कोठी पर डाली । चाँदनी रात में सफेद पत्थर की बनी यह कोठी काफी आलीशान दिखाई दे रही थी । यह कोठी एम. एल. ए. साहब के पिताजी ठाकुर मानमर्दन सिंह ने आज से पचास साल पहले बनवाई थी । ठाकुर मानमर्दन इस इलाके के ज़मींदार थे। ऊँची कद-काठी, चौड़ा सीना, बड़ी-बड़ी मूँछें, उनका व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली था । 

बुद्धा सिंह ज़मींदार साहब का खास लठैत था । आसपास के दस - पाँच गाँवों में बुद्धा सिंह की सानी का कोई लठैत नहीं था। चौहद्दी में उसकी तूती बोलती थी । ठाकुर मानमर्दन सिंह बुद्धा सिंह को बहुत मानते थे। वह जहाँ जाते थे बुद्धा सिंह हमेशा साये की तरह उनके साथ रहता था । 

बुद्धा सिंह अच्छा लठैत होने के साथ-साथ नामी पहलवान भी था । गाँव के मेले में होने वाले दंगल में हमेशा कुश्ती वही जीतता था । दंगल में आसपास के कई गाँवों के लोग इकट्ठे होते थे। बड़े ठाकुर आसपास के इलाकों के कई ज़मींदारों को भी दंगल में कुश्ती देखने के लिए आमंत्रित करते थे। उन सबके बीच जब कुश्ती जीतकर झूमता हुआ बुद्धा सिंह ठाकुर मानमर्दन के पैर छूता था, तो ठाकुर का सीना फूलकर और चौड़ा हो जाता था। वह वहाँ मौजूद ज़मींदारों के सामने बड़ी शान से बुद्धा सिंह की दिलेरी और बहादुरी की तारीफ करते थे । 

बुद्धा सिंह को बड़े ठाकुर की ओर से खाने-पीने की पूरी छूट थी। बड़े ठाकुर का खास आदमी होने के कारण उसका बड़ा मान और रुतबा था। वह बड़ा खुश था। 

बुद्धा सिंह का परिवार बड़ा छोटा था । उसके परिवार में वह था, उसकी पत्नी और एक बेटी थी गौरी। बड़ी मिन्नतों, मुरादों के बाद उनके यहाँ गौरी का जन्म हुआ था, इसलिए पति-पत्नी गौरी को बहुत प्यार करते थे। गौरी सत्रह बसन्त पार कर जवानी की दहलीज पर कदम रख चुकी थी । लम्बी - छरहरी तथा बड़ी-बड़ी आँखों वाली गौरी बड़ी रूपवती थी। गौरी जितनी सुन्दर थी, उसका स्वभाव भी उतना ही अच्छा था। चंचल हिरणी की तरह वह पूरे गाँव में विचरती रहती थी। बच्चे, बालक, बूढ़े सभी से उसका हेलमेल था। वह पूरे गाँव की चहेती थी । 

यौवन भार से लदी रूपसी गौरी जिधर से निकलती लोग उसे निहारते ही रह जाते। मगर ज़मींदार के लठैत की लड़की होने के कारण किसी की हिम्मत नहीं थी कि गौरी को बुरी नज़र से देखता । 

ठाकुर मानमर्दन सिंह बड़े ही नेक और दयालु स्वभाव के थे । प्रजा के दिल में उनका बड़ा सम्मान था । वे पूरे इलाके में बड़े ठाकुर के नाम से मशहूर थे । उनका एक छोटा भाई था, जिसका नाम रणजय सिंह था । लोग उसे छोटे ठाकुर कहते थे। छोटे ठाकुर का स्वभाव बड़े ठाकुर से बिल्कुल मेल नहीं खाता था। वह बड़े मनचले स्वभाव और अय्यास किस्म के जीव थे। गाँव और इलाके की बहू-बेटियों को वह अपनी जागीर समझते थे। 

