Ardhangini - 43 in Hindi Love Stories by रितेश एम. भटनागर... शब्दकार books and stories PDF | अर्धांगिनी-अपरिभाषित प्रेम... - एपिसोड 43

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अर्धांगिनी-अपरिभाषित प्रेम... - एपिसोड 43

मैत्री की कार आंखो से ओझल होने के बाद नेहा और सुरभि समेत बाकी के घरवाले मैरिज लॉन के अंदर आ गये... जतिन तो अपनी अर्धांगिनी मैत्री को लेकर कानपुर के लिये निकल गया था लेकिन बारात वाली बस अभी भी वहीं खड़ी थी... सारे बाराती बस मे बैठ चुके थे लेकिन जतिन के पापा विजय अभी भी मैरिज लॉन मे अपने छोटे भाई के साथ ही थे.... मैत्री के जाने के बाद उसके परिवार के हर सदस्य के चेहरे उतरे हुये थे... आंखो मे आंसू थे... और माहौल एकदम शांत था.... ऐसा लग रहा था मानो मैत्री अपने साथ उस जगह की रौनक भी ले गयी थी... एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था वहां पर... इसी सन्नाटे के बीच जतिन के पापा विजय जो वहां किसी कारणवश अभी भी रुके हुये थे उन्होने मैत्री के पापा को बांहो से पकड़कर मुस्कुराते हुये कहा- भाईसाहब मैने भी एक बेटी विदा की है, मै अच्छे से जानता हूं कि आपके दिल पर इस समय क्या बीत रही होगी... लेकिन आप मैत्री बिटिया की बिल्कुल भी चिंता मत करिये... वो अपने नये घर मे बहुत सम्मान और सुकून से रहेगी.... 

जगदीश प्रसाद और उनके साथ साथ सरोज को प्यार और सम्मान से समझाने के बाद जतिन के पापा विजय ने अपने पास खड़े सब लोगो की तरफ देखते हुये कहा- अच्छा भाईसाहब मै यहां जरूरी बात करने के लिये रुका हुआ हूं... वो आपको याद तो होगा ही कि बबिता ने पहले दिन ही कह दिया था कि शादी के आयोजन का आधा खर्चा हम देंगे.... तो वादे के मुताबिक क्रपा करके जरा मुझे बता दीजिये कि मुझे कितना देना है तो मै आपको चेक काट के दिये दे रहा हूं.... 

शादी के आयोजन की भागदौड़ मे मैत्री के चाचा वीरेंद्र और चाची सुनीता ये भूल ही गये थे कि ऐसा भी कोई वादा हुआ था... तो जब विजय ने ये बात आज फिर से उठायी तो चौंकते हुये मैत्री के चाचा वीरेंद्र ने कहा- देखिये भाई साहब सबसे पहली बात तो ये है कि आपके परिवार जैसा परिवार हमे हमारी बेटी के लिये मिला है यही हमारा सबसे बड़ा सौभाग्य है... दूसरी बात मैत्री हमारी अकेली बेटी है... और हम दोनो भाइयो ने कभी परिवारो के बीच किसी तरह का भेद नही किया है.... हम रहते जरूर अलग अलग हैं पर हम दो नही एक ही परिवार हैं.... और मैत्री हमारे बच्चो के बीच अकेली कन्या है... हम सबकी चहेती, हम सबकी लाडली बेटी है वो... और अपनी लाडली बिटिया के लिये इतना करने का हक तो हमे दे ही दीजिये कि हम उसकी शादी का पूरा खर्च वहन कर सकें... आप सबने हमे अभी तक के आयोजन मे इतना सम्मान और इतना प्यार दिया कि हमारे लिये वही बहुत बड़ी बात है.... भाईसाहब हमारी भावनाओ को समझिये और क्रपा करके हमे इस सौभाग्य से वंचित मत कीजिये और फिर हमने किया ही क्या है... जिस तरह से आपने हर बात मे हमारा साथ दिया उसके मुकाबले हमने तो कुछ भी नही किया और जतिन जी इतने प्यारे और सच्चे और इतने अच्छे इंसान हैं कि उनके लिये तो हम जितना कर दें उतना कम है.... इसलिये प्लीज भाईसाहब आप क्रपा करके अपना ये आग्रह वापस ले लें... ( ऐसा कहते हुये वीरेंद्र ने विजय के सामने हाथ जोड़ लिये) 

