"सच में नई पीढ़ी हमसे बहुत अच्छी है। इसे कम से कम हमारी जैसी लत तो नहीं है कि इतने बजे पेप्सी चाहिए, इतने बजे पिज़्ज़ा! हमें देखो, चार बजे नहीं कि बस, चाय चाहिए। ऐसी तलब लगती है कि न मिले तो सिर फटने लगता है। दिमाग़ भन्ना जाता है।" सोच ही रहा था पर किस्मत अच्छी थी कि थोड़ी ही देर में जंगल भरे रास्ते को चीरती बस एक ऐसी जगह पर आ रुकी, जहां छोटी- मोटी दो चार दुकानों के साथ एक पेड़ के नीचे चाय की गुमटी भी थी। मुझे मानो मन की मुराद मिल गई।
मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि चाय बनाने वाली बूढ़ी महिला सत्तर पार की है और कंपकंपाते हाथों से उन प्यालों को बार- बार कपड़े से साफ़ कर रही है जिनमें उसे खौल जाने के बाद चाय को डालना था। मैं सामने के नल पर गिलास धोकर मेरे लिए पानी लाने वाले पंद्रह वर्षीय लड़के का चेहरा देखता रहा और ये अनुमान लगाता रहा कि यह बुढ़िया का कौन होगा - बेटा, पोता, नाती या नौकर? क्योंकि गोरे, लाल सुर्ख चेहरे वाले उन दोनों इंसानों में एक का अतीत खूबसूरती भरा था तो दूसरे का भविष्य। बहरहाल, दोनों का वर्तमान मुझे चाय पिलाने में तन्मयता से तल्लीन था। जब कंडक्टर ने आकर बताया कि टायर का पंचर ठीक कराने के कारण बस यहां एक घंटा ठहरेगी, तो बस की सवारियां तितर - बितर हो गईं। छोटा लड़का भी तमाशबीन की मुद्रा में टायर -ट्यूब की मरम्मत देखने जा खड़ा हुआ।
पहाड़ सा लंबा ये समय मैंने बुढ़िया को, और बुढ़िया ने मुझे दिया। वह काम से निपट कर मेरे पास ही आ बैठी।
अब मेरा मन कह रहा था कि मैं उस महिला को बुढ़िया नहीं बल्कि मैडम कह कर संबोधित करूं, क्योंकि छोटे से गांव के बस अड्डे पर चाय की गुमटी चलाना उसका पुश्तैनी कारोबार नहीं था। वह तो एक कर्मठ संस्कृत अध्यापक की बेटी और कहीं संपन्न घराने की बहू थी। उसे पढ़ने और संगीत सीखने का बचपन से ही चाव था। लेकिन जल्दी शादी हो जाने के कारण वह पढ़ नहीं पाई। उधर ससुराल में भी किसी न किसी बात को लेकर उसके पति की अपने घरवालों से अनबन रहने के कारण ठेकेदार ससुर ने बेटे - बहू को घर से बेदखल कर दिया। लंबे समय तक उसके बेघर पति ने टैक्सी चला कर अपना और उसका पेट पाला।
अब उसका पति तो दुनिया में नहीं था, मगर उसके चेहरे की लाली यह सोच सोच कर ही बरकरार थी कि उसके पति ने अपने बाप का घर छोड़ा पर जीते जी उसे कभी कोई तकलीफ़ न होने दी। लेकिन एक दुर्घटना ने पति की ज़िंदगी और इलाज में सारा बचा - खुचा पैसा छीन लिया तो उसे विवश होकर बाज़ार में आना पड़ा। उसके साथ काम करने वाला लड़का उसी की विधवा बहन का नाती था जो अब उसके साथ ही रहता था।
मैंने पूछा - आप इस लड़के को पढ़ने क्यों नहीं भेजतीं?
- भेजा था, पर गांव में कोई ध्यान देने वाला नहीं, ये वहां सिगरेट - बीड़ी पीने लगा, दूसरे नशे करने लगा तो यहां अपने साथ ले आई। यहां अब कमाना तो सीख रहा है। यहां मेरी नज़र के सामने तो रहता है। वह बोली।
आप कहती हैं कि आपको पढ़ने का शौक़ था तो अब आप इसे पढ़ाकर अपना शौक़ पूरा कर सकती हैं। मैंने बिन मांगी सलाह दी।
- कहा न, भटक जाता है। नशे की लत से छुड़ा कर लाई हूं।
- लेकिन देखने में तो मासूम भोला लगता है। मैंने कहा।
- लगने से क्या होता है। शैतानियां मासूम चेहरे में ही घर बनाती हैं। उसने लापरवाही से कहा।
मैं बुरी तरह चौंक गया क्योंकि बचपन में मैंने मैक्सिम गोर्की की एक कहानी में यह दर्शनिकता में लिपटी बात पढ़ी थी - "शैतानियां मासूम चेहरे में घर बनाती हैं"। मुझे यकीन था कि चाय की गुमटी चलाने वाली इस बुजुर्ग महिला ने उम्र के किसी भी दौर में मैक्सिम गोर्की को नहीं पढ़ा होगा। किंतु उम्र के अनुभवों की तपती धूप ने गोर्की को जो सिखाया, वह सबक इसे भी सिखा दिया। उम्र अपने शागिर्दों को सचमुच एक सा बरतती है।
मैंने एकाएक कुछ सोचकर कहा - आपके पिता तो ख़ुद एक अध्यापक थे। क्या उन्होंने भी आपको पढ़ने के लिए कभी प्रेरित नहीं किया?
