Sanyasi - 16 in Hindi Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | सन्यासी -- भाग - 16

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सन्यासी -- भाग - 16

जयन्त की बात सुनने पर पुजारी जी उससे बोले...."बेटा! तुम उन दोनों की मृत्यु के लिए स्वयं को दोषी मत ठहराओ,ऐसा समझ लो कि भगवान ने तुम्हारी परीक्षा ली है कि इतना सबकुछ होने के बाद भी तुम सत्य के मार्ग पर अब भी चलोगे या फिर उस मार्ग को त्याग दोगे, यदि तुम सत्य का मार्ग चुनते हो तो तुम्हारी विजय निश्चित है और यदि तुमने सत्य का मार्ग त्याग दिया तो तुम सभी की भाँति एक साधारण मानव बनकर रह जाओगें,क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि ईश्वर ने तुम्हें किसी  विशेष कार्य हेतु धरती पर भेजा,मेरा अनुभव तो यही कहता है","तो आप चाहते हैं कि मैं अब भी सत्य के मार्ग पर ही चलता रहूँ",जयन्त ने पुजारी जी से कहा..."यहाँ मेरा चाहना कोई मायने नहीं रखता,प्रश्न ये उठता है कि तुम क्या चाहते हो"?,पुजारी जी बोले..."मैं तो अब भी सत्य के मार्ग पर ही चलना चाहूँगा",जयन्त ने पुजारी जी से कहा..."ये हुई ना बात,मैं जानता था कि तुम कभी भी सत्य का मार्ग नहीं छोड़ेगें",पुजारी जी मुस्कुराते हुए बोले...."सत्य का मार्ग कठिन जरूर है,लेकिन मैं हमेशा उसे ही चुनूँगा" ,जयन्त ने पुजारी जी से कहा...."मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी",पुजारी जी बोले..."आपने मेरी समस्या हल कर दी पुजारी जी! मन बहुत ही बेकल था,कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ,लेकिन अब आपने मुझे दिशा दिखला दी है,अब चाहे कितनी भी कठिनाई क्यों ना आ जाएँ,मैं अब अपनी दिशा नहीं बदलूँगा",जयन्त ने पुजारी जी कहा..."हाँ! हमारी दिशा ही हमारी दशा बदल सकती है,इसलिए जीवन में सही दिशा का चुनाव करना अत्यधिक आवश्यक है",पुजारी जी बोले...."जी! मैं आपकी बात अच्छी तरह से समझ गया",जयन्त ने मुस्कुराते हुए कहा..."ठीक है तो अब प्रसाद ले लो,क्योंकि आज भी शायद तुमने कुछ खाया नहीं होगा",पुजारी जी बोले..."जी! घर से खाकर तो नहीं चला था,लेकिन काँलेज के मित्रगण मेरा बहुत ख्याल रखते हैं उन्होंने मुझे भूखा नहीं रहने दिया",जयन्त बोला...."लेकिन तब भी जाकर प्रसाद ले लो और चिन्ता करने की जरूरत है,अब तुम्हें ये सोचना है कि तुम लखनलाल और उसकी बेटी को कैंसे न्याय दिलवा सकते हो",पुजारी जी बोले..."जी! पुजारी जी! तो मैं अब चलूँ,जयन्त ने पुजारी जी से कहा..."हाँ! ठीक है और अपना ध्यान रखना",पुजारी जी जयन्त से बोले...    इसके बाद जयन्त ने पुजारी जी के पैर छुएँ और फिर मंदिर से प्रसाद लेकर घर वापस आ गया,घर आया तो नलिनी उसके कमरे में आकर बोली...."बिना खाएँ क्यों चला गया था""मन नहीं था खाने का",जयन्त ने रुखा सा जवाब दिया..."तू लखनलाल की बेटी की मौत से इतना परेशान है कि तूने खाना पीना छोड़ रखा है,अपनी बेटी की चिन्ता करने के लिए लखनलाल है ना!",नलिनी जयन्त से बोली....     फिर नलिनी की बातों पर जयन्त जोर जोर से हँस पड़ा,उसे हँसता हुआ देखकर नलिनी उससे बोली..."हँस क्यों रहा है,पागल हो गया है क्या"?"माँ! तुम्हारी बातों पर मुझे हँसी आ गई",जयन्त ने नलिनी से कहा..."ऐसा क्या कह दिया मैंने"?,नलिनी ने पूछा..."यही की लखनलाल अपनी बेटी की चिन्ता करने के लिए है",जयन्त बोला..."तो कुछ गलत कहा क्या मैंने",नलिनी ने पूछा..."क्योंकि लखनलाल ने भी पेड़ से लटककर फाँसी लगा ली,सुबह उसकी भी लाश देख चुका हूँ मैं",जयन्त बोला..."ये क्या कह रहा है तू!",नलिनी ने हैरानी से पूछा..."हाँ! माँ! अब तो हो गई ना बाबूजी के मन की इच्छा पूरी,बाबूजी से कहना कि दोनों की मौत का जश्न मनाएँ और अपने उस फुफेरे भाई सुमेर सिंह को मिठाई भेजें",जयन्त ने रुखे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा..."ये क्या कह रहा है तू! इतने कड़वे बोल मत बोल",नलिनी जयन्त से बोली..."