पत्र पढ़ने के बाद वंदना ने उसे अपने पास रख लिया। इस समय उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था मानो उसका दिमाग शून्य में चला गया था। तभी द्वार पर दस्तक हुई, वंदना अपनी आंखों के आंसुओं को छुपाने का जतन करती हुई उन्हें दुपट्टे से पोछती हुई बाहर गई और दरवाज़ा खोला सामने पार्वती खड़ी थी।
अपनी माँ को अचानक सामने देखकर वंदना उनसे लिपटकर रोने लगी और रोते-रोते उसने पूछा, "माँ आप अचानक यहाँ कैसे? सब ठीक तो है ना?"
पार्वती ने कहा, "अरे, वहाँ सब ठीक है पर तुझे क्या हुआ है?"
यह पूछते समय पार्वती की आवाज़ काँप रही थी क्योंकि वंदना को इस तरह रोता देख उन्हें संदेह हो रहा था कि कहीं उसे सब कुछ पता तो नहीं चल गया।
वंदना ने कहा, "कुछ नहीं माँ, बहुत दिनों बाद आपको देखा तो मन भर आया।"
पार्वती ने उसके सर पर हाथ फिराते हुए कहा, "पर तू इस तरह से रो क्यों रही है। मुझे ऐसा लग रहा है कि जैसे कोई दुःख तुझे सता रहा है।"
"अरे नहीं, माँ मुझे आज आपकी बहुत याद आ रही थी। मेरा सिर दर्द कर रहा था। पहले तो आप पास में होती थीं तो चंपी कर देती थीं। कितना सुकून मिलता था आपके हाथ की चंपी में।"
"अरे तो चल आज भी कर देती हूँ।"
"नहीं माँ आप अभी-अभी तो आई हो।"
वंदना की बात सुनकर पार्वती को वही सच लगा जो उन्होंने सुना। उन्हें कहाँ पता था कि वंदना अभी-अभी सब कुछ जान चुकी है।
पार्वती ने कहा, "वंदना, चाय बना दो, मेरा भी सिर बहुत दर्द कर रहा है।"
"हाँ माँ, आप बैठिए, मैं अभी चाय बना कर ले आती हूँ।"
चाय बनाते समय वंदना अपने क्रोध को अंदर ही अंदर दबाए हुए सोच रही थी, अगर माँ को पता चला तो वे क्या सोचेंगी... नहीं, नहीं, उनके सामने तो ऐसा कहने में भी छीः …! उसका मन विचलित था, घृणा से भरा हुआ था। जिसे वह कल तक खुद से भी ज्यादा प्यार करती थी, आज उसके प्रति उसके मन में केवल नफरत थी। जिसे वह भगवान की तरह पूजती थी आज उसकी शक्ल भी नहीं देखना चाहती थी। वह सोच रही थी कि रौनक ने अपनी बेटी के लिए कैसा चरित्र दिखाया है ऐसा सोचते हुए भी उसे शर्म नहीं आई। वह इसी सोच में डूबी हुई थी और चाय उबल-उबल कर नीचे गैस पर गिर रही थी।
उसी समय उसकी माँ की आवाज़ आई, "अरे वंदना, चाय अभी तक नहीं बनी? तू वहाँ जाकर क्या कर रही है? जल्दी ला, मेरा सिर बहुत दर्द कर रहा है।"
वंदना ने चौंकते हुए कहा, "अरे माँ, बस अभी लाती हूँ।"
उसने जल्दी से चाय में दूध मिलाया, उसे ठीक किया और सोचा कि अब तो माँ के जाने के बाद ही वह कोई निर्णय ले पाएगी, फिर वह चाय लेकर माँ के पास गई।
वंदना को कहाँ पता था कि जो अभी-अभी उसने पढ़ा, वह तो उसकी माँ काफ़ी दिनों से जानती थीं और अपने अंदर छिड़े युद्ध को अंजाम देने ही वह यहाँ आई हैं।
चाय पीने के बाद, वंदना और उसकी माँ घर की बातों में खो गईं। उन्हें यह एहसास भी नहीं हुआ कि कब शाम ढल गई। इसी बीच, रौनक घर पहुंच गया।
रौनक नहीं जानता था कि तीन महिलाएँ जिसमें एक बच्ची, एक जवान और एक वृद्ध, तीनों मिलकर उसकी इज़्ज़त का चीर हरण करने वाली हैं। उसकी इज़्ज़त की धज्जियाँ उड़ाने वाली हैं। इस युद्ध में ना तो वह कुछ कह पाएगा ना कर पाएगा, ना ही अपने बचाव में उसके पास कुछ कहने के लिए होगा। उसकी हार और वह भी बेइज्ज़ती के साथ चरित्र हनन के साथ होने वाली है।
रौनक, जो इन सब बातों से अनजान था, माँ को देखते ही आश्चर्य से बोला, "अरे माँ! आप कब आईं?" और उनके चरण स्पर्श के लिए आगे बढ़ा।
माँ ने पीछे हटते हुए कहा, "इस औपचारिकता की कोई जरूरत नहीं है।"
वंदना और रौनक दोनों हैरान थे कि माँ ऐसा क्यों कह रही हैं? इससे पहले तो वे कभी ऐसा व्यवहार नहीं करती थीं। वे हमेशा बड़े प्यार से आशीर्वाद दिया करती थीं।
इस दौरान आहुति भी घर पहुंच गई और अपनी नानी को देखते ही वह उनके गले से लिपट गई। आहुति के दुःख, दर्द और भय को उसकी नानी ने महसूस किया। उन्होंने उसके सिर पर हाथ फिराते हुए धीरे से कहा, "आहुति, चिंता मत कर, मैं हूँ ना, मैं सब ठीक कर दूंगी।"
इसके बाद वे रात्रि भोजन के पश्चात् अपने-अपने कमरों में चले गए।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः