Sanyasi - 24 in Hindi Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | सन्यासी -- भाग - 24

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सन्यासी -- भाग - 24

जयन्त अपना चेकअप कराकर क्लीनिक से वापस घर लौट आया और उसने सभी को बताया कि मैं अब बिलकुल ठीक हूँ और डाक्टर साहब ने ये भी कहा है कि मैं अब काँलेज भी जा सकता हूँ और वो दो चार दिन बाद मेरा चेकअप करने खुद यहाँ आऐगें,मुझे उनकी क्लीनिक पर जाने की जरूरत नहीं है....      और फिर दूसरे दिन जयन्त को चैन ना पड़ा और वो अपनी साइकिल पर नहीं मोटर में बैठकर काँलेज की ओर निकल गया,काँलेज पहुँचा और जब वीरेन्द्र ने उसे देखा तो खुशी के मारे उसे गले लगाकर बोला...."यार! कहाँ चला गया था तू! हम सबने कितना खोजा तुझे",  और जब अनुकम्पा उससे मिली तो वो भी उसे देखकर बड़ी खुश हुई और उससे बोली..."जयन्त बाबू! कहाँ चले गए थे आप?  तब जयन्त ने अनुकम्पा और वीरेन्द्र को सारी  सच्चाई बताई कि उस दिन मैं सुमेर सिंह के घर गया था और उसने उस दिन अपने लठैतों से मेरी पिटाई करवाकर नदी में बहा दिया था और मैं बहते बहते एक गाँव में पहुँचा, जहाँ एक लड़की ने मेरी जान बचाई और फिर वो लड़की मुझे अपने घर ले गई जहाँ उसके पिता और उसने मेरी सेवा करके मुझे ठीक किया....     जयन्त की बात सुनने के बाद अनुकम्पा उससे बोली...."तब तो उस सुमेर सिंह को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए,उसने आपको जान से मारने की कोशिश जो की है","जान से मारने की कोशिश नहीं,कहा जाएँ तो जान से मार ही दिया था,वो तो भला हो उस लड़की का जिसने जय को बचा लिया", वीरेन्द्र बोला...."हाँ! आपने सही कहा वीरेन्द्र बाबू",अनुकम्पा बोली...."तो चल सुमेर सिंह की रिपोर्ट दर्ज कराने चलते हैं",वीरेन्द्र ने जयन्त से कहा....तब जयन्त ने वीरेन्द्र से कहा..."नहीं! ऐसे नहीं! पक्के सुबूत जुटाने के बाद उसकी पुलिस के पास रिपोर्ट दर्ज करवाऊँगा,क्योंकि मेरे पास ऐसा कोई गवाह नहीं है जो ये कह सके कि मुझे सुमेर सिंह के लठैतों ने पीटा है,अगर पुलिस से मैंने ये बात कही तो मैं पुलिस के सामने झूठा साबित हो जाऊँगा,बिना सुबूतों के मैं पुलिस के पास नहीं जा सकता","तो अब क्या करें?",वीरेन्द्र ने पूछा..."बस इन्तजार",जयन्त बोला.....      इसके बाद जयन्त,अनुकम्पा और वीरेन्द्र के बीच यूँ ही बातें चलती रहीं और जब इधर सुमेर सिंह को ये पता चला कि जयन्त अब तक जिन्दा है तो उसने खबर लाने वाले लठैत से कहा...."क्या बक रहा है,तूने ठीक से देखा था ना!, वो जयन्तराज ही था या फिर और कोई था""सच कहता हूँ मालिक! वो कमीना जयन्तराज ही था,अभी भी उसके हाथ में प्लास्टर बँधा हुआ है",लठैत बोला...."इतना मारने के बाद भी नहीं मरा कमीना! अमृत पीकर आया है क्या?"सुमेर सिंह बोला...."सुना है मालिक! वो बहते हुए किसी गाँव की नदी के किनारे पहुँच गया था तो वहाँ के लोगों ने उसे बचा लिया",लठैत बोला...."इसका मतलब है कि वो आसानी से मरने वाली जान नहीं है,उसका तो कोई और ही इलाज करना पड़ेगा", सुमेर सिंह लठैत से बोला...."हाँ! वो आजकल काँलेज में यूँ ही घूमता रहता है,आप कहे तो उसको वहीं ठिकाने लगा दूँ",लठैत बोला..."नहीं! काँलेज में नहीं!,वहाँ किसी ने देख लिया तो गवाही दे देगा,जब वो काँलेज से घर जाएँ तो तभी उसे ठिकाने लगा दो",सुमेर सिंह बोला...."