Ret hote Rishtey - 7 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | रेत होते रिश्ते - भाग 7

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रेत होते रिश्ते - भाग 7



गौतम होटल के पिछवाड़े का यह हिस्सा वीरान-सा पड़ा था। कहने के लिए एक छोटा-सा बगीचा यहाँ था, मगर पीछे की ओर होने के कारण उसकी समुचित देखभाल का कोई प्रबन्ध नहीं था। इस ओर पैण्ट्री का पीछे वाला दरवाजा खुलता था तो दरवाजे के बाहर की जगह का इस्तेमाल खाना बनाने के लिए होने वाले सहायक कामकाज के लिए किया जाता था। इस समय भी वहाँ पानी की बड़ी-सी टंकी के पास कुछ बरतनों का ढेर-सा पड़ा था। एक ओर बीयर की खाली बोतलें रखी थीं और पास के सूखे-से पेड़ पर बँधी एक रस्सी पर होटल में काम करने वाले लडक़ों ने कपड़े सूखने के लिए फैलाये हुए थे। एक नल था जो धीरे-धीरे टपक रहा था।
दूसरे सिरे के चम्पा के एक पेड़ के नीचे एक तिरछी-सी ईंट पर टिककर मैं बैठा हुआ था। दोपहर के तीन बज रहे थे। शाबान कागज हाथ में लेकर अहाते के एक एकांत कोने में टहल रहा था। मैं जमीन से छोटे-छोटे कंकड़ उठा-उठाकर दूर के नल के इर्द-गिर्द जमा पानी में फेंक रहा था। दरवाजे के पास दो लडक़े एक बड़ी टोकरी में मटर छीलकर रख रहे थे। वे बीच-बीच में शाबान की ओर देखकर आपस में बात करते थे। शाबान का ध्यान उन लोगों की ओर नहीं था।
थोड़ी ही देर में शाबान ने जेब से निकालकर एक सिगरेट जलायी और जल्दी-जल्दी उसके कश लेने लगा। चार-पाँच कश लेकर वह सिगरेट मेरे हाथ में थमा गया और फिर पलटकर जेब से एक छोटा शीशा निकालकर अपने बाल ठीक करने लगा। मैं आराम से सिगरेट के कश लेने लगा। शाबान अब मेरे सामने लौट आया था। इसी समय वे दोनों लडक़े भी एकदम नजदीक आकर हमारे पास खड़े हो गये और कौतुक से हमारी ओर देखने लगे। शाबान को इससे कुछ असुविधा हुई और वह लडक़ों की ओर बढऩे लगा। मैंने वहीं से शाबान को टोक दिया। मैं बोला—
‘‘उन्हें वहीं खड़ा रहने दो। चलो, तुम शुरू करो।’’
शाबान उनकी ओर जाते-जाते रुक गया। लडक़ों का उत्साह इससे बढ़ गया और वे मेरे करीब आकर खड़े हो गये और खड़े-खड़े ही शाबान की ओर देखने लगे।
शाबान ने कागज जेब में रख लिया और वह दृश्य मुझे अभिनय करके दिखाने लगा, जिसके सम्वाद वह अभी याद कर रहा था।
दृश्य मेरा ही लिखा हुआ था पर थोड़ा मुश्किल था। राज्याध्यक्ष साहब आज जिन लडक़ों के स्क्रीन टेस्ट लेने वाले थे, उन सभी के लिए दृश्य मेरे ही लिखे हुए थे और मेरे ही कहने पर शाबान को यह सीन दिया गया था। ऊपर होटल के तीसरे माले के एक कमरे में कमाल फोटोग्राफर, कैमरामेन और अन्य दो-तीन तकनीशियनों के साथ बैठा था। राज्याध्यक्ष साहब बराबर वाले कमरे में डॉक्टर साहब के साथ बैठे थे। होटल के टेरेस पर चार-पाँच अन्य लडक़े, जो बाहर से आये थे, अपने-अपने सम्वाद याद कर रहे थे। सभी दृश्यों की तैयारी कर रहे थे। एक लडक़ा छत की मुंडेर से शाबान को दृश्य अभिनीत करते हुए देख रहा था।
