जमीन का पट्टा
रविवार का दिन था। मैं अपने एक वकील मित्र के घर बैठा हुआ शाम की चाय पी रहा था। वकील साहब के कुछ और मित्र भी आए हुए थे। विभिन्न विषयों पर बातें हो रही थी । मैं चुपचाप बैठा हुआ सबकी बातें सुन रहा था।
उसी समय एक बूढ़ा आदमी वहाँ आ गया। वह ठेठ देहाती लग रहा था। बूढे ने वकील साहब को नमस्ते की और पूछा - 'हमें मुकदमा जीते हुए तीन महीने हो गए, पर आपने जमीन पर कब्जा अभी तक नहीं दिलवाया। उसमें कितना और समय लगेगा, साहब?'
वकील साहब ने उसके मुकदमे की फाइल निकाली और उसे पलटने लगे। कुछ कागजात पढ़ने के बाद वे बोले - 'ज़मीन पर तुम्हारा कब्ज़ा कराने का आदेश अदालत ने जारी तो कर दिया है मगर पेशकार अभी दे नहीं रहा है । ऐसा करो पाँच सौ रुपये दे जाओ, मैं पेशकर से आदेश लेकर तुम्हारा कब्ज़ा करवा दूँगा ।'
'आज रुपए तो नहीं है वकील साहब' बूढ़ा दयनीय स्वर में बोला ।
'जब रुपये नहीं हैं तो मेरा वक्त खराब करने क्यों चले आए ? मुकदमा खाली हाथ नहीं लड़ा जाता । कल रुपये लेकर आना, तब बात करना । '
बूढ़े ने काफी खुशामद की पर वकील साहब पर कोई असर नहीं पड़ा । वह अपनी बात पर अड़े रहे। अंत में हार कर बूढ़े ने अपने थैले में एक कपड़ा निकाला। कपड़े की गाँठ में कुछ रुपये बंधे हुए थे। उन्हें गिनते हुए वह बोला- 'बाबू जी, यह तीन सौ रुपये रख लो, बाकी बाद में दे दूँगा ।'
'तीन सो रुपये में काम कैसे चल पाएगा? बाकी दो सौ रुपये भी निकालो। तुम लोगों की यह आदत बहुत खराब है। बार-बार कहना पड़ता है।'
'अब तो किराये के पचास रुपये ही बचे हैं, बाबूजी । पैदल कैसे घर पहुँच पाऊँगा ।'
'मैं यह सब नहीं जानता, अगर काम कराना है तो बाकी रुपये भी निकालो वरना मेरा दिमाग मत चाटो ।' वकील साहब ने रूखे स्वर में कहा । बूढ़े ने आखिरी पचास का नोट भी निकाल कर वकील साहब को दे दिया।
वकील साहब जेब में रुपये रखते हुए बोले- 'कल मैं पेशकार से कब्जे का आदेश ले लूँगा। परसों आ जाना। परसों ज़मीन पर कब्ज़ा करवाने की कार्यवाही करवाएंगे। मगर खाली हाथ मत चले आना । अहले कमीशन नियुक्त करवाने और दूसरे कामों में कम से कम तीन - चार सौ रुपये लगेंगे । इंतज़ाम करके आना।'
बूढ़े के चेहरे पर चिंता की लकीरें और गहरी हो गई थी। वह ठीक है बाबूजी कह कर चला गया था।
मैंने वकील साहब से पूछा- 'ज़मीन पर कब्ज़े का आदेश तो पहले से ही आपकी फाइल में लगा हुआ है फिर आपने उस बेचारे से इतने रुपये क्यों लिए? वह तो वैसे ही बड़ा गरीब लग रहा था ।'
'यह सब धंधे की बाते हैं, तुम नहीं समझोगे।' वकील साहब ठहाका लगाते हुए बोले।
वकील साहब के अन्य मित्रों ने मेरी ओर हिकारत भरी नज़रों से देखा । उनमें से एक बोला- 'तुम तो ठहरे फक्कड़ साहित्यकार । तुम्हें क्या पता दुनियादारी और घर-गृहस्थी कैसे चलती है।'
मैं खिसियाकर उठा और बाहर आ गया। पता नहीं उस बूढ़े की दयनीय सूरत में ऐसा क्या था कि मैं खिंचा हुआ सा उसके पीछे-पीछे चल दिया। मैंने गौर से देखा, बूढ़ा एक जगह ठिठका सा खड़ा था। मैं उसके नजदीक पहुँचा और बोला- 'तुम्हारा किस बात का मुकदमा चल रहा है, बाबा?'
बूढ़े ने कोई जवाब नहीं दिया। वह वैसा ही गुमसुम सा खड़ा रहा। शायद एक अनजान आदमी को अपनी व्यथा बताने से वह डर रहा था।
मेरे बार - बार कुरेदने पर उसने अपने बारे में बताना शुरू किया - 'साहब, मेरा नाम गिरधर है। मैं सूरजपुर गाँव का रहने वाला हूँ। आज से सात साल पहले हमारे गाँव में भूमिहीन मज़दूरों को सरकार की तरफ से ग्राम-समाज की परती पड़ी हुई ज़मीन के पट्टे दिए गए थे। मेरे नाम भी दो बीघा ज़मीन का एक पट्टा कर दिया गया। उस समय मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था । मैं भी मज़दूर से 'ज़मीन वाला' बन गया था।
'मगर मेरी यह खुशी अधिक दिनों तक नहीं ठहर सकी थी। कुछ महीनों बाद ही प्रधान ने लेखपाल से मिलकर ज़मीन के उस टुकड़े का पट्टा अपने एक आदमी रामफल के नाम करा लिया। मैंने कानूनगो से लेकर जिला अधिकारी तक सबसे फरियाद की मगर मेरी गुहार किसी ने नहीं सुनी थी। हारकर मैंने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया। मैंने प्रधान, लेखपाल और रामफल के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया।
'जब अदालत से उनके नाम के सम्मन पहुँचे तो वे लोग बौखला उठे। मुझ पर मुकदमा वापिस लेने के लिए तरह-तरह के दबाव पड़ने लगे। पहले चार-छः हजार रुपये देकर मामला रफा-दफा करने की बात की गई। फिर डराया-धमकाया गया।'
'मैं प्रधान की ताकत और उसके प्रभाव को जानता था। गाँव व आसपास के गुंडे किस्म के लोग उसके साथ थे। राजनीतिक लोगों में उसकी पहुँच थी। मैंने अपने बेटे को समझाया कि जल में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं किया जा सकता। उन लोगों से समझौता कर लेने में ही भलाई है। मगर मेरा बेटा धरमू इसके लिए तैयार नहीं हुआ। वह गबरू जवान था। जवानी के जोश में उसे मेरी बात समझ में नहीं आई। मैंने उसे काफी ऊँच-नीच समझाया परंतु वह अन्याय के खिलाफ झुकने को तैयार नहीं हुआ। इसलिए वह मुकदमा चलाने पर अड़ा रहा।
'उधर प्रधान की गुण्डागर्दी बढ़ गई थी। वह तथा उसके सिपाहसालार मुझे मेरे परिवार को अपमानित करने कोई मौका नहीं छोड़ते। मुकदमा चलते हुए अभी केवल छ: महीने बीते थे। मुझे लगातार धमकियाँ मिल रही थी । यह मुकदमा मेरे जीवन में इतना बड़ा भूचाल लेकर आएगा, ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।'
'एक दिन शाम को मेरा बेटा धरमू काम से लौट रहा था। रास्ते में उसे प्रधान के गुण्डों ने घेर लिया और उस पर हमला कर दिया। उन्होंने धरमू को लाठियों और बल्लमों से पीटना शुरू कर दिया । धरमू अच्छा लठैत था। उसने उन लोगों का डटकर मुकाबला किया मगर आठ-दस मुस्टंडों के सामने बेचारा अकेला क्या करता । वे लोग उसे तब तक मारते रहे जब तब वह बेहोश होकर गिर नहीं पड़ा। बाद में वे उसे मरा समझकर ईख के खेत में डाल गए ।'
'खबर मिलने पर जब मैं अपने साथ कुछ लोगों को लेकर खेत पर पहुँचा तो धरमू बेसुध खेत में पड़ा हुआ था। उसकी हालत काफी गंभीर थी। शरीर में जगह-जगह से खून बह रहा था । उसकी नब्ज़ बहुत धीरे-धीरे चल रही थी ।'
'मैं उसे बैलगाड़ी में डालकर अस्पताल ले गया। खून काफी बह चुका था। डॉक्टरों ने कई दिन के इलाज के बाद किसी तरह धरमू का जीवन बचा लिया। मगर धरमू की एक टाँग में गहरा घाव होने के कारण जहर फैल गया था और डॉक्टरों के पास धरमू की एक टाँग को काट देने के अलावा कोई चारा नहीं था। मैं पथराई आँखों से अपने जवान बेटे को अपाहिज होते देख रहा था।'
धरमू की मां पहले से ही बीमार चल रही थी । वह इतने सदमे को सहन नहीं कर पाई और अचानक दिल का दौरा पड़ने से वह स्वर्ग सिधार गई थी ।'
'इस हादसे में मैंने अपनी पत्नी खो दी और मेरा इकलौता बेटा जीवन भर के लिए अपंग हो गया तो भी ज़मीन के उस बेजान टुकड़े से मेरा मोह भंग नहीं हुआ था। बाबूजी, मैंने सोचा, जब सब कुछ बर्बाद हो ही चुका है तो अब मुकदमा लड़ने में हर्ज ही क्या है? यदि जीत गया तो उस खेत के टुकड़े को बेचकर बेटी के हाथ पीले कर दूँगा । '
'मेरे दिमाग में था कि दो-तीन तारीखों में मुकदमा खत्म हो जाएगा, पर जब मुकदमा शुरू हुआ तो द्रोपदी के चीर की तरह बढ़ता ही चला गया। आज मुकदमा चलते-चलते सात साल हो गए हैं। मेरी दोनों भैंसे स्वर्गवासी पत्नी के चांदी के जेवर और घर का सामान सब एक-एक करके मुकदमे की भेंट चढ़ चुके हैं, मगर ज़मीन का वह टुकड़ा अब भी मेरे लिए सपना बना हुआ है।
'खैर, कुछ दिन पहले किसी तरह मुकदमे का फैसला हुआ। मैं मुकदमा जीत गया मगर इस जीत की मुझे भारी कीमत चुकानी पड़ी थी । इसलिए समझ में ही नहीं आ रहा था कि इस जीत पर हँसू या रोॐ । '
'वकील साहब ने कहा - कुछ दिन बाद ज़मीन पर तुम्हारा कब्ज़ा हो जाएगा। कई दिन से वकील साहब से मिलने के बारे में सोच रहा था, मगर मेरे पास शहर आने के लिए पैसे न थे। आज किसी तरह किराये का जुगाड़ हुआ। जब मैं शहर चलने लगा तो मेरी लड़की ने कई महीने से जुड़े अपने तीन सौ रुपये धोती लाने के लिए दिए। उसकी धोती तार-तार हो गई है, जिससे उसे अपने शरीर को ढंकना भी मुश्किल हो गया है। '
'मैंने सोचा था कि वकील साहब से मिलने के बाद धोती खरीद लूँगा, पर ज़मीन पर कब्ज़े की दिलासा दिलाकर वकील साहब ने वह पैसे भी मुझसे ऐंठ लिए। मैंने वकील साहब की कितनी मिन्नतें कीं मगर उनका दिल नहीं पसीजा। पैसे की हवस शायद कभी शांत नहीं होती है बाबूजी । आज तो किराया भी नहीं बचा। गाँव भी शायद पैदल ही जाना पड़ेगा।' यह कहकर बूढ़ा शांत हो गया था । चिंता की अनगिनत परछाइयाँ उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी।
बूढ़े की दर्द भरी कहानी सुनकर मेरे मन का पोर - पोर एक अनजानी पीड़ा से भर गया था।
मैंने पचास का एक नोट निकालकर बूढ़े को दिया। उसे दिलासा देते हुए मैंने कहा – 'हिम्मत मत हारो बाबा । अब तुम मंज़िल के काफी करीब पहुँच चुके हो। जब मुकदमा जीत गए हो तो देर-सवेर कब्ज़ा भी मिल ही जाएगा। अन्याय के खिलाफ लड़कर तुमने बड़ा काम किया है । तुम्हारी यह लड़ाई उन लोगों के लिए एक मिसाल होगी जिन पर ऐसे जुल्म होते रहते हैं ।'
बूढ़ा मुझे दुआएँ देता हुआ चला गया था। काफी देर तक मैं वहीं बुत बना खड़ा रहा था, फिर थके कदमों और बोझिल मन से घर की ओर चल दिया था।