हरदयाल बनारस पहुँच गया और जयन्त के दिए हुए पते को लेकर लोगों से उसके घर का पता पूछ पूछकर उसके घर भी पहुँच गया,वो उसके घर पहुँचा तो इतना बड़ा मकान देखकर हरदयाल का सिर चकरा गया और उसने मन ही मन सोचा...."लगता है बहुतई ज्यादा अमीर आदमी हैं जयन्त बाबूजी! लेकिन उनके भीतर नाममात्र का भी घमण्ड नहीं है, मेरे घर में रहकर रुखी सूखी खाकर ही खुश रह रहे हैं,उन्होंने मेरे यहाँ के खाने को देखकर कभी मुँह नहीं बनाया" उसके बाद उसने घर के दरवाजे पर पहुँचकर जोर जोर से दरवाजे पर दस्तक देना शुरू कर दिया,तभी घर के भीतर से आवाज़ आई...."कौन है...जो ऐसे दरवाजे पर दस्तक दे रहा है?""मैं हूँ हरदयाल!",हरदयाल ने बाहर से कहा...और फिर गोपाली ने दरवाजा खोला और उसने हरदयाल से पूछा...."कौन हरदयाल? मैंने पहचाना नहीं""कैंसे पहचानोगी बिटिया! तुम पहले मुझसे कभी मिली ही नहीं हैं ,मैं वही हरदयाल हूँ, जिसके घर में जयन्त बाबू रह रहे हैं",हरदयाल बोला.... जयन्त का नाम सुनकर गोपाली जरा सकपका गई और फिर हरदयाल से बोली..."क्या कहा...जयन्त देवर जी तुम्हारे घर में रह रहे हैं","हाँ! वो नदी में बहते हुए हम लोगों के गाँव की तरफ पहुँच गए थे,जब वो मुझे मिले तो मैंने उनका इलाज करवाया और इलाज के बाद वे बिलकुल ठीक हो गए हैं,इसलिए उन्होंने ही मुझे ये खबर देने के लिए यहाँ भेजा है",हरदयाल बोला.... ये सुनकर गोपाली हरदयाल से बोली..."तुम यहीं ठहरो,मैं अभी आई" और ऐसा कहकर गोपाली भीतर चली गई,फिर उसने सबको बताया कि बाहर कोई हरदयाल नाम का आदमी आया है और वो कह रहा है कि जयन्त भइया उसके घर में रह रहे हैं,ये खबर सुनकर सब दरवाजे की ओर भागकर आएँ और फिर उन सभी ने हरदयाल से सबकुछ पूछा,हरदयाल ने दोबारा सबको वही बात बताई जो उसने गोपाली को बताई थी,इसके बाद वे सभी हरदयाल को भीतर ले गए और उसे जलपान करवाने लगे, चूँकि हरदयाल रात भर का सफर करके सुबह बनारस पहुँचा था,इसलिए उसने सुबह गंगा में स्नान किया और उसके बाद ही वो जयन्त के घर पहुँचा था,इसलिए उसे जयन्त के घर में स्नान करने की आवश्यकता नहीं पड़ी, फिर हरदयाल ने खुश होकर जलपान ग्रहण किया,उसके बाद वो सबसे बोला...."अच्छा! मैं अब चलूँगा"तब जयन्त की माँ नलिनी हरदयाल से बोली..."नहीं! तुम ऐसे नहीं जा सकते,तुम मेरे बेटे की खबर लाएँ हो, मैं तुम्हारी झोली रुपयों से भर दूँगी",तब हरदयाल नलिनी से बोला.."ना! बहन! ऐसी बात ना करो,मैं ने ये काम रुपयों के लिए नहीं मानवता के लिए किया है, एक दूसरे की मदद करना हम इन्सानों का धरम है और अगर हम ऐसे तुच्छ कामों के लिए एक दूसरे से रुपऐ लेते रहेगें तो फिर तो धिक्कार है ऐसी मानव जाति पर,इसलिए क्षमा करें और मेरी बात का बुरा ना मानते हुए मुझे अपने घर जाने की इजाज़त दें""लेकिन तुम्हें कुछ ना कुछ तो लेना ही पड़ेगा,आखिरकार तुमने मेरे बेटे की जान जो बचाई है",शिवनन्दन सिंह जी हरदयाल से बोले...."ना साहब! मुझे मेरी ही नजरों में मत गिराइए,हम इन्सानों का जन्म तो लोगों की भलाई के लिए होता है, इसलिए ऐसे कामों का पैसा नहीं लिया जाता,मैंने किसी स्वार्थवश आपके बेटे को नहीं बचाया था,वो तो मेरा कर्तव्य था",हरदयाल बोला..."तुम बहुत ही भले इन्सान मालूम होते हो हरदयाल! नहीं तो तुम्हारी जगह कोई और होता तो हमलोगों से मुँहमाँगी रकम वसूलता",जयन्त के बड़े भाई प्रयागराज ने कहा...."बाबूजी! मुझे औरों का तो नहीं मालूम लेकिन मैं ऐसा नहीं हूँ",हरदयाल बोला...."ठीक है हरदयाल! अब तुम यहाँ कुछ देर ठहरो,जब तक खाना तैयार हुआ जाता है,इसके बाद हम सभी खाना खाकर मोटर में बैठकर तुम्हारे घर चलेगें और जयन्त को लिवाकर ले आऐगें",जयन्त के बड़े भाई प्रयागराज ने हरदयाल से कहा...."