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उस दिन पूरी रात रेशमा करवटें बदलती रही, जाने उसकी बहन कब आएगी? वह अपनी बहन के पास रहना चाहती थी, उससे बात करके अपने मन को हल्का करना चाहती थी| कॉलेज में पढ़ने वाली रेशमा इतनी छोटी भी नहीं थी कि कुछ समझ न पाती लेकिन वह जानती थी कि उसे बड़ों के बीच में बोलने का या निर्णय लेने का अधिकार नहीं है | मम्मी-पापा के जाते ही जैसे पूरा परिवेश बदल गया था| जहाँ रेशमा की शरारतों से मम्मी हर समय उसे समझाने की कोशिश करतीं लेकिन वह अपनी मनमानी करने में मस्त रहती, वहीं अब जो कुछ, जैसा कुछ सामने आता है, वह चुप्पी लगाकर, सिर हिलाकर स्वीकार कर लेती है| देखा जाए तो यह एक कठिन समय होता है जब बच्चों को अपने जीवन में इस प्रकार के बदलाव देखने पड़ते हैं| इन बदलावों पर किसी का कोई वश नहीं होता| सबका जीवन बदलावों से भरा पड़ा रहता है| रात भर रेशमा करवटें बदलते हुए न जाने क्या-क्या सोचती रही|
नई सुबह हर दिन जैसी ही थी| सब तैयार होकर नाश्ते के लिए डाइनिंग टेबल पर आ गए थे|
“मनु भैया, जाइए न दीदी को ले आइए---”रेशमा छोटे बच्चे की तरह उतावली हो रही थी|
“अरे!ठीक से दिन तो निकलने दे, और तू कब से आशिमा को दीदी कहने लगी? ”मनु ने हँसते हुए पूछा|
“उनकी शादी हो गई है तो क्या मैं उनके ससुराल वालों के सामने उनका नाम लूँगी ? ”रेशमा ने कहा|
“बड़ी हो गई है हमारी छोटी सी बहन—” रेशमा भाई की बात सुनकर झेप गई, बड़ी हो है ही, ये भैया भी !
“लड़कियाँ होती ही समझदार हैं---हैं न रेशु? ”आशी ने बड़े प्यार से उसकी ओर देखा था|
दीना के मन में अचानक आया काश! आशी बेटा, तुम भी समझदार हो जातीं! क्या कमी है इसमें बस एक ज़िद मन में घर कर गई है| उनके मन में न जाने कितनी बार यह बात आती थी कि बच्चों को ज़रूरत से अधिक लाड़ भी उन्हें ज़िद्दी बनाने में सहायक होता है| वह बात अलग थी कि माँ को खोने के कारण से आशी और भी अधिक जिद्दी हो गई थी| इधर सहगल के बच्चे कितने अनुशासित थे| जब भी दीना सहगल या रीना भाभी से बात करते, वे लोग उन्हें यही समझाते कि आशी ने अपनी कच्ची उम्र में जो बातें सुन, देख व महसूस कर ली थीं, उनका बहुत अधिक गहरा प्रभाव उस पर पड़ा था| दीना एक पिता की हैसियत से अपनी बेटी की पीड़ा समझते लेकिन फिर भी उनका मन सब बच्चों से आशी तुलना करने लगता|
“कब जाएंगे भैया? ” रेशमा की आवाज़ सुनकर उनका दिमाग एक बार फिर से रेशमा की बात पर आ अटका| माता-पिता का इस प्रकार जाना रेशमा की शरारतों पर चुप्पी लगा गया था|
“इतनी सुबह थोड़े ही जाऊँगा, दोपहर तक ऑफ़िस में काम करूँगा, बाद में जाऊँगा| ठीक है न अंकल? ”मनु ने कहा|
“हाँ, यही ठीक रहेगा| ”
“मैं भी जाऊँ अंकल भैया के साथ? ”वह उतावली सी होकर बोली|
“तू क्या करेगी? यहीं तो आने वाली है तेरी बहन---”मनु ने शीघ्रता से कहा|
रेशमा के चेहरे पर एक उदासी भरी चुप्पी छा गई जिसे दीना अंकल ने तुरंत नोटिस कर लिया |
“हाँ, हाँ क्यों नहीं, ठीक कह रही है रेशमा, तुम ले जाओ उसे| कल मिसेज़ भट्टाचार्य भी तो तुमसे अपने घर चलने के लिए कह रही थीं, तुम गईं नहीं| ” उन्होंने रेशमा से कहा|
“अंकल ! अजीब सा लगता है न, कभी ऐसे कहीं गई नहीं हूँ---”उसने संकोच से उत्तर दिया|
“अब तो तुम्हारी बहन का घर है, चलो कोई बात नहीं संकोच भी धीरे-धीरे दूर हो जाएगा---”फिर मनु की ओर मुँह घुमाकर बोले;
“इसे ले जाना बेटा, दोनों बहन-भाई जाओगे तो आशिमा को तो अच्छा लगेगा ही, उसके परिवार में भी सबको अच्छा लगेगा| बल्कि मैं तो कहता हूँ, आशी से भी पूछ लेना अगर वह जाना चाहे तो !”