क्यों ना बोलूँ कड़वे बोल,दो लोगों की जान चली गई और तुम चाहती हूँ कि मैं खुद को सन्तुलित रखूँ,ये सब नहीं होगा मुझसे, इतना सब होने पर मेरी जुबान की मिठास चली गई है",जयन्त गुस्से से बोला..."इसमें तेरे बाबूजी का तो कोई दोष नहीं है",नलिनी बोली...."बाबूजी का तो कभी कोई दोष होता ही नहीं है,क्योंकि तुम उनके दोष देखना ही नहीं चाहती,अगर वो चाहते थे तो सुमेर सिंह इतना आगें ना बढ़ता, उन्होंने ही उसे बढ़ावा दिया",जयन्त बोला..."तू अब अपनी गल्तियाँ अपने बाबूजी के सिर क्यों मढ़ रहा है",नलिनी गुस्से से बोली...."हाँ! सच कहा तुमने माँ!,मैंने ही सच का साथ देकर बहुत बड़ी गलती कर दी,मुझे उन गरीबों को न्याय दिलवाने के लिए आगें ही नहीं आना चाहिए था",जयन्त गुस्से से बोला..."मैं तो हार चुकी हूँ तुझसे और तेरी बातों से,पता नहीं तू अपनी महानता कब छोड़ेगा,महान बनने के चक्कर में तूने अपनी छवि धूमिल कर ली है",नलिनी जयन्त से बोली...."तो मत बात किया करो ना मुझसे,मेरी प्रकृति तुम्हारे पति और तुम्हारे दूसरों बेटों से मेल नहीं खाती,मैं उन जैसा नहीं हूँ,मैं स्वार्थी नहीं हूँ,कपटी नहीं हूँ,लोभी नहीं हूँ इसलिए शायद तुम्हारे इस घर में सब लोगों के साथ फिट नहीं बैठता,कभी कभी तो मुझे लगता है कि मुझे इस घर में जन्म ही नहीं लेना चाहिए,शायद मैं गलत घर में गलत लोगों के बीच पैदा हो गया",जयन्त गुस्से से बोला..."हम सब नहीं तू गलत है जयन्त! और तुझे अब खुद को बदलना होगा",नलिनी ने जयन्त से कहा..."मैं कभी नहीं बदलूँगा....माँ!...हरगिज़ नहीं बदलूँगा,फिर चाहें मुझे ये घर ही क्यों ना छोड़ना पड़ जाएँ", जयन्त बोला...."मैं तुझे नहीं समझा सकती,मैं यहाँ से जा रही हूँ,सुहासिनी के हाथ खाना भिजवा दूँगी तो खा लेना"नलिनी जयन्त के कमरे से जाते हुए बोली....  जयन्त अभी शान्त होकर कुर्सी में बैठा ही था कि तभी उसका भतीजा अतुल उसके पास आकर बोला...."छोटे चाचा! दादाजी! घर आ चुके हैं और उन्होंने आपको अपने कमरे में बुलाया है","उनसे जाकर बोल कि...आता हूँ",जयन्त ने अतुल से कहा...और फिर जयन्त कुछ देर बाद अपने पिता शिवनन्दन सिंह जी के कमरे में पहुँचा और उनसे बोला...."आपने मुझे बुलाया","हाँ!",शिवनन्दन सिंह जी बोले..."मुझसे कुछ काम था क्या आपको"?,जयन्त ने पूछा...."हाँ!",शिवनन्दन सिंह जी बोले..."जी! कहिए!",जयन्त बोला...तब शिवनन्दन जी जयन्त से बोले...."सुना है कि लखनलाल ने फाँसी लगा ली है","हाँ! उसकी बेटी मर गई थी तो भला वो भी जी कर क्या करता ,इसलिए फाँसी लगा ली",जयन्त बोला..."इसलिए तो मना किया था कि इन चक्करो में मत पड़ो,तुम्हारी वजह से मर गए ना बाप बेटी!",शिवनन्दन सिंह जी बोले..."वो दोनों मेरी वजह से नहीं सुमेर सिंह की वजह से मरे हैं",ये कहते वक्त जयन्त का लहजा थोड़ा सख्त था....."तुम अगर बीच में अपनी टाँग ना अड़ाते तो बात कभी यहाँ तक पहुँचती ही नहीं,सुमेर सिंह इतना भड़कता ही नहीं",शिवनन्दन सिंह जी बोले..."मतलब आपकी नजरों में अब भी सुमेर सिंह निर्दोष है",जयन्त ने कहा..."मैंने ऐसा तो नहीं कह",शिवनन्दन सिंह जी बोले..."लेकिन आपने सुमेर सिंह को दोषी भी तो नहीं कहा",जयन्त बोला...."तुमसे तो बात करना ही बेकार है",शिवनन्दन सिंह जी बोले..."तो क्यों करते हैं आप मुझसे बात,जब आप मुझे समझना ही नहीं चाहते,बाप बेटी के मरने से मेरे भीतर हलचल मची हुई है और आप हमदर्दी के दो बोल बोलने के सिवाय उस सुमेर सिंह का पक्ष ले रहे हैं",जयन्त बोला..."तो क्या करूँ? तेरी खातिर सारी दुनिया से दुश्मनी मोल लेता फिरूँ",शिवनन्दन सिंह जी गुस्से से बोले..."नहीं बाबूजी! आपको ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है,जिस दिन मैं मरने भी लगूँ ना तो उस दिन भी आप मुझसे हमदर्दी के दो बोल मत बोलिएगा"    और फिर ऐसा कहकर जयन्त उनके पास से चला आया और शिवनन्दन जी उसे जाते हुए देखते रहे....

क्रमशः....

सरोज वर्मा....