वीरेंद्र की बात सुनकर विजय ने कहा-  भाईसाहब मै आपकी बात और भावनाये समझता हूं पर हमारी भी यही इच्छा थी कि जतिन की शादी मे हम बाकी लड़के वालो की तरह अपनी बहू के परिवार वालो पर कोई बोझ नही डालेंगे... और फिर आपको पता नही है कि बबिता को गुस्सा कितनी जल्दी आता है खासतौर से मेरे ऊपर... (अपनी बात को आगे बढ़ाते हुये विजय हंसने लगे और हंसते हुये बोले) और ये बात वो मुझसे अलग से बुला कर कहके जतिन के साथ गयी है कि पैसे देकर ही आना.... अब आप बताओ आपको अच्छा लगेगा कि मैत्री बिटिया के सामने मुझे डांट पड़े...!! 

विजय की मजाकिया अंदाज मे कही गयी ये बात सुनकर वीरेंद्र और जगदीश प्रसाद समेत वहां खड़े बाकी लोग भी हंसने लगे तो सुनीता ने कहा- नही भाईसाहब बहन जी तो इतनी अच्छी हैं वो कुछ नही कहेंगी... मै उनसे आज शाम को ही इस विषय पर बात कर लूंगी पर भाईसाहब हम पैसे नही ले सकते.... 

बहुत देर तक मान मनौव्वल करने के बाद भी जब मैत्री के परिवार वाले पैसे लेने के लिये राजी नही हुये तो विजय ने कहा- अब आप लोग मान ही नही रहे तो चलिये फिर खा लेंगे थोड़ी सी डांट.... और इस विषय पर मै और बबिता आप सबसे बाद मे बात करेंगे अभी हम चलते हैं.. बेकार मे हमारी वजह से बाकी के बारातियो को देर हो रही है... 

ऐसा कहकर हंसी खुशी सबसे विदा लेकर विजय भी अपने भाई के साथ बस मे जाकर बैठ गये... इसके बाद उनकी बस भी कानपुर के लिये रवाना हो गयी.... 

इधर जहां एक तरफ जतिन के पापा विजय और मैत्री के परिवार वालो के बीच काफी देर तक बात होती रही थी वहीं दूसरी तरफ थोड़ी देर बाद ही मैत्री अपने नये घर कानपुर पंहुच गयी थी.... घर के बाहर पंहुचने के बाद कार मे ही बैठाये बैठाये जतिन और मैत्री समेत सागर, ज्योति और बबिता को पानी वानी पिलाया गया उसके बाद जतिन और मैत्री को पूजा करवाने मंदिर ले जाया गया... मंदिर से आने के बाद जैसी की परंपरा होती है... मैत्री के हाथों से घर के दरवाजे पर उसकी हथेलियों के छापे पड़वाये गये... उसके बाद मेनगेट से अंदर घर के दरवाजे पर चावल से भरे लोटे को रखा गया जिसपर मैत्री को पैर मारकर उन चावलो को बिखेरना था.... मैत्री ये सारी रस्मे जानती थी लेकिन आज ये रस्मे करते वक्त उसे मन ही मन एक अजीब सी खुशी महसूस हो रही थी.... इस शादी के प्रति अस्वीकार्यता के बीच मैत्री की खुशी का कारण था लखनऊ से कानपुर के रास्ते के बीच बबिता और ज्योति का मैत्री को दिया गया असीम प्यार और साथ... रास्ते मे मैत्री बार बार अपने मम्मी पापा को याद करके जब रो रही थी तब तब बबिता और ज्योति ने बड़े ही प्यार से उसके सिर को सहलाते हुये उसे संभाला था... मैत्री अपनी सास और अपनी ननद ज्योति के इस प्यार के मोह मे अपने आप को उन दोनो के प्रति समर्पित और आकर्षित महसूस कर रही थी.... मैत्री को उन दोनो के ही प्रेम मे संपूर्ण निश्छलता महसूस हो रही थी.... 