- उस समय घर में कोई भी एक ऐसा नहीं होता था जो फ़ैसला ले सके। सबको एक दूसरे की बात माननी पड़ती थी। मेरे गांव में लड़कियों का स्कूल नहीं था। बहुत दूर जाना पड़ता था। मां और दादी दोनों को ही अच्छा नहीं लगता था। अकेले पिता कुछ नहीं कर सकते थे। उसने लापरवाही से नहीं, बल्कि बेबाकी से कहा। उसके दिल में पिता के लिए जो इज़्ज़त रही होगी, वो अब भी उसकी आंखों से झांक रही थी।
- तो क्या पांचवीं कक्षा के बाद गांव की कोई लड़की नहीं पढ़ पाती थी? मेरे स्वर में शायद समय काटने की विवशता से ज़्यादा लड़की के न पढ़ पाने की जिज्ञासा हावी हो गई थी।
- जाती थीं, गांव की लड़कियां जाती थीं। आठ - दस किलोमीटर की दूरी पर एक स्कूल था लड़कियों को पढ़ाने के लिए, दूसरे गांव में था, तांगे पर जाना होता था। मुझे भी भेजा था पिताजी ने। वह बोली।
कुछ ठहर कर उसने कहना जारी रखा - लेकिन एक दिन एक छोटी सी बात पर मेरी पढ़ाई छूट गई। वह हैरानी से मेरी ओर देखने लगी, मानो उसके मुंह से अकस्मात कोई न बताने वाली बात निकल गई हो।
मैं एकटक उसकी ओर देखने लगा। उसके होंठ कुछ कहने के लिए फड़के ही थे कि मुझे मैक्सिम गोर्की की उक्ति याद आ गई - शैतानियां मासूम चेहरों में ही घर बनाती हैं।
वह बोली - "दादी के विरोध के बावजूद पिताजी ने मुझे आगे पढ़ाने के लिए स्कूल में भेजा मगर एक दिन हमारे स्कूल से कुछ दूर पहाड़ी पर एक शूटिंग हो रही थी हम सब सहेलियां बिना किसी को बताए चुपचाप शूटिंग देखने चले गए। मैंने तो अपनी कॉपी में हीरो के ऑटोग्राफ भी ले लिए। शाम को न जाने कैसे हमारे घरवालों को ख़बर लग गई। स्कूल में भी डांट पड़ी और घर पर दादी ने पिताजी को भी खूब डांटा। पिताजी ने गुस्से में आकर मेरी पढ़ाई छुड़ाई और उसी दिन से मुझे घर बैठा दिया।"
जीवन में हादसा बन कर आई इस बात को सुनाते हुए भी उसकी आंखों में ग़ज़ब की चमक आ गई। सत्तर पार की वह बूढ़ी बेहद खूबसूरत दिखने लगी। मानो झुर्रियों ने योगबल से उम्र पर शामियाना सरका दिया हो।
मैंने पूछा - अच्छा, कौन था वह जिसके आपने ऑटोग्राफ लिए?
- देवानंद! कह कर वो हो - हो- हो ऐसे हंस पड़ी मानो मैंने उसके बगल में गुदगुदी कर दी हो। वह आंचल से अपना चेहरा इस तरह पौंछने लगी जैसे वो कहीं से होली खेल कर आई हो और अब गालों पर लगा गुलाल पौंछ रही हो।
मैं चौंक गया क्योंकि उसकी ही नहीं, मेरी आंखों में भी पानी की हल्की सी परत बन गई थी। उसकी हंसने की आवाज़ इतनी पुलक भरी थी कि दूर - पास के कुछ मुसाफ़िर गुमटी की ओर देखने लगे। नज़दीक के पेड़ पर बैठे कुछ पक्षी भी चहचहा गए।
मुझे जंगल के बीच उस छोटे से गांव की हवा बेहद तिलिस्मी लगने लगी। उस हवा ने वक्त के मर्तबान में जैसे गोर्की और देवानंद के अहसास का मुरब्बा डाल लिया था।
तभी बस के घरघराकर स्टार्ट होने की आवाज़ आई। मैं लंबे- लंबे डग भरता हुआ इतनी तेज़ी से बस की ओर भागा कि मुझे भी अपनी चाल पर हैरत होने लगी।
पेड़ की डाल पर बैठी चिड़िया चहक कर दूसरी चिड़िया से कह रही थी - देख -देख, वह बूढ़ा आदमी अभी - अभी उस बूढ़ी औरत को छेड़ कर भागा है!!!