शाबान के पास जो सीन था वह लगभग एक-डेढ़ मिनट का ही दृश्य था। इस दृश्य में शाबान को एक ऐसे युवक की भूमिका करनी थी जो गाँव का रहने वाला है परन्तु शहर में कॉलेज में पढ़ रहा है। वह किसी छुट्टी में बस से गाँव आता है और सडक़ पर बस से उतरकर पैदल ही एक पगडण्डी से चलता हुआ अपने गाँव में आ रहा है। गाँव सडक़ से कुछ किलोमीटर की दूरी पर है। वह आराम से अपना सामान हाथ में उठाये बढ़ रहा है कि तभी सामने से तेजी से दौड़ता हुआ एक लडक़ा आता है। वह लडक़ा बदहवासी की हालत में भागा जा रहा है। शाबान को देखते ही वह उसे बताता है कि गाँव में शाबान के घर में आग लगा दी गयी है। उसकी माँ और पिता को भी काफी झुलसी हुई हालत में अस्पताल पहुँचाने का इंतजाम किया जा रहा है और वह लडक़ा पास के पुलिस थाने में खबर करने के लिए दौड़ा जा रहा है। जल्दी-जल्दी यह सब बताकर वह शाबान की ओर देखता है। शाबान समझ नहीं पाता कि एकाएक क्या किया जाये। वह कभी लडक़े से कहता है कि वह गाँव वापस जाये और स्वयं पुलिस थाने का रुख करता है। फिर एकाएक पलटकर स्वयं गाँव जाने की पेशकश करता है। इसी बीच वह माता-पिता को लेकर कई सवाल पूछता हुआ चिन्तित भी होता है।
शाबान में एक नैसर्गिक खूबी यह थी कि वह कुछ ही पलों में अपनी आँखों से वास्तविक आँसू निकालने की कला जानता था। इस खासियत का खूबसूरत इस्तेमाल इस दृश्य में करने की सलाह मैंने उसे दी थी। शाबान ने दो-तीन तरह से अभिनीत करके यह दृश्य मुझे दिखाया। मैं देख रहा था कि हर बार उसमें अतिरिक्त आत्मविश्वास आता जा रहा था।
अभिनय के बारे में मेरा एक अनुभव और था। जब हम कोई सम्वाद या दृश्य पहली-पहली बार अभिनीत करते हैं तब हमारे पास अपनी कल्पना से उपजी कोई चीज़ नहीं होती बल्कि किसी दूसरे का कन्सीव किया हुआ दृश्य हम जीते हैं, लेकिन अभ्यास के साथ हर बार हमारी चेतना और मुखर होती जाती है और इसी के साथ-साथ हमारी अपनी कल्पनाओं का समावेश भी होता जाता है और इसी परिवर्तन के साथ अपने जॉब के प्रति हमारा आत्मविश्वास बढ़ता जाता है। लेकिन आत्मविश्वास बढऩे की अवधारणा अनन्त नहीं है। इसका भी एक ऐसा बिन्दु होता है जब हम अपने आत्मविश्वास के चरम पर पहुँचकर उससे भी आगे निकलने लगते हैं। चरम से आगे निकलने की यह प्रक्रिया हम में वह नकारात्मक भाव जगाने लगती है जिसे हम ‘ओवर कॉन्फिडेन्स’ कहते हैं। यहाँ हमारी पल्लवित चेतना या कल्पना के पुन: कुन्द होते चले जाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। एक अच्छा कलाकार, निर्देशक या लेखक इस बिन्दु को बारीकी से आँक लेता है और यथासम्भव इसी बिन्दु को कैमरे में कैद करने का प्रयास करता है। दृश्यव्य माध्यम में इसी प्रयास की प्रभावोत्पादकता किसी दृश्य-विशेष को स्वाभाविक बनाती है।