घर के अंदर आने के लिये मैत्री ने बड़े प्यार से उस लोटे पर अपना पैर मारा उसके बाद उसके आगे रखी लाल रंग के पानी से भरी थाल पर पैर रखा और ज्योति के बताने के हिसाब से चलकर अंदर भगवान के मंदिर तक अपने शुभ आगमन के प्रतीक उन पैरो के निशान बनाते अंदर तक आ गयी.... मैत्री के पैरो से बने वो लाल रंग के निशान सुर्ख लाल रंग के थे सच मे ऐसा लग रहा था मानो लक्ष्मी जी स्वयं चलकर घर के अंदर आयी हों... ये सारे संकेत बहुत शुभ होते हैं इसीलिये मैत्री के पैरो के निशान देखकर बबिता बहुत खुश हुयीं और हाथ जोड़कर मैत्री के शुभ आगमन के लिये भगवान का धन्यवाद किया.... इसके बाद पूजा वाले कमरे मे भगवान के मंदिर के सामने जतिन और मैत्री को बैठाकर एक शैतानी वाली रस्म शुरू की गयी जिसमे एक बड़ी सी गहरी परात मे पानी भरकर उसमे लाल रंग मिलाया गया और उसमे एक अंगूठी डाली गयी... जिसे जतिन और मैत्री को ढूंढना था... कहते हैं पति पत्नि के बीच की इस हंसी मजाक वाली प्रतिस्पर्धा मे जो जितनी जादा बार अंगूठी ढूंढ के उठा लेता है वही विजेता होता है और जीवन भर उसी की चलती है घर मे... ये रस्म जतिन और मैत्री दोनो जानते थे.... 
उस परात मे ज्योति ने जैसे ही अंगूठी डाली वैसे ही जतिन ने अपना हाथ परात मे डालकर उस अंगूठी को ढूंढना शुरू कर दिया लेकिन संकोचवश मैत्री बस ऐसे ही पानी मे हाथ हिलाती रही... परिणाम ये हुआ कि  वो अंगूठी जतिन के हाथ मे आ गयी... उस अंगूठी को बाहर निकाल कर जतिन सबको दिखाते हुये हंसने लगा... क्योकि वो पहला राउंड जीत गया था... ज्योति ने जब मैत्री को संकोच करते देखा तो उसके पास जाकर धीरे से कहा- भाभी संकोच मत करिये आपको ही जीतना है ये मुकाबला वरना जिंदगी भर भइया की सुननी पड़ेगी आपको.... ( ऐसा कहकर ज्योति हंसने लगी और ज्योति की बात सुनकर मैत्री भी सिर झुकाये झुकाये धीरे धीरे हंसने लगी) 

इसके बाद फिर से अंगूठी डाली गयी.... इस बार मैत्री ने थोड़ा तेजी मे अपना हाथ उस परात मे डाला... लेकिन इस बार भी अंगूठी जतिन के हाथ मे ही आयी पर उसने इस बार अंगूठी धीरे से मैत्री की तरफ सरका दी... जतिन के सरकाने पर वो अंगूठी मैत्री के हाथ मे आ गयी और मैत्री ने भी उस पल का पूरा आनंद उठाते हुये और मस्कुराते हुये वो अंगूठी बाहर निकाल कर सबको दिखाई और हंसते हुये शर्म के मारे अपना सिर झुका लिया... 
इसके बाद सब मिलाकर कुल पांच बार उस परात मे अंगूठी डाली गयी और पहली बार के बाद हर बार जतिन वो अंगूठी मैत्री की तरफ सरका देता था और हर बार मैत्री वो अंगूठी शैतानी भरे लहजे मे झटके के साथ अपनी मुट्ठी मे भरकर बाहर निकाल लेती थी.... जतिन की अंगूठी सरकाने वाली ये हरकत मैत्री भी देख रही थी और वहां बैठी ज्योति और बाकी के लोग भी देख रहे थे... जतिन ने जब आखरी बार वो अंगूठी मैत्री की तरफ सरकाई तो उसे ऐसा करते देख ज्योति ने कहा- लीजिये भाभी चिंता की कोई बात नही है.... हमारे भइया ने अपने ऊपर के सारे अधिकार खुद आपको दे दिये.... 