ठीक है बाबूजी!", हरदयाल बोला.... इसके बाद सभी वहाँ से चले गए और प्रयागराज ने हरदयाल से बैठक में आराम करने को कहा, हरदयाल रात भर के सफर का थका हुआ था,ऊपर से नरम बिस्तर मिल गया था उसे,इसलिए उस पर लेटते ही हरदयाल को फौरन ही नींद आ गई,जब खाना तैयार हो गया तो प्रयागराज उसे जगाने आया और उसे डाइनिंग टेबल पर खाना खाने के लिए ले गया,लेकिन हरदयाल ने डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाने से इनकार कर दिया,वो शिवनन्दन जी से बोला..."माँफ करना बाबूजी! मैं इस पर बैठकर खाना नहीं खा पाऊँगा","क्यों क्या हो गया हरदयाल? हम लोगों से कोई भूल हो गई क्या?",शिवनन्दन जी ने हरदयाल से पूछा...तब हरदयाल उनसे बोला..."नहीं बाबूजी! ऐसी कोई बात नहीं है,मैंने ताउम्र धरती में ही बैठकर खाना खाया है और आगें भी मुझे धरती पर बैठकर ही खाना पड़ेगा तो एक दिन के लिए अपना धरम काहें बिगाड़ू,आप तो मेरे लिए यहाँ धरती पर एक बिछौना बिछा दीजिए तो मैं उसी पर बैठकर खाना खा लूँगा","तुम बहुत अच्छे इन्सान हो हरदयाल! तुम जैसे इन्सान इस धरती पर हैं तभी तो ये संसार सम्भला हुआ है", शिवनन्दन जी बोले... और फिर नलिनी ने हरदयाल के लिए धरती पर एक बिछौना बिछा दिया और उसकी थाली वहीं पर रख दी, हरदयाल ने उस दिन पेट भरके खाना खाया और नलिनी से बोला...."बहन! खाना बहुत जायकेदार है,तुम और तुम्हारी बहूएँ तो साक्षात् अन्नपूर्णा का रुप हैं","तुम अच्छे हो हरदयाल भइया! इसलिए तो तुम्हें सारी दुनिया अच्छी नजर आती है", नलिनी ने हरदयाल से कहा... और फिर सबको खाना खिला देने के बाद नलिनी ने भी जल्दी से खाना खा लिया, क्योंकि वो भी जयन्त को लिवाने के लिए जाना चाहती थी,साथ में उसने सफर के लिए भी कुछ खाना बंँधवा लिया, पहले तो शिवनन्दन जी का मन नहीं था कि नलिनी भी वहाँ जाएँ लेकिन फिर नलिनी का उतरा हुआ मुँह देखकर उन्हें उस पर तरस आ गया और वे उसे साथ लिवा जाने के लिए मान गए,फिर दो मोटरों में सभी लोग हरदयाल के गाँव की ओर चल पड़े.... दिनभर के सफर के बाद वे लोग वहाँ पहुँचे,हरदयाल का घर देखकर वे सब चिन्ता में पड़ गए कि जयन्त यहाँ इतने दिनों से कैंसे रह रहा था,जब सब भीतर पहुँचे तो जयन्त ने अपने बिस्तर से खड़े होकर अपने माँ बाबूजी के चरण स्पर्श किए और तब हरदयाल आँची से बोला...."बेटी! आँची! इन सबके बैठने का इन्तजाम करो"तब आँची ने एक बड़ी सी दरी धरती पर बिछा दी और फिर सभी उस पर बैठ गए,फिर आँची ने एक बड़े से बरतन में चाय बनाई और सबको कुल्लड़ में कपड़े से चाय छानकर दी,सबने चाय पीकर तरावट महसूस की,फिर शिवनन्दन जी हरदयाल से बोले...."अब हम लोग निकलेगे हरदयाल!","लेकिन बाबूजी! बिना खाएँ पिएँ आप लोग ऐसे कैंसे चले जाऐगें,मुझे भी मेहमाननवाजी करने का मौका दीजिए" हरदयाल ने शिवनन्दन जी से कहा..."अभी रहने दो हरदयाल! फिर कभी आऐगें हम लोग और अभी वैसे भी शहर के डाक्टर से जयन्त की जाँच करवानी है और पुलिस को भी तो बताना है कि जयन्त हमें मिल गया है",प्रयागराज बोला...."लेकिन अभी चलेगें तो आप सभी को रातभर का सफर करना पड़ेगा",हरदयाल बोला..."कोई बात नहीं,हम लोग सफर कर लेगें",प्रयागराज बोला..."लेकिन मैं ऐसी हालत में रात भर का सफर नहीं कर पाऊँगा",जयन्त ने हरदयाल का मन समझते हुए कहा..."हाँ! बाबूजी! रुक जाइएँ ना आज रात,सुबह भोर में चले जाइएगा",हरदयाल बोला.... फिर क्या था जयन्त और हरदयाल के आगे शिवनन्दन जी और प्रयागराज की नहीं चल पाई और मजबूर होकर उन सभी को रात में वहाँ रुकना ही पड़ा...
क्रमशः....
सरोज वर्मा....