Sanyasi - 23 in Hindi Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | सन्यासी -- भाग - 23

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सन्यासी -- भाग - 23

जब सबने नाश्ता कर लिया तो शिवनन्दन जी हरदयाल से बोले...."तो हरदयाल! अब हम सभी को निकालना चाहिए","जी! अब ना रोकूँगा साहब जी!,आपने मेरी बात का मान रखा और रात भर को यहाँ ठहरे,इतने में ही मुझे सन्तुष्टि हो गई",हरदयाल बोला..."तो ठीक है हरदयाल भइया! अब हम सभी को इजाज़त दीजिए,ईश्वर ने चाहा तो फिर कभी मुलाकात होगी"   और ऐसा कहकर नलिनी ने आँची का माथा चूमकर उसे अपने गले से लगा लिया और उससे बोली..."बेटी! तूने बहुत सेवा की मेरे बच्चे की और हम सब की भी,मैं तुझे उपहार स्वरूप कुछ दे भी दूँ तो ये तेरा अपमान होगा,क्योंकि निःस्वार्थ सेवा की कोई कीमत नहीं होती,इसलिए मैं तुझे यही आशीर्वाद देती हूँ कि तू हमेशा खुश रहे और तुझे तेरा मनचाहा वर मिले""फिर कभी और आइएगा माँ! जी!", आँची ने नलिनी के चरण स्पर्श करते हुए कहा..."बस....बस रहने दे बेटी! पैर छूने की जरूरत नहीं है,हाँ कभी वक्त मिला तो तुझसे मिलने जरूर आऊँगीं" नलिनी आँची से बोली....      इसके बाद आँची ने शिवनन्दन जी के भी चरण स्पर्श किए,लेकिन सबके सामने वो जयन्त से कुछ भी ना कह पाई और उससे कहती भी क्या,क्योंकि जो वो उससे कहना चाहती थी शायद ही वो इस जन्म में उससे कभी कह पाएँ,जयन्त ने अपने पुराने कपड़े वहीं छोड़ने का इरादा करके दूसरे कपड़े पहन लिए थे, क्योंकि उसकी माँ नलिनी उसके लिए बनारस से अलग से कपड़े लेकर करके आई थी,इसके बाद सभी झोपड़ी से बाहर निकले और पक्की सड़क पर खड़ी अपनी मोटरों में बैठकर चले गए,बाप बेटी तब तक पक्की सड़क पर खड़े रहे जब तक कि उनकी मोटरें आँखों से ओझल ना हो गईं....      फिर दोनों उदास मन से भीतर आएँ,तब हरदयाल ने आँची से कहा...."बेटी! एक लोटा पानी तो पिला दे""हाँ! बाबा! लाती हूँ", ऐसा कहकर आँची ने पीतल के कलश से लोटे में पानी पलटा और हरदयाल को दे दिया....पानी पीने के बाद हरदयाल ने आँची से कहा..."जयन्त बाबू के चले जाने से आज घर सूना सूना सा लग रहा है बेटी!","हाँ! बाबा! सही कहते हो",आँची बोली..."लेकिन बेटी! ये तो एक ना एक दिन होना ही था,आखिर जयन्त बाबू कब तक हमारे घर में रहते,उन्हें तो अपने घर वापस लौटना ही था",हरदयाल आँची से बोला..."हाँ! बाबा! ये घर तो उनके लिए रैनबसेरे जैसा था,वे रातभर रुके और सुबह होते ही अपने घर की ओर चल दिए",आँची बोली..."इसलिए उनके बारें में ज्यादा मत सोच ,यही अच्छा रहेगा तेरे लिए",हरदयाल आँची से बोला..."मैं उनके बारें में नहीं सोच रही बाबा! बस मैं तो ये कह रही थी कि वे इतने दिन यहाँ रहे तो यहाँ रौनक लग रही थी",आँची अपने बाबा हरदयाल से बोली...."हाँ! बिटिया! अच्छे इन्सानों के रहने से झोपड़ी में भी रौनक आ जाती है",हरदयाल बोला...."अच्छा! बाबा! अब तुम मछलियाँ पकड़ने जाओ,इतने दिनों से तुम काम पर नहीं गए,काम पर नहीं जाओगे तो ये घर कैंसे चलेगा",आँची हरदयाल से बोली..."तू ठीक कहती है,मैं अभी मछलियाँ पकड़ने के लिए निकलता हूँ"    और फिर ऐसा कहकर हरदयाल अपना जाल और साथ में दिनभर का खाने पीने का सामान बाँधकर अपने काम पर निकल गया और घर पर रह रही आँची ने अपने बाबा हरदयाल के जाने के बाद जयन्त के वहाँ पर छोड़े हुए बुशर्ट और पतलून उठाएँ और उन्हें सहलाने लगी,उन कपड़ो को वो अपनी बाँहों में समेटकर बोली...."जयन्त बाबू! काश! मैं आपसे कह पाती कि मैं आपसे कितना प्यार करती हूँ"   और इतना कहने के बाद वो फूट फूटकर रो पड़ी,यही होता जब कोई किसी से बेइन्तहा मौहब्बत करता है और अपने दिल की बात उसे नहीं बता पाता तो उसे एक घुटन सी महसूस होती है,एक अकेलापन सा महसूस होता है,लोगों को दिखता है कि वो खुश है लेकिन असल में उसके भीतर कितना ग़म छुपा होता है ये कोई नहीं समझ सकता,यही आँची के साथ भी हो रहा था और वो यही सोचकर खुद को दिलासा दे रही थी कि शायद उसकी किस्मत में जयन्त बाबू का प्यार नहीं लिखा....      आँची कुछ देर तक रोती रही फिर बोझिल मन से उठी और अपने काम पर लग गई,आखिर कब तक वो जयन्त के लिए रोती रहती,वैसे भी उसका प्यार एकतरफा था....       और उधर शाम तक जयन्त और उसका परिवार बनारस पहुँचे,बनारस पहुँचते ही जयन्त को घरवालों ने डाक्टर के पास जाने को कहा,फिर जयन्त सबके कहने पर अपने फैमिली डाक्टर सिद्धनारायण पाण्डेय जी के यहाँ जा पहुँचा,लेकिन वहाँ पर डाक्टर साहब मौजूद नहीं थे,वे अब ज्यादातर घर पर ही रहते थे, क्लीनिक पर उनका बेटा अरुण पाण्डेय मौजूद था,उसने जयन्त का पूरा चेकअप किया और उससे बोला....."अब आप बिलकुल ठीक हैं,बस मैं आपके हाथ पर पक्का वाला प्लास्टर चढ़ा देता हूँ"    फिर डाक्टर अरुण पाण्डेय ने जयन्त के हाथ पर पक्का वाला प्लास्टर चढ़ा दिया और कुछ ताकत की दवाएँ भी लिख दी,जिससे जयन्त के शरीर में जो कमजोरी थी वो जल्दी से पूरी हो जाएँ,तब जयन्त ने डाक्टर अरुण से पूछा...."क्या मैं कल से काँलेज जा सकता हूँ?","जी! हाँ! जरूर जा सकते हैं,बस थोड़ी एहतियात बरतिएगा",डाक्टर अरुण पाण्डेय ने जयन्त से कहा..."आपने ये कहकर मुझे आधे से ज्यादा ठीक कर दिया डाक्टर साहब! नहीं तो मैं घर में पड़े पड़े सड़ जाता", जयन्त ने मुस्कुराते हुए डाक्टर अरुण से कहा...."क्यों क्या घर में रहना आपको पसन्द नहीं ?",डाक्टर अरुण ने पूछा....तब जयन्त ने डाक्टर अरुण के सवाल का जवाब देते हुए कहा..."जी! नहीं! मैं ठहरा मस्तमौला इन्सान,इसलिए मेरी ज्यादा किसी से बनती नहीं है,मैं औरों जैसा नहीं हूँ,फकीराना अन्दाज़ है मेरा तो सब मुझसे दूरी बनाकर रखते हैं,मैं घर में रहूँगा तो माँ से वही रोज रोज की किट किट छोटी बहन से झड़प,बाबूजी के ताने और बड़े भाइयों की झिड़कियाँ,अब बताइएँ भला मेरा ऐसे माहौल में कैंसे गुजारा हो सकता है","ओहो....तो कुल मिलाकर आपका घर एक वीरान टापू है जो जंगली जानवरों से भरा पड़ा है", डाक्टर अरुण मुस्कुराते हुए बोले...."इसका मतलब है मेरे घरवालों को आप जंगली जानवर कह रहे हैं",जयन्त गम्भीर होकर बोला...."ओह...गलती हो गई माँफ करें",डाक्टर अरुण जयन्त से बोले..."अरे! आप उन्हें जंगली जानवर नहीं खतरनाक जंगली जानवर कहें",जयन्त के ऐसा कहते ही डाक्टर अरुण ठहाका मारक हँस पड़े और जयन्त से बोले..."वैसे बड़े ही दिलचस्प इन्सान हैं आप","ओह... इस ज़र्रा-नवाज़ी का शुक्रिया डाक्टर साहब! वरना कोई भी मेरी तारीफ नहीं करता", जयन्त डाक्टर साहब से बोला...."मुझे तो आप बड़े ही हँसमुख इन्सान लगे और साथ में दरियादिल भी",डाक्टर अरुण बोले..."जी! शुक्रिया! लेकिन पहले तो आप इस क्लीनिक में नहीं रहते थे",जयन्त ने डाक्टर अरुण से पूछा...."जी! मैं विलायत से एकाध दो महीने पहले ही डाक्टरी पढ़कर लौटा हूँ,पहले यहाँ मेरे पिता सिद्धनारायण जी बैठते थे,लेकिन जब से मैं हिन्दुस्तान लौटकर वापस आया हूँ तो क्लीनिक की जिम्मेदारी पापा ने मुझे सौंप दी है और वे अपने पुराने दोस्तों के साथ घर में बैठकर शतरंज खेलते रहते हैं",डाक्टर अरुण बोले..."ओह.....तो ये बात है",जयन्त बोला...."मैं आपकी माता जी को भी देखने आपके घर गया था,जब उनके हाथ पर चोट लग गई थी,लेकिन मेरी आपसे कभी मुलाकात नहीं हुई",डाक्टर अरुण बोले...."ओहो...तो आपने ही माँ का इलाज किया था",जयन्त बोला...."जी! लेकिन मुझे आपकी माँ और आपके परिवार वाले खतरनाक जंगली जानवर तो कतई नहीं लगे", डाक्टर अरुण के ऐसा बोलते ही अब जयन्त ठहाका मारकर हँस पड़ा,जब जयन्त हँसा तो उसके साथ में डाक्टर अरुण भी हँस पड़े,इसके बाद दोनों ने कुछ और बातें की फिर जयन्त वापस घर लौट आया....

क्रमशः....

सरोज वर्मा...