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आचार्य दीवान चन्द जी ने स्नातकोतर की उपाधि प्राप्त कर ली थी। इसलिए उच्च कक्षाओं के छात्रों को पढ़ाने का कुछ उत्तरदायित्व भी उन्हें सौंप दिया गया था। परन्तु जितना आनंद और संतोष उन्हें छोटी कक्षाओं के छात्रों को पढ़ाने में आता था उतना शायद ही किसी दूसरे भले काम में आता हो। इसलिए उनकी प्राथमिकता सदैव यही रहती थी कि उन्हें ज्यादा से ज्यादा समय छोटी कक्षाओं को पढ़ाने के लिए मिले। दूसरे वह बच्चों के साथ प्यार बाँट कर अपना गम भूलाना चाहते थे। वह बच्चों में मनुष्य का वह पवित्र स्वरूप देखते थे जिसमें सस्कारों का समावेश बड़े सहज और आात्मीय ढंग से किया जा सकता था। उनकी धारणा पुरातन काल के उन गुरुओं के समान हो गई थी जो गुरुकुल में अपने शिष्यों को वह सारा ज्ञान का भंडार समर्पित कर देते थे, जिसे उन्होंने अपने पूर्ण जीवन की तपस्या से अर्जित किया होता था। उनके लिए प्रतिदिन एक नया सवेरा होता था जो अपने साथ भविष्य की चुनौतियाँ लेकर आता था और शाम खत्म होती थी उन चुनौतियों के समाधान के संकल्प के साथ। खाली, नीरस, बेकार और आलस्य भरा जीवन उनके लिए विपरीत शब्द बन चुके थे। जीवन की गाड़ी दिनचर्या की पटरी पर बड़े आराम से गुजर रही थी।
दूसरी ओर कौशल्या भी रामायण जी की कौशल्या बनकर अपने धर्म को पूर्ण रूप से निभा रही थी। पति सेवा में तल्लीन रहना उसकी एक जीवन शैली बन चुकी थी। शायद पति के मानसिक बोझ को हलका करने का उसका यह एक तरीका भी हो। वह अपने पति को अकेलेपन का एहसास नहीं होने देना चाहती थी, क्योंकि अकेलापन तो नकारात्मक सोच की जड़ होता है। ऐसे में उन्हें अपने बच्चें की याद आना स्वाभाविक ही था। घर-गृहस्थी के छोटे-मोटे कार्यों और रसोई के काम से निवृत होकर वह आराम करने की अपेक्षा अभाव-ग्रस्त बच्चों को निशुल्क और निस्वार्थ भाव से पढ़ाने में अपना समय व्यतीत करती थी। अपने इस स्वभाव की वजह से पूरे मोहल्ले में काफी सम्मान की पात्र बन चुकी थी। माँ का हृदय लाख कोशिश करले तब भी मातृत्व की चिंगारी कभी न कभी अपनी तपिस लिए बुझे मन को सुलगाने के लिए उद्यत हो ही जाती है।
एक दिन आचार्य दीवान चन्द जी स्कूल से छुट्टी करने के पश्चात् जब घर पहुँचे तो उन्हें कौशल्या का मन कुछ उखड़ा हुआ सा प्रतीत हुआ। उसके चेहरे पर वह भाव नहीं थे जो हमेशा हुआ करते थे। उसे देखते ही आचार्य जी समझ गए कि आज इसे जरूर बच्चे की याद आ रही होगी। इसलिए अपने चेहरे पर प्रसन्नता की मुद्रा लाकर बोले:
‘कौशल्या, पता नहीं मेरे मन का भ्रम है या सच्चाई आज तुम्हारा चेहरा पहले से कहीं अधिक सुन्दर लग रहा है। भई हमें भी तो पता चले आज बात क्या है?’
पति की बात सुनकर कौशल्या ने फीकी हँसी के साथ अपनी गर्दन हिलाई और बोली:
‘आपको भी आज इस बुढ़ापे में मजाक सूझ रहा है। मुझे तो लगता है कि सुन्दरता का भूत आज आप पर भी भारी पड़ रहा है। आज यह मजाक करने की अचानक कैसे सूझी है आपको?’
‘मैडम, सच तो सच ही होता है। उसे झूठ थोड़े न कहा जा सकता है।’ आचार्य जी आराम कुर्सी पर बैठते हुए बोले।
कौशल्या मुस्कुराती हुई उठी और रसोई में से ठण्डे पानी का गिलास भरकर आचार्य जी को पकड़ाती हुई बोली:
‘लो, ठण्डा पानी पी लो, इससे दिमाग में आया हुआ भूत भाग जाएगा।’
पत्नी की बात सुनकर दीवान चन्द जी ठहाका मार कर हँसे। वह कुर्सी से उठे और कोने में जाकर पैरों में पहनी गुरगाबी उतारी और पानी का गिलास पत्नी से पकड़ते हुए पुनः कुर्सी पर बैठ गए। पानी पीने की बजाय उन्होंने गिलास नजदीक पड़ी हुई तिपाई पर रख दिया। कौशल्या उनके बगल में चारपाई पर बैठती हुई बोली:
‘क्या बात है, पानी नहीं लोगे?’
‘एकदम पीने से पानी गले में लगेगा, थोड़ा आराम करके लूँगा।’ वह बोले।
‘थोड़ा दूध गर्म कर दूँ?’ कौशल्या ने फिर प्रश्न किया।
‘नहीं, इससे तो बेहतर है तुम नींबू पानी बना दो।’ वह पानी का गिलास कौशल्या को पकड़ाते हुए बोले।
कौशल्या गिलास लेकर रसोई में चली गई और नींबू पानी बनाने लगी। आचार्य जी ने टाँग पर टाँग रखी और आँखें मूँदकर कुर्सी पर पसर गए। कौशल्या दो गिलास नींबू पानी बनाकर रसोई से बाहर आई तो उन्हें देखकर बोली:
‘क्या बात है, नींद आ रही है क्या?’
‘नहीं.........नहीं............नींद किस बात की? बस यूँही आँखें बंद किए सोच रहा था।’ वह आँखों पर हाथ में पकड़ा हुआ सफेद कपड़ा फेरते हुए बोले।
‘देखो जी! बनने की कोशिश मत किया करो। अभी-अभी मेरा मन रखने के लिए झूठ का सहारा ले रहे थे और अब स्वयं भी उसके भंवर में डोलने लगे हो। मैं तो भला ठहरी स्त्री जात, पुत्र वियोग की पीड़ा का एहसास कभी न कभी होना स्वाभाविक है। परन्तु आप भी अगर इस प्रकार डोलने लगे तो फिर चल ली हमारे जीवन की गाड़ी। आखिर मुझे सहारा देने के लिए आपको अपने कर्तव्यों का पालन अवश्य करना पड़ेगा। आप उनसे विमुख नहीं हो सकते। पुरुष तो शक्तिमान का प्रतीक है, फिर उसमें भय और सोच किस बात की? खैर मैं भी किस बात को ले बैठी। शायद दोष हम दोनों का है? हम अपने धर्म-कर्म और कर्तव्यों से विमुख होते जा रहे हैं। शायद शहर की गर्म हवा ने हमें ठण्डे विचार से सोचने के काबिल ही न रखा हो? आप यह तो अच्छी प्रकार से जानते हो कि भगवान में आस्था का दूसरा नाम ही धर्म है और उस परमात्मा में आस्था ही मनुष्य को बड़ी से बड़ी विपत्तियों को सहन करने की शक्ति प्रदान करती है। क्यों न हम कुछ दिनों के लिए इस ताम-झाम को छोड़कर धर्मिक स्थलों की यात्रा पर चलें? इससे एक तो मन में आए फिजूल के विचार दूर होंगे और दूसरे उस प्रभु के चरणों में जाने का एक सुअवसर भी प्राप्त होगा। देव को माँगने के लिए भी तो हम उस परमात्मा के द्वार पर ही तो गए थे और उसने हमारी अर्ज सुन भी ली थी। परन्तु पता नहीं हमारे अंदर ही कोई खोट था या पूर्व जन्म के कर्मों का फल जो उसने इतनी जल्दी उसे हम से छीन लिया। परन्तु मैंने धर्म ग्रन्थों में पढ़ा है कि प्रभु के चरणों में पश्चात्ताप करने से बिगड़े काम बन जाते हैं। अब अगर बेटा नहीं मिलेगा तो कम से कम हम अपने पूर्वकृत कर्मों से छुटकारा पाने के लिए आराधना तो कर सकते हैं। आप बताओ, आपका क्या विचार है?’
कौशल्या अपने मन ही मन विचारों में खोई हुई बोले जा रही थी। उसे यह भी ख्याल नहीं आ रहा था कि वह क्या बोल गई है और दूसरा पक्ष उसे सुन भी रहा है कि नहीं? आचार्य जी आँखें बंद किए पत्नी की बातों को बड़े ध्यान से सुने जा रहे थे। कौशल्या को सहसा ध्यान आया कि वह बोले जा रही है और पतिदेव की ओर से कोई हुँकारा नहीं आ रहा है। उसने गर्दन ऊपर उठाकर उनकी ओर देखा, वह तो आँखें बंद किए बैठे थे। वह झुँझला कर बोली:
‘मैंने क्या कहा? सुना है आपने?’
‘बिल्कुल सुना है। परिवार में धर्म-कर्म की डोर स्त्री के हाथ में होती है। पुरुष तो बेचारा इस मामले में स्त्रियों के आदेशानुसार अनुसरण करता है। यह प्रकृति का विचित्र नियम है। यहीं पर पुरुष स्त्री से मात खा जाता है।’
‘बस-बस रहने दीजिए। इतनी ज्यादा हवा देनी भी ठीक नहीं होती। आप पहले मेरी बात का जवाब दीजिए, बाकी दार्शनिकता की बातें बाद में कर लेना।’ कौशल्या पति को बीच में ही टोकती हुई बोली।
‘कौशल्या, तुम भी बड़ी अजीब बात करती हो। भला बताओ मैंने आज तक कभी तुम्हें किसी बात से इंकार किया है, जो आज करूँगा। धार्मिक जगहों पर जाना एक अच्छी बात है। इससे न केवल मन को शाँति ही मिलती है बल्कि आत्मिक ज्ञान और संस्कारों में भी वृद्धि होती है। तुम सोच लो, तुम्हारा मन कहाँ पर चलने को कहता है, फिर मुझे बता देना। उसके अनुसार कार्यक्रम बना लेंगे।’ आचार्य जी पत्नी की ओर देखते हुए गम्भीर मुद्रा में बोले।
‘सो तो आपकी बात ठीक है, परन्तु पहले यह तो बताओ आपके पास समय कितना है? कार्यक्रम तो उसी के अनुसार ही बनेगा।’ कौशल्या बॉल उन्हीं के पाले में फेंकती हुई बोली।
‘वाह-भई-वाह! तुम भी कमाल की हाजिर जवाब हो। इधर से शब्द निकला नहीं कि उधर से उत्तर तैयार। देखो कौशल्या अब भी निर्णय तुमने ही लेना है। अब चलने की इच्छा हो तो एक सप्ताह की छुट्टी ले सकता हूँ और अगर ग्रीष्म ऋतु अवकाश के दौरान चलना हो तो समय ही समय है। फिर मेरी ओर से चाहे पूरे भारत के तीर्थ स्थलों पर चलना।’ आचार्य जी पूरी बात को निपटाते हुए बोले।
‘हाँ, आप भी अपनी जगह ठीक ही कहते हो। लम्बी छुट्टियों के दौरान कईं स्थानों पर जा सकते हैं, परन्तु तब तक बहुत देर हो जाएगी। मन में उठे प्रश्न का समाधान यदि बहुत देर तक अटका रहे तो वह दिल और दिमाग दोनों को कटोचता रहता है। मुझे पल-पल भारी पड़ रहा है। मेरी मानों तो आप एक हफ्ते की छुट्टी ही ले लो, कहीं नजदीक तक जा आएंगे। कुछ न कुछ तो शान्ति मिलेगी मन को।’ कौशल्या अपने मन में दबी बात को उजागर करती हुई बोली।
‘अवकाश की तो कोई बात नहीं कौशल्या, अवकाश तो मैं ले लूँगा, परन्तु यह तो बताओ चलना किधर है?’
‘यहीं-कहीं नजदीक हरिद्वार, ऋषिकेश तक हो आएंगे।’ कौशल्या एक लम्बा साँस छोडती हुई बोली।
‘ठीक है।’ कहकर आचार्य जी उठकर चारपाई पर लेट गए और कौशल्या घर के काम में व्यस्त हो गई। दूसरे दिन आचार्य जी ने प्रधानाचार्य को पूरी बात बताते हुए एक सप्ताह के अवकाश के लिए प्रार्थना-पत्र दे दिया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर दिया। रविवार के दिन तैयारी करने के पश्चात् सोमवार सुबह दोनों पति-पत्नी हरिद्वार के लिए निकल पड़े। परन्तु हरिद्वार के लिए सीधी बस न पकड़कर उन्होंने नाहन, पांवटा साहिब और देहरादून के रास्ते चलने का मन बनाया, ताकि इस छोटी सी अवधि में कुछ और दर्शनीय व धार्मिक स्थानों को भी देखा जा सके। नारायणगढ़ से आगे काला अम्ब स्थान पर ज्योंही मार्कण्डेय दरिया को पार किया तो कौशल्या को ऐसा लगा मानो वह राजगढ़ के उन्हीं पुराने जंगलों में पहुँच गई हो जहाँ पर कभी वह रहा करते थे। शहर की भीड़ से दूर प्रकृति के आगोश में पहुँच कर उसके दुःखते मन को कुछ सुकून मिला। उसने धीरे से गर्दन घुमाकर आचार्य जी की ओर देखा और बोली:
‘देखो, यह जगह बिल्कुल अपने राजगढ़ की तरह लगती है।’
‘हाँ।’ आचार्य जी धीरे से बोले। उन्हें शक था कि यदि वह इस विषय पर ज्यादा बोले तो कहीं पुरानी यादें ताजा होकर कौशल्या की दुःखती रग पर नमक का काम न करें। इसलिए वह यह विषय बदलकर और बातें करने लगे। अब बस पहाड़ की चढ़ाई पर रेंग कर आगे बढ़नी शुरू हो गई थी। ईंजन का शोर इतना था कि बातें करने में भी विघ्न पड़ रहा था। कौशल्या ने अपना मुँह खिड़की की ओर घुमाया और ढलान में नीचे की ओर दूर तक फैले जंगल की ओर देखने लगी। नाहन शहर तक पहुँचने तक दोनों चुपचाप बैठे रहे। बस जाकर बस-अड्डे पर रुक गई। कौशल्या के लिए यह दृष्य कौतूहल से कम नहीं था। पहाड़ों के बीचों बीच समतल स्थान और दोनों और ढलानों पर बसा हुआ यह शहर, एकदम शाँत और स्वच्छ वातावरण लिए हुए था। उसका मन करने लगा कि क्यों न अम्बाला शहर को छोड़कर इस रमणीक स्थान पर बाकी की जिंदगी बितायी जाए। वह मुँह से तो कुछ नहीं बोली, परन्तु इस विचार ने उसके मन ही मन में घर कर लिया था। थोड़े ठहराव के पश्चात् बस पूर्व दिशा की ओर पहाड़ की ढलान पर नीचे की ओर उतरने लगी। कौशल्या की नज़र अचानक सामने पड़ी। वाह! क्या विहंग्म दृष्य है? बहुत दूर तक, नज़र के आखिरी छोर तक, जहाँ तक भी दृष्टि पहुँचती थी दून घाटी प्रकृति के आगोश में अपनी बाहें फैलाए हुए मानव को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी। जिसके बीचों बीच यमुना नदी अपने प्रचण्ड रूप में दिल दहलाने वाला दृष्य पेश कर रही थी। यमुना के जल प्रवाह को देखकर किसी अनकहे भय से कौशल्या ने अपनी दोनों आँखें बंद कर ली और अपना माथा अपने दोनों हाथों, जिन द्वारा उसने आगे की सीट के पीछे लगा लोहे का पाइप पकड़ रखा था, पर टिका दिया। वह बहुत देर तक इसी अवस्था में सफर करती रही जब तक बद्रीपुर के चौंक पर आचार्य जी ने उसे उठा नहीं दिया। बस दाएं ओर मुड़ने लगी तो आचार्य जी कौशल्या से बोले:
‘ये जो बाएं ओर सड़क जा रही है, पता है तुम्हें ये कहाँ पर जाती है?’
‘जी नहीं।’ कौशल्या सिर हिलाते हुए धीरे से बोली।
‘ये रेणुकाजी जाती है। इस जगह का नाम परशुराम जी की माता जी के नाम पर पड़ा है। यह भी बहुत बड़ा तीर्थस्थल है। भगवान ने चाहा तो कभी यहाँ पर भी होकर आएंगे।’ कौशल्या पता नहीं किन विचारों में खोई हुई थी, उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी ओर से कोई प्रत्युत्तर न पाकर आचार्य जी भी चुप हो गए।
बस पौंटा साहिब पहुँची तो आचार्य जी उठकर खड़े हो गए और उन्होंने कौशल्या को भी नीचे उतरने का इशारा किया। बस अड्डे से वह गुरुद्वारे की ओर चल पड़े। गुरुद्वारे में जाकर दोनों ने शीश नवाया और फिर बगल में बनी सीढ़ियों की ओर चल पड़े। सीढ़ियों के पास पहुँच कर आचार्य जी कहने लगे:
‘कौशल्या, यह पौंटा साहिब गुरु जी की नगरी है। यहाँ पर सिक्खों के दसम् गुरु जी गुरु गोबिंद सिंह जी विराजे थे। ये गुरुद्वारे के पीछे तुम दरबार देख रही हो न, इसे कवि दरबार कहते हैं। सुना है यहाँ पर गुरु जी महाराज बावन प्रसिद्ध कवियों के साथ बैठा करते थे। उन्हें विद्वानों और कवियों की संगति बहुत अच्छी लगती थी। वह अपने जमाने के महान विद्वान और योद्धा थें। उन्हें संस्कृत, फारसी, अरबी और पंजाबी इत्यादि बहुत भाषाओं का ज्ञान था। वह लेखक होने के साथ-साथ एक महान कवि भी थे। कहते हैं कि जब वह कवियों के साथ बैठकर यहाँ पर कविता पाठ किया करते थे तो यमुना में बहुत शोर होता था। उनके कहने के अनुसार ही यमुना तब से इस स्थान पर शाँत होकर बहती है। उन्होंने हमेशा परमात्मा का नाम जपने, शुद्ध चरित्र रखने और काम, क्रोध, लोभ और मोह से दूर रहने का उपदेश दिया है।’
कौशल्या, पति की बातें चुपचाप सुन रही थी। आचार्य जी बोलते हुए अचानक चुप हो गए और कौशल्या से पूछने लगे:
‘चलोगी नीचे यमुना तक?’
‘नहीं, चलो वापस चलते हैं।’ कहकर कौशल्या पीछे मुड़ गई। आचार्य जी ने ज्यादा कहना ठीक नहीं समझा और वह भी उसके साथ चलने लगे। कुछ देर तक बस का इंतजार करने के पश्चात् वे दूसरी बस से देहरादून की ओर चल पड़े। दोनों चुपचाप बैठे रहे। यमुना दरिया पार करने के पश्चात् कुछ दूरी पर जाकर बस रुक गई। कौशल्या ने खिड़की से बाहर झाँका तो सामने बोर्ड पर लिखा था-
‘ह्ब्बर्टगंज’। उसने पति की ओर गर्दन घुमाई और बोली:
‘ये कैसा नाम है?’
‘किसी अंग्रेज ने बसाया होगा यह शहर। उसी के नाम पर रख दिया होगा इसका नाम।’ आचार्य जी ने उतर दिया।
आगे सफर में थोड़ी-बहुत बातचीत होती रही, वरना सारा रास्ता बिना बोले ही निकल गया। दोपहर तक वह देहरादून पहुँच गए। एक सज्जन से पूछकर उन्होंने अपने रात्रि विश्राम का प्रबन्ध किया। दोपहर का खाना घर से लेकर चले थे, उसे वहाँ पर बैठकर खाया और फिर विश्राम किया। साढ़े तीन बजे के लगभग लोकल बस अड्डे पर पहुँचे और वहाँ से सहस्त्रधारा के लिए बस ली। सहस्त्रधारा पहुँच कर उन्होंने गंधक के पानी के झरने के नीचे स्नान किया और फिर सामने वाली पहाड़ी में बने गुरु द्रोणाचार्य जी के मंदिर में माथा टेका। माथा टेकने के पश्चात् दोनों पति-पत्नी उस रमणीक और सौन्दर्य से परिपूर्ण स्थान पर बैठकर प्रकृति की मनोहर छटा को निहारने लगे। कितना आराम और कितना सकून मिलता है ऐसी पवित्र जगह पर आकर, इसका आभास उन्हें अच्छी प्रकार से हो रहा था। मंदिर के ऊपर पहाड़ी में से छोटी-छोटी अनगिनत, अमृत जैसे पानी की बूँदों की वर्षा हो रही थी और नीचे कृत्रिम तालाब में श्रद्धालु और यात्रीगण स्नान का आनंद ले रहे थे। उनका मन कर रहा था कि कहीं न जाएं और यहीं बैठकर शाँत चित से प्रभु के नाम का सिमरण करते रहें। परन्तु प्रकृति ने हर काम की सीमा निर्धारित कर रखी है। सूरज ढलने लगा था और साथ में आने वालों की अपेक्षा जाने वालों की संख्या बढ़ने लगी थी। दोनों पति-पत्नी, न चाहते हुए भी भारी मन से उठे और वापस जाने के लिए बस में बैठ गए। वह शाम उन्होंने देहरादून में गुजारी। अगली सुबह तैयार होने के पश्चात् उन्होंने नाश्ता लिया और फिर हरिद्वार के लिए निकल पड़े। कौशल्या सारे रास्ते कुछ गुमसुम सी रही। रह-रहकर उसके मन में एक ही बात दस्तक दे रही थी कि अब वह अम्बाला में और ज्यादा देर नहीं रहेंगे। वह तो उस भीड़ भरी जिंदगी से कहीं दूर प्रकृति के आँचल में अपना बसेरा बनाना चाहती थी। अपने मन में आई इस बात को वह कई बार दबा गई। वह नहीं चाहती थी कि ऐेसे समय में बात करके आचार्य जी को व्यर्थ में सोचने पर मजबूर किया जाए। आचार्य जी अब तक बहुत दुनिया देख चुके थे। पत्नी के मन में उठी बात को भाँप गए थे। परन्तु यात्रा में उसे कुरेदना उन्होंने ठीक नहीं समझा। आखिर यात्रा समाप्त हुई और वे हरिद्वार पहुँच गए। बस से उतर कर आचार्य जी बोले:
‘तुम्हारी राय में अब क्या करना चाहिए? पहले हरकी पौड़ी चलें या कहीं ठहरने का बंदोबस्त करें?’
‘मेरे विचार में इस समय हरकी पौड़ी चलने का कोई तुक नहीं बनता। अभी तो सुबह नहाकर आए ही हैं। पहले कहीं ठहरने का इंतजाम कर लेते हैं। फिर शाम के वक्त चलेंगे। उस समय स्नान भी कर लेंगे और मैया की आरती भी देख लेंगे। सुना है यहाँ पर आरती का अपना एक अलग ही सौन्दर्य है।’ कौशल्या बोली।
‘तुम बिल्कुल ठीक कहती हो।’ आचार्य जी सिर हिलाते हुए बोले।
उन्होंने एक रिक्शा वाले को बुलाया और रिक्शा पर बैठकर हरकी पौड़ी की ओर चले पड़े। पूरी सड़क पर गंगा स्नान करने वाले तीर्थ यात्रियों की अच्छी खासी भीड़ थी। विभिन्न प्रदेशों से आए ये आगन्तुक अपनी वेश-भूषा से सहज ही पहचाने जा रहे थे। परन्तु नई पीढ़ी के नौजवानों को पहचान पाना इतना सुगम नहीं था। कुछ काँवरिये भगवें कपड़े और गोटे से सजी काँवरें उठाए हुए नंगे पाँव चले जा रहे थे। थोड़ी आगे गए तो एक नागा साधु दुनिया की निगाहों से बेखबर अपनी मन मौजी मस्त चाल में चला जा रहा था। रेलवे स्टेशन से बस अड्डे तक और वहाँ से हरि की पौड़ी तक पूरा रास्ता गंगा मयी लग रहा था। हरकी पौड़ी से आगे निकलकर उन्होंने एक धर्मशाला में कमरा लिया और वहाँ पर आराम करने लगे।
शाम के पाँच बजे के लगभग वह हरकी पौड़ी की ओर निकल पड़े। स्नान करने के पश्चात् कौशल्या ने अपने दोनों हाथों में गंगा जल उठाया और विनती करने लगी:
‘हे गंगा मैया! आज एक दुखयारी माँ तेरे चरणों में कुछ माँगने आई है। पापी, कामी, क्रोधी सब तेरे स्पर्श मात्र से तर जाते हैं। तेरी नज़रों में अच्छे और बुरे सभी एक समान हैं। तूने तो कभी किसी को उसके गुण-दोष, रंग-रूप, गरीब-अमीर, छोटे-बड़े, साधु-संत, चोर-उच्चके और जाति के आधार पर अपने अमृत स्पर्श से इंकार नहीं किया है। इसीलिए तो तेरा हृदय विशाल है माँ। जब तू जगत की माँ है तो तू माँ के हृदय में उठी पुत्र वियोग की उत्कंठा को सहज ही महसूस करती होगी। फिर हे मेरी माँ! मैं किस पाप का फल भुगत रही हूँ? अगर तुझमें शक्ति है तो जैसे मेरे लाल को ले गई है, उसी तरह उसे वापस कर दे। मैं तभी मानूँगी कि तू सच्चे अर्थों में गंगा माँ है।’
यह कहते हुए उसने अपने हाथों में उठाया हुआ पानी गंगा के अथाह प्रवाह में उड़ेल दिया। अपने मन की बात कहने और अपने आप को सांत्वना देने की उसकी यह आराधना उसके दुःखी मन को काफी संतोष प्रदान कर चुकी थी। स्नान करने के पश्चात् दोनों हरकी पौड़ी पर वापस लौटे तो उन्हें देखकर एक पंडा आवाजें लगाने लगा:
‘यजमान! तिलक लगवालो।’
आचार्य जी तो अनिच्छा प्रगट करने वाले ही थे कि कौशल्या बोली कि जब बेचारा इतने प्रेम से बुला रहा है तो तिलक लगवा ही लो, शुभ होता है। सब कुछ जानते हुए भी आचार्य जी ने तिलक लगवा लिया। तिलक लगाते ही पंडा तपाक से बोला:
‘यजमान, दो रुपये देदो।’
अभी आचार्य जी दो रुपये देकर मुड़े ही थे कि एक और पंडा उन्हें गौदान करने के लिए मजबूर करने लगा। बड़ी मुश्किल से आचार्य जी ने अपना पीछा छुड़ाया। समय व्यतीत करने के लिए वे कुछ देर बाजार में घूमते रहे। कुछ छोटा-मोटा जरूरत का सामान खरीदा और फिर आरती के समय वे हिन्दुओं के सात धार्मिक स्थलों में से एक इस पवित्र शहर के गंगा घाट पर पहुँच गए। ज्योतियों से जगमग दीये उठाए हुए पुजारी श्रद्धालुओं के भारी हजूम के साथ माँ गंगा की स्तुति में तल्लीन हो गए। प्रकाश का प्रतिबिम्ब गंगा के स्वच्छ निर्मल जल में ऐसा आभास करा रहा था मानो कि स्वर्ग से सभी देवता पृथ्वी पर इस मनोहर छटा का अविरत दृष्टि से अवलोकन कर रहे हों।
‘गंगा मैया की जय.........गंगा मैया की जय.........और हर-हर गंगे.........हर-हर गंगे.....’ की गगन भेदी ध्वनी से पूरा वातावरण गूंज उठा। भीड़ में खड़े आचार्य जी और कौशल्या अपने दोनों हाथों से ताली बजाते हुए और भक्तों के साथ सुर में सुर मिलाते हुए भाव-विभोर हो गए। शायद ही जिंदगी में ऐसे सुख और शान्ति की अनुभूति उन्हें कभी हुई हो। आज उन्हें पहली बार अनुभव हुआ कि वास्तव में हरकी पौड़ी स्वर्ग का द्वार है। आरती समाप्त हुई तो बड़े शाँत मन से वे अपने ठहरने के स्थान की ओर चल पड़े। कौशल्या का मन बहुत खुश था। अतीत की यादें भुलाकर अगर कुछ मन में था तो वह थी गंगा मैया की तस्वीर, जो उसे जीने का सहारा दे रही थी। वह रात बड़े ही सुख और चैन से गुजरी, न मन में कोई दुःख था और न ही कोई क्षोभ।
दूसरी सुबह उठने के बाद गंगा स्नान किया और फिर मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना की। नाश्ता करने के पश्चात् जब आचार्य जी और कौशल्या धर्मशाला से अपना सामान उठाने जा रहे थे तो आचार्य- जी पास से गुजरते हुए एक भद्र पुरुष से पूछने लगे:
‘बंधु! ऋषिकेश जाने के लिए बस कहाँ से मिलेगी?’
‘श्री मान जी, आप बस का चक्कर छोड़िए, बहुत देर लग जाएगी। आप ऐसा कीजिए विक्रम से चले जाइए।’ यह कहते हुए वह आदमी आगे बढ़ गया।
आचार्य जी उसकी बात सुनकर सोचते ही रह गए। यह आदमी क्या कह गया है? उनकी समझ में नहीं आ रहा था। क्या विक्रम किसी जगह का नाम है? जो ऋषिकेश को जाने वाले रास्ते पर पड़ती है और क्या उस रास्ते पर आसानी से वाहन मिल जाता है? वह कोई निष्कर्ष निकाल पाने में अपने आप को असमर्थ पा रहे थे। वह कौशल्या को वहीं छोड़कर सामने वाली दूकान पर गए और दूकानदार से पूछने लगे:
‘भैया, ये विक्रम कहाँ पर है?’
‘कहाँ पर जाना है आपने?’ दूकानदार ने पूछा।
‘भैया, जाना तो ऋषिकेश है। वाहन कहाँ से मिलेगा? बस यही पता करना है।’ आचार्य जी बोले।
दूकानदार उनके मन में उठे भ्रम को नहीं समझ पाया था। वह बाहर सड़क पर आकर आगे की ओर अँगुली का इशारा करता हुआ बोला:
‘श्रीमान जी, वो मोड़ देख रहे हो न?’
