आहुति रोज़ की तरह सुबह उठकर अपने नित्य कर्मों से निपट कर स्कूल के लिए निकल ही रही थी कि तभी वंदना ने कहा, “आहुति बेटा आज मेरा सर बहुत दर्द कर रहा है; सोचती हूँ आज ऑफिस से छुट्टी ले लूं।”
खुश होते हुए आहुति ने कहा, “वेरी गुड मम्मी मैं भी आज स्कूल से लाइब्रेरी नहीं जाऊंगी, सीधे घर आ जाऊंगी। आज आपके साथ ज़्यादा समय बिताने को मिलेगा।”
“आहुति यह बात सुनकर तुम्हारे पापा मुझसे ईर्ष्या करने लगेंगे। जानती हो ना कल ही तो शिकायत कर रहे थे कि तुम बहुत देर से आती हो। बेटा उनका भी मन होता है तुम्हारे साथ समय बिताने का। कितना प्यार करते हैं वह तुमसे।”
यह वाक्य सुनते ही आहुति और रौनक की नजरें मिल गईं। तब व्यंगात्मक मुस्कान में आहुति ने कहा, “जानती हूँ मम्मा।”
यह तंज रौनक को अंदर तक डरा गया और वह खून का घूंट पीकर रह गया।
उसके बाद वंदना को बाय कहते हुए आहुति स्कूल के लिए निकल गई।
वंदना सर दर्द के कारण अपने कमरे में आराम करने चली गई। थोड़ी देर आराम करने के बाद, जब उसे बेहतर महसूस हुआ, तो उसने सोचा कि रौनक ऑफिस गया है और आहुति भी घर पर नहीं है, तो घर की सफाई करने का यह अच्छा समय है। इस विचार के साथ, उसने सबसे पहले आहुति के कमरे की सफाई शुरू कर दी।
उसने पूरे कमरे को व्यवस्थित किया और फिर आहुति की अलमारी खोली। उसके कपड़े बिखरे हुए देखकर वह बुदबुदाने लगी, "कैसी लड़की है, इतनी बड़ी हो गई है पर अभी तक सलीके से कपड़े रखना नहीं सीखा। कितनी बार समझाया है पर वह जल्दबाजी में सब कुछ ऐसे ही छोड़ देती है।" आहुति के कपड़े सहेजते हुए उसे वह पत्र मिला जो आहुति ने लिखा था। पत्र लिखने के बाद उसने घर छोड़ने का निर्णय खुद ही बदल दिया था। अलमारी में पत्र रखने के बाद, एक दिन उसने उस पत्र को फिर से निकालकर पढ़ा और तब अनजाने में उसने पत्र के पीछे लिख दिया, "आई हेट पापा … नहीं पापा नहीं … आई हेट रौनक !"
वंदना ने उस काग़ज़ को खोला और मन ही मन में कहा, अरे आहुति ने यह क्या लिखकर यहाँ रख दिया है। ऐसा सोचते हुए उसने पत्र पढ़ना शुरू किया। पत्र की हर लाइन वंदना को हैरान कर रही थी और उसके दिल की धड़कनों को बढ़ा रही थी। उसने पूरा पत्र पढ़ लिया आख़िर आहुति ने ऐसा पत्र क्यों लिखा सोचते हुए जैसे ही उसने पन्ना पलटा तो आगे का वाक्य पढ़ कर उसकी आंखें वहाँ पर मानो चिपक सी गईं। वंदना को "आई हेट पापा … नहीं पापा नहीं … आई हेट रौनक!" इन शब्दों को पढ़कर उसे बिना कहे ही सब कुछ समझ में आ गया था। उसकी आंखों से आंसू बहकर उस पत्र पर उसी जगह गिर रहे थे जहाँ आहुति के आंसू गिरे हुए थे। यह संगम हो रहा था दो महिलाओं के दुख के मिश्रण का, मानो वंदना के आंसू आहुति के आंसुओं से कह रहे हों, “तू डरना मत बेटा मैं तेरे साथ हूँ।” इन आंसुओं के मिलन से अब घर के अंदर एक बहुत बड़ा विस्फोट होने वाला था। वंदना को लग रहा था जैसे एक ही पल में उसकी पूरी दुनिया उजड़ गई हो।
उधर आहुति की नानी भी क्रोध से जल रही थीं। वह एक नए युद्ध के लिए कमर कस कर घर से निकल पड़ी थीं। तीनों के मन में युद्ध का बिगुल बज चुका था। यह युद्ध था नारी के अपमान के विरुद्ध, विश्वास घात के विरुद्ध और पुरुष के गिरते चरित्र के विरुद्ध।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः