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आशिमा और अनिकेत के आने से घर में एक खुशी और उत्साह का वातावरण बन गया था| आज तो अनिकेत और मनु में ऐसे बातें हुईं जैसे वे दोनों न जाने कितने पुराने दोस्त हों| रेशमा भी बहन और जीजा जी से बातें करके बहुत खुश थी | अगले दिन रात डेढ़ बजे की फ़्लाइट थी| सब लोग हवाई अड्डे पर पहुँच गए थे जबकि वहाँ अधिक बैठने का समय नहीं मिला| अनिकेत के माता-पिता व बहन भी आए थे| सबने एक-दूसरे को घर आने का निमंत्रण दिया| सब बड़े प्रसन्न व संतुष्ट थे|
आशिमा की शादी से निश्चिंत हुए दीना लेकिन अब उन्हें आशी की और अधिक चिंता सताने लगी| आशी किसी न किसी तरह अपनी शादी के लिए तैयार हो जाए तो वे रेशमा के बारे में भी कुछ सोचें| आशी आशिमा से बड़ी थी, उसकी शादी पहले होनी चाहिए थी लेकिन वे कहाँ कुछ भी कायदे से कर पा रहे थे| यह सच था कि आशिमा की शादी ने उन्हें मानसिक रूप से थोड़ा स्वस्थ कर दिया था और वे सोच रहे थे कि ईश्वर ने ज़रूर ही कुछ अच्छा सोचा होगा सबके लिए| इतना विश्वास होते हुए भी वे लड़खड़ा तो जाते ही!मन कमजोर पड़ता तो शरीर भी कमजोर पड़ने लगता|
एक दिन उन्होंने फिर से बेटी को समझाने की कोशिश की| उन्होंने आशी को बुलवाया, वह आ गई यह बड़ी बात थी वरना वह अपने मन की रानी थी, उसे आना होता तो आती, नहीं आना होता तो कहलवा देती कि आराम से आएगी|
“बेटा!मेरी बात समझने की कोशिश करो, जीवन में सब कुछ ज़रूरी है | एक साथी की ज़रूरत सबको होती है | ”
“सबकी अपनी-अपनी जरूरतें होती हैं पापा, मुझे नहीं है किसी की ज़रूरत—”आशी ने सपाट स्वर में उत्तर दिया|
“अच्छा, न सही मनु , कोई भी जिसे तुम चाहो---”दीनानाथ सोच रहे थे कि माँ होती तो सब कुछ उससे आसानी से उगलवा लेती| उनसे तो वह वैसे ही ढंग से बात नहीं करती तब----
“नहीं पापा। कोई अगर कोई और हो तो मनु क्यों नहीं? सवाल मनु का या किसी और का नहीं है , सवाल है मेरी इच्छा का| मुझे किसी मर्द के सहारे की ज़रूरत महसूस नहीं होती| ”
“मुझे होती है बेटा, मैं कितना अकेला महसूस करता हूँ| मुझे कुछ हो जाएगा तो तुम्हें कोई पूछने वाला भी नहीं होगा| ”वे दुखी होकर बोले|
“वैसे मेरे पूछने वालों ने मेरी कितनी परवाह की है? मेरी माँ जिसने मुझे जन्म दिया और आप जिसने मुझे बड़ा किया, आप लोगों ने मेरी कैसी और कितनी परवाह की है जो पति करेगा? न, पापा मुझे तो इन झंझटों से दूर ही रखिए| ”वह फिर से उखड़ने लगी थी|
“मेरे बारे में भी तो सोचो, मैं फिर से बीमार हो जाऊँगा| वैसे ही ईश्वर इतनी परीक्षाएं लेने पर तुला हुआ है| ” उन्होंने दुखी होकर कहा|
“तुम मनु को कितनी अच्छी तरह जानती हो, वह तुम्हारा और तुम उसका स्वभाव जानते हो| और हम सब यह भी जानते हैं कि तुम दोनों एक-दूसरे को बचपन से पसंद भी करते हो| ऐसा अच्छा और शरीफ़, समझदार , होशियार लड़का----”वे चुप होकर उसके चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगे|
“तुम्हें भी सहारा मिल जाएगा और मुझे भी, आखिर सहगल के कितने अहसान हैं मुझ पर--!”