ज्योति की बात सुनकर जतिन हंसने लगा और मैत्री भी सिर झुकाये झुकाये हंसने लगी... मैत्री को उस घर मे बहुत सुकून सा मिल रहा था.... उसे वो घर अपना लग रहा था.... वो अपने आप को जतिन के परिवार के प्रेम के रंग मे रंगा हुआ सा महसूस कर रही थी..... 

इन सब रस्मो और हंसी मजाक के बीच जतिन के पापा और बाकी के रिश्तेदार जो बस से  बारात मे गये थे वो भी घर वापस आ गये.... उनके वापस आकर चाय पानी करने के बाद मौका पाकर बबिता ने अपने पति विजय  को  अकेले मे बुलाया और पूछा- क्या हुआ... हिसाब कर दिया ना?? 
विजय बोले- उन लोगो ने पैसे लिये ही नही... 
बबिता एकदम से तैश मे आकर बोलीं- अरे.... उन लोगो ने संकोच मे नही लिये होंगे.... आपको उनकी मनस्थिति समझनी चाहिये थी और पैसे देकर आने चाहिये थे.... जब पहले ही मै जुबान दे चुकी थी तो...?? मेरी किसी भी बात की कोई वैल्यू नही है आपकी नजरो मे... 

बबिता की बात सुनकर विजय हंसने लगे और बोले- मैने उनसे बहुत कहा पैसे लेने के लिये पर वो नही माने इसीलिये देखो हमे देर भी हो गयी आने मे... और मैने उनसे ये तक कहा था कि क्यो मुझे मैत्री के सामने बबिता से डांट खिलवाना चाहते हैं उसने मुझसे दबाव देकर कहा था कि पैसे देकर आना... 

विजय की बात सुनकर बबिता को हंसी आ गयी और वो बोलीं- हॉॉॉॉॉ... ये सब कहने की क्या जरूरत थी कि मैं डाटुंगी.... क्या सोच रहे होंगे वो लोग कि मै आपको डरा के रखती हूं.... 

विजय ने कहा- जी नही वो लोग भी हंस रहे थे... ( फिर थोड़ा सीरियस होते हुये विजय बोले) बबिता वो लोग हाथ जोड़कर घुटनो के बल बैठ गये थे ये कहते हुये कि "हम पैसे नही ले सकते" तो मै क्या करता.... और फिर देर होने की वजह से कुछ लोगो सहित जतिन के फूफा जी भी उतर कर गेस्टहाउस मे आने लगे थे और तुम तो जानती हो उनकी आदत... उन्हे पता चलता तो बेकार मे पचास बाते बनाते इसलिये मै वहां से उठकर चला आया.... हम बाद मे उनसे इस विषय पर इत्मिनान से बात कर लेंगे... 

विजय के समझाने पर बबिता मान गयीं... इसके बाद चूंकि सब थके हुये थे और दोपहर के करीब तीन बज गये थे तो सबने थोड़ा थोड़ा खाना खाया और आराम करने लगे.... इसके बाद रात तक जादातर रिश्तेदार अपने अपने घर चले गये... थकान की वजह से रात मे भी बचे हुये लोगो ने ऐसे ही थोड़ा बहुत खाना खाया और सब सो गये... अगले दिन घर के आसपास की औरतो को न्योता भेजकर मैत्री की मुंह दिखाई का कार्यक्रम भी पूरा कर लिया गया... मुंह दिखाई मे आयीं हर महिला ने मैत्री की खूबसूरती और सादगी की तारीफ करते हुये उसे बहुत सारा आशीर्वाद दिया... 

शादी से जुड़ी सारी रस्मे पूरी होने के बाद अब बारी थी उस रस्म की जिसका हिस्सा सिर्फ जतिन और मैत्री होने वाले थे.... जिस रस्म के बारे मे सोचकर ही मैत्री बहुत असहज महसूस कर रही थी उसके हाथ पैरो समेत पूरे शरीर मे अजीब सी कुलमुलाहट सी हो रही थी.... वो रस्म जो मैत्री बिल्कुल भी पूरी नही करना चाहती थी.... वो रस्म थी "सुहागरात"... जतिन और मैत्री के मिलन की पहली रात... उस रात मे होने वाले जतिन के स्पर्श के बारे मे सोचकर मैत्री सिहरी जा रही थी.... उसे अच्छा नही लग रहा था..... 

क्रमशः