Sanyasi - 27 in Kannada Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | सन्यासी -- भाग - 27

Featured Books
Categories
Share

सन्यासी -- भाग - 27

सुमेर सिंह की फाँसी की सजा माँफ होने पर वरदा ने जयन्त को धन्यवाद किया और उससे बोली...."जयन्त! आज सच्चाई की जीत हुई है,भले ही मैंने इस लड़ाई में बहुत कुछ खो दिया है लेकिन अब मेरी अन्तरात्मा को बहुत सुकून है""मैं आपके मन की बात भलीभाँति समझ सकता हूँ चाचीजी!",जयन्त बोला..."अब सोचती हूँ की बनारस छोड़कर गाँव चली जाऊँ,वहीं थोड़ी सी जमीन है तो खेतीबाड़ी करके अपना और अपने बच्चों का पेट पालूँगी",वरदा जयन्त से बोली..."नहीं! चाची जी! आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं है,आप यहीं रहकर अपने पति का कारोबार सम्भालिएँ", जयन्त वरदा से बोली...."मुझे कुछ भी नहीं आता जयन्त! मैं पढ़ी लिखी भी तो नहीं हूँ,इसलिए ये सब मैं नहीं सम्माल पाऊँगी",वरदा जयन्त से बोली..."अरे! इस सब की चिन्ता मत कीजिए,मैं हूँ ना! और फिर आपका बड़ा बेटा अब पन्द्रह साल का हो चुका है,वो भी काम में आपका हाथ बटाएगा,इसलिए आप इन सबकी चिन्ता ना करें,यहीं रहें और अपने बच्चों का ख्याल रखें" जयन्त ने वरदा से कहा..."तुम कहते हो तो ठीक है,मैं ऐसा ही करूँगी",और फिर ऐसा कहकर वरदा वहाँ से चली गई.....      अब जब सुमेर सिंह को उसके किए की सजा मिल चुकी थी ,तो अब जयन्त के मन में बहुत शान्ति थी,बहुत सुकून था, वो खुद को हल्का महसूस कर रहा था,ऐसा लगता था कि जैसे उसके मन का बोझ हल्का हो गया हो,उसकी इस जीत से वीरेन्द्र और अनुकम्पा भी बहुत खुश थे,साथ में जयन्त का परिवार भी अब चिन्तामुक्त हो चुका था,अब जयन्त के हाथ का प्लास्टर भी खुल चुका था,उसकी सभी चोटें अब पूरी तरह से ठीक हो चुकीं थीं...                        अपने स्वस्थ होने और अपनी इस जीत का श्रेय वो आँची और हरदयाल को दे रहा था क्योंकि उन्हीं ने ही तो उसकी जान बचाकर उस पर इतना बड़ा उपकार किया था,यदि वे दोनों उसकी जान नहीं बचाते तो वो सुमेर सिंह को उसके किए की सजा कभी ना दिलवा पाता और इसलिए वो सुमेर सिंह को सजा दिलवाने के बाद एक दिन आँची के घर पहुँचा,वो उन लोगों की झोपड़ी के पास पहुँचा और उसने आवाज़ देकर आँची को पुकारा...."आँची....आँची..तुम भीतर हो ना!",जब आँची ने जयन्त की आवाज़ सुनी तो उसकी खुशी का पार ना था और वो भागी भागी द्वार पर आकर बोली..."जयन्त बाबू...आप....आ गए आप!","हाँ! आँची! मैं हूँ",जयन्त बोला..."अरे! बाहर क्यों खड़े हैं,भीतर आइए ना!",आँची ने जयन्त से कहा...  और फिर आँची के कहने पर जयन्त भीतर गया तो आँची ने फौरन ही उसे लोटे में पानी भरकर दिया और उससे कहा..." मैं आपके लिए जल्दी से चाय बना कर लाती हूँ""अरे! ये सब रहने दो,इन सबकी अभी कोई जरूरत नहीं है",जयन्त आँची से बोला..."जरूरत कैंसे नहीं है,आप सफर से थककर आएँ होगे,कुछ तो खाऐगें पीऐगें ना!",आँची ने जयन्त से कहा..."तुम तो ऐसे बात कर रही हो,जैसे कि मैं बनारस पैदल चलकर यहाँ आया हूँ",जयन्त चारपाई पर बैठते हुए बोला..."अरे! तब भी जलपान तो लेगें ना आप,ऐसे ही थोड़े जाने दूँगी आपको बिना कुछ खाएँ पिएँ",आँची जयन्त से बोली..."अब तो तुम मेरी माँ की तरह बात कर रही हो,ऐसे ही जब देखो तब वो भी खिलाने की ही बात करतीं रहतीं हैं",जयन्त आँची से बोला...."आप भी ना हद करते हैं जयन्त बाबू! अब मेहमान घर आया है तो उसका स्वागत सत्कार तो करना पड़ेगा ना!",आँची आँखें बड़ी करते हुए बोली...."हाँ! बाबा! कर लेना स्वागत सत्कार,पहले दो घड़ी बैठकर बात तो कर लो",जयन्त बोला..."अच्छा! ठीक है कहिए कि क्या कहना चाहते हैं",आँची ऐसा कहते हुए जयन्त की चारपाई के पास धरती पर बैठते हुए बोली..."वहाँ कहाँ धरती पर बैठ रही हो,यहाँ चारपाई पर बैठों ना!",जयन्त ने आँची से कहा...."