‘जी हाँ।’ आचार्य जी बोले।
आप वहाँ चले जाइए। वहाँ पर आपको बहुत सारे विक्रम मिल जाएंगे ऋषिकेश जाने के लिए। सवारी पूरी हो तो दस रुपये प्रति सवारी पर भी चले जाते हैं और अगर कम सवारी हो तो ज्यादा भी ले लेते हैं।’
अब आचार्य जी को एहसास हुआ कि विक्रम किसी वाहन का नाम है। वह मन ही मन अपनी नादानी पर कुछ लज्जित भी हुए। आगे चलकर मोड़ पर उन्होंने कुछ तिपहिया वाहन खड़े देखे, जिन पर ‘विक्रम’ शब्द अंकित था। वहाँ से आश्वस्त होकर वे धर्मशाला से अपना सामान उठाकर लाए और फिर ऋषिकेश के लिए प्रस्थान कर गए। लक्ष्मण झूला के समीप ऑटो से उतरकर वे ढलान पर बने रास्ते से गंगा के उस पार की ओर जाने के लिए चल पड़े। रास्ते के साथ-साथ बनी छोटी-छोटी दूकानों में भक्ति संगीत गूँज रहा था। ज्यादातर दूकानें भक्ति के भजनों और गीतों के कैसेट बेचने वालों की थीं। उधर से गुजरने वाला हर प्राणी मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकता था। कर्णप्रिय स्वर लहरों में यदि कोई विघ्न डाल रहा था तो वे थे सड़क के किनारे बैठे हुए हींग बेचने वाले। हींग की ढेरियों से निकली बास दूर-दूर तक अपना अधिकार जमाए बैठी थी। कौशल्या ने अपने दुप्पटे के एक कोने से अपनी नाक ढाँप ली। लक्ष्मण झूला के ऊपर से गंगा पार करने के पश्चात् वे दूसरे छोर पर खड़े होकर झूले और नीचे बहते हुए पानी को देखने लगे। कुछ दूर बहाव की ओर एक और झूला पुल लगा था। कौशल्या तो पहली बार ऋषिकेश आई थी। उसे देखते ही कहने लगी:
‘देखना, उधर भी एक ऐसा ही पुल है।’
‘हाँ, वह राम झूला है।’ आचार्य जी बोले।
‘और यह सामने शिव जी की मूर्ति देखना, कैसे जटाओं में से पानी की धारा निकल रही है। किसी ने सच में बड़ी ही सुंदर मूर्ति बनाई है।’ अभी कौशल्या बोल ही रही थी कि ऊपर से एक बंदर ने आकर एक आदमी के हाथ से सामान का लिफाफा छुड़ाकर नीचे फेंक दिया। देखते ही देखते लिफाफा पानी की धारा में जा गिरा। कौशल्या के लिए पानी में बहती चीज देखना किसी भयानक सपने से कम नहीं था। वहीं पर खड़े होकर उसने अपनी दोनों आँखें बंद कर ली और बोली:
‘आप यहाँ पर खड़े होकर क्या देख रहे हैं? चलो-चलो, जल्दी चलो, आगे चलते हैं।’
आचार्य जी बिना कुछ बोले कौशल्या की बात सुनकर आगे की ओर चल पड़े। धीरे-धीरे चलते और इधर-उधर की बातें करते हुए वह स्वर्ग आश्रम पहुँच गए। एक महात्मा जी ऊँचे आसन पर बैठे वहाँ पर प्रवचन कर रहे थे और काफी संख्या में श्रद्धालु लोग वहाँ पर बैठे हुए उन प्रवचनों को श्रवण कर रहे थे। आचार्य जी और कौशल्या ने दूर से ही महात्मा जी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और फिर दोनों चुपचाप नीचे बैठ गए। महात्मा जी कह रहे थे:
‘अभी हम अध्यात्म की बात कर रहे थे। मैं इस विषय को अभी यहीं रोकना चाहूँगा। कल शाम के समय एक जिज्ञाशु मेरे पास आए थे। बोले महात्मा जी यह सृष्टि क्या है? मैं जीवन की डगर से ऊब चुका हूँ। अगर किसी के पास कुछ नहीं है और वह दुःखी है तो यह बात समझ में आती है। परन्तु मेरे पास तो किसी चीज का अभाव नहीं है, तब भी मेरा मन अशांत है। मैं शान्ति की खोज में आया हूँ। आप मेरी पीड़ा का निराकरण करने की कृपा करें। आप सभी जानते हो लोहा जब तपकर लाल हो जाता है, उस पर सिवाय हथौड़े की मार के और किसी चीज का असर नहीं होता है। जो भी वस्तु उस पर डालोगे उसे वह भस्म करने का प्रयास करेगा। उसे सहज करने के लिए थोड़े समय की जरूरत होती है। गर्म लोहे पर एकदम पानी डालोगे तो वह उसे ठंडा करने की अपेक्षा स्वयं ही भाप बन कर उड़ जाएगा। यही अवस्था अशांत मन की होती है। वह तो अशांति की ज्वाला में धधक रहा होता है। उस पर चोट करोगे तो परिणाम गंभीर होंगे। उसे सहज और शाँत करने के लिए अपने भीतर उपजे विकारों को दूर करना होगा। इसका उपाय भौतिक आनन्द में नहीं अपितु सद्पुरूषों की संगत में है। मैं आज इसी विषय पर आप भक्तों के साथ अपने विचार बाँटना चाहूँगा।
इस संसार में जो भी प्राणी विद्यमान है, उन सभी में उस परमपिता परमात्मा का अंश है। उसके बिना इस संसार की कल्पना करना भी असंभव है। हम जिसे आत्मा कहते हैं, वही उस परमात्मा का अंश है। वह आत्मा किसी काल में न तो जन्मता है और न मरता है। वह आत्मा हो करके फिर होने वाला है। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश होने पर भी यह नाश नहीं होता। इसकी लौ तो उस परम पूज्य परमात्मा में लीन हो जाती है। ऐसा होते हुए भी मनुष्य अपने धर्म और कर्म, दोनों से भटक रहा है। जबकि उस द्वारा किये गए सूक्ष्म से भी सूक्ष्म कर्मों का लेखा जोखा उस परमात्मा की दिव्य दृष्टि से छुपा नहीं रह सकता। उसे अपने कर्मों का फल तो आवश्यमेव भोगना ही पड़ता है। अब जब उस सृष्टि रचियता और सृष्टि की बात शुरू हो ही गई है तो इस विषय को श्रीमद् भगवदगीता के संदर्भ से जोड़कर विचारना ज्यादा उपयुक्त होगा। इसलिए हम अब जो बोलेंगे उसका सीधा सम्बन्ध भगवान श्री कृष्ण द्वारा महात्मा अर्जुन को दिए गए संदेश से होगा। परम पिता परमत्मा सर्वश्शक्तिमान है, इसलिए पुरूष को, परमात्मा के अंश के फलस्वरूप शक्तिमान कहा गया है। भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि यह जगत पुरूष और प्रकृति के संयोग से ही बना है और तब तक रहेगा जब तक पुरूष और प्रकृति का संयोग बना रहेगा। यह प्रकृति शक्ति है और पुरूष शक्तिमान है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। इसी प्रकार नर और नारी का सम्बन्ध है। नर शक्तिमान और नारी प्रकृति है। इन दोनों का संयोग ही जगत है। वह जगत, जिसकी बागडोर उस परमेश्वर, जो सर्वशक्तिमान है, के हाथ में है।
हम भटक रहे हैं व्यर्थ के आडम्बरों में, भूल गए हैं कि इस संसार को चलाने वाली भी कोई शक्ति है। हम तो स्वयं को भगवान से बड़ा मान चुके हैं। यह जानने और समझने की फुरसत ही नहीं है कि ईश्वर क्या है? प्रकृति क्या है? जगत का क्या स्वरूप हैं? हम कौन हैं? कहाँ से आए हैं? ऐसी बातों की कल्पना करना समय का दुरुपयोग समझा जाता हैं। अगर किसी वस्तु में रुचि है तो वह है भौतिकवाद। हर कोई उसी में रत है। हम या तो किसी वस्तु से बहुत स्नेह रखते हैं या फिर द्वेष। ये ही मनुष्य के दो बड़े शत्रु हैं। भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि राग ही द्वेष को जन्म देता है। जब हम किसी वस्तु से बहुत अधिक प्रेम करने लगते हैं तो दूसरों को ईष्र्या होनी शूरू हो जाती है और फिर वही द्वेष का कारण बनती है। वह कहते हैं कि जिन प्राणी, पदार्थ, परिस्थितियों में तुम्हारा राग है और जिन को तुम सदा अपनी ममता की सीमा में रखना चाहते हो वे कभी भी सदा तुम्हारी नहीं रहेंगी, वे तुम से अलग होंगी ही, तुमसे बिछुड़ेगी ही और ममता वस्तु का वियोग होने पर बड़ा दुःख होगा।
हमारा कहने का तात्पर्य यह है कि जिस वस्तु में तुम्हारी आसक्ति है, उसके प्रेम के मोहजाल को तोड़ना होगा। वे तुम्हारी है ही नहीं। जितनी देर का सम्बन्ध था, वे तुम्हारी थी, फिर पराई हो गई। यह मोहजाल है, जिसमें मनुष्य फंसा हुआ है। हमारा शरीर तो वह गाड़ी है, जिसकी ताली मन रूपी चालक के हाथ में है। शरीर की प्रत्येक अवस्था मन की अवस्था से जुड़ी हुई है। यदि जीवन की मंजिल को सुचारू रूप से तय करना है तो दोनों का सामजस्य बना रहना आवश्यक है। क्योंकि दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। यदि शरीर पर कोई प्रभाव होगा तो मन भी प्रभावित होगा और यदि मन प्रभावित होगा तो शरीर भी उसका अनुभव करेगा। आपके मन में खुशी है तो शरीर प्रफुल्लित होकर झूम उठेगा और यदि मन में पीड़ा और क्रोध हैं तो शरीर पर उसका प्रदर्शन होना स्वाभाविक है। कैसे? बात स्पष्ट है। तुम्हारे सामने अचानक वह आदमी आ जाता है जिससे तुम्हें घृणा है। क्या होगा? तुम्हारे मन में उसके प्रति क्रोध उत्पन्न होगा। मन की स्थिति का प्रभाव शरीर पर पड़ेगा। तुम दाँतों से अपने होंठ भींचोगे। उसकी ओर घृणा की दृष्टि से देखोगे। यह सब कैसे हुआ? मन में जो घटित हो रहा था उसका प्रतिबिम्ब चेहरे पर आ गया। इसके विपरीत तुम्हारे सामने वह वस्तु आ जाती है, जिससे तुम्हें बहुत स्नेह है। फिर क्या होगा? देखते ही मन खिल उठेगा। चेहरे पर खुशी के भाव छलकने लगेंगे। आँखें चमक उठेंगी। यह सब कुछ मनुष्य स्वभाव के परवश हुआ करता है। यदि उसे किसी वस्तु से राग और द्वेष नही है, तो उसका मन शाँत है। और अगर मन शाँत है तो शरीर पर किसी भी प्रकार के भाव प्रगट नहीं होंगे। यह उस पुरूष की स्थिति है जो किसी भी वस्तु से चलायमान नहीं होता है और तब उसे परम सिद्धि प्राप्त होती है।
परन्तु आज के युग में मनुष्य अपने श्रेय साधन से गिर चुका है। वह कर्मों से विमुख हो चुका है। अपने स्वार्थ और इच्छा की पूर्ति के लिए वह अपने कर्तव्यों को भूल चुका है। धर्म के नाम पर प्राणी, प्राणी की जान का दुश्मन बन चुका है। हमने धर्म की परिभाषा को व्यक्ति विशेष से जोड़ दिया है। धर्म के नाम पर अपने समाज को हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख और ईसाई में बाँट दिया है। जबकि धर्म तो नेक चलनी का नाम है। महापुरुषों ने सदगुण और सदाचार के नाम से धर्मों की व्याख्या की है। धर्म बिगड़ाता नहीं, बनाता है। धर्म ही मनुष्य का जीवन, प्राण, और इस लोक परलोक में कल्याण करने वाला है। संयम, ब्रह्यचर्य का पालन, विद्या का अभ्यास, माता-पिता, आचार्य आदि की सेवा एवं ईश्वर की भक्ति सदाचार के अंर्तगत आते हैं। सदाचार का पालन करने से मनुष्य सारे विकारों से दूर हो जाता है। मनुष्य के लिए संयम की बहुत आवयश्कता है। इसके बिना उसका पतन हो जाता है। अगर एक भी इन्द्रिय विचलित हो जाती है तो उसी से मनुष्य की बुद्धि ऐसे जाती रहती है जैसे एक ही छिद्र हो जाने से बर्तन का समस्त जल निकल जाता है। सहन करने से धीरता, वीरता, गम्भीरता और आत्मबल की वृद्धि होती है।
कर्म की स्थिति भी कुछ इसी प्रकार की है। भगवान् ने गीता के द्वितीय अध्याय में कहा है कि-तेरा कर्मों में ही अधिकार है, उनके फलों में कभी नहीं। मनुष्यों को अपने कर्म करते रहना चाहिए। फल देना उस परमात्मा के हाथ में है। यूँ तो मनुष्य क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता। सब लोग प्रवृतिजन गुणों के द्वारा परवश होकर कर्म करने को बाध्य होते हैं। परन्तु आज का मनुष्य इसकी परिभाषा भी अपने स्वार्थ के लिए कर रहा है। अपने सभी दोष परमात्मा के अर्पण करके भोगों को स्वयं भोग रहा है। उसकी तो यह धारणा बन चुकी है कि उस द्वारा किये जाने वाले सभी कर्म स्वाभाविक और भगवान् की कृपा से हैं। उसके पाप कर्मों में उसका कोई दोष नहीं है। वह यदि माँस खाता है, शराब पीता है और व्याभिचार करता है तो इन सब के लिए वह परमात्मा को जिम्मेवार मानता है, क्योंकि उसके अनुसार यह सब कुछ प्रवृत्ति के अधीन हो रहा है। वह तो केवल एक साधन मात्र है। वह भूल गया है कि पाप कामना से होते हैं, प्रवृत्ति से नहीं। कामना तो उसके भीतर से उत्पन्न हो रही है, जिसके दुष्कर्मों का फल वह अवश्यमेव भोगेगा। और इसी का परिणाम है कि मनुष्य मरने के पश्चात् सूकर, कूकर आदि नीच योनियों में जन्म लेकर उन्हें भोगता है। अब यह उसके कर्मों का नहीं अपितु पाप कर्मों का फल है।...........।’
इस प्रकार महात्मा जी काफी समय तक प्रवचन करते रहे। प्रवचनों का यह सिलसिला यथावत रोज चलता और आचार्य जी और कौशल्या बिना कोई विलम्ब किये माहात्मा जी के प्रवचनों को सुनने के लिए उनके पास पहुँच जाते। उनके मुख से निकले एक-एक शब्द उन्हें अमृत वर्षा की तरह लगते थे। बड़ी आत्मशाँति मिलती थी उन्हें। हालाँकि महात्मा जी संसार के बंधनों और मोहजाल से छूटने की बात करते, परन्तु माँ का हृदय तो माँ का ही होता है। एकांत में बैठी वह यही सोचती थी कि कितने बड़े महापुरुष हैं यह। क्या ये मेरे बच्चे के बारे में नहीं जानते हैं? सुना है महापुरुषों को भूत और भविष्य का पूर्ण ज्ञान होता है। यदि मेरा बच्चा अभी जीवित है तो इन्हें तो पता होगा। क्यों न महात्मा जी से पूछ लिया जाए। पर नहीं-नहीं मन में संदेह उत्पन्न होता, ये यही तो ज्ञान दे रहे हैं कि मनुष्य को मोहजाल के बंधनों की दलदल से बाहर निकलना चाहिए और तुम सब कुछ सुनकर भी उसमें धंसी जा रही हो। फिर दूसरे ही क्षण विचार आता, पूछने में हर्ज ही क्या है? एक बार गुस्सा होंगे, सहन कर लूँगी। अपनी संतान के लिए मुसीबत आने पर पशु-पक्षी अपनी जान तक दे देते हैं। तू तो फिर भी इंसान है? तनिक क्षण के गुस्से से घबरा रही हो। फिर तू कैसी माँ है? एक दिन यूँ ही सोचते हुए उसकी आँख लग गई। नींद में उसे सपना आया जैसे कि वह अपने बच्चे की तलाश में भटकती फिर रही है। एकाएक उसे एक पगडंडी नज़र आई। वह उस पर आगे की ओर चल पड़ी। रास्ता एकदम सुनसान, दोनों ओर हरे-भरे वृक्षों का जंगल था। घबराहट के मारे उसका गला सूख गया। थकावट इतनी हो गई कि उसे एक-एक कदम आगे की ओर रखना भारी पड़ रहा था। थोड़ा आगे जाकर वह पगडंडी एक पहाड़ी के ऊपर की ओर चढ़नी शुरू हो गई। कौशल्या अपना धैर्य खो चुकी थी। क्या करे और क्या न करे? वह अपनी दोनों आँखें बंद करके सोचने लगी। अचानक उसके कानों में आवाज आई-‘बस इतने में ही घबरा गई हो? बेटे को ढूँढने चली है, बेटा क्या ऐसे ही मिल जाएगा? उसके लिए हिम्मत और हौसले की जरूरत होती है। यदि कुछ पाना है तो आगे बढ़ो और अपनी मंजिल पार करो।’ कौशल्या ने अपनी दोनों आँखें खोली। पर वहाँ पर तो कुछ नहीं था। सामने केवल एक छोटा सा मैदान था जिसमें एक मोर अपने पंख ऊपर उठाकर नाच रहा था। मोर को देखकर कौशल्या की घबराहट कुछ कम हुई। अरे! तू तो एक इंसान है और फिर भी घबरा रही हो। इस पक्षी को देख, जो किसी भी वक्त किसी जंगली जानवर का निवाला बन सकता है। परन्तु फिर भी कोई भय और पीड़ा नहीं। कितने मजे से कलोल कर रहा है। कौशल्या को तो मानो किसी दिव्य शक्ति का सहारा मिल गया हो। वह बिना रुके उस पहाड़ी के ऊपर चढ़ गई। पहाड़ी पर जो नज़ारा उसने देखा प्रत्यक्ष में उसकी कल्पना करना भी असम्भव था। मानो वह सचमुच के स्वर्ग में आ गई हो। बड़ा ही स्वच्छ और सुंदर आश्रम। पूरी जमीन हरि मखमली घास से भरी हुई। कहीं गंदगी का नामो निशान नहीं। हरे-भरे फलदार पेड़, जिन पर गिलहरियाँ अपनी मन मोहक चाल में इधर से उधर एक-दूसरी के पीछे भाग रही थीं, मानो वे कोयल की कूऊँ......कूऊँ.......की आवाज के सुरों से ताल मिला रही हों। कौशल्या आगे देखती है कि एक महात्मा सफेद धोती में लिपटा हुआ, आँखें बंद किए, ध्यान की मुद्रा में बैठा है। सिर के सफेद लम्बे बालों व दाढ़ी-मूँछ में भी उसका ललाट पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह चमक रहा था, परन्तु एक दम शाँत, सहज और सौम्य। उसे देखते ही कौशल्या एकदम ठिठकी। फिर थोड़ा संभलकर ज्योंही पीछे मुड़ने लगी महात्मा जी ने आँखें खोली और मृदु वाणी में बोले:
‘बेटी, अगर तुमने वापस जाना है तो यहाँ पर क्यों आई हो? आज तक जो भी इस आश्रम में आया है वह अपने मन का बोझ साथ लेकर नहीं गया है। फिर तुम यह बोझ लेकर क्यों जा रही हो? मैं तुम्हें जाने से नहीं रोकूँगा। तुम बड़ी खुशी से जाओ। परन्तु जो ये तुमने दुःखों की गठरी उठा रखी है, पहले इसे उतारो। तभी तुम आराम से चल पाओगी।’
कौशल्या के मन में छुपा भय मानो बाहर निकलकर अदृष्य हो गया। वह अपने दोनों हाथ जोड़कर महात्मा के चरणों में गिर गई। महात्मा ने अपना दायाँ हाथ ऊपर उठाया और बोले:
‘उठो बेटी, यह पश्चाताप करने की जगह नहीं है। यहाँ तो साक्षात् प्रभु निवास करते हैं। उनके चरणों में आकर रोते नहीं, हँसते हैं।’
कौशल्या उठी और हाथ जोड़कर बैठ गई और कहने लगी:
‘प्रभु, जब आप सब कुछ जानते हो तो फिर मुझे हँसने के लिए क्यों कह रहे हो? माँ का हृदय कभी भी इतना कठोर नहीं हो सकता कि वह अपने पुत्र के वियोग पर हँसे।’
‘मैं तो जानता हूँ बेटी, तुमने तो एक पुत्र खोया है। यह धरती माँ तो न जाने प्रतिदिन कितने पुत्रों को खोती है। फिर भी यह शाँत है। इसलिए इस धरती माँ की तरह हर कष्ट सहना सीखो तभी तुम शान्ति से रह पाओगी।’ महात्मा अपनी पलकें झुकाए हुए बोले।
‘कैसे प्रभु? एक माँ के लिए यह असम्भव है। धरती माँ तो मूक है। इसके अंदर की वेदना कोई कैसे जाने? शायद वह असहनीय हो और इसके दिल में भी एक तड़फ हो मेरी ही तरह।’ कहते हुए कौशल्या की आँखों में आँसू छलक आए।
‘शाँत बेटी, शाँत। धीरज रखो। तुम्हारी मुसीबतों भरी अंधेरी जिंदगी में उजाले की किरण प्रगट होने वाली है। तुम्हारा पुत्र सकुशल है और उसे माँ का पूर्ण स्नेह प्राप्त हो रहा है।’ महात्मा जी अपना दायाँ हाथ नीचे करते हुए बोले।
यह बात सुनकर कौशल्या की आँखें चमकने लगी। खुशी से गला रूद्ध गया। काँपती हुई आवाज में बोली:
‘प्रभु, क्या यह सच है?’