एक लडक़ा हमें बुलाने आया था। राज्याध्यक्ष साहब शायद चाय के लिए हमारा इन्तजार कर रहे थे।
मुझे शाम को एक जरूरी काम से कहीं जाना था इसलिए शाबान का नम्बर आने तक मैं वहाँ ठहर नहीं सका। सभी से विदा लेकर चाय पीने के बाद मैं वहाँ से निकल लिया। शायद रात तक वे लोग वहाँ ठहरने वाले थे। ऐसा इशारा स्वयं राज्याध्यक्ष साहब ने किया था।
मैं रात को घर पहुँचा तब तक शाबान वापस आ चुका था। वह अपनी डायरी लेकर कुछ लिखने में तल्लीन था। दूसरे कमरे में आरती बैठी हुई टी.वी. पर कोई कार्यक्रम देख रही थी। घर में फैली चुप्पी, आरती की थकान भरी उबासियों और शाबान की अपनी डायरी में तल्लीनता यह बता रही थी कि उन लोगों में कोई बातचीत नहीं हुई है। शाबान ने शायद आरती को आज दिनभर के कार्यक्रम के विषय में भी कुछ नहीं बताया था। आरती तो सम्भवत: शाबान के बम्बई आने के प्रयोजन से भी अनभिज्ञ थी। स्वयं शाबान भी उत्साहित नहीं था। इसी से मेरी भी यह जानने की इच्छा दबी रह गयी कि शाबान का आज कैमरे के सामने परफॉर्मेन्स कैसा रहा।
हम तीनों ने चाय साथ पी और खाना बाहर कहीं जाकर खाने का कार्यक्रम बनाया। आरती दिनभर घर में रहते-रहते काफी ऊब चुकी थी। यह प्रस्ताव सुनते ही वह तौलिया लेकर बाथरूम में चली गयी। शाबान भी अपनी डायरी और आसपास फैला-बिखरा सामान समेटने लगा।
आरती के भीतर जाते ही शाबान ने मुझे बताया कि उसका टेस्ट आज काफी अच्छा हुआ है और राज्याध्यक्ष साहब उससे काफी प्रभावित थे। शाबान को काफी उम्मीद हो चली थी कि राज्याध्यक्ष साहब उसे कोई-न-कोई रोल अवश्य देंगे। उसे राज्याध्यक्ष साहब से मेरे सम्बन्धों के विषय में भी खासी जानकारी हो चुकी थी। वह कमाल पर मेरा प्रभाव भी देख चुका था और यह भी जान चुका था कि राज्याध्यक्ष साहब के कामकाज में कमाल की अहमियत क्या है। कुल मिलाकर शाबान को आशा की खासी रोशनी ने जगमगा दिया था। आरती के आते ही वह भी नहाने के लिए बाथरूम में घुस गया।
हम लोग जब घर से बाहर निकले तो शाबान और आरती दोनों ही महक रहे थे। कपड़ों पर विदेशी सेंट था। चेहरे भी तरोताजा लग रहे थे। थोड़ी देर पहले वाली उदासीनता या ऊब का अब कहीं कोई नामोनिशान नहीं था। थोड़ी दूर तक हम लोग पैदल चले, फिर समीप से एक टैक्सी गुजरी, जिसे हमने रोक लिया।
एस.बी. रोड के जिस होटल में हम लोग खाना खाने आये, वह अपने इर्द-गिर्द के दोनों ही रेलवे स्टेशनों से दूर पड़ता था। यही कारण था कि यहाँ बहुत अधिक भीड़ नहीं थी। बम्बई में अब अच्छे-अच्छे होटलों की हालत यह होने लगी है कि शाम के समय आपको बिना इन्तजार किये जगह ही नहीं मिलती है। काफी समय पहले ही होटल में खाने की मेज तक का आरक्षण लोग फोन पर या आदमी भेजकर करवाते हैं। यह स्थिति बड़ी खिजाने वाली होती है कि जेब से पैसे खर्च करने को तैयार होने पर भी जब न सवारी मिले और न बैठने की जगह। यह शहर अब तथाकथित सभ्यता के चरम पर है। और इस ‘सभ्यता’ से असभ्यता जगह-जगह पर उगने लगी है। आप शाम को परिवार के साथ घर से बाहर निकलिये, आप खड़े रहेंगे, सामने से हजारों वाहन गुजरते रहेंगे। यदि आप होटल में खाना खा रहे हैं तो यकीन कीजिये, आपके इर्द-गिर्द चार-पाँच लोग खड़े आपको अनवरत देख रहे होंगे कि कब आप खाना खाकर उठें और वे बैठें। यदि आपने आखिरी ग्रास खाने के बाद उठने में दो-चार पल अधिक गँवा दिये तो होटल के अदना-से-अदना कर्मचारी को भी वह हक पहुँचता है कि आपको आकर उठा दे, चाहे आप शहर के महँगे बाजारों की सबसे कीमती दुकानों—‘चिरागदीन’, ‘बेंजर’ या ‘अकबरअलीज’ के बेशकीमती कपड़े ही क्यों न धारण किये हुए हों। तथाकथित सभ्यता की यह दुर्गति अब बम्बई जैसे शहरों का रिवाज है और शायद सभ्यता की बुनियादी जीत भी। कम-से-कम इंसान यह तो देखे कि महँगे कपड़ों, कीमती मोटरों और विदेशी असबाबों का अम्बार भी किसी दौर का अंतिम सच नहीं है।
हम लोग खाना खा ही रहे थे कि थोड़ी दूर पर एक मेज पर बैठे तीन-चार लोगों की ओर मेरा ध्यान आकर्षित हुआ। ध्यानाकर्षण का कारण यह था कि वे लोग रह-रहकर हमारी ओर देख रहे थे और बातें कर रहे थे। मैंने गौर से देखा तो कारण समझ में आया, पिछले दिनों राह चलते जिससे परिचय हुआ था वह लडक़ा संजय धनराजगीर वहाँ बैठा था। उसने ही मुझे पहचान लिया था। मैंने दूर से ही उसे देखकर हाथ हिलाया। संजय उठकर हमारे करीब आया। वे लोग खाना खत्म कर चुके थे और बाहर निकलने की तैयारी में थे। संजय शायद जानना चाहता था कि उस दिन उस बूढ़े आदमी को कार से ले जाकर हमने कहाँ छोड़ा और उससे क्या बात हुई। मैंने संजय से समय निकालकर कभी मिलने का आग्रह किया और वे लोग चले गये। संजय मुझे आश्वासन देकर गया कि वह मेरे दफ्तर में मुझ से मिलेगा।
मैंने जानबूझकर शाबान से आरती के विषय में कभी कोई बात नहीं की थी। मैं चाहता था कि इस सन्दर्भ में कोई भी बात अरमान की उपस्थिति में ही हो। शाबान ने बताया था कि कुछ समय बाद अरमान भी बम्बई आने वाला है। मुझे यह भी जानने में दिलचस्पी थी कि अरमान ने आरती के विषय में वहाँ घर पर या शाबान को कोई जानकारी दी या नहीं और यदि दी तो किस रूप में दी थी, अब उसका इरादा क्या था, आदि। लेकिन इतने दिन से यहाँ साथ रहते हुए आरती से भी एक प्रकार की ऐसी आत्मीयता-सी हो गयी थी कि उसके विषय में उसकी अनुपस्थिति में कुछ भी खोज-खबर करने जैसी बातें करना मुझे उचित नहीं लगता था; खासकर जबकि आरती स्वयं एक सुलझी हुई और साफदिल लडक़ी थी। वह जब सामने होती थी तो किसी को अपने विषय में कुछ भी ऐसा-वैसा सोचने का कोई अवसर ही नहीं देती थी।