“जी अंकल---”मनु ने आज्ञाकारी बेटे की भाँति सिर हाँ में हिला दिया|
“तुम कॉलेज से आकर तैयार रहना, मैं लंच के बाद गाड़ी भेज दूँगा| ”उन्होंने रेशमा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा| रेशमा का चेहरा खिल उठा|
इस बीच आशी चुप ही बैठी रही, अंदर से तिलमिला सी रही थी, ’क्यों मुझसे कहने में आफ़त आती है पापा को? उनके लिए मैं तो जैसे हूँ ही नहीं| बस, जो वे कहें वैसा करते चलो तो सब ठीक!’मन में वह बड़बड़ कर रही थी लेकिन ऊपर से शांत बैठी थी|
‘न कहें, मुझे क्या गरज पड़ी है? और ये मनु---ये नहीं पूछ सकता था मुझसे? जाता कौन? लेकिन बात तो ये है न कि मैं दिखाई ही नहीं देती किसी को!मैं तो अपने प्रॉजेक्ट में कितनी बिज़ी हूँ, किसके पास टाइम है इन बेकार की बातों के लिए? ’मन ही मन कुढ़ते हुए वह सोचती रही, सब उल्टा-पुलटा!यह तो समझती नहीं थी कि सब उससे कुछ भी पूछने से घबराते कितना हैं!क्या पता क्या उत्तर उछलकर आए उधर से---!
“दीदी!आप भी चलिए न !क्यों अंकल? ”
“बिलकुल बेटा, जैसे उसका मन हो---”फिर आशी की ओर देखकर पूछा ‘
“क्यों बेटा!तुम जाना चाहोगी? ”
“ओ---नो---आई डोन्ट हैव टाइम—मुझे अपने काम में ही काफ़ी देर हो जाएगी—”उसे मना तो करना ही था| वह तो बस उसमें ही खुश रह सकती थी जहाँ सब उसके चारों ओर घूमते रहें, उसकी ज़िद चलने देते रहें, वही तो होता रहा था|
“ओ.के, एज़ यू विश—”उन्होंने कहा
‘विश तो ऐसे कह रहे हैँ जैसे मेरी ही विश चलती रही हो हमेशा---हुँह’ कुढ़ गई आशी
दीना आशी की मन:स्थिति से बेखबर तो नहीं ही थे लेकिन बेकार की बहस का कुछ लाभ न था| वे ऑफ़िस जाने के लिए बढ़ चले| साथ में मनु भी---
‘हूँ—चमचा कहीं का---‘पता नहीं मन ही मन वह क्या सोचती रही|
“मैं तो आपके साथ चल रही हूँ न आशी दीदी? ”रेशमा उसको मस्का लगाने की कोशिश करती रहती थी और जबसे उसने देखा था कि आशी का उसकी ओर और सबसे अधिक झुकाव था, वह उसे खुश करने के अवसर ढूंढती रहती|
“हाँ----हाँ, मैं तुम्हें ड्रॉप करके ही ऑफ़िस जाऊँगी| ”
“कुछ कहा आशी बेटा? ”दीना ने आगे बढ़ते हुए ज़रा थमकर बेटी की ओर घूमकर पूछा|
“नहीं, ”उसने कहा और ऊपर की ओर बढ़ चली|
दीना, मनु और पीछे से माधो बाहर की ओर चल पड़े| ड्राइवर पहले से ही गाड़ी में इंतज़ार कर रहा था| रेशमा के हाथ में बैग था जिसे लेकर वह कॉलेज जाती थी| वह बाहर तक आ गई थी तो दीनानाथ ने पूछा;
“तुम चल रही हो बेटा? ”
“नहीं, आप लोग चलिए अंकल, आशी दीदी मुझे छोड़कर ऑफ़िस आएंगी, बाय--” सब गाड़ी में बैठकर निकल रहे थे, उन्होंने रेशमा की ओर हाथ हिलाया और गाड़ी आगे निकल गई| रेशमा अंदर की ओर आ गई, उसे तो आशी के साथ जाना था|
रेशमा की क्लासेज़ लगभग दस बजे से दो बजे तक होती थीं| पिछले कुछ दिनों से आशी रेशमा पर ज़्यादा मेहरबान थी| वह उसे कॉलेज छोड़ती हुई ऑफ़िस निकल जाती| दोपहर में माधो सेठ जी और मनु को खाना खिलाकर जब घर आता तब रेशमा को कॉलेज से ले आता था| उन तीनों को घर लौटते हुए सात/आठ बज जाते थे| बंबई जैसी जगह पर सभी स्थान इतनी दूर-दूर होने से लोग हर समय भागते दौड़ते ही नज़र आते| गाड़ियों में बला की भीड़!सबके पास इतनी सुविधाएं कहाँ होती हैँ, वे तो लोकल बसों और गाड़ियों में मीलों लंबे सफ़र तय करके रात को अपने घरों में पहुंचते और अपने बच्चों को भी छुट्टी के दिन ही मिल पाते|
डॉ.सहगल के समय में दोनों बेटियाँ लोकल ट्रेन में सफ़र करती थीं| पिता अपने क्लीनिक जाते हुए उन्हें स्टेशन छोड़ देते और दोपहर को वापिस लौटते हुए अधिकतर उन्हें स्टेशन से ले भी लेते| कभी-कभी उनकी पत्नी बेटियों के लोकल ट्रेन से जाने-आने के बारे में कुछ कहती भी तो वे उन्हें बड़े प्यार से समझा देते;
“देखो, समय का कुछ पता नहीं है| हम लोगों ने लोकल गाड़ियों में सफ़र नहीं किया क्या? यहाँ तो बड़े-बड़े लोगों को भी लोकल गाड़ियों में चलना पड़ता है और फिर बस बदलकर अपने गंतव्य पर पहुंचना होता है| इनको तो मैं स्टेशन से ले ही आता हूँ, कभी नहीं टाइम मिल पाता तो दोनों टैक्सी से आ ही जाती हैं| ”मिसेज़ सहगल चुप होकर रह जातीं|
उनके बाद में उनके दीना अंकल ने कभी उन्हें ट्रेन व बस से नहीं जाने दिया| वे बच्चों का अच्छे से अच्छा ध्यान रखना चाहते थे| कई बार तीनों ने उनसे कहा भी तो वे उदास हो जाते थे| खैर मनु को तो काम पर जाना होता था लेकिन दोनों बेटियों को भी वे ऐसे ही रखना चाहते थे जैसे उनकी आशी रही थी| एक/दो बार लड़कियों ने कहा भी कि वे पहले भी तो लोकल ट्रेन से आती-जाती थीं लेकिन दीना उनकी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाए, उन्होंने साफ़ मना कर दिया| एक बार बात करने के बाद फिर बच्चों ने इस विषय पर अंकल से कोई बात नहीं की और जीवन की गाड़ी अपने आप दीना की बनाई पटरी पर चलने लगी|
आज रेशमा का कॉलेज में मन ही नहीं लग रहा था| कॉलेज से लौटकर वह जल्दी-जल्दी तैयार हुई और ड्राइवर के साथ ऑफ़िस पहुँच गई| ऑफ़िस में दीना अंकल ने माधो से फलों और मिठाइयों के कई टोकरे और डिब्बे सुंदर सी पैकिंग करवाकर मँगवा रखे थे|
“ये सब क्या है अंकल? ” मनु ने आश्चर्य से पूछा|
“बहन की ससुराल जा रहे हो, खाली हाथ जाओगे? ”
“इतना सारा ? ”
“हाँ बेटा, बेटियों को तो जितना दो कम ही होता है| ”उन्होंने कहा|
“अंकल!पहले भी आँटी कह रही थीं कि इतना सारा सामान मत लाया करो बेटा---अब वे फिर कहेंगी| ”मनु ने कहा|
“कोई बात नहीं, उन्हें बोलने दो, हम तो अपनी बेटी के लिए करेंगे न !तुम लोग बच्चे हो, कुछ नहीं समझते| ”दीना ने हँसकर कहा|
रेशमा कॉलेज से आने के बाद बन-ठनकर ऑफ़िस आ चुकी थी| वह खुशी-खुशी आशी के चैंबर में पहुँच गई;
“चलिए न दीदी---”
“कहाँ ? ”आशी ने चौंककर पूछा |
“अरे ! आप भूल गईं, आशिमा दीदी को लेने जाना है न!” वह बहुत खुश थी| बड़े दिनों बाद अपनी बहन के पास सोएगी, बातें करेगी|
“अरे हाँ, तुम जाओ न, मनु के साथ जाकर ले आओ उसे| मैं कल मिली थी फिर अभी घर ही तो आ रही है, डिनर साथ ही करेंगे| ” आशी ने अपने आपको बहुत व्यस्त दिखाते हुए कहा|
“चलिए न दीदी—”उसने फिर से खुशामद करते हुए कहा|
“नहीं रेशु, देखो न ये सब लोग मेरे साथ काम कर रहे हैँ, अभी बहुत काम बाकी है| तुम जाओ न, मिलते हैं शाम को---”
’ठीक है दीदी” कहकर वह निराश होकर वहाँ से निकल गई|