‘हाँ बेटी, यह सच है। बस तुम धीरज रखो।’
कौशल्या ने अपनी दोनों आँखें बंद कर ली और परम पिता परमात्मा को, आकाश की ओर मुँह उठा करके, प्रणाम किया और फिर महात्मा के चरणों में गिर गई। महात्मा जी की ओर से कोई आवाज सुनाई नहीं दी। कौशल्या ने आँखें खोलकर ऊपर की ओर देखा। यह क्या? ना महात्मा और ना आश्रम। वह घबरा गई और जोर-जोर से कहने लगी:
‘क्या मैं सपना तो नहीं देख रही थी? क्या मैं सपना तो ......’
आचार्य जी ने कौशल्या की बुड़बुड़ाने की आवाज सुनकर उसे हिलाया और कहने लगे:
‘ये तुम नींद में क्या बोले जा रही हो?’
‘हूँ.......’ कौशल्या ने आँखें खोली और उठकर बैठ गई।
‘क्या हो गया था तुम्हें? नींद में क्या कह रही थी?’ आचार्य जी पूछने लगे।
‘मुझे एक बहुत ही सुंदर सपना आ रहा था।’ कौशल्या ने स्वप्न की सारी बात आचार्य जी को सुनाई। बात सुनकर वे बोले:
‘कई बार सपने सच भी हो सकते हैं। काश! यह सपना भी सच हो जाता।’
आचार्य जी और कौशल्या का मन इतना भाया कि उन्होंने चार दिन वहीं पर स्वर्ग आश्रम में गुजार दिए। उन्हें तो वह जगह वास्तविक स्वर्ग लग रही थी। जिंदगी के ताम-झाम, चिंताओं और भय से रहित जीवन ही तो स्वर्ग है। सुबह जल्दी उठना, कुछ समय प्रकृति की गोद में विचरना, नहा-धोकर मंदिर में उपासना करना, फिर हल्का भोजन करना और फिर महात्मा जी के प्रवचन श्रवण करना, कितना आनन्दमयी जीवन था। कौशल्या का यदि बस चलता तो वह बाकी का पूरा जीवन यहीं पर गुजार देती। परन्तु अब अवकाश समाप्त होने वाला था, इसलिए वापस तो आना ही था। बड़े भारी मन से उन्होंने महात्मा जी से आज्ञा ली और अपना सामान उठाकर शहर की ओर चल पड़े। अभी आश्रम से निकलकर मुश्किल से दस कदम ही आए होंगे कि कौशल्या आचार्य जी से कहने लगी:
‘मैं अगर एक बात कहूँ, क्या मानोगे?’
‘हाँ बोलो क्या कहना चाहती हो?’ आचार्य जी कौशल्या के चेहरे की ओर देखते हुए बोले।
‘नहीं, पहले वादा करो कि मानोगे।’ कौशल्या जोर देकर बोली।
‘अरे बाबा! कुछ कहो तो सही। तुम तो बच्चों की तरह पहेलियाँ बुझा रही हो।’ आचार्य जी कुछ गम्भीर मुद्रा में बोले।
‘मेरा मन करता है कि क्यों न हम शहर का ताम-झाम छोड़कर कहीं ऐसी जगह चलें जहाँ पर शाँति मिले। सच पूछो तो मेरा यहाँ से कहीं और जगह जाने को मन ही नहीं करता। हम अगर महात्मा जी के आश्रम की तुलना स्वर्ग से भी करें तो कोई गलत नहीं होगा। क्या शान्ति है यहाँ पर? आदमी अपनी सुद-बुद खोकर उस परम परमेश्वर में ही लीन हो जाता है। वास्तव में सच्चा सुख तो उस प्रभु के चरणों में ही है, बाकी सब संसार तो नश्वर है।’ कौशल्या किन्हीं सपनों में खोई हुई सी बोली।
‘तुम्हारी यही इच्छा है तो मैं नौकरी छोड़कर महात्मा बन जाता हूँ। फिर आराम से हिमालय की किसी वादी में आश्रम बनाकर रहेंगे।’ आचार्य जी चुटकी लेते हुए बोले।
‘नहीं, यह बात नहीं है। मैंने ऐसा तो नहीं कहा था। लगन और मेहनत से काम करना भी एक प्रकार की भक्ति ही है। ऐसा नहीं हो सकता कि आप किसी ऐसी जगह अपनी बदली करवा लें जहाँ पर काम के साथ-साथ हमें कुछ तन्हाई भी मिले। और नहीं तो कम से कम प्रकृति से तो नज़दीकी बनी रहे। देखों ना मन कितना शाँत होता है। कितना सुकून मिलता है ऐसे वातावरण में रहकर।’ कौशल्या ऐसे बोल रही थी मानो गिड़गिड़ा रही हो। आचार्य जी को उसकी मासूमियत पर तरस आ रहा था। दोनों की पीड़ा, दोनों की तड़फ, दोनों के विचार थे तो एक जैसे, परन्तु पुरुष होने के नाते वह उन्हें दबाने में संक्षम थे। कौशल्या ठहरी भला एक अबला, मन में उठे तूफान को शाँत करना उसकी सामर्थ्य के बस की बात नहीं थी। जो भीतर था उसे उसी रूप में बाहर दर्शा दिया। आचार्य जी उसके भोले चेहरे की ओर एकटक नज़र से देखते रहे। परन्तु कौशल्या ज्यादा देर तक उनसे नज़र नहीं मिला पाई। उसने अपनी पलकें नीची कर ली। आचार्य जी ने सहसा अपनी नज़रें घुमाई और आगे की ओर धीरे-धीरे बढ़ते हुए बोले:
‘कौशल्या, मैं तुम्हारे मन में उठे विचारों को भलिभाँति जानता हूँ। मैं वापस अम्बाला पहुँच कर कोशिश करूँगा। तुम्हारी पसंद के किसी शहर में अगर स्कूल की ब्रांच हुई और जगह खाली हुई तो मेंरी शत-प्रतिशत कोशिश रहेगी कि मैं वहाँ की बदली के लिए प्रभावी ढंग से अपना पक्ष पेश करूँगा। देखो, होना या न होना तो उस विधाता के हाथ है, पर मैं कोई कसर नहीं छोड़ूँगा। बोलो, अब तो तुम खुश हो न?’
‘खुश तो मैं हूँगी ही जब आपने खुशी की बात कही है।’ कौशल्या कुछ मुस्कुरा कर बोली।
‘चलो तुम्हारे मन का बोझ तो हलका हुआ। इसे ही अपनी पहली कामयाबी समझो।’ आचार्य जी लक्ष्मण झूले की ओर बढ़ते हुए बोले।
झूला पार करते हुए दोनों चुपचाप रहे। हाँ, बीच में चलते हुए जब झूला थोड़ा हिलने लगता था तो कौशल्या का दिल थोड़ा घबरा जरूर रहा था। टेढ़ी-मेढ़ी गली से ऊपर चढ़कर कौशल्या का साँस कुछ फूल गया था और वह कुछ धीमे से चल रही थी। आचार्य जी दस-बीस कदम के फांसले पर आगे चल रहे थे। चुपचाप चलते हुए उन्हें आभास नहीं रहा कि कौशल्या पीछे रह गई है। उसकी आवाज सुनकर वह चौंके और रुक कर पीछे देखने लगे। कौशल्या कह रही थीः
‘सुनिये! यहाँ पर आए हैं तो दो-चार कैसेट भजनों की ले लेते हैं। बड़े ही प्यारे और मनमोहक भजन हैं। मैंने ऐसे भजन पहली बार सुने हैं। ऐसा दिल करता है कि दूर बैठकर या भोर वेला में मंद-मंद आवाज में इन्हें सुनते ही रहें। आपको कैसे लग रहे हैं?’
‘बहुत अच्छे। तुम्हें बढ़िया लगे तो ले लो। मैं तुम्हें इंकार थोड़े ही न कर रहा हूँ।’ आचार्य जी कैसेट की दूकान की ओर देखते हुए बोले।
कौशल्या ने दो शिव की स्तुति, दो गंगा मैया जी की आरतियों की और एक राम-भक्त हनुमान जी के भजनों की कैसेट खरीदी और फिर वह बस स्टैंड की ओर चल पड़े। वहाँ से उन्होंने ऋषिकेश-चण्डीगढ़ की बस ली और रास्तें में नारायणगढ़ उतर गए। फिर वहाँ से अम्बाला की बस लेकर वह बलदेव नगर कैंप पार करने के बाद जी.टी. रोड़ पर बस से उतर गए और कालका मोड़ से पैदल ही अपने मकान की ओर चल पड़े। शाम हो चली थी। दोनों को सफर की थकावट थी, इसलिए खाना बनाने की हिम्मत नहीं थी। आचार्य जी तो कमरे में पहुँचते ही आराम कुर्सी पर पसर कर बैठ गए और कौशल्या चारपाई पर लेट गई। घर में कोई और होता या चहल-पहल होती तो बात और होती। परन्तु यहाँ पर न तो कोई आवभगत करने वाला था ओर न ही सफर के बारे में पूछने वाला। मुश्किल से बीस मिनट हुए होंगे कि इतने में मौसी जी आ पहुँची। दोनों ने उठकर मौसी जी को प्रणाम किया और फिर एक दूसरे की कुशल क्षेम पूछी। मौसी जी अभी ठीक से बैठ भी नहीं पाई थी कि इतने में कौशल्या एक हाथ में पानी का गिलास और दूसरे हाथ में गंगा जी का प्रसाद एक स्टील की प्याली में डालकर ले आई और बोलीः
‘मौसी जी, तुम ज्योतिष लगाना कब से सीख गई हो?’