लेकिन आजकल तो वो अपनी साइकिल से नहीं,अपने बाप की मोटर से काँलेज आता जाता है",लठैत बोला..."तो मोटर  सुनसान सड़क पर बीच में रुकवाई भी तो जा सकती है",सुमेर सिंह बोला...."ये सही कहा आपने",लठैत बोला...."तो बस एकाध दो दिन में ही जयन्तराज का काम तमाम कर डालो,क्योंकि वो अगर जिन्दा रहा तो मुझे जेल भेजकर ही दम लेगा,लेकिन याद रहे इस बार कोई भी चूक नहीं होनी चाहिए,मणिकर्णिका घाट पर मैं इस बार उसकी चिता जलते हुए देखना चाहता हूँ, पिछली बार की तरह वो हरामखोर बचना नहीं चाहिए", सुमेर सिंह उस लठैत से बोला..."जी! मालिक! इस बार कोई भी चूक नहीं होगी"      और ऐसा कहकर वो लठैत वहाँ से चला गया....   और फिर उसी शाम जब जयन्त काँलेज से घर लौटकर अपने कमरे में आराम कर रहा था,तब डाक्टर अरुण उसका चेकअप करने आएँ,चेकअप करने के बाद वो जयन्त से बोले...."लगता है वीरान टापू पर अब शायद खतरनाक जंगली जानवरों का आतंक नहीं है,तभी तो आप दिनबदिन सेहदमंद होते जा रहे हैं"   डाक्टर अरुण की इस बात पर जयन्त हँस पड़ा इसके बाद वो उनसे बोला....."हाँ! अभी आतंक थोड़ा कम है,शायद मेरी ऐसी हालत देखकर उन सभी को मुझ पर तरस आ गया है"तभी पास खड़ी जयन्त की छोटी बहन सुहासिनी ने डाक्टर अरुण से पूछा..."ये आप क्या कह रहे हैं डाक्टर बाबू! मुझे कुछ भी समझ नहीं आया""सुहासिनी जी! मैं आपको ये बात नहीं समझा सकता,बेहतर यही होगा कि आप अपने भइया से ही इस बात को समझ लें", डाक्टर अरुण सुहासिनी से बोले..."तो भइया! तुम ही समझा दो कि डाक्टर बाबू ने अभी क्या कहा",सुहासिनी ने जयन्त से कहा...." तू कुछ भी समझने की कोशिश भी मत कर,जा जल्दी से डाक्टर साहब के लिए चाय लेकर आ ",   फिर क्या था सुहासिनी डाक्टर अरुण के लिए चाय लेने चली गई और फिर चाय पीने के बाद डाक्टर अरुण जयन्त का चेकअप करके चले गए,जयन्त उन्हें दरवाजे तक छोड़ने के लिए गया, लेकिन जैसे ही वो दरवाजा बंद करके भीतर आया तो तभी दरवाजे पर दस्तक हुई और जयन्त ने ही फिर से दरवाजा खोला और जैसे ही उसने दरवाजा खोला तो उसने देखा कि वहाँ पर एक महिला बुरके में खड़ी है,तब उसने उस महिला से पूछा...."जी! आपको किससे मिलना है?","जी! यहाँ कोई जयन्तराज रहते हैं,मैं उन्हीं से मिलने आई हूंँ"वो महिला घबराई हुई सी बोली..."जी! कहिए! मैं ही जयन्त हूँ",जयन्त ने उस महिला से कहा..."मुझे आपको कुछ बताना था",वो महिला बोली...."तो बताइए",जयन्त बोला..."मैं आपको अभी ये सब बातें नहीं बता सकतीं,आप मुझे सुबह भोर में पाँच बजे श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर में मिलें,मैं आपको वहीं पर सारी बातें बताऊँगी",वो महिला बोली...."लेकिन आपके बुरके और मंदिर का सम्बन्ध, ये मुझे कुछ समझ नहीं आया,कुछ अटपटा सा लग रहा है मुझे ये सब",जयन्त ने कहा...."जी! मैं ये सब भी आपको कल ही समझाऊँगी,मंदिर में मैं आपको गहरे हरे रंग की साड़ी में नजर आऊँगी और अब मैं चलती हूँ क्योंकि मैं ज्यादा देर यहाँ नहीं ठहर सकती",     और ऐसा कहकर वो महिला वहाँ से चली गई,फिर जयन्त दरवाजे बंद करके भीतर आ गया,उस महिला के बारें में सोच सोचकर जयन्त परेशान हो उठा कि आखिर वो महिला उससे ऐसी कौन सी बात कहना चाहती है,वो यही सब सोच रहा था कि उसकी माँ नलिनी ने जयन्त को चिन्ता में डूबे हुए पाया तो वो उसके पास जाकर उसके सिर को सहलाने लगी....

क्रमशः....

सरोज वर्मा....