“तो उसके लिए मुझे लटका दीजिए, यह आपकी प्रॉब्लम है, मैं इसमें कुछ नहीं कर सकती| सॉरी—”
वैसे उसके सामने सहगल अंकल , आँटी का ममता, स्नेहपूर्ण, वत्सल्यमय चेहरा नाच उठा| वह जानती थी कि आँटी तो उससे निराश ही हो चुकी थीं फिर भी उन्होंने अपने बच्चों के साथ उसके लिए भी कितने प्यार से तैयारी कर रखी थी| आखिर क्यों? उसका मन अचानक डांवाडोल सा हुआ| सोचा, अगर पापा फिर से पूछेंगे तो—
“सोचो बेटा, तुम कोई गुड़िया तो हो नहीं, न ही चारपाया हो कि ज़बरदस्ती तुम्हें बांध दिया जाए| तुम शुरू से ही आज़ाद रही हो| मुझे फख्र है कि आज के जमाने में भी मेरी बच्ची ने अपनी आज़ादी का कोई गलत फ़ायदा नहीं उठाया| मगर मैं अपने कर्तव्य से भी तो मुक्त हो सकूँ न! ऊपर जाकर तेरी माँ को क्या जवाब दूँगा? ”
“पापा!माँ का नाम क्यों ले रहे हैं? उनका और आपका क्या तय हुआ था मुझे नहीं पता---प्लीज़ ! मुझे कुछ समय और दीजिए| अगले हफ़्ते बात करते हैं---अब मैं जाऊँ? मैंने आज रेशमा को घुमाने ले जाने का वायदा किया है| ”
“ठीक है, जाओ तुम लोग---मगर प्लीज़ मेरी बात पर गौर करके देखना ज़रा| ”उन्होंने आशी से कहा|
उस पूरी रात आशी को नींद नहीं आई| आखिर उसके साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है? अब तो वह जान-बूझकर कुछ नहीं कर रही, पापा की बात पर सोचना चाहती है मगर जाने क्यों उसका मन पापा की बात पर गौर नहीं कर पाता| विवाह की बात पर उसकी बुद्धि ही कुंद हो जाती है, कोई रुझान ही नहीं है उसका विवाह के प्रति! हर प्रकार से समर्थ होते हुए भी पापा ने कितनी परेशानियाँ झेली हैं और आज भी अकेले ही न जाने कितनी परेशानियों का सामना कर रहे हैं!
वह उनकी पीड़ा समझना चाहती है लेकिन समझ नहीं पाती| उनका कष्ट बाँटना चाहती है लेकिन नहीं बाँट पाती| पापा के प्रति उसका मन नरम होना चाहता है लेकिन न जाने क्यों उसे गुस्सा आ जाता है, करे भी तो क्या? पापा के और उसके बीच में न जाने ऐसा क्या पत्थर सा अड़ जाता है कि कितनी कोशिश करे हटाए नहीं हटता| वह अपनी कोशिश के दूसरी ओर मुड़ जाती है और फिर से एक नकारात्मकता ओढ़कर दूसरी ओर चल देती है| उसने धीरे से अपने कमरे का दरवाज़ा खोला और धीरे से मुँह बाहर निकालकर उस लंबी सी बॉलकनी में झाँका| बॉलकनी की मद्धम रोशनी में अपने चिर-परिचित स्थान पर खड़े दीनानाथ ऊपर से अपनी सोनी के प्यारे बगीचे को देख रहे थे| उसने धीरे से अपना मुँह अंदर लेकर कमरे का दरवाज़ा बंद कर दिया| उसके हाथ की रेडियम की घड़ी में चमचमाते नंबर ढाई बजे दिखा रहे थे|
‘ओह पापा!’उसे बेचैनी सी होने लगी और वह अपने बिस्तर पर लेटकर करवटें बदलने लगी|