बड़े ठाकुर ने उन्हें पढ़ाने लिखाने की काफी कोशिश की थी, मगर बड़े कोई फायदा नहीं हुआ था। छोटे ठाकुर का पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगा थ। शिकार करना और दोस्तों के साथ इधर-उधर मटरगश्ती करना यही उनका शौक था। अगर छोटे के चरित्र में कोई विशेषता थी, तो यह कि वह बड़े ठाकुर का बड़ा सम्मान करते थे। बड़े ठाकुर भी अपने छोटे भाई को बहुत चाहते थे, इसलिए वे जान-बूझकर उनकी गलतियों को नज़रअन्दाज कर देते थे। 

काफी दिनों से गौरी का उफनता यौवन छोटे ठाकुर की नज़रों में चढ़ा हुआ था। वे जब भी उल्हड़ गौरी के गुदाज जिस्म को देखते, आहें भरकर रह जाते। वे जानते थे कि बड़े ठाकुर बुद्धा सिंह को कितना मानते हैं, इसलिए गौरी से छेड़छाड़ करने में डरते थे। मगर उनके मन में गौरी के शरीर को पाने की चाहत दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी । 

आषाढ़ खत्म हो गया था और सावन का महीना आ गया था। गाँव-गाँव में दंगलों का आयोजन हो रहा था। बड़े ठाकुर और बुद्धा सिंह पास के गांव में होने वाले दंगल में गए हुए थे। छोटे ठाकुर ने इसे सुनहरा मौका समझा । उस दिन जब गौरी नदी से पानी लेने आई तो उन्होंने किसी बहाने उसे अपने बाग में बुला लिया तथा जी भरकर मासूम गौरी के अनछुए शरीर से अपनी वासना की प्यास बुझायी। बाद में इस भय से गौरी कहीं उनका भेद न खोल दे. उन्होंने दोस्तों की मदद से गौरी की हत्या कर दी थी। 

अगले दिन गौरी की छत-विक्षत लाश जंगल में पड़ी मिली थी। गाँव वाले गौरी की लाश को उठाकर घर ले गए थे। हँसती-खेलती गौरी की लाश देखकर गौरी की माँ दहाड़ मार कर ज़मीन पर गिर पड़ी थी। वह ऐसी गिरी कि फिर न उठ सकी। गाँव वालों ने उसे होश में लाने की कोशिश की तो पता चला कि उसकी जीवन लीला समाप्त हो चुकी थी । 

गाँव से लोग बुद्धा सिंह को बुलाने दौड़ पड़े। 

शाम को जब बुद्धा सिंह घर पहुँचा, उसकी दुनिया उजड़ चुकी थी । उसके आंगन में उसकी पत्नी और बेटी की लाश पड़ी थी । बुद्धा सिंह लाशों से लिपटकर फूट-फूट कर रो पड़ा। किसी तरह गाँव वालों ने दोनों का अन्तिम संस्कार सम्पन्न करवाया था। 

अन्तिम संस्कार के बाद बड़े ठाकुर बुद्धा सिंह को हवेली ले गए थे। 

बुद्धा सिंह बड़े ठाकुर के पैरों में लिपट कर फूट-फूट कर रो रहा था। उसके आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बड़े ठाकुर ने भी बुद्धा सिंह को चुप कराने का कोई प्रयत्न नहीं किया था। जब जी भर रोने-धोने के बाद वह शान्त हो गया तो बड़े ठाकुर उसके चेहरे पर नज़रे गड़ाते हुए बोले - “बुद्धा सिंह, मुझे पता चल गया है कि गौरी का कातिल कौन है।" 

 क्या... कौन है?" बुद्धा सिंह उछल पड़ा। वह चीखा - "जल्दी उसका नाम बताओ मालिक, मैं उसका खून पी जाऊँगा ।" 

 “यही बताने के लिए मैं तुम्हें अपने साथ लाया हूँ बुद्धा सिंह | आओ मेरे पीछे-पीछे आओ।" यह कहकर बड़े ठाकुर उठकर बाहर की ओर चल दिए । बुद्धा सिंह भी उसके पीछे-पीछे चल दिया था। 

गाँव के पश्चिम में नदी के किनारे ठाकुर परिवार की कुलदेवी का एक पुराना मन्दिर था । उस मन्दिर में ठाकुर परिवार के अलावा और कोई नहीं जाता था। 

बड़े ठाकुर बुद्धा सिंह को लेकर मन्दिर पहुँच गए थे। बुद्धा सिंह को बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि बड़े ठाकुर उसे मन्दिर क्यों लाए हैं। बड़े ठाकुर ने मन्दिर खोलकर बुद्धा सिंह को कुलदेवी की मूर्ति के सामने बैठने का आदेश दिया । बुद्धा सिंह की उत्सुकता चरम सीमा पर पहुँच गई थी । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि बड़े ठाकुर क्या करने वाले हैं। बड़े ठाकुर कुछ क्षण तक बुद्धा सिंह की ओर एकटक देखते रहे, फिर सपाट स्वर में बोले - "बुद्धा सिंह, गौरी की हत्या छोटे ठाकुर ने की है। 

"क्या! क्षण भर के लिए बुद्धा सिंह सन्नाटे में आ गया था। फिर वह चीखा - "मैं छोटे ठाकुर को नहीं छोडूंगा मालिक, बाद में आप चाहे मुझे कोल्हू में पिलवा देना।" बुद्धा सिंह ने झपट कर अपनी लाठी उठाई थी। 

"ठहरो बुद्धा सिंह!" मन्दिर में बड़े ठाकुर का गम्भीर स्वर गूँजा था। बड़े ठाकुर के शब्दों में पता नहीं क्या जादू था, कि बुद्धा सिंह के पैर वहीं के वहीं रुक गए थे। प्रश्न- वाचक निगाहों से उसने बड़े ठाकुर की ओर देखा। "बैठ जाओ बुद्धा सिंह" बड़े ठाकुर ने उसी गम्भीरता के साथ कहा था। मशीनी अंदाज में बुद्धा सिंह बैठ गया । 

बड़े ठाकुर बुद्धा सिंह के कुछ और समीप आ गए थे। 

उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए बोले- “बुद्धा सिंह, तुम छोटे ठाकुर को मारना चाहते हो तो जरूर मार डालना । मैं तुम्हें नहीं रोकूँगा, परन्तु जाने से पहले मेरी बात सुनते जाओ।" 

बुद्धा सिंह ने हैरानी से बड़े ठाकुर की ओर देखा । उसकी आँखों में सैकड़ों सवाल उभर आए थे। 

बड़े ठाकुर एक गहरी शांस लेकर बोले - " बुद्धा सिंह, यह तो तुम जानते ही हो कि इलाके के लोगों में ठाकुर परिवार का कितना मान है। लोग ठाकुर परिवार को भगवान की तरह पूजते हैं। अभी लोग गौरी की मौत को एक हादसा मान रहे हैं। अगर तुमने छोटे ठाकुर को मारने की कोशिश की तो लोगों को सारी बातें पता चल जाएंगी, और ठाकुर परिवार की प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी। लोग ठाकुर परिवार के नाम पर थू-थू करेंगे। मैं यह दिन देखने से पहले ही अपनी जान दे दूँगा । अब मेरी जिन्दगी और ठाकुर परिवार की लाज तुम्हारे हाथ में है बुद्धा सिंह । तुम चाहे इसे बचा लो और चाहे ठोकर मार दो।" यह कहकर बड़े ठाकुर ने अपने सिर से पगड़ी उतार कर बुद्धा सिंह के कदमों में रख दी थी। 

बुद्धा सिंह मन्दिर में सन्न खड़ा था। कभी वह ठाकुर की ओर देखता और कभी उनकी पगड़ी की ओर । वह बड़े ठाकुर के बारे में सोचने लगा । बुद्धा सिंह बचपन में ही अनाथ हो गया था। बड़े ठाकुर की हवेली में ही खा-पीकर वह बड़ा हुआ था । यह मान, यह रुतवा, रुपया-पैसा और यहाँ तक कि उसका यह शरीर सब बड़े ठाकुर का ही दिया हुआ था। बड़े ठाकुर के अहसानों तले उसका रोम-रोम दबा हुआ था । वही बड़े ठाकुर आज याचक बने उसके सामने खड़े थे। क्या वह बड़े ठाकुर की पगड़ी को ठोकर मार पाएगा? बुद्धा सिंह ने अपने आपसे सवाल किया था। नहीं नहीं वह ऐसा नहीं कर सकता। उसका अन्तर्मन चीत्कार कर उठा। 

उसने सोचा कि छोटे ठाकुर के पाप की सजा बड़े ठाकुर को क्यों दी जाए? अगर बड़े ठाकुर चाहते तो गौरी की हत्या की बात आसानी से छिपा सकते थे। उसे जिन्दगी भर इस बात की भनक तक नहीं लग पाती कि गौरी की हत्या छोटे ठाकुर ने की थी। गाँव में किसी की इतनी हिम्मत नहीं थी, जो ठाकुर परिवार के खिलाफ जुबान खोलता । मगर बड़े ठाकुर ने सारी बात उसे बता कर निर्णय उसके ऊपर छोड़ दिया था। वह जानता था कि बड़े ठाकुर बात के पक्के है। अगर उनके परिवार की बदनामी हुई तो वह निश्चित रूप से अपनी जान दे देंगे। नहीं, वह ऐसा नहीं होने देगा। वह बड़े ठाकुर की मौत का कारण नहीं बनेगा। उसने अपने मन में तय कर लिया। 

उसने ठाकुर की पगड़ी उठाकर उनके सिर पर रख दी और बोला - “पगड़ी पहन लीजिए बड़े ठाकुर । मैं वही करूंगा जो आप कहेंगे।"

"तो तुम कुलदेवी की मूर्ति पर हाथ रखकर सौगन्ध खाओ कि तुम जिन्दगी भर इसी तरह ठाकुर परिवार के प्रति वफादार बने रहोगे ।" बड़े ठाकुर ने भाव-विह्वल स्वर में कहा था। बुद्धा सिंह ने आदेश का पालन किया था। उसने कुलदेवी को साक्षी मानकर जीवन भर ठाकुर परिवार के प्रति वफादार रहने की कसम खाई थी। बड़े ठाकुर ने आगे बढ़कर बुद्धासिंह को बाहों में भर लिया था। उनकी आँखों में झर-झर आँसू गिर रहे थे। बुद्धा सिंह के मन का ज्वालामुखी बड़े ठाकुर के आँसुओं की शीतलता पाकर शान्त हो गया था। 

दैवयोग से इसके छः महीने बाद ही गाँव में फैले हैजे में छोटे ठाकुर का देहान्त हो गया था। प्रकृति ने शायद उन्हें उनके पापों की सजा दे दी थी। बुद्धा सिंह के मन का काँटा निकल गया था, और वह पूरी निष्ठा से ठाकुर परिवार की सेवा में जुट गया था। 

इसके कुछ समय बाद देश आज़ाद हो गया और पूरे देश से ज़मींदारी प्रथा खत्म कर दी गई। ज़मींदारी चली जाने के बाद भी ठाकुर परिवार की शान-शौकत और ठाठ-बाट में कोई कमी नहीं आई थी। बड़े ठाकुर बड़ी सूझ-बूझ वाले व्यक्ति थे। ज़मींदारी खत्म होते ही उन्होंने कपड़े की मिल खोल ली थी, जो खूब चल निकली थी। 

दूसरे चुनाव में बड़े ठाकुर एम. एल. ए. के लिए खड़े हुए थे और भारी मतों से जीते थे। वह लगातार तीन बार एम. एल. ए. रहे। उनकी शान-शौकत पहले से भी कई गुना बढ़ गई थी। अब उन्होंने शहर में भी आलीशान कोठी बनवा ली थी। बड़े ठाकुर की मृत्यु के बाद उनका लड़का अभय प्रताप सिंह एम.एल.ए. बना था। अभय प्रताप सिंह का व्यक्तित्व बड़े ठाकुर की तरह ही आकर्षक और प्रभावशाली था, मगर उसका स्वभाव बड़े ठाकुर के बिल्कुल विपरीत था । वह बड़ा तिकड़मबाज और अय्याश प्रवृति का था । अय्यासी का यह गुण शायद उसने अपने चाचा छोटे ठाकुर से विरासत में पाया था। 

पहली बार एम.एल.ए. बनने पर तो वह कुछ ठीक रहा, मगर दूसरी बार एम.एल.ए. बनते ही उसकी अय्याशी चमरसीमा पर पहुँच गई थी। एम.एल. ए. साहब का पूरा परिवार शहर में बनी कोठी में रहता था, मगर वह अक्सर गाँव की इस कोठी में राते बिताते थे। उनकी सुरक्षा के लिए उनके साथ यहाँ केवल बुद्धा सिंह रहता था । 

कोठी में एम.एल.ए. साहब की रातें रंगीन करने के लिए अक्सर नई-नई लड़कियाँ लाई जाती थी । कुछ लड़कियाँ अपनी मर्जी से आती थीं, मगर कुछ को एम. एल. ए. साहब के गुण्डे जबरदस्ती उठाकर लाते थे। रात के अंधेरे में वह काम इतनी खूबी से होता था कि किसी को इसकी कानो-कान खबर नहीं हो पाती थी। सुबह उठते ही एम. एल. ए. साहब फिर समाज सेवा और शालीनता का लबादा ओढ़ लेते थे। 

अक्सर रात के सन्नाटे में एम. एल. ए. साहब के बैड रूम में चूड़ियों की खनखनाहट, आपस की उठा पटक, घुटी घुटी सिसकारियाँ और चीखें गूँजती । बुद्धा सिंह रोज मासूम लड़कियों को बेकसूर गायों की तरह जिव्हा होते देखता, मगर बुद्धा सिंह का व्यक्तित्व तो मानो अस्तित्वहीन बनकर रह गया था। उसे न बेबस लड़कियों की चीखें सुनाई देती और न ही छटपटाहट । कुलदेवी के सामने ली गई सौगंध के कारण वह सब कुछ देखते - सुनते हुए भी बहरा, अंधा और गूँगा बन गया था। उसके होठ पत्थर के हो गए थे, जो अत्याचार को देखकर भी कुछ नहीं बोलते थे। 

एम.एल.ए. अभय प्रताप सिंह के साथ रहते बुद्धा सिंह को सात वर्ष हो गए थे। इन सात सालों में उसने बहुत कुछ भोगा ओर सहा था, मगर उसने ऐसी बेचैनी कभी अनुभव नहीं की थी। जैसी आज अनुभव कर रहा था, उसने बुद्धा सिंह के पूरे अस्तित्व को झकझोर के रख दिया था । मन को लाख संयत रखने के बावजूद वह लगातार उसी के बारे में सोचे जा रहा था। 

बुद्धा सिंह ने आकाश की ओर देखा । चन्द्रमा सिर पर आ गया था। रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी। सर्दी बढ़ती जा रही थी । बुद्धा सिंह अपने क्वार्टर की ओर चल दिया। अपने क्वार्टर में आकर बुद्धा सिंह अभी चारपाई पर बैठा ही था कि एम. एल. ए. साहब के कमरे में किसी चीज के गिरने की आवाज आई, फिर उसी लड़की की चीख सुनाई पड़ी - “बापू बचाओ! यह राक्षस मेरी इज्जत लूट रहा है।" 

इस चीख ने बुद्धा सिंह के अशान्त मन को हिलाकर रख दिया। उसे ऐसा लगा मानो उसे उसकी गौरी रक्षा के लिए पुकार रही है । चीख फिर गूँजी थी। 

अब बुद्धा सिंह की सहनशीलता जवाब दे गई थी। क्षण भर में उसने कुलदेवी की सौगन्ध के चक्रब्यूह को खण्ड-खण्ड कर डाला था । गोली जैसी रफ्तार से वह उस लड़की की अस्मत बचाने के लिए दौड़ रहा था । 