जी! नहीं! मेरी जगह यहीं पर है,आपके चरणों में",आँची जयन्त से बोली...."तुम तो ऐसे बात कर रही हो जैसी कि मैं कोई साधू महात्मा हूँ और तुम मेरी भक्त हो,जो मेरे चरणों में बैठ रही है",जयन्त ने मुस्कुराते हुए कहा..."क्या पता कल को आप साधू महात्मा बन जाएँ तो फिर मुझे ही आपकी सेवा करनी पड़ेगी ना,तब तो मुझे आपकी दासी बनकर यूँ ही आपके चरणों के पास बैठना पड़ेगा",आँची जयन्त से बोली..."आँची! मुझे इतना ऊँचा स्थान मत दो,",जयन्त आग्रह करते हुए बोला...."आपको क्या पता कि मैंने आपको कितना ऊँचा स्थान दे रखा है",आँची भावनाओं में बहकर बोली...."कहना क्या चाहती हो तुम!",जयन्त ने पूछा..."जी! कुछ नहीं!",आँची शरमाते हुए बोली..."कुछ तो है तुम्हारे मन में",जयन्त ने पूछा...."जी! कुछ नहीं! मतलब आप बहुत पढ़े लिखे हैं,मुझसे ज्यादा काबिल है तो आपका स्थान बहुत ऊँचा है", आँची बात को सम्भालते हुए बोली..."खैर! ये सब छोड़ो! देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूँ?",जयन्त बोला...."क्या लाएँ हैं?",आँची ने पूछा..."ये लाल साड़ी,लाल चूड़ियाँ और चाँदी की पायल",जयन्त बोला..."मैं ये सब नहीं ले सकती जयन्त बाबू!",आँची फौरन ही बोली...."ये मैं नहीं लाया,ये सब खरीदने का तो मुझे शऊर ही नहीं है,ये सब तो मेरी माँ ने भिजवाया है तुम्हारे लिए,वे कह रहीं थीं कि ये आँची को देते हुए कहना कि जब उसे उसका मनपसन्द वर मिल जाएँ तो तब वो ये सब उस दिन पहन लेगी जिस दिन उसका उससे मिलन होगा,ये उपहार है मेरी तरफ से उसके लिए है", जयन्त ने आँची से कहा..."तो ये सब माँ जी ने भिजवाया है मेरे लिए",आँची ने पूछा..."हाँ! वे कह रही थीं कि मैं कुछ भी नहीं दे पाई उसे ,रुपए देती तो अच्छा ना लगता,इसलिए ये बड़े प्यार से भिजवाया है उन्होंने तुम्हारे लिए और तुम्हारे बाबा के लिए भी कपड़े भेजे हैं उन्होंने",जयन्त आँची से बोला..."तब तो मैं रख लेती हूँ इन्हें,अगर उन्होंने बड़े प्यार से भिजवाया है तो",आँची उन उपहारों को अपने हाथ में लेते हुए बोली...."और तुम्हारे बाबा कहाँ गए हैं?",जयन्त ने आँची से पूछा..."वही रोज का काम,मछलियांँ पकड़ने",आँची बोली..."अच्छा! लगता है आज उनसे मिलना ना हो पाऐगा,क्योंकि थोड़ी देर बाद मैं बनारस के लिए निकल जाऊँगा", जयन्त आँची से बोला...."कम से कम रात भर को तो ठहर जाते",आँची उदास मन से बोली..."ये मुमकिन नहीं है आँची! बड़ी मुश्किल से वक्त निकालकर आ पाया हूँ यहाँ,मैं तो बस यहाँ ये बताने आया था कि उस मुजरिम को सजा मिल चुकी है जिसने मुझ पर हमला करवाया था",जयन्त ने आँची से कहा..."चलिए! कोई बात नहीं,लेकिन ये बहुत अच्छी खबर सुनाई आपने कि उस मुजरिम को सजा मिल चुकी है",आँची बोली..."हाँ! उन्हीं की पत्नी ने उनके खिलाफ गवाही देकर मेरा साथ दिया",जयन्त बोला..."ऐसी भी पत्नियाँ होतीं हैं क्या?",आँची ने आँखें बड़ी करते हुए पूछा..."हाँ! महान स्त्रियाँ ऐसी ही होतीं हैं,जो सत्य के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर देतीं हैं",जयन्त बोला..."ओह...सच! तब तो वो बड़ी महान हैं",आँची बोली..."हाँ! महान के साथ साहसी भी हैं वो",जयन्त बोला..."कभी मौका मिला तो जरूर मिलना चाहूँगी उनसे",आँची जयन्त से बोली..."जरूर! लेकिन अब क्या बातें ही करती रहोगी,कुछ खिलाओगी पिलाओगी नहीं",जयन्त बोला..."हाँ...हाँ...कहिए ना कि क्या खाऐगें",आँची ने जयन्त से पूछा..."आज तो मुझे बैंगन का भरता,धनिए की हरी चटनी और ज्वार की रोटी खानी है,खिलाओगी ना!",जयन्त ने कहा..."हाँ...हाँ...क्यों नहीं और चाय?",आँची बोली..."चाय वाय रहने दो,तुम तो मुझे भरता और रोटी खिलाओ",जयन्त बोला...    फिर क्या था जयन्त के कहने पर आँची फौरन काम पर लग गई....

क्रमशः....

सरोज वर्मा....