Fagun ke Mausam - 44 in Hindi Fiction Stories by शिखा श्रीवास्तव books and stories PDF | फागुन के मौसम - भाग 44

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फागुन के मौसम - भाग 44

भाग- 44

 

अपनी अलमारी खोले जानकी सोच ही रही थी कि वो क्या पहने कि तभी लीजा वहाँ आई।

उसने जब राघव की दी हुई बनारसी साड़ी जानकी के आगे रखी तो जानकी ने संकोच से कहा, “ये बहुत ज़्यादा भारी नहीं है?”

 

“तो तुम कौन सी बूढ़ी हो गई हो? यही तो तुम्हारी उम्र है ये सब पहनने की। बड़ी मैडम भी जब तुम्हें इस साड़ी में देखेंगी तो खिल उठेंगी।”

 

लीजा ने कहा तो जानकी उसे इंकार नहीं कर सकी।

 

तैयार होने के बाद जब उसने शारदा जी को वीडियो कॉल किया तो लीजा के कहे अनुसार सचमुच शारदा जी अपनी बेटी को देखती ही रह गईं।

 

अब उनके भी हृदय में जानकी को दुल्हन के रूप में देखने की इच्छा बलवती होने लगी थी, इसलिए उन्होंने मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना की कि राघव से जुड़ी हुई जानकी के जीवन की उलझन जल्दी ही सुलझ जाए।

 

जब जानकी लीजा और मार्क के साथ वेडिंग हॉल पहुँची तब तारा सपरिवार वहाँ आ चुकी थी और यश भी बारात लेकर बस पहुँचने ही वाला था।

 

जानकी और लीजा तारा के साथ उसके कमरे में बैठी हुई थीं और तारा महसूस कर रही थी कि आज जानकी कुछ परेशान सी है।

 

उसने जानकी से जब इस विषय में पूछा तो जानकी ने मुस्कुराहट का आवरण ओढ़ते हुए कहा, “मैं बिल्कुल ठीक हूँ तारा डोंट वरी।”

 

“अच्छी बात है।” तारा ने भी मुस्कुराते हुए उसकी हथेली थपथपाई ही थी कि तभी अंजली ने आकर कहा, “बारात आ गई है।”

 

ये सुनते ही जानकी और लीजा उसके साथ बाहर चल पड़े जहाँ माथुर जी और मिसेज माथुर के साथ अविनाश, राघव, मार्क और तारा के दूसरे रिश्तेदार यश, उसके परिवार और अन्य रिश्तेदारों का स्वागत करने के लिए खड़े थे।

 

राघव की नज़र जब जानकी पर पड़ी तब वो मानो अपनी पलकें झपकाना ही भूल गया।

इस बात को महसूस करते हुए जानकी उसके सामने से हटकर पीछे चली गई लेकिन राघव फिर भी मुड़-मुड़कर उसे देखने से ख़ुद को रोक नहीं पा रहा था।

 

अब जानकी ने सोचा कि वो तारा के पास ही चली जाए कि तभी बैंड-बाजे की धुन पर नाचते-गाते हुए बाराती सामने आ खड़े हुए और वो भीड़ के बीच ऐसी घिर गई कि उसके लिए वहाँ से जाना असंभव हो गया।

 

जब यश जयमाला के लिए बने हुए स्टेज पर बैठ गया और बाकी लोग सामने रखी हुई कुर्सियों पर विराजमान होकर स्वागत पेय का लुत्फ़ उठाने लगें तब अंजली के साथ जानकी और लीजा तारा को जयमाला के लिए लाने चल पड़ीं।

 

हँसी-ठिठोली और सबके आशीर्वाद-स्नेह की वर्षा के बीच जब ये रस्म खुशी-खुशी संपन्न हो गई तब तारा को एक बार फिर उसके कमरे में भेज दिया गया और यश भी अपने लिए रिजर्व किए हुए कमरे में चला गया।

 

