Ardhangini - 40 in Hindi Love Stories by रितेश एम. भटनागर... शब्दकार books and stories PDF | अर्धांगिनी-अपरिभाषित प्रेम... - एपिसोड 40

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

Categories
Share

अर्धांगिनी-अपरिभाषित प्रेम... - एपिसोड 40

सारे मेहमानो और परिवार के लोगो का खाना पीना होने के बाद जतिन और उसके मम्मी पापा समेत ज्योति और सागर जनवासे  मे थोड़ा आराम करने और कपड़े बदलने के लिये चले गये.... इधर मैत्री भी मैरिज लॉन मे बने कमरो मे से एक कमरे मे अपनी दोनो भाभियो के साथ फेरो के लिये अपनी ड्रेस बदलने के लिये चली गयी...  इधर मैत्री की मम्मी सरोज जो अभी तक मैत्री के साथ थीं उसके कमरे मे जाने के बाद जब उस कमरे मे गयीं जहां पहले से मैत्री के पापा जगदीश प्रसाद अकेले बैठे थे... तो उन्होने देखा कि जगदीश प्रसाद चुपचाप सिर झुकाये वहां पड़े तखत पर बैठे हैं... और वहां पर बैठे हुये वो बार बार अपने एक हाथ से अपनी आंखे पोंछ रहे हैं... दरवाजे पर खड़ी सरोज दूर से देख कर ही समझ गयीं कि उनके पति जगदीश प्रसाद मैत्री को लेकर भावुक हो रहे हैं... और वो भावुक हों भी तो क्यो ना... एक पिता जिसने अपनी फूल सी बेटी के जीवन मे आये इतने भारी भरकम कष्टों के बाद उसके जीवन मे आने वाली खुशियो को देखा था वो भावुक नही होगा तो क्या होगा.... सरोज ये बात समझती थी... भावुक वो भी बहुत जादा थीं लेकिन वो मां थीं और मां का दिल बहुत मजबूत होता है... इसीलिये उन्होने मैत्री के फिर से दूर जाने की तकलीफ को अपने दिल मे दबा रखा था... और उसकी एक वजह जतिन और उसके परिवार का अभी तक किया गया अच्छा व्यवहार था... जतिन तो अच्छा था ही पर जिस तरह से पहले दिन से ही जतिन की मम्मी बबिता और ननद ज्योति.. मैत्री के लिये प्यार और सम्मानजनक शब्दो का प्रयोग कर रहे थे उसकी वजह से सरोज के मन मे ये द्रढ़ विश्वास था कि पिछली बार की तरह इस बार उनकी लाडो के जीवन मे कोई परेशानी नही आयेगी.... कोई उसे नही कोसेगा... कोई उस पर लांछन नही लगायेगा.... लेकिन कहीं ना कहीं सरोज के दिल मे एक तकलीफ तो थी ही... और वो ये कि मैत्री के जीवन मे आये उस भारी तूफान के बाद सरोज ने और जगदीश प्रसाद ने बड़े ही प्यार से मैत्री का साथ दिया था... लेकिन पराये घर जाने पर पता नही उनकी सीधी, सच्ची संस्कारी बेटी किसी से अपनी तकलीफ बता पायेगी या नही... उसका किसी भावुक क्षण मे रवि का जिक्र करना कहीं जतिन को बुरा ना लग जाये... यहां रहती थी तो मेरे साथ, नेहा सुरभि के साथ अपनी तकलीफ बांट लेती थी तो उसका मन हल्का हो जाता था... लेकिन वहां वो अपनी पिछली जिंदगी से जुड़े दर्द का जिक्र भी नही कर पायेगी... उसे अपने नये परिवार मे उस तकलीफ को अपने दिल मे हमेशा के लिये दबा कर ही जीना पड़ेगा... 

ऐसी तमाम बाते थी जो सरोज के मन मे भी कौतूहल पैदा कर रही थीं... उन्हे चिंता इस बात की नही थी कि मैत्री जतिन के साथ खुश रहेगी या नही क्योकि जतिन और उसके परिवार का स्वभाव और मैत्री के लिये समर्पण वो देख चुकी थीं... चिंता उन्हे इस बात को लेकर थी कि मैत्री के मन मे बहुत कुछ ऐसा है जो वो किसी से नही कह पाती थी .. चिंता उन्हे मैत्री के मन के अकेलेपन की थी... क्योकि शादी के बाद चीजें बदल जाती हैं पहले जैसा कुछ नही रहता.... इंसान बाहर बाहर से तो खुश ही दिखता है पर उसके मन मे हजार दर्द पलते रहते हैं... 

इन्ही सब बातो को अपने दिल मे दबाये सरोज सिर झुकाये बैठे अपने पति जगदीश प्रसाद  के पास गयीं और उनके कंधे मे हाथ रखकर चुपचाप उनके बगल मे बैठ गयीं.... अपने कंधे पर सरोज का हाथ महसूस करके जगदीश प्रसाद ऐसे चौंके जैसे किसी गहरे चिंतन मे खोये हुये थे... सरोज की तरफ देखकर अपनी आंखे पोंछते हुये जगदीश प्रसाद ने कहा- अरे तुम... तुम कब आयीं... 

सरोज ने बड़े प्यार से कहा- जब आप मैत्री की चिंता मे खोये हुये थे तब मै आयी.... 
जगदीश प्रसाद बोले- अरे नही नही... चिंता किस बात की... हम जो चाहते थे वही हो रहा है और हमें दामाद और मैत्री की ससुराल भी कितनी अच्छी मिली है... फिर चिंता की क्या बात... 

सरोज ने कहा- फिर आंखो मे आंसू क्यो...?? 
जगदीश प्रसाद ने बहुत ही भावुक होते हुये कहा- सरोज तुम्हे तो पता ही है कि कितनी मिन्नतो के बाद मैत्री हमारे जीवन मे सबसे बड़ी खुशी बनके आयी थी.... उसने मुझे और तुम्हे और हम दोनो के अधूरेपन को दूर कर  दिया था... जब पैदा होने के बाद पहली बार मैत्री को हस्पताल से घर लाये थे तब हमारे घर की रौनक देखने लायक थी... जब पहली बार उसे अपने नन्हे नन्हे पैरो से चलते देखा था तो ऐसा लगा था जैसे धरती पर ही स्वर्ग मिल गया हो... और तुम्हे याद है सरोज जब पहली बार मैत्री बोली थी तो उसके मुंह से पहला शब्द "पापा" ही निकला था.... यानि उसने मुझे पुकारा था.. जब मै ऑफिस से दिन भर का थका हारा घर आता था तो मेरे स्कूटर की आवाज दूर से ही पहचान जाती थी और मै जैसे ही घर के अंदर आता था तो भले वो सो रही हो... तुरंत उठकर अपने छोटे छोटे लड़खड़ाते कदमों से भागती हुयी, हंसती हुयी मेरे पास आ जाती थी.... समझ नही आता था कि दिन भर की थकान कहां चली गयी... 

अपने पति जगदीश प्रसाद की भावुक बाते सुनकर सरोज भी भावुक होते हुये बोलीं- और हमारी बेटी ने कभी हमारे लाड़ प्यार का फायदा नही उठाया... उसे इतना प्यार मिलता था सबसे खासतौर पर राजेश और सुनील से फिर भी उसने कोई गलत कदम नही उठाया बल्कि हमेशा उस प्यार का मान रखा.... हमेशा अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना, घर के कामो मे हाथ बटाना... सबका ध्यान रखना... ऐसा लगता था जैसे हमारी गुड़िया को भगवान ने ही सब कुछ सिखा के भेजा है... पर पता नही भगवान ने उसकी इतनी बड़ी परीक्षा क्यो ले ली.... 

सरोज की बात सुनकर जगदीश प्रसाद बोले-समझ नही आता सरोज कि ये एक पिता का सौभाग्य है या दुर्भाग्य जो उसे एक दिन अपने कलेजे के टुकड़े को खुद से अलग करना पड़ता है.... 

"माता पिता और परिवार आपके जैसा हो तो ये सौभाग्य ही होता है पापा" मैत्री दूर दरवाजे के पीछे खड़ी अपने मम्मी पापा की बाते सुन रही थी... 

मैत्री भले नेहा और सुरभि के साथ मैरिज लॉन मे बने अपने कमरे बैठी थी पर उसका मन अपने मम्मी पापा की गोद मे सिर रखने का हो रहा था... इसलिये वो उनसे मिलने उनके कमरे मे चली आयी... दरवाजे पर ही अपने मम्मी पापा की बाते सुनकर रुक गयी और उनकी बाते सुनने लगी और जब उसे एहसास हुआ कि अब अगर मै बीच मे नही बोली तो मम्मी पापा रोने लगेंगे तब वो दरवाजे की ओट से निकल कर बाहर आयी.... 

धीरे धीरे कदमों से चलकर मैत्री अपने मम्मी पापा के पास पंहुच गयी और उनके सामने घुटनों के बल बैठकर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुये मैत्री ने कहा- माता पिता तो स्वयं अपने आप मे अपने बच्चो के लिये सबसे बड़ा सौभाग्य होते हैं पापा... और फिर जिस बेटी के सिर पर आप जैसे मम्मी पापा का आशीर्वाद हो वो स्वयं कैसे किसी दुर्भाग्य के पात्र हो सकते हैं.... सौभाग्य तो मेरा है जो मुझे आप दोनो जैसे माता पिता मिले जिन्होने मेरा हर मुश्किल मे एक मजबूत स्तंभ की तरह मेरा साथ दिया.... और पापा अगर आप ऐसे दुखी होंगे तो मै आपको छोड़कर कहीं नहीं जाउंगी.... 

मैत्री की बात सुनकर जगदीश प्रसाद मुस्कुराते हुये बोले- अरे नही नही बेटा.... अपने घर जाना तो अच्छी बात होती है.... मै दुखी नही हो रहा बल्कि बहुत खुश हूं कि मेरी बेटी को ऐसा परिवार मिला जिसकी वो सच्ची अधिकारी थी.... तू खुशी खुशी अपने घर जा.... हम दोनो की चिंता मत कर क्योकि हमारी खुशियां तुझसे ही जुड़ी हैं... और तू खुश है तो हम तो वैसे ही खुश रहेंगे.... 

मैत्री हो या उसके मम्मी पापा तीनो कहीं ना कहीं पिछली बातो और इस बात को लेकर दुखी थे कि फिर से एक बार उनका साथ छूट रहा है लेकिन ना तो मैत्री अपनी तकलीफ अपने मम्मी पापा पर जाहिर कर रही थी और ना ही उसके मम्मी पापा अपनी तकलीफ मैत्री पर जाहिर कर रहे थे.... दुखी सब थे पर एक दूसरे को खुश हैं... ये दिखा रहे थे.... ऐसे ही बातचीत करते करते और एक दूसरे को ढांढस बंधाते समय कब बीत गया पता ही नही चला.... धीरे धीरे करके फेरो का मुहुर्त भी आ गया था.... इधर जतिन अपने मम्मी पापा, ज्योति और सागर समेत कुछ रिश्तेदारो के साथ मंडप मे आ चुका था.... जतिन के मंडप मे आने के बाद मैत्री को भी वहां बुलाया गया.... मैत्री ने भले ही अपने मम्मी पापा को समझा बुझा दिया था पर खुद उसका मन बहुत विचलित और परेशान था... उसके मन मे इतनी बेचैनी थी कि उसके हाथ पैर ठंडे पड़े हुये थे.... लेकिन वो सबको ऐसे दिखा रही थी जैसे वो ये सब कुछ स्वीकार कर चुकी है..... मैत्री के मंडप मे आने के बाद मंत्रोच्चारण के साथ सात फेरो की रस्म शुरू की गयी...   फेरों की रस्म शुरू करने से पहले बारी थी उन सात वचनों की जो एक पति को अपनी पत्नी को देने ही चाहियें... वो वचन जिनको साक्षी मानकर वर और वधू जीवन पर्यंत विवाह नाम की एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी को निभाते हैं..... 

पंडित जी ने एक एक करके जतिन से वचन बताने शुरू किये.... 

पहला वचन- आप वचन दीजिये कि विवाहोपरांत आप जब भी किसी तीर्थ यात्रा पर जायेंगे या कोई भी धार्मिक अनुष्ठान करेंगे तब आप अपनी अर्धांगिनी को अपने साथ रखेंगे... 
जतिन ने मैत्री की तरफ संजीदगी भरी नजरो से देखते हुये कहा- मै वचन देता हूं... किसी भी धार्मिक यात्रा मे या अनुष्ठान मे या किसी अन्य जगह पर तुम हमेशा मेरे साथ रहोगी.... 

दूसरा वचन- वचन दीजिये कि जिस प्रकार आप अपने माता पिता का सम्मान करते हैं उसी प्रकार आप अपनी अर्धांगिनी के माता पिता का भी सम्मान करेंगे... 

जतिन ने कहा- हां मै सच्चे दिल से वचन देता हूं कि मै मैत्री के मम्मी पापा का भी उतना ही ध्यान रखूंगा, उतना ही सम्मान करूंगा जितना कि मै अपने मम्मी पापा का करता हूं... 

तीसरा वचन- वचन दीजिये कि आप अपनी तीनो अवस्थाओ मे युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और व्रद्धावस्था मे हर तरीके से अपनी अर्धांगिनी का पालन करेंगे... 

जतिन ने कहा- हां मै वचन देता हूं कि जीवन के हर उतार चढ़ाव मे हर अवस्था मे मै मैत्री और सिर्फ मैत्री का ही पालन करूंगा... 

चौथा वचन- अभी तक आप परिवार की जिम्मेदारी से विमुख थे लेकिन अब विवाहोपरांत आपके कंधो पर पूरे के पूरे एक जीवन यानि आपकी अर्धांगिनी के जीवन की और  उसके भरण पोषण की जिम्मेदारी है... वचन दीजिये कि जीवन पर्यंत आप अपनी जिम्मेदारियों का वहन पूरी ईमानदारी से करेंगे... 

जतिन ने कहा- हां मै वचन देता हूं कि मै अपनी अर्धांगिनी के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का वहन पूरी आस्था और निष्ठा के साथ करूंगा... 

पांचवा वचन- वचन दीजिये कि आप अपने घर के कार्यो मे, किसी भी तरह के लेन देन मे अपनी अर्धांगिनी से भी मंत्रणा करेंगे.. 

ये वचन सुनकर जतिन को हंसी आ गयी और वो हंसते हुये बोला- जी मै वचन देता हूं कि मैत्री से पूछे बिना मै कुछ नही करूंगा... 

जतिन की ये बात सुनकर वहां बैठे सारे लोग हंसने लगे... मैत्री जो सिर झुकाये सारी बाते सुन रही थी उसे भी हल्की सी हंसी आ गयी... 

पंडित जी ने भी हंसते हुये छठा वचन बोला- वचन दीजिये कि यदि आपकी अर्धांगिनी घर मे अपनी सहेलियो के बीच या मेहमानो के बीच बैठी है तो आप उसका किसी भी तरह से उपहास नही करेंगे या अपमानजनक शब्दो का प्रयोग नही करेंगे और जुआं शराब जैसे व्यसनो से दूर रहेंगे... 

जतिन ने कहा- जी मै वचन देता हूं कि सहेलियो या मेहमानो के सामने तो क्या... किसी भी परिस्थिति मे मैत्री का कभी अपमान नही करूंगा.... 

सातवां वचन- वचन दीजिये कि आप पराई स्त्री के साथ किसी भी तरह के अनैतिक संबंधों मे नही पड़ेंगे... परायी स्त्रियो को माता समान समझेंगे... आप अपने और अपनी अर्धांगिनी के प्रेम के मध्य मे किसी दूसरी स्त्री को नही आने देंगे... 

जतिन ने पूरी जिम्मेदारी से और संजीदगी भरे शब्दो मे कहा- मै वचन देता हूं कि मै जब तक जिंदा हूं अपनी अर्धांगिनी मैत्री से ही प्रेम करूंगा... हमारे इस पवित्र संबंध के बीच मे कभी कोई दूसरी स्त्री नही आयेगी... 

इन सात वचनो के साथ एक आठवां वचन भी था जो जतिन अपने आप को दे रहा था और वो ये कि "मैत्री मै तुम्हारे मन के सारे भारीपन को तुम्हारे मन से, तुम्हारे जीवन से बाहर निकाल दूंगा, मै कभी गुस्सा करना तो दूर तुमसे तेज आवाज मे बात भी नही करूंगा... तुम्हारा हर परिस्थिति मे साथ दूंगा, भगवान ना करे तुम अगर बीमार पड़ गयीं तो सच्ची श्रद्धा से तुम्हारा ध्यान रखूंगा.. मेरे जीवन का सार, मेरे जीवन का आधार, मेरे जीवन का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी खुशियां ही होंगी... "

जतिन के लिये गये सातो वचनों के शब्दो मे इतनी सच्चाई थी कि मैत्री उन्हे सुनकर मन ही मन बहुत खुश हो रही थी... जतिन का प्यार कहीं ना कहीं मैत्री के दिल को छू रहा था.... पर वो बेचारी भी क्या करती उसका अतीत ही इतना स्याह और खराब था कि वो जैसे ही जतिन की तरफ अपने मन को ले जाने की कोशिश करती अतीत की यादें जैसे उसे छूकर निकल जातीं.... और वो फिर से उदास हो जाती.... ये एक बहुत गूढ़ सच्चाई है कि दूध का जला छाछ फूंक फूंक कर पीता है बस इसी सच्चाई के चलते मैत्री के मन मे शादी के बाद की परिस्थितियों को लेकर एक डर, एक संकोच और एक भारीपन कहीं ना कहीं अभी भी था... 

क्रमशः