बुद्धा सिंह के अन्दर का लठैत जाग चुका था । उसने एक ही धक्के में बैड रूम का दरवाजा तोड़ डाला। 

“क्या है?" एम.एल.ए. साहब ने चौंक कर बुद्धा सिंह से पूछा था । 'इस लड़की को छोड़ दो एम. एल. ए. साहब ।" बुद्धा सिंह कड़क कर बोला था। 

“क्या बकता है बुड्ढे । जा, जाकर अपना काम कर । मेरी रोटियों पर पलता है, और मुझी को आँखें दिखाता है ।" एम.एल.ए. आँखें तरेरते हुए बोले थे। 

बुद्धा सिंह चीते जैसी फुर्ती से एम. एल. ए. साहब पर झपटा था। उसने एम.एल.ए. साहब को उठाकर जमीन पर पटक दिया था। लड़की उनके बन्धन से आजाद हो गई थी। 

एम.एल.ए. अभय प्रताप सिंह विलासी जरूर था, मगर उसका शरीर बड़ा ताकतवर था। गुस्से में उसने पूरी ताकत से बुद्धा सिंह को जोर से धक्का दिया था। बुद्धा सिंह का सिर दीवार से टकराया था । बुद्धा सिंह क्षण भर के लिए चेतनाशून्य हो गया। इसके बाद अभय प्रताप सिंह लड़की की ओर झपटा था। एक ही झटके में उसने लड़की का ब्लाउज़ उसके शरीर से नोच कर जमीन पर फेंक दिया था।" बापू बचाओ।" लड़की की चीख फिर गूँजी थी। उसने कातर निगाहों से बुद्धा सिंह की तरफ देखा था । 

बुद्धा सिंह को ऐसा महसूस हुआ था जैसे किसी ने उसकी बेटी गौरी को भरे बाजार में नंगा कर दिया है, और वह रक्षा के लिए पुकार रही है। गुस्से की अधिकता के कारण बुद्धा सिंह की कनपटियाँ लाल हो गई। उसके शरीर का पूरा रक्त मानो उसके चेहरे में सिमट आया। उसने कमर में खोंसा अपना छुरा निकाला और पूरी ताकत से उसे एम. एल. ए. अभय प्रताप सिंह के पेट में घुसेड़ दिया। एम.एल.ए. अभय प्रताप सिंह के मुँह से एक भयानक चीख निकली, कुछ क्षण वे छटपटाए, फिर उनका शरीर शान्त हो गया। वह दम तोड़ गए थे। 

लड़की भय के मारे पीपल के पत्ते के समान थर-थर काँप रही थी। बुद्धा सिंह लड़की को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने के बाद थाने में हाजिर हो गया था। 

अगले दिन सभी समाचार-पत्रों में सुर्खियों में यह खबर छपी थी कि एम.एल.ए. अभय प्रताप सिंह की उनके दरबान ने ही नृशंस हत्या कर दी। पूरे क्षेत्र में यह घटना चर्चा का विषय बनी हुई थी। लोग तरह-तरह की अटकलें लगा रहे थे। 

उधर जिले के सारे आला अफसर थाने में जमा थे। पुलिस बुद्धा सिंह से तरह-तरह के सवाल पूछ रही थी, मगर बुद्धा सिंह हर बार रटा-रटाया एक ही जवाब दे रहा था कि "उसने पूरे होशोहवास में एम. एल. ए. अभय प्रताप सिंह की हत्या की है।" इससे आगे वह कुछ नहीं बोलता था। पुलिस पूछ-पूछ कर हार गई थी, मगर बुद्धा सिंह ने उस रात की घटना के बारे में किसी को एक शब्द तक नहीं बताया था। एक मासूम लड़की की अस्मत बचाने के लिए उसने कुलदेवी की सौगन्ध को जरूर तोड़ा था, मगर बड़े ठाकुर की प्रतिष्ठा का शायद उसे अब भी खयाल था । वह एम. एल. ए. अभय प्रताप सिंह की काली करतूतें बताकर बड़े ठाकुर के परिवार की प्रतिष्ठा को धूमिल नहीं करना चाहता था।