मंडप में विवाह की रस्में आरंभ होने से पूर्व अभी खाने-पीने का दौर चल रहा था।

 

जानकी भी अंजली के साथ मिलकर बारात में आई हुई सभी महिलाओं के खाने-पीने की व्यवस्था देख रही थी।

 

सभी बारातियों के खाना खाने के बाद अब जब घर के लोग खाने बैठे तो राघव तेज़ी से आगे बढ़कर जानकी के साथ वाली खाली कुर्सी पर बैठ गया।

 

उसकी ये हरकत वहाँ मौजूद सभी लोगों ने नोटिस कर ली थी और अंजली अभी इस बात पर राघव की खिंचाई करने ही वाली थी कि तभी उसकी नज़र उन चाचीजी पर पड़ी जो पिछली रात जानकी के चरित्र पर ऊँगली उठा रही थीं, इसलिए उसने चतुराई से बातचीत की दिशा को विवाह की अन्य व्यवस्थाओं की चर्चा की ओर मोड़ दिया और सब लोग गंभीर होकर उसकी बात सुनते हुए अपनी राय-सलाह देने लगें।

 

विवाह मंडप के एक ओर वर पक्ष के लोगों के बैठने की व्यवस्था थी तो दूसरी ओर वधु पक्ष के लोग बैठने वाले थे।

 

जानकी भी वहीं लीजा के साथ महिलाओं की पंक्ति में बैठी हुई विवाह की रस्में देख रही थी।

 

वो चाचीजी जिन्हें जानकी और राघव के रिश्ते में बहुत दिलचस्पी थी, वो मिसेज माथुर और अंजली को रस्मों में और नंदिनी जी को वहाँ से कुछ दूरी पर दिव्या जी के साथ बातों में व्यस्त देखकर धीरे से जानकी के पास आकर बैठ गईं।

 

जानकी ने जब एकटक उन्हें अपनी तरफ देखते हुए पाया तो उसने शिष्टाचारवश उन्हें प्रणाम किया जिसके प्रतिउत्तर में उन्होंने कहा, “वैसे तो आज विवाह तुम्हारी सहेली का है लेकिन इस सुर्ख लाल साड़ी में तुम भी दुल्हन से कम सुंदर नहीं लग रही हो।”

 

“धन्यवाद चाचीजी।” जानकी ने धीरे से सिर झुकाकर कहा तब वो बातचीत आगे बढ़ाते हुए बोलीं, “वैसे तुम्हारे घर में कौन-कौन है?”

 

“बस मेरी माँ है। अभी वो तीर्थयात्रा पर गई हुई हैं।”

 

“अच्छा फिर तो आज तुम्हारी बात नहीं हुई होगी उनसे। अब बाहर में मोबाइल का नेटवर्क भी कहाँ ज़्यादा साथ देता है।”

 

“जी, ये तो है पर आज संयोग से वीडियो कॉल कनेक्ट हो गया था।” जानकी ने जैसे ही कहा चाचीजी विचित्र अंदाज़ में मुँह बनाते हुए बोलीं, “ओहो तब तो तुम्हें इस साड़ी में देखकर वो भी तुम्हारे लिए दूल्हा ढूँढ़ने के विषय में सोच रही होंगी।”

 

इससे पहले कि जानकी इस बात के प्रतिउत्तर में कुछ कहती उन्होंने वहीं अविनाश के साथ खड़े राघव की तरफ संकेत करते हुए कहा, “या फिर उन्हें पता है कि उनकी बेटी नौकरी करने के साथ-साथ उनके लिए दामाद भी ढूँढ़ने की जुगत में लगी हुई है।

वैसे सही भी है अब अकेली तुम्हारी माँ क्या-क्या करेंगी? तुम्हारे पापा होते तो अलग बात होती।”

 