शाबान का परिवार बहुत बड़ा था। ये लोग कुल छ: भाई थे। पिता का भी अच्छा व्यवसाय था और किसी प्रकार की आर्थिक तंगहाली का सवाल कहीं भी नहीं था। लेकिन संयुक्त परिवार होने और कस्बाई वातावरण में आरम्भिक दिनों के गुजरने का इतना प्रभाव शाबान और अरमान पर अब भी था कि कोई भी तथाकथित प्रगतिशील कदम साहस के साथ उठाने का हौसला आज भी उनमें दिखाई नहीं देता था। इसलिए आरती के मामले में सब कुछ बेहद अनिश्चय की स्थिति में उलझा-उलझा-सा था। फिर उम्र के लिहाज से भी अभी वे इतने परिपक्व नहीं थे कि उनसे कोई बुजुर्गाना समझदारी की अपेक्षा की जाये। मैंने भी अरमान को पत्र लिखा था कि समय निकालकर वह वापस जल्दी ही यहाँ आने का कार्यक्रम बनाये।
हम लोग खाना खाकर वापस लौटे तब तक काफी देर हो चुकी थी। घर लौटकर कपड़े बदले और सोने की तैयारी से पूर्व सहज ही टी.वी. पर ध्यान गया तो देखा कोई फिल्म आ रही थी। फिल्म फ्रेंच या इंगलिश की थी। कुछ ही दृश्य देखकर मैं दूसरे कमरे में आ बैठा। आरती की दिलचस्पी फिल्म में नहीं थी। वह भी थोड़ी ही देर बाद मेरे सामने की दीवार से सटी एक कुर्सी पर आ बैठी। शाबान फिल्म देखता रहा। मैं सोच नहीं पा रहा था कि शाबान की दिलचस्पी वास्तव में इस फिल्म में है या वह हम लोगों से बात करने के किसी अवसर से बचने की दृष्टि से वहाँ बैठा था, क्योंकि मैंने देखा था, जब भी आरती या अरमान के सन्दर्भ में किसी बातचीत की शुरुआत थोड़ी गहराई से होनी शुरू होती थी, शाबान तटस्थ-सा हो जाता था।
काफी देर तक फिल्म चलती रही और शाबान मनोयोग से वहीं बैठा रहा। आरती काफी देर तक मेरे पास बैठी हुई इधर-उधर की बातचीत करती रही। आरती ने बताया कि अरमान पिछले दिनों काफी पैसा अपने घर भेज चुका था। गाँव में उनके पिता एक मकान बनवा रहे थे। इसकी जानकारी शाबान ने मुझे भी दी थी। शाबान के पिता का मानना था कि आज चाहे नौकरी और व्यापार के कारण टूट-बिखरकर परिवार के सब लोगों को अलग-अलग जगहों पर हो जाने की विवशता हो, फिर भी गाँव में एक ऐसा खुला और बड़ा मकान जरूर होना चाहिए जहाँ कभी-कभी परिवार के सभी सदस्य एक साथ इकट्ठे होकर रह सकें। शाबान अपने पिता के इस मकान को हवेली का नाम देता था। वास्तव में उस मकान का बड़े भव्य पैमाने पर निर्माण हो रहा था। शाबान-अरमान के पिता के अतिरिक्त अन्य रिश्तेदारों ने भी इस मकान में अपना पैसा लगाया था। और शायद अरमान विदेश जाने के बाद यही इच्छा रखता था कि यदि सम्भव हो तो वह सभी रिश्तेदारों की देनदारी चुका दे ताकि मकान पर पिता या उनके परिवार के अतिरिक्त किसी की देनदारी न रहे। पिछले दिनों अरमान ने मुझे पत्र में लिखा था कि उसने अपनी कार बेचकर एक दूसरी पुरानी गाड़ी खरीदी है। आरती ने ही बताया कि यह भी उसने सम्भवत: इसी प्रयोजन से किया था। वह पिछले दो वर्षों में तीन-चार लाख रुपये अपने घर भेज चुका था। अरमान शौकीन तबीयत का लडक़ा था, उसे सज-सँवरकर रहने का बहुत शौक था। उसे अपने कपड़ों का भी बहुत ध्यान रहता था। इस सब के बावजूद वह अच्छी-खासी रकम की बचत करके अपने पिता के सपने को पूरा करने में भी जी-जान से जुटा था। कभी-कभी शाबान इस बात को लेकर शंकित हो जाता था कि कहीं रुपये के दबाव में अरमान परदेस में किसी मुश्किल में न घिर जाये। लेकिन अरमान मस्तमौला तबीयत के उन्हीं लोगों में था जो मुश्किलों के बारे में केवल तभी सोचते हैं जब वे आ जायें, उसके पहले नहीं।
अगले दिन हम सभी काफी देर से सोकर उठे। रात को पिक्चर देखकर सोने के कारण शाबान भी देर तक सोता रहा। अगले दिन छुट्टी होने के कारण मैं भी रोजाना वाली भागदौड़ में नहीं था। सुबह आरती ने तबीयत से रसोई में जाकर नाश्ता बनाया। मुझे आश्चर्य था कि लड़कियों को पाककला जरा से प्रयास से कैसे आ जाती है कि विदेश में रहकर नौकरी करने वाली आरती भी रसोई में घुसकर शत-प्रतिशत गृहस्थिन बन जाती है। यदि बहुत सारी बातें ऐसी हैं जिनके चलते औरतें मर्दों से ईष्र्या करें तो यह बात ऐसी भी है कि जिस पर मर्दों को नीचा देखना पड़ता है। यह बात अलग है कि वे घर की मुर्गी को दाल की ही अहमियत देने के हामी होते हैं। असल में विधाता ने आदमी और औरत के बीच जब लक्षणों का बँटवारा किया तब एक बड़ी गलती उससे हो गयी। उसने मर्दों को जितना दिया, औरतों को उससे ज्यादा ही दिया, पर देते-देते भी मर्दों को दिखा दिया कि विधाता भी मर्दों की जमात का है। बस, गड़बड़ हो गयी। आदमी को भरम हो गया कि बाँटने वाला पुरुष है और याचना करने वाली स्त्री। इसी से आदमी अपना भी और औरत का भी, सब अपना ही समझता है और इसीलिए छीन-छीनकर बाँटने का सुख उठाता है। वह बेचारा क्या जाने कि जिसे दे रहा है, उसी का है सब। आदमी जब धरती पर जनमता है तो उसे पैदा करने वाले की अधोगति होती है, धरित्री आसमान की ओर सिर उठाये...तब सब होता है।
आरती तुकाराम के साथ मिलकर जब नाश्ता मेज पर लगवा रही थी, मैं उसी को देख रहा था।
हम लोग नहा-धोकर कमरे में बैठ यह विचार करने लगे कि आज घूमने के लिए कहाँ निकला जाये। आज छुट्टी का लाभ उठाना था और आरती को भी कहीं बाहर ले जाना था। हम लोग अभी तय कर ही रहे थे कि घर के बाहर एक स्कूटर के रुकने की आवाज सुनाई पड़ी। एक-दो मिनट में ही घर की कॉलबेल बज उठी।
राज्याध्यक्ष साहब के ऑफिस में काम करने वाला आदमी था। वह उनका एक पत्र लेकर आया था। मैंने झटपट उसके हाथ से लेकर लिफाफा खोला और पत्र पढ़ डाला।
