सुबह हो गयी थी। त्रिपाठी भवन में चहल पहल हो रही थी। रुपाली और रजनी रसोई में थे सफऱ के लिए परांठे बना कर दे रहे थे।
सब लोग भागम भाग पर थे ट्रैन का समय हो रहा था | माँ जल्दी करो ट्रैन निकल जाएगी हम पहले ही बहुत लेट हो चुके है, हम नही चाहते की हमारी ट्रैन मिस हो जाए अंधेरा होने से पहले हमें वहा पहुंचना है ताकि कल से ही काम शुरू करदे। हंशित ने कहा
"बेटा बस पांच मिनट और रुक जाओ, अभी लाकर देती हूँ" रुपाली जी ने कहा
सब लोग बाहर बरामदे में अपना समान लेकर आ गए थे। रुपाली जी भी बाहर थी। सब की आँखों में आंसू थे मानो की हंशित कही विदेश जा रहा हो पहले भी वो बहुत सी जगहों पर आता जाता रहा है लेकिन ना जाने क्यू इस बार उसके घर वाले इतना उदास हो रहे थे मानो की उससे आख़री बार मिल रहे हो,
रुपाली जी बेहद रो रही थी उन्हें देख कर हेमलता जी भी रोने लगी और बोली" बेटा तेरी बहुत याद आएगी जल्दी आना और हो सके तो मंदिर जाकर भगवान के दर्शन कर लेना और हम सब के लिए वहा से प्रसाद लेते आना भगवान से नाराज़ नही होते है "
"दादी ये तो मुश्किल है मैं वहा मंदिर दर्शन के लिए नही जा रहा हूँ अपने काम से जा रहा हूँ और कुछ ले आऊंगा आपके लिए लेकिन वहा जाने का मत कहो "हंशित ने कहा
"दादी आप परेशान ना हो, हम लोग ले आएंगे आपके लिए प्रसाद ये नही जाएगा लेकिन हम लोग तो जाएंगे और कोशिश करेंगे की इसे भी साथ ही ले चले " श्रुति ने कहा
रुपाली जी ने हंशित का माथा चूमा और कहा " बेटा जल्दी आना तेरे बिना घर, घर नही लगता है तेरे बिना हलक से पानी भी नही उतरेगा "
हंशित ने भी अपनी माँ को गले लगाया और कहा " माँ जल्दी आऊंगा तुम इंतज़ार करना मेरा "
हंसराज जी खिड़की से देख रहे थे लेकिन पास नही आये उसे गले लगा कर अलविदा भी नही कहा। रुपाली जी ने बहुत कहा भी था कि बेटा दूर जा रहा है एक बार उसे आशीर्वाद देकर अपनी दुआ के साथ भेजिए। लेकिन वो अपनी अकड़ में रहे और बेटे को जाता हुआ दूर से ही देखते रहे और बोले " नालायक कही का" ये कह कर खिड़की से दूर हट गए.
सब लोग जाने लगे तब ही श्रुति कि माँ वहा आ पहुंची जिन्हे देख श्रुति को गुस्सा आ गया और वो गाड़ी में जाकर बैठ गयी।
"बेटा एक बार मुझसे गले मिलले ताकि मेरे कलेजे में ठण्ड पड़ जाए। बेटा अपना ख्याल रखना मेरा आशीर्वाद सदा तेरे साथ है मेरी दुआ हर दम तेरे साथ है मुझे माफ करदे " शेफाली जी ने कहा रोते हुए
श्रुति ऐसे ही उन्हें देखती रही लेकिन गाड़ी से नीचे उतर कर नही आयी। उसकी आँखों में भी आंसू थे वो उन्हें माफ करना चाहती थी, उनसे गले मिल कर रोना चाहती थी लेकिन जब भी वो ऐसा करती थी उसे वो 12 साल की श्रुति याद आ जाती जिसकी माँ किसी और का हाथ पकड़ कर उसके साथ जा रही होती है और वो उसे जाता हुआ देखती रहती है इस आस में की उसकी माँ लोट कर आएगी लेकिन वो लोट कर ना आयी उसका बचपन माँ होते हुए भी बिन माँ के गुज़रा बस इन्ही बातो को वो भुला नही पाती और अपनी माँ को चाह कर भी माफ नही करना चाहती ।
"बेटा, तुम लोग मेरी बेटी का ख्याल रखना तुम लोगो ने ही उसे संभाला है, मैं तो उसे अकेला छोड़ कर चली गयी थी स्वार्थी बन कर" शेफाली जी ने उसके दोस्तों से कहा
"आंटी आप परेशान मत हो, श्रुति को कुछ नही होगा हम सब है ना उसे सभालने के लिए और एक दिन देखना वो आपको जरूर समझेगी और माफ कर देगी " हंशित ने कहा
"ईश्वर करे मेरे मरने से पहले वो मुझे माफ करदे वरना मेरी आत्मा यूं ही भटकती रहेगी इस धरती पर " शेफाली जी ने कहा
सब लोग गाड़ी में बैठ गए और गाड़ी चल दी स्टेशन की तरफ ।
सब लोग हाथ हिलाते रहे। सबके चेहरे उतर गए थे रुपाली जी का तो दिल बैठ सा रहा था। उनकी नज़र आसमान की तरफ गयी आसमान काले बादलो से घिरा हुआ था चारो और ख़ामोशी थी मानो किसी तूफान का आगाज़ होने वाला हो।
सब लोग घर के अंदर आ गए। शेफाली जी चली गयी थी बाहर से ही ।
अंदर हंसराज जी खड़े थे और बोले" अगर नवाब साहब की विदाई हो गयी हो इस घर से तो थोड़ा हम पर भी करम कर दीजिये हमें दफ़्तर भी जाना है कुछ नाश्ता पानी हमें भी देदो सुबह से सर में दर्द कर दिया उन निकम्मो ने इतना ग़दर काट रहे थे जैसे की चीन फतह करने जा रहे थे "
किसी ने भी उस समय हंसराज की बातो का जवाब देना सही नही समझा और अपने अपने कामों में लग गए।
"सब कुछ रख लिया ना कुछ भूले तो नही है नी "हंशित ने पूछा
"हाँ भाई सब रख लिया अब बस ट्रेन और अच्छे से मिल जाए बिना भाग दौड़ किए तो और अच्छा हो जाएगा" जॉन ने कहा
श्रुति अभी भी उदास बैठी थी उस का मूड सही करने के लिए सब लोगो ने उसे हँसाने की कोशिश की किन्तु नाकाम रही वो थोड़ी देर हसती फिर उदास हो जाती इसी तरह वो लोग रेलवे स्टेशन आ पहुचे गाड़ी आ चुकी थी सब लोगो ने जल्दी जल्दी सामान रखा और गाड़ी में बैठ गए गाड़ी ने सी टी देदी थी सब लोग बेहद खुश थे।
हंशित अपने कैमरे सी तस्वीरे निकालने लगा इस तरह उनका सफर शुरू हो गया ।
रास्ते में उन लोगो ने खूब मौज मस्ती की जगह जगह की तस्वीरे ली और इसी बीच जब उन्हें भूख लगी तो माँ के हाथ के बने परांठे खाये ।
"खा लो भाई लोगो माँ के हाथ के बने ये आखिरी परांठे है " हंशित ने कहा
"यार हंशित कभी तो सही बोला कर हम लोग कौन सा वहा बसने जा रहे है 10 दिन, 15 दिन या एक महीने बाद हमें वापस यही आना है तू तो ऐसा कह रहा है कि अब हम लोट कर ही नही आएंगे और ये परांठे हमारे आखिरी होंगे" कुश ने कहा
"तुम लोग भी ना खाने पर ध्यान दो वरना मैं सब खा जाऊंगा फिर मत कहना कुछ छोड़ा नही" हंशित ने कहा हस्ते हुए
शाम हो चुकी थी शाम का नज़ारा और खूबसूरत लग रहा था और उनका आखिरी स्टेशन आ चुका था अब आगे का सफर उन्हें बस से तय करना था।
सूरज डूब रहा था हंशित ने कैमरा निकाला और तस्वीरे खींचना शुरू कर दी जो बहुत ही खूबसूरत आ रही थी।
हंशित ने प्लेटफॉर्म पर मौजूद बच्चों कि तस्वीरे उतारी जो की बहुत खुश हो रहे थे। वहा पर एक गरीब परिवार था जो कहने को तो गरीब था लेकिन उनके चेहरों पर एक अजीब मुस्कान थी जिसे हर्षित ने अपने कैमरे में उतार लिया और आगे बढ़ चले।
मौसम बेहद सुहाना हो रहा था पहाड़ नज़र आने लगे थे लेकिन अभी सफऱ तवील था वो लोग बस में बैठ गए ठंडी ठंडी हवा चल रही थी। पंछी अपने घोसलों की और बढ़ रहे थे पहाड़ी लोग अपने सर पर लकड़ी रखे अपनी भेड़ो को हकालते हुए अपने घरों की और जा रहे थे।
हंशित रास्ते भर उनकी तस्वीरे निकालता रहा और उन्हें सीरियल से लगाने लगा चढ़ाई बड़ती जा रही थी । रात हो चुकी थी बस एक ढाबे पर रुकी हलकी हलकी ठण्ड हो रही थी उन लोगो ने खाना खाया पहाड़ो पर लाइट्स जल रही थी जो बेहद सुंदर लग रही थी मानो बहुत सारे जुगनू अपने अपने घरों में टिम टिमा रहे हो।
हंशित ने उसकी भी तस्वीर बना ली उसके बाद वो दोबारा चल दिए। आखिर कार बीच रात में वो लोग केदारनाथ पहुंच गए लव ने पहले ही होटल बुक कर लिया था लोगो की भीड़ बहुत थी वहा पर उन्होंने अपना समान रखा और सो गए लेकिन हंशित खिड़की से बाहर का नज़ारा देखने लगा और थोड़ी देर बाद वो भी सो गया ।
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