लच्छू को रोता हुआ देखकर लखनलाल घबरा गया और उसने उसके पास जाकर उसे झकझोरते हुए पूछा...
"का हुआ हमारी फागुनिया को,तू कुछ बोलता काहे नहीं है",
"अब मैं क्या बोलूँ लखन! तू खुद ही चलकर देख ले कि वो किस हालत में है",लच्छू रोते हुए बोला...
"क्या बक रहा है तू!",लखनलाल जोर से चीखा...
"मैं सच कहता हूँ लखन! हमारी फागुनिया अब इस दुनिया में नहीं रही"ऐसा कहकर लच्छू दोबारा दहाड़े मार मारक रोने लगा...
लच्छू की बात सुनकर लखनलाल अवाक् रह गया,अब उसके होश गुम हो चुके थे,वो चक्कर खाकर गिरने को हुआ तो जयन्त ने उसे सम्भाल लिया और फिर जयन्त और लच्छू लखन को लेकर उस जगह पर गए जहाँ फागुनिया की लाश पड़ी थी,लाश देखकर ऐसा लगता था कि जैसे उसके साथ दुष्कर्म हुआ हो,क्योंकि जगह जगह से उसके कपड़े फटे हुए थे,उसके मुँह पर पट्टी थी और अभी भी उसके हाथ पैर बँधे हुए थे, लाश बुरी तरह से लहुलुहान थी,किसी ने उसके साथ दुष्कर्म करके उसका खून करके उसकी लाश को झाड़ियों में फेंक दिया था,सुबह सुबह किसी का पालतू कुत्ता उस ओर गया था और लाश देखकर जोर जोर से भौंकने लगा,तब उस कुत्ते के मालिक ने वहाँ पर जाकर देखा तो उसे वहाँ किसी लड़की की लाश मिली और उसने फौरन ही पुलिस को खबर की,फिर बात फैलते फैलते लच्छू तक पहुँची और वो लाश देखने गया जो कि वो लाश फागुनिया की निकली....
फिर उसने फौरन आकर लखन को बताया,फागुनिया की लाश देखकर लखनलाल खुद पर काबू ना कर सका और दहाड़े मार मारकर रो पड़ा,जयन्त और लच्छू ने उसे बड़ी मुश्किलों से सम्भाला,कुछ देर के बाद पुलिस लाश को अपने साथ लेकर चली गई,जब लाश का पंचनामा हो गया तो पुलिस ने लखनलाल को फागुनिया की लाश वापस लौटा दी,लखनलाल ने जैसे तैसे अपने दिल पर पत्थर रखकर फागुनी का अन्तिम संस्कार किया,जयन्त से लखनलाल का दुख नहीं देखा जा रहा था और वो एक पेड़ के पास आकर फूट फूटकर रो पड़ा,लच्छू ने जयन्त को रोता हुआ देखा तो वो उसके आकर उससे बोला.......
"मत रोओ बाबूजी! हम गरीबों को तो ऐसे दुख सहने की आदत होती है,शायद हम गरीबों का दुख से बहुत गहरा नाता होता है,तभी तो हम गरीब लाख कोशिश कर लें,लेकिन हमारे दुख खतम ही नहीं होते",
"क्या करूँ लच्छू! मैं खुद को सम्भाल नहीं पा रहा हूँ,आखिर हूँ तो इन्सान ही ना!", ये कहते हुए जयन्त की आँखें भर आईं....
"जब आप ये दुख नहीं सम्भाल पा रहे हैं तो जरा लखन के बारें में सोचिए,वो कैंसे खुद को सम्भाल पा रहा होगा,जवान बेटी गई है उसकी,सोचिए जरा कि उसके दिल पर क्या बीत रही होगी",लच्छू दुखी होकर बोला....
"हाँ! पागल सा हो गया है बेचारा! मुझसे तो उसकी हालत देखी नहीं जाती",जयन्त दुखी होकर बोला....
"लेकिन बाबूजी! अब ये समझ में नहीं आ रहा है कि आखिरकार ये किसका काम हो सकता है,किसने किया है ये घिनौना काम",लच्छू बोला...
"हाँ! मैं उस पापी के बारें में जरूर बता लगाऊँगा,उसे तो मैं जिन्दा नहीं छोड़ूगा",जयन्त बोला....
"हाँ! बाबूजी! ये काम आप ही कर सकते हैं",लच्छू बोला....
"वैसे मुझे अन्दाजा तो है कि ये घिनौना काम किसने किया होगा,लेकिन बिना सुबूत के मैं उसे सबके सामने कुसूरवार साबित नहीं कर सकता",जयन्त बोला....
"बाबूजी! अब आप घर जाइए,कल रात से आप हम लोगों के साथ हैं,घर जाकर स्नान करके कुछ खाकर आराम कीजिए",लच्छू ने जयन्त से कहा....
"लेकिन लखनलाल....",जयन्त बोला....
"उसे मैं सम्भाल लूँगा,मैं उसे स्नान करवाकर अपने घर ले जाता हूँ,वो वहीं खाकर आराम कर लेगा,आप उसकी चिन्ता ना करें,आप अभी अपने घर जाएँ",लच्छू बोला....
"ठीक है तुम लखनलाल का ख्याल रखना",जयन्त बोला...
"हाँ! मैं सब देख लूँगा",लच्छू बोला....
"ठीक है तो मैं चलता हूँ",
और ऐसा कहकर जयन्त अपने घर आ गया,घर पहुँचा तो रात होने को थी,उसे घर से बाहर गए हुए पूरे चौबीस घण्टे हो चुके थे,तब उसकी माँ नलिनी ने उससे गुस्से में पूछा......
"कहाँ गया था तू? तेरे बाबूजी तुझे पूछ रहे थे"
"लखनलाल की बेटी खो गई थी,उसी को ढूढ़ने गया था",जयन्त दुखी मन से बोला...
"तो मिली वो?",नलिनी ने पूछा...
जयन्त ने अपनी माँ नलिनी के सवाल का जवाब देते हुए कहा....
"हाँ! मिली ना माँ! किसी पापी ने उसके साथ दुष्कर्म करके उसकी लहूलुहान लाश को झाड़ियों में फेंक दिया था,उसका क्रिया कर्म करके लौट रहा हूँ,मन तड़प रहा है मेरा,चैन नहीं है इस दिल में,दिमाग़ में उथलपुथल मची हुई है,कहाँ शान्ति पाऊँ..... माँ! मेरा मन घबरा रहा है,कोई किसी लड़की के साथ ऐसा कैंसे कर सकता है,वो कितना रोई होगी,चीखी होगी चिल्लाई होगी,ये सब सोच सोचकर मेरा मन घुटा जा रहा है,ऐसा मैं क्या करूँ माँ ! कि मेरे बेचैन मन को चैन मिल जाएँ",
जयन्त का दर्द देखकर उसकी माँ नलिनी भी तड़प उठी और जयन्त से बोली....
"बेटा ! जब तू इतना तड़प रहा है तो जरा उस बाप के बारें में सोच,जिसकी वो बेटी थी,वो बाप तो जिन्दा लाश बन चुका होगा अपनी बेटी के ग़म में,ना जाने बेचारे गरीबों के साथ ही ऐसा क्यों होता है",
"माँ! लेकिन मैं उस पापी को जिन्दा नहीं छोड़ूँगा, जिसने ये घिनौना काम किया है",जयन्त गुस्से से बोला...
"तुझे इन सब चक्करों में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है,उसके लिए पुलिस है ना!",नलिनी ने जयन्त से कहा...
"माँ! तुम ये कैंसी बातें कर रही हो,किसी की जान चली गई है और तुम्हें जरा भी फरक नहीं पड़ रहा है", जयन्त ने आँखें बड़ी करते हुए कहा....
"तू अपने बाबूजी को अच्छी तरह से जानता है ना! उन्हें इस बात की भनक भी लग गई ना तो वो तेरा जीना मुहाल कर देगें",नलिनी जयन्त से बोली....
"माँ! अभी मैं तुमसे कोई बहस नहीं करना चाहता,मैं स्नान करने जा रहा हूँ,नहाकर आराम करूँगा,अगर जरा सी भी दया है मेरे लिए तुम्हारे मन में, तो बाद में कृपया करके एक कप चाय भिजवा देना मेरे लिए"
और ऐसा कहकर जयन्त नहाने चला गया,वो नहाकर वापस आया तो उसकी बहन सुहासिनी उसके कमरे में चाय रख गई,उस रात जयन्त ने खाना नहीं खाया वो केवल एक प्याली चाय पीकर ही सो गया और सुबह तैयार होकर वो काँलेज की ओर निकल पड़ा और वहाँ जाकर उसे पता चला कि रात को लखनलाल ने अपनी झोपड़ी के बगल वाले पेड़ से फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली है.....
लखनलाल की आत्महत्या की बात उसके लिए असहनीय थी,उसने नहीं सोचा था कि लखनलाल इतना टूट चुका था कि वो आत्महत्या कर लेगा,वो लखनलाल के अन्तिम संस्कार में पहुँचा,जहाँ लोग आपस में ये बातें कर रहे थे कि ये सब जयन्त बाबूजी की वजह से हुआ है,अगर वे लखनलाल के लिए सुमेर सिंह से ना उलझते तो आज फागुनी और लखनलाल दोनों ही जिन्दा होते,उन्होंने सुमेर सिंह से दुश्मनी मोल ली ,इसलिए सुमेर सिंह ने फागुनी को घर से उठवा लिया और अब फागुनी के ग़म में लखनलाल ने भी आत्महत्या कर ली, ये सब बातें सुनकर जयन्त भीतर से टूट गया,उसकी आत्मा छटपटाने लगी,एक तो उसने चौबीस घण्टों से ज्यादा वक्त बीत जाने पर खाना भी नहीं खाया इसलिए वो चक्कर खाकर धरती पर गिर पड़ा....
क्रमशः....
सरोज वर्मा....