उनके इस कटाक्ष को सुनकर जानकी का मन हुआ कि वो अभी यहाँ से चली जाए लेकिन तभी उसकी नज़र मंडप में बैठी हुई तारा से टकराई और उसका लिहाज करते हुए वो बस उठकर नंदिनी जी के पास चली गई और जब तक तारा और यश कोहबर में नहीं गए तब तक वो वहीं बैठी रही।

 

राघव, जो व्यस्तता के बावजूद अपनी आँखों को जानकी का पीछा करने से नहीं रोक पा रहा था वो उसे अपनी माँ के साथ पूरी तरह सहज देखकर न जाने क्यों अंदर से बहुत अच्छा महसूस कर रहा था।

 

जब भी नंदिनी जी स्नेह से जानकी के सिर पर हाथ फेरती थीं, राघव का मन जैसे पुलक से भर उठता था लेकिन आज भी उसके पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं था कि वो अपनी माँ और जानकी को एक साथ हँसते-मुस्कुराते देखकर इतना खुश क्यों हो रहा था।

 

कोहबर की रस्में पूरी होते-होते अब तारा की विदाई की घड़ी आ चुकी थी।

 

आँसू भरी आँखों के साथ अपने परिवार के एक-एक सदस्य से विदा लेते हुए जब तारा राघव के सामने आई तब यकायक उसके हाथों को अपने हाथों में थामते हुए राघव अपनी रुलाई रोक नहीं पाया और बच्चों की तरह फूट-फूटकर रो पड़ा।

 

उसका रोना इतना तेज़ हो गया था कि मिसेज माथुर को भी अपने आँसू भूलकर राघव को सँभालने आगे आना पड़ा।

 

राघव को शांत करने की कोशिश करते हुए यश ने कहा, “अरे राघव बाबू, तुम्हारी दोस्त ने मुझसे विवाह किया है, उसे कोई कालापानी की सज़ा नहीं मिली है इसलिए प्लीज अब तुम अपने आँसू पोंछ लो वर्ना...।”

 

“वर्ना क्या?” राघव ने किसी तरह ख़ुद को संयत करते हुए कहा तो यश बोला, “वर्ना तुम्हारा साथ निभाने के चक्कर में अगर आँसुओं से तारा का मेकअप धुल गया तो मुझे विवाह के वचन भूलकर हनुमान चालीसा का जप करना पड़ेगा।”

 

इस मज़ाक पर जब राघव हँस पड़ा तो उसे आँखें दिखाते हुए तारा बोली, “यश के कान खींचने की जगह तुम हँस रहे हो? जाओ आज से तुम्हारी मेरी कट्टी।”

 

“नहीं तारा प्लीज। लो मैंने अपने कान पकड़े।” राघव ने घबराते हुए कहा तो उसे गले लगाकर तारा बोली, “अपना ध्यान रखना, समझे।”

 

हामी भरते हुए राघव ने अविनाश के साथ मिलकर उसे गाड़ी में बैठाया ही था कि तभी उतरते हुए तारा ने भीड़ में लीजा के साथ छिपने का प्रयास करती हुई जानकी की तरफ देखते हुए उसे अपने पास बुलाया।

 

जब वो दोनों आगे आईं तब तारा ने देखा आँसुओं के कारण उन दोनों का काजल भी फैला हुआ था।

 

उसने पहले लीजा को गले लगाते हुए कहा, “तुम्हारी दोस्ती मेरे लिए हमेशा खास रहेगी। जल्दी ही फिर से मिलेंगे ढ़ेर सारी मस्ती करने के लिए।”

 

हामी भरते हुए लीजा ने जब उसके आँसू पोंछे तब तारा ने जानकी की तरफ देखा।

जानकी ने भी आगे बढ़कर जब उसे गले लगाया तो तारा बोली, “छिपकर क्यों खड़ी थी? वापस आने दो मुझे बहुत मारूँगी मैं तुम्हें और सैलरी काटने के साथ-साथ ओवरटाइम भी करवाऊँगी वो भी फ्री में।”

 

“मैं उस दिन का इंतज़ार करूँगी तारा।” जानकी ने आँसुओं के बीच मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा तो उसके गाल थपथपाकर तारा यश के साथ गाड़ी में बैठ गई।

 

रात भर के जागरण और थकान के कारण राघव सुबह से ही बिना कुछ खाए-पिए बस बेसुध सा अपने कमरे में सोया हुआ था।

वो जब भी जागने की कोशिश करता था तब उसे ऐसा महसूस होता था जैसे वो वर्षों से नहीं सोया है और एक बार फिर उसकी आँखें नींद से भारी होकर बंद हो जाती थीं।

 

अंततः शाम के छः बजे जब उसकी बेहोशी टूटी तब पहले उसे तारा की याद आई।

उसने सोचा वो उसे एक बार फ़ोन करे लेकिन फिर ये ख़्याल अपने दिल से निकालते हुए उसने अपने मोबाइल की गैलरी खोल ली जहाँ उसने पिछली रात चोरी-छिपे खींची गई जानकी की अनेकों तस्वीरें सेव कर रखी थीं।

 

उसकी तस्वीरों को निहारते हुए अचानक राघव ने जानकी का नंबर डायल कर दिया।

 

घंटी पर घंटी बजती रही लेकिन जब जानकी ने फ़ोन नहीं उठाया तब वो कुछ घबरा सा गया।

 

फिर उसने मार्क को फ़ोन किया तब मार्क ने कहा, “जानकी घर पर ही है। वो शायद अब भी सो रही है इसलिए उसने फ़ोन नहीं उठाया होगा।”

 

मार्क ने जब राघव के सामने गंगा आरती देखने चलने की पेशकश रखी तो अकेले बोर हो रहे राघव ने तुरंत ‘हाँ’ कहते हुए उसे घर बुला लिया।

 

गंगा किनारे बैठे हुए राघव और मार्क एकटक अनगिनत जलते हुए दीपों को मंत्रमुग्ध से देख रहे थे कि तभी मार्क ने कहा, “राघव बाबू, तुमने कभी किसी से प्रेम किया है? ऐसा प्रेम जिसमें कोई अपेक्षा न हो, कोई उम्मीद न हो, बस प्रेम हो और कुछ नहीं।

जैसा की कामायनी में जयशंकर प्रसाद जी लिखते हैं...

इस अर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है,

मैं दे दूँ फिर कुछ न लूँ इतना ही सरल झलकता है।”

 

मार्क से प्रेम की इतनी गहरी व्याख्या सुनते हुए राघव सोच में पड़ गया था।

आज तक वो यही समझता आया था कि गोरे-फिरंगी लोगों के जीवन में प्रेम का, जीवनसाथी का कोई महत्व नहीं होता है। वो बस तब तक ही किसी रिश्ते में रहते हैं जब तक उनका जी नहीं ऊबता या उनकी ज़रूरतें पूरी होती रहती हैं।

जिस दिन उन्हें महसूस होता है कि कोई रिश्ता उनकी महत्वकांक्षाओं की राह में बाधक बन रहा है वो बेरहमी से उसे तोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। भारतीयों की तरह हर परिस्थिति से तालमेल बिठाते हुए एक रिश्ते को अपनी आख़िरी साँस तक निभाना उनके वश में ही नहीं होता है।

 

“क्या सोचने लगे तुम?” मार्क के टोकने पर राघव ने कहा, “तुम्हें हिंदी साहित्य में भी रुचि है क्या?”

 

“हाँ बहुत। जब से मैं बनारस आया हूँ मैंने काफ़ी किताबें पढ़ी हैं और बहुत कुछ जाना-समझा है, बहुत कुछ जानने की ओर अग्रसर हूँ लेकिन तुमने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया।” मार्क ने गहरी नज़रों से देखते हुए पूछा तो राघव के ज़हन में पहले वैदेही का ख़्याल आया लेकिन उसने महसूस किया कि उसे वैदेही से बहुत सारी उम्मीदें हैं, अपेक्षाएं हैं और वो चाहता है वैदेही उसकी इन अपेक्षाओं पर खरी उतरे इसलिए वो ये नहीं कह सकता कि उसका प्रेम नि:स्वार्थ है।

 

फिर अचानक राघव के आगे जानकी की छवि उभर आई और उसने महसूस किया कि जानकी की छोटी-छोटी खुशियों के लिए, उसके चेहरे पर मुस्कुराहट देखने के लिए आज तक उसने जो भी किया था उसके बदले उसने जानकी से कभी कुछ नहीं चाहा है, बस पता नहीं उसे जानकी से कैसा मोह हो गया है कि वो उसके चेहरे पर, या उसके आस-पास दुःख की परछाई भी नहीं देखना चाहता है।

 

“तो क्या मार्क के प्रश्न का उत्तर जानकी है?” राघव ने आश्चर्य में भरकर ख़ुद ही ख़ुद से पूछा लेकिन इससे पहले कि वो किसी निष्कर्ष पर पहुँचता, मार्क ने कहा, “चलो जाने दो। फिर कभी बताना मुझे। आओ फ़िलहाल गंगा के उस पार चलते हैं, थोड़ी देर रेत से अपने सपनों का घर बनाएंगे।”

 

“चलो।” राघव ने वहीं पास में एक नाव वाले को संकेत करते हुए कहा जो बस अपनी नाव का लंगर खोलने ही वाला था।

 

मार्क के साथ गंगा की लहरों में डोलते हुए जब राघव दूसरे किनारे पर पहुँचा तब लोगों की भीड़ से दूर एक तरफ मार्क ने अपना एक छोटा सा घरौंदा बनाया।

उसकी देखा-देखी राघव भी अपना घरौंदा बना ही रहा था कि तभी एक दौड़ते हुए बच्चे की ठोकर से उसका घरौंदा थोड़ा सा टूट गया।

 

मार्क ने तुरंत उस टूटे हुए हिस्से को दुरुस्त करते हुए कहा, “डोंट वरी राघव बाबू, तुम्हारे दोस्त कभी तुम्हारे सपनों का घर बिखरने नहीं देंगे।”

 

मार्क के इन शब्दों को सुनकर राघव को ऐसा महसूस हुआ जैसे इस बात का कोई और अर्थ है जिसे वो समझ नहीं पा रहा है।

वो मार्क से इस विषय में कुछ पूछता कि तभी नाव वाले ने वापस घाट किनारे चलने के लिए उन दोनों को आवाज़ दी।

 

नाव की तरफ बढ़ते हुए मार्क ने अचानक बातचीत की दिशा लुंबिनी वाले गेम की तरफ मोड़ दी तो राघव तन्मयता से इस लाइव रिव्यू को सुनने लगा।

 

सहसा उसे याद आया कि उसने जानकी से कहा था कि जब ये गेम बनकर तैयार हो जाएगा तब वो उसे इस गेम को खेलना सिखाएगा।

 

आने वाले वीकेंड पर जानकी के साथ वीडियो गेम खेलने की योजना बनाते-बनाते राघव अभी अपने घर पहुँचा ही था कि तभी उसके मोबाइल की घंटी बजी।

 

स्क्रीन पर जानकी का नाम देखते ही राघव ने फ़ोन उठाते हुए कहा, “बहुत लंबी उमर होगी तुम्हारी, अभी मैं तुम्हें ही याद कर रहा था।”

 

“अच्छा, क्यों?” जानकी ने उत्सकुता से पूछा तो राघव ने उसे वीडियो गेम वाली बात याद दिलाई।

 

“अब तो मुझे भी वीकेंड का इंतज़ार रहेगा।”

 

जानकी को उत्साहित देखकर राघव को भी अच्छा लगा और अगले दिन दफ़्तर में उससे मिलने की बात कहकर उसने फ़ोन रख दिया।