‘क्यों? क्या बात है बेटा?’ वह बोली।
‘हमारे वापस पहुँचने की भनक आपको कैसे लगी? इधर से हम पहुँचे और उधर से आप आ गई।’ कौशल्या कुछ हैरान हुई सी बोली।
‘बेटा, यह सब परमात्मा की कृपा है। मैंने सोचा सफर से थक-हार कर आएंगे, ऐसे में खाना वगैरह बनाना बड़ा मुश्किल होता है। बस यही सोचकर मैंने खाना बनाया और लेकर चली आई। अच्छा ये बताओ यात्रा के दौरान कोई तकलीफ तो नहीं हुई?’ मौसी जी बात को पलटते हुए बोली।
‘न मौसी जी, तकलीफ कैसी? भला कोई जब भगवान के घर जाता है तो वो तकलीफ थोड़े देता है। वहाँ तो हर दुखियारे का दुःख दूर होता है। सच मौसी जी मैं तो अपनी बात बताती हूँ, जितनी मन की शाँति मुझे ऋषिकेश में महात्मा जी के आश्रम में जाकर मिली है इतनी पूरी जिंदगी में मुझे कभी नहीं मिली। वह जगह तो सचमुच में स्वर्ग है।’ कौशल्या बोलते हुए भाव विभोर हो गई।
‘बेटा, सब कर्मों का फल है। अब बताओ मेरी इतनी उम्र हो गई है, मैं कहीं नहीं जा सकी। बस सारी जिंदगी इन घर-गृहस्थी के चक्करों में पड़कर रह गई हूँ।’ मौसी जी एक गहरा साँस छोड़ती हुई बोली।
‘मौसी जी, तब तो हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई है। हम तो पाप के भागीदार बन गए हैं। यह पता होता तो हम आपको साथ ही न ले चलते। क्यों जी, आपने मौसी जी की बात सुनी। अब आपकी जिम्मेवारी है। आगे से हम कहीं भी जाएंगे, मौसी जी भी हमारे साथ जाएंगी।’ कौशल्या आचार्य जी की ओर देखती हुई बोली।
‘ठीक है, मौसी जी को राजी करना तुम्हारी जिम्मेवारी है और लेकर जाना मेरी।’ आचार्य जी मुस्कुराते हुए बोले।
‘भई तुम भी किस पचड़े में पड़ गए हो। मैंने तो सोचा था तुम थक कर आए हो, परन्तु तुम तो मौसी को लेकर ही बहस में पड़ गए हो। अब इन बातों को छोड़ो और खाना खालो, नहीं तो ठंडा हो जाएगा।’ मौसी जी आदेशात्मक लहजे में बोली।
फिर तीनों हँसने लगे। एक बात तो ठीक हुई, मौसी जी के आने से पहले जो उदासी घर में सूनेपन की छाई हुई थी वह खत्म हो गई। खाना खिलाने के पश्चात् मौसी जी वापस जाने लगी तो कौशल्या ने उसे जोर देकर रोक लिया और अगले दिन जाने के लिए मना लिया। जब रुकना ही था तो मौसी जी भी आराम से बैठ गई। आचार्य जी ने थोड़ी देर तो बातों में हिस्सा लिया, फिर वह उठकर दूसरे कमरे में चले गए। मौसी और भानजी में बहुत देर तक यात्रा के अनुभवों के बारे में चर्चा होती रही। कौशल्या उन्हें एक-एक घटना के बारे में विस्तार से बता रही थी और मौसी जी मग्न होकर ऐसे सुन रही थी मानो भागवत पुराण की कथा सुन रही हो। आखिर में कौशल्या ने मौसी जी को अपने सपने के दृष्टांत के बारे में भी बताया। बात सुनकर पहले तो मौसी जी कौशल्या की ओर आवाक सी देखती रही। फिर थोड़ा सम्भली और कहने लगी:
‘कौशल्या, कई बार सपने सच भी हो जाते हैं। हो सकता है हमारा बच्चा सही सलामत हो और क्या पता भगवान ने तुम्हें यही बताने के लिए वहाँ पर बुलाया हो?’ मौसी जी परमात्मा में आस्था रखती हुई बोली।
‘मौसी जी, यह कैसे हो सकता है? मैं कैसे मान लूँ? मैंने सब कुछ अपनी आँखों के सामने देखा है। यह तो मन को समझाने वाली बात है और कुछ नहीं।’ कहते हुए कौशल्या ने एक गहरी साँस ली।
‘ना, मैं तेरी बात बिल्कुल नहीं मानती। बच्चे का क्या हुआ, तूने देखा है?’ मौसी जी कौशल्या की ओर देखते हुए बोली।
‘नहीं।’ कौशल्या गर्दन हिलाती हुई बोली।
‘फिर तू दिल छोटा क्यों कर रही है? तू मान या न मान मैं तो भगवान पर पूरा भरोसा करती हूँ। अगर उसने चाहा तो वह तुम्हें तुम्हारे बेटे से जरूर मिलवाएगा।’ मौसी जी दीवार पर टंगी भगवान की फोटो की ओर देखती हुई बोली।
रात के साढ़े दस बज चुके थे, परन्तु दोनों की बातों का सिलसिला बिना रोक-टोक जारी था। आचार्य जी तो सफर की थकावट से अब तक सो चुके थे। मौसी जी भी अब सोने का मन बना चुकी थी। परन्तु कौशल्या अपने मन में उठी बात को बताए बिना सोना नहीं चाहती थी। दूसरी ओर मौसी जी के सामने कुछ कहने की हिम्मत भी जुटा नहीं पा रही थी। रात, घड़ी दर घड़ी बीत़ती जा रही थी। आखिर कौशल्या ने हिम्मत बाँध कर कह ही दिया:
‘मौसी जी, अगर मैं एक बात कहूँ तो तुम नाराज़ तो नहीं होंगी?’
‘बोलो बेटा, क्या कहना चाहती हो?’ मौसी जी बड़े सहज भाव में बोली।
‘हम अम्बाला छोड़ना चाहते हैं।’
‘क्यों?’ मौसी से ऐसी क्या नाराजगी हो गई है? पहले घर छोड़ा और अब शहर ही छोड़ना चाहते हो। ऐसी क्या मुश्किल आन पड़ी है जो शहर को ही छोड़कर जा रहे हो?’ कहते हुए मौसी जी के चेहरे पर उदासी साफ नज़र आ रही थी।
‘मौसी जी, नाराजगी वाली तो कोई बात नहीं है। भीड़-भाड़ भरे माहौल में मेरा मन कुछ ऊब सा गया है। और अब ऋषिकेश जाने के बाद तो कहीं तन्हाई की जिंदगी जीने का मन करता है। हमने कोई जमीन-जायदाद तो बनानी नहीं जो उसकी चिंता हो। दो वक्त की रोटी की चिंता है सो भगवान दे ही रहा है। अब तो एक ही इच्छा है कि बुढ़ापे में कहीं प्रकृति के आँचल में बैठकर उस प्रभु का नाम लेकर अपनी बाकी की जिंदगी गुजारें।’ कौशल्या ने विस्तार से अपने मन की बात कह दी। मौसी जी ने आँखे बंद करके ऊपर की ओर मुँह किया और फिर धीरे से बोली:
‘जैसी उस प्रभु की इच्छा। इंसान क्या कर सकता है उसके सामने।’
फिर काफी देर तक दोनों बिना कुछ बोले चुपचाप बैठी रहीं। आखिर चुपी को तोड़ते हुए कौशल्या बोली:
‘मौसी जी, रात बहुत हो गई है अब तो सो जाना चाहिए।’
‘हाँ बेटा, मेरा ख्याल ग्यारह बज गये होंगे?’ मौसी जी दीवार घड़ी की ओर देखती हुई बोली। नज़र कमजोर थी, इसलिए दूर से ठीक नहीं देख पाई।
‘टाइम तो उस से भी ऊपर हो गया है।’ कहते हुए कौशल्या उठी और बिस्तर ठीक करने लगी।
सुबह उठकर नाश्ता लेने के पश्चात् मौसी जी अपने घर चली गई और आचार्य जी स्कूल में पढ़ाने के लिए चले गए। पीछे कौशल्या घर में बैठी कई तरह के विचारों में उलझी रही। पता नहीं नई जगह जाने के लिए मंजूरी मिलती भी है कि नहीं? अगर मिल भी गई तो पता नहीं वो जगह कैसी होगी? सोचते-सोचते उसने नई जगह का खाका अपने दिमाग में बना लिया। वहाँ पर ऐसी जगह होगी, ऐसे मकान होंगे, लोग भी ठीक ही होंगे। सुबह-शाम घूमने के लिए खुली जगह होगी, न ज्यादा मोटरें होंगी और न भीड़-भड़ाका। रोज सुबह आराम से सैर किया करेंगे। इसी तरह आराम से जिंदगी कट जाए और क्या चाहिए। इन्हीं विचारों में वह न जाने कब तक खोई रही।
उधर आचार्य जी अपने खाली पीरियड में प्रधानाचार्य को मिलने के लिए उनके कार्यालय में गए। दरवाजे पर लगे पर्दे की बगल से अंदर झाँका तो टंडन साहब बैठे हुए नज़र आए। आचार्य जी वहीं पर खड़े हुए बोले:
‘नमस्कार सर, क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?’
‘नमस्कार जी, आचार्य जी यह पूछने की आवश्यकता आपको कब से आन पड़ी है?’ प्रधानाचार्य हँसते हुए बोले।
‘मैंने सोचा आप कोई जरूरी काम कर रहे होंगे।’ आचार्य जी कुर्सी पर बैठते हुए बोले।
‘अरे नहीं, अगर हो भी तो क्या अंदर आना मना हो जाता है। अच्छा यह बताओ यात्रा कैसी रही? सब ठीक तो रहा न?’ टंडन जी हाथ में पकड़े पैन को इन्क स्टैण्ड पर रखते हुए बोले।
‘यात्रा तो वास्तव में बहुत बढ़िया रही, परन्तु .......।’ परन्तु आचार्य जी बोलते हुए रुक गए।
‘आप बोलते हुए रुक क्यों गए आचार्य जी। बोलो क्या कहना चाहते हो?’ टंडन साहब कुर्सी की बैक को पीठ लगाते हुए आराम की मुद्रा में बैठते हुए बोले।
‘दरअसल बात यह है सर, इस यात्रा से एक समस्या भी पैदा हो गई है। कौशल्या अब अम्बाला में नहीं रहना चाहती। उसकी इच्छा है कि कहीं ऐसी जगह पर रहा जाए जहाँ पर शाँति हो।’ आचार्य जी ने अपने दिल की बात बताई।
‘मेरे विचार में शायद वो अभी तक बच्चे का गम नहीं भूला पाईं।’ टंडन साहब अपना तर्क देते हुए बोले।
‘आप ठीक कहते हैं। मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है। इसलिए मेरी यह कोशिश रहती है कि मैं उसे ज्यादा से ज्यादा खुश रखूँ, ताकि वह अतीत को भूलकर बाकी की जिंदगी तो ठीक से जी सके।’ आचार्य जी अपनी आँखें डबडबाते हुए बोले।
‘तो अब आप क्या चाहते हो?’ टंडन साहब कुछ गम्भीर होकर बोले।
‘सर, ऐसा नहीं कि किसी पहाड़ी क्षेत्र की ब्राँच में कोई जगह खाली हो?’
‘यानि की स्थानान्तरण? आप यहाँ से स्थानान्तरण चाहते हैं?’ टंडन साहब ने प्रश्न किया।
‘जी हाँ, यदि संभव हो।’ आचार्य जी ने उत्तर दिया।
प्रधानाचार्य जी आँखें बंद करके और कुर्सी की बैक पर अपना सिर टिकाकर कुछ सोचने लगे। फिर थोड़ी देर बाद सहज होते हुए बोले:
‘मेरे विचार में ऐसी कोई जगह नहीं है। परन्तु चण्डीगढ़ में एक पद जरूर खाली है। अब यह आपने सोचना है कि शाँति ज्यादा अम्बाला में है या चण्डीगढ़ में?’ वह अपने होंठों पर आई मुस्कुराहट नहीं छुपा पाए। उनकी बात सुनकर आचार्य जी भी हँस पड़े। फिर थोड़ा सहज होकर बोले:
‘एक बात तो है सर। कम से कम कौशल्या की अम्बाला से जाने की बात तो पूरी हो जएगी। और फिर चण्डीगढ़ भी तो पहाड़ों के आँचल में बसा है। उन्हें वहीं से देखकर खुश हो लिया करेगी।’ कहते हुए वह फिर हँस पडे़।
‘चलो ठीक है। परन्तु एक बात तो मैं फिर भी कह देता हूँ, आपके इस स्कूल के चले जाने से न तो मैं खुश हूँ और न ही बच्चे खुश होंगे, जिन्हें आप पढ़ाते हो। मैं आपकी बात से सहमत हूँ तो केवल इसलिए कि मैं आपकी पत्नी का दुःख नहीं देख सकता। उन्हें यहाँ से जाने में अगर कुछ अच्छा प्राप्त होता है तो मैं उसमें अड़ंगा नहीं लगाना चाहूँगा। आप चिंता मत करना, मैं प्रबंधन समिति से आपकी संस्तुति कर दूँगा। आप निश्चिंत रहिए।’ टंडन साहब ढाढ़स बंधाते हुए बोले।
‘धन्यवाद सर।’ आचार्य जी ने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कार्यालय से बाहर निकल गए।
आचार्य जी ने जान बुझकर स्कूल में इस बात की भनक किसी को नहीं लगने दी, क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं छात्रों के अभिभावक उन्हें अम्बाला से न जाने दें। कोई एक महीने के अन्तराल के बाद एक दिन प्रधानाचार्य महोदय ने अचानक क्लास-रूम से उन्हें संदेश भेजकर बुलवाया। बुलाने का कुछ-कुछ कारण आचार्य जी समझ चुके थे। क्लास-रूम से बाहर निकले तो दिल की धड़कन तेज होने लगी। दोनों तरह के विचार मन में दस्तक दे रहे थे। समाचार सुखद भी हो सकता था और दुःखद भी। पता नहीं क्या सुनने को मिले? मन में उठे तूफान से घिरे वह अपने इर्द-गिर्द घटित हो रही हर घटना से अनभिग थे। इसलिए चलने के अंदाज में कुछ फरक पड़ना तो जरूरी था। ज्योंही स्टाफ रूम के आगे से गुजरे तो उनकी चाल को देखकर, वहाँ पर बैठे अध्यापक गण कुछ असमंजस में पड़ गए। पुरी साहब से रहा न गया, बोले:
‘आचार्य जी, क्या बात है? आज नज़रें चुराकर कहाँ जा रहे हो?’
आवाज सुनकर आचार्य जी एकदम ठिठके। फिर पीछे मुड़ कर पुरी साहब की ओर देखकर मुस्कुराये और बोले:
‘जाना कहाँ है पुरी साहब, मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक। बस यहीं टंडन साहब के ऑफिस तक जा रहा हूँ।’ बात सुनकर पुरी साहब की बगल में बैठी मैडम बोली:
‘लगता है कुछ खास बात है, जो पीरियड छोंड़कर आए हैं।’
‘शायद।’ पुरी साहब हाँ में हाँ मिलाते हुए बोले।
अभी आचार्य जी प्रधानाचार्य महोदय के ऑफिस रूम के दरवाजे पर पहुँचे ही थे कि उन्हें देखकर वह बोले:
‘कांग्रट्चुलेशन आचार्य जी, आपकी प्रार्थना स्वीकार कर ली गई है। आप तो भाग्यशाली निकले, परन्तु हमारा स्कूल इस क्षति को नहीं भूल पाएगा।’
‘सर, बहुत-बहुत धन्यवाद। हर मुश्किल में आपने ही मुझे सहारा दिया है।’ आचार्य जी कुर्सी पर बैठते हुए बोले।
प्रधानाचार्य महोदय थोड़ा मुस्कुराए और उन्होंने अपने मेज पर रखी घंटी को बजाया। घंटी की आवाज सुनकर बाहर बैठा सेवादार अंदर आकर बोला:
‘जी सर।’
‘जल्दी से दो कप् चाय लेकर आओ।’ उन्होंने आदेश दिया।
‘नहीं सर, रहने दो। मैं कक्षा छोड़कर आया हूँ। आप मुझे इजाजत दीजिए।’ आचार्य जी हाथ जोड़ते हुए बोले। टंडन साहब ने दीवार घड़ी की ओर देखा और मुस्कुराते हुए बोले:
‘केवल पाँच मिनट शेष रहते हैं।’
सुनकर आचार्य जी उठते-उठते बैठ गए। चाय आई तो उसे पीने के साथ-साथ टंडन साहब चण्डीगढ़ में बिताये अपने अनुभवों के बारे में आचार्य जी को विस्तार से बताने लगे। आचार्य जी किसी काम से एक-दो बार चण्डीगढ़ आए थे, परन्तु उन्हें शहर के बारे में पूर्ण ज्ञान नहीं था। इसलिए टंडन साहब की हर बात को वह बड़े ध्यान से सुन रहे थे। चाय लेने के पश्चात् उन्होंने प्रधानाचार्य महोदय को प्रणाम किया और फिर उनके ऑफिस रूम से बाहर निकल गए। छु्ट्टी के बाद घर पहुँचे तो उनके चेहरे पर कुछ रौनक सी लग रही थी। उन्हें देखते ही कौशल्या बोली:
‘लगता है आज स्कूल में बिना कुछ पढ़ाए ही चले आए हो।’
‘क्यों?’ आचार्य जी ने प्रश्न किया।
‘मुझ से क्यों, अपने चेहरे से पूछो।’ वह बोली।
‘मुझे तो अपना चेहरा नज़र नहीं आता, तुम्ही बता दो।’ आचार्य जी ने उसी की भाषा में जवाब दिया।
‘आज चेहरे पर थकान की बजाय मुस्कुराहट जो है।’ कौशल्या ने बात स्पष्ट की।
‘अच्छा........, तो ये बात है। मैंने तो सोचा आज पता नहीं कौन सा गुनाह पकड़ लिया है मेरा। मेरी क्या खुशी, खुशी तो तुम्हारी है। मैं तो तुम्हारी खुशी का एक साधन मात्र हूँ।’ वह मुस्कुराते हुए बोले।
‘चलो मान लिया, पर अब साफ-साफ बताओ बात क्या है?’ उसने प्रश्न किया।
‘तुम्हारे मन की मुराद पूरी हो गई और क्या? अब हम अम्बाला की बजाय चण्डीगढ़ में रहेंगे। मुझे चण्डीगढ़ की पोस्टींग मिल गई है।’ वह कुर्सी पर बैठते हुए बोले।
‘वाह! वाह! यह तो बहुत अच्छा समाचार है आपका। आसमान से गिरे और खजूर पर अटके। चण्डीगढ़ में तो शान्ति ही शान्ति मिलेगी। इससे बढ़िया कोई दूसरी जगह नहीं मिली आपको।’ कौशल्या ने व्यंग्य किया।
‘कौशल्या, तुम हताश मत हो। मैंने कोशिश की है। परन्तु कहीं भी जगह खाली नहीं है। और देखों, परमात्मा जो करता है वह ठीक ही करता है। हो सकता है इसी में कोई भलाई हो। दूसरे चण्डीगढ़ जाने में बुराई भी क्या है। लोग कहते हैं कि यह दुनिया का सबसे खूबसूरत शहर है। तो इसमें भी कुछ दिन रहकर देख लेते हैं। और नहीं तो कम से कम यह शहर साफ-सुथरा तो है। पहाड़ भी नजदीक हैं। जब दिल चाहा तो वहाँ पर भी घूम आया करेंगे। अब तो तुम सोचना छोड़ो और यहाँ से चलने की तैयारी शुरू करो।’ आचार्य जी पूरी बात एक ही साँस में कह गए। बात सुनकर कौशल्या चुप रही और रसोई में पानी लेने के लिए चली गई।
अभी दो दिन ही बीते थे कि आचार्य जी के स्थानान्तरण की खबर पूरे स्कूल में फैल गई। वह छात्रों के प्रिय शिक्षक तो थे ही साथ में अपने अध्यापक साथियों में भी उनकी काफी इज्जत थी। इस बात को सुनकर स्कूल में खुशी की अपेक्षा गम का माहौल था। कोई नहीं चाहता था कि आचार्य जी स्कूल छोड़कर जाएं। कइयों ने उनकी मिन्नत भी की थी, परन्तु जब आचार्य जी ने बताया कि स्थानांतरण में उनका हित है तो वे मान गए। आखिर स्कूल छोड़ने का दिन भी आ गया। शिक्षकों और छात्रों की ओर से उन्हें भव्य विदाई दी गईं। भारी मन से आचार्य जी ने स्कूल से विदा ली। अगले रोज इतवार की छुट्टी थी। पति-पत्नी, दोनों ने पूरा दिन मौसी जी के साथ बिताया। सोमवार सुबह जल्दी तैयार होकर आचार्य जी चण्डीगढ़ कार्य ग्रहण करने के लिए घर से चल पड़े। स्कूल में कार्य ग्रहण करने के पश्चात् एक सप्ताह तक अम्बाला से प्रतिदिन आने-जाने का सिलसिला लगा रहा। अगली छुट्टी के दिन एक परिचित के माध्यम से उन्होंने चण्डीगढ़ के सैक्टर आठ में एक मकान में दो कमरे और रसोई किराये पर ले ली और फिर एक दिन की छुट्टी लेकर अपना सामान भी तबदील कर लिया। शुरू में तो कौशल्या को यहाँ का माहौल कुछ अटपटा और नीरस सा लगा, परन्तु समय बीतने के साथ-साथ सब कुद सामान्य होने लगा। शाम के समय, आम तौर पर, पति-पत्नी झील की ओर सैर को निकल जाया करते थे और इस तरह उनकी दिनचर्या बीतने लगी।