राज्याध्यक्ष साहब ने शाम को कोलाबा के आर्मी क्लब में बुलाया था। लिखा था कि थोड़ा-सा प्रेस मैटर भी तैयार करना है इसलिए समय से पहुँचने का आग्रह किया था। वह आदमी सूचना देकर वापस चला गया। उसी के साथ मैंने यह कहलवा दिया कि हम लोग ठीक समय पर वहाँ पहुँच जायेंगे।
एकाएक मुझे खयाल आया कि क्यों न आज हम लोग आरती को एलीफेण्टा केव्ज दिखाकर ले आयें। आरती वहाँ जाने की इच्छा भी जाहिर कर चुकी थी और फिर शाम को मुझे आर्मी क्लब में जाना था, जो उसी तरफ था। शाम को केव्ज से लौटकर सीधे वहीं जाया जा सकता था। हम लोगों ने एलीफेण्टा जाने का निश्चय किया। केव्ज जाने के लिए गेटवे ऑफ इंडिया से जाना होता था। वहाँ से हर थोड़ी-थोड़ी देर के बाद स्टीमर जाते थे, जो लगभग एक-सवा घंटे की समुद्री यात्रा के बाद गुफाओं के उस छोटे-से द्वीप तक छोड़ देते थे। विदेश में रह रही आरती के लिए समुद्री यात्रा का कोई विशेष महत्त्व न था, फिर भी वह पुलकित होकर घूमने के लिए तैयार होने चली गयी। शाबान भी तैयार होने के लिए उठ गया।
एलीफेण्टा नामक ये गुफाएँ कोई विशेष, शिल्प या फैलाव की दृष्टि से न भी हों, बम्बईवासियों और बम्बई में बाहर से आने वाले लोगों के लिए विशेष महत्त्व रखती थीं। फिर यह शहर की भीड़-भाड़ या भाग-दौड़ से परे एक इत्मीनान का दिन बिताने की गरज से अच्छी जगह थी। बम्बई से झुंड के झुंड लोग यहाँ पिकनिक मनाने की दृष्टि से आते रहते थे। फिर समुद्री सैर का भी अपना एक निराला ही मजा था। अनन्त तक फैले समुद्री विस्तार पर लहरों को चीरते हुए चलते चले जाने में अपना एक रोमांच था। युवाओं के लिए तो यह अद्भुत आनन्द या कौतूहल से भरी यात्रा होती थी। बच्चे भी इस समुद्री यात्रा का आनन्द उठाते थे। वहाँ जाने वाले लोगों में विदेशियों की संख्या भी काफी होती थी। जो सैलानी बम्बई घूमने आते, वे एलीफेण्टा देखे बिना अपना अभियान पूरा नहीं समझते। ऐसी यात्रा से मनुष्य को प्रकृति के वैराट्य का खासा अहसास हो जाता है। चारों ओर दूर-दूर तक कई देशी-विदेशी नौकाएँ और बड़े-बड़े जलपोत दिखाई देते थे। बीच-बीच में मछुआरों की छोटी-छोटी नावें भी दिखाई दे जाती थीं। जहाँ इस तरह विशाल बम्बई शहर की दैत्याकार गोदी का अद्भुत दृश्य दिखाई देता था, वहीं दूसरे किनारे पर पर्वतीय शृंखलाएँ हरे-भरे पेड़ों से लदी दिखाई पड़ती थीं। बम्बई के डॉकयार्ड की एक खूबसूरत झलक इस स्थान से दिखाई देती थी। गोदी पर कई बड़े-बड़े जहाज लंगर डाले दिखाई देते थे और यहाँ पर जहाजों में माल की लदाई-उतराई होती रहती थी। विशालकाय क्रेनें व अन्य उपकरण एक मीलों लम्बी कतार में फैले दिखाई देते। यह नजारा मनुष्य की तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता की प्रकृत्ति के वैराट्य पर जीत की एक मनोहारी मिसाल-सा नजर आता था। कितने युग और कितने दिमाग की सतत जिजीविषा का यह परिणाम रहा होगा कि मानव अनन्त विस्तