Dwaraavati - 41 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 41

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द्वारावती - 41







41

“यह कोलाहल कब शांत होगा, गुल?”
“किस कोलाहल की बात कर रहे हो तुम?”
“इतने दिवस व्यतीत हो गए किन्तु मन अभी भी उन प्रश्नों पर चिंता कर रहा है। यह चिंता कोलाहल का रूप ले चुकी है।”
“तुम भविष्य की अनिश्चितता से चिंतित हो अथवा असुरक्षा से?”
“चिंता के अनेक कारणों में यह कारण भी हो सकते हैं।”
“मुझे अन्य कारण भी विदित है। मैं बताऊँ क्या?”
“गुल।”
“तुम कुछ खोने के भय से चिंतित हो केशव।”
“ यह कुछ शब्द से क्या तात्पर्य है तुम्हारा?”
“कुछ का अर्थ है यह स्थान, यह समय, कोई व्यक्ति। कुछ भी हो सकता है।”
“चलो छोड़ो इसे। हम कुछ अन्य बात करते हैं।”
“ऐसे तो तुम अपने मन को भटका रहे हो, केशव।”
“कैसा भटकाव?”
“एक प्रश्न से हटकर अन्य बिन्दु पर मन को लगाना कोई उपाय नहीं है। इससे मन का कोलाहल शांत कहाँ होता है? कोलाहल का रूप अवश्य बदल जाता है किन्तु उसकी तीव्रता घट नहीं जाती है।”
“गुल …।” केशव अटक गया। 
“कहो केशव जो कहना चाहते हो। शब्दों को अधरों पर लाने के पश्चात रोकना सभ्यता नहीं है।”
केशव गुल को क्षणभर निहारता रहा। अधरों पर स्मित लाकर बोला, “गुल, तुम कितनी बदल गई हो।”
गुल कुछ नहीं बोली किन्तु उसके मुख पर रहे भाव को केशव ने परखा। 
“तुम कितनी सुंदर किन्तु गहन बातें कर रही हो। कुछ समय पूर्व जो एक चंचल तथा अबोध बालिका थी वह आज गंभीर हो गई है, ज्ञान की बातें कर रही है। जैसे कोई विदुषी हो।”
केशव की बात सुनकर गुल के मुख पर एक दिव्य तेज छा गया। 
“केशव, यदि तुम्हें मेरा चंचल – अबोध रूप पसंद हो तो मैं पुन: चंचल हो जाती हूँ। सारा ज्ञान, सारा बोध त्याग देती हूँ। अबोध बन जाती हूँ।”
गुल ने तट पर से रेत उठाई, समुद्र की तरफ उछाल दी। दौड़कर समुद्र के भीतर चली गई। भीगकर पुन: तट पर आ गई। तट की भीगी रेत पर दौड़ने लगी। तट पर उसके पदचिन्हों की एक रेखा रच गई। केशव उस रेखा को देखता रहा। 
गुल अभी भी चंचलता पहने हंस रही थी। “केशव, कहो कैसा रहा मेरा यह चंचल स्वरूप?”
केशव ने कोई उत्तर नहीं दिया। गुल केशव के सम्मुख आ गई, कोई नृत्य करने लगी। केशव ने तब भी कोई ध्यान नहीं दिया। 
“क्या देख रहे हो? कहाँ देख रहे हो, केशव?”
“तुम्हारे पदचिन्हों से रची इस रेखा को देख रहा हूँ। तुम भी देखो इसे।”
गुल ने उस रेखा को देखा। कुछ तरंगें आई, उस रेखा के कुछ अंश को मिटाकर चली गई। रेखा की समग्रता भंग हो गई। वह टुकड़ों में बंट गई। रेखा के बिन्दुओं के मध्य कोई संपर्क सेतु नहीं रहा। 
“गुल, इस खंडित रेखा को देखो। कुछ क्षण पूर्व जो अखंड थी, अब टुकड़ों में बिखर गई है। एक तरंग आती है, क्षणभर में सब कुछ खंडित कर जाती है। यह घटना के संकेतों को समझो, गुल।”
“कौन सा संकेत है इसमें?”
“क्या तुम इन संकेतों को पढ़ नहीं रही हो?”
“नहीं तो?”
“क्यों?”
“क्यूँ की मैं समग्र ज्ञान इस सागर को भेंट चड़ाकर अबोध बन गई हूँ।” गुल खुलकर हंसने लगी। 
“कहो केशव, कैसा है ईस बालिका का अबोध स्वरूप?”
“मुझे यह स्वरूप अच्छा लगा। वास्तव में मुझे इस बालिका के सभी स्वरूप सुंदर लगते हैं।”
“सभी से क्या तात्पर्य है? कौन कौन से स्वरूप, केशव?”
“चंचल, अबोध, मुग्धा, ज्ञानी, विस्मित, गंभीर, सरल, सहज, स्थिर। यह सभी स्वरूप।”
गुल हंसने लगी, केशव भी। 
“किन्तु मुझे तुम्हारा यह स्वरूप पसंद नहीं आया, केशव।”
“क्यूँ नहीं आया?”
“केशव, तुम्हारा यह हास्य ना सरल है ना ही सहज।”
केशव हंसने का प्रयास करने लगा। 
“रहने दो केशव। यह हास्य भी प्रामाणिक नहीं है।”
केशव गंभीर हो गया। शीला पर बैठ गया। 
“मन तथा तन दोनों यदि एक ही रूप में हो तो सहज लगता है, सुंदर भी। यदि दोनों में सामंजस्य नहीं है तो वह कुरूप लगता है।” केशव ने गुल को प्रति प्रश्न के साथ देखा। 
“केशव, चंचल मन तथा स्थिर तन। यह जोड़ ही कुरूपता है।” केशव के मुख पर जो प्रश्न था वह अब विस्तृत एवं विशाल हो गया।  
“मुझे विदित है कि केशव कुरूप नहीं है। केशव का भीतर सौन्दर्य से भरा है। इस सौन्दर्य को कुरूप न होने दो, केशव।”
“तो मैं क्या करूँ?”
“चंचल मन को स्थिर कर दो। भविष्य के गर्भ में जो है वह अज्ञात है। उसे जानने का प्रयास ना करो। उसकी चिंता ना करो। उचित समय पर भविष्य के गर्भ से जो जन्म लेगा उसे हम स्वीकार करेंगे। किन्तु इस क्षण जो भी है वह ज्ञात है, परिचित है। इसे स्वीकार करो, इसका अनुभव करो।”
“कितनी बड़ी ज्ञानी हो गई हो तुम, गुल।”
“धन्यवाद। किन्तु मेरी प्रशंसा से काम होने वाला नहीं है।”
“तो क्या आदेश है मेरे लिए?”
“चलो उठो। तन की स्थिरता मन को समर्पित कर दो। मन की चंचलता तन को समर्पित कर दो।”
“ऐसी भेद भरी भाषा का प्रयोग मेरी समज से परे है। कुछ सरल शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकती तुम, विदुषी गुल?”
केशव हंस पड़ा। वह हास्य सहज था। गुल ने प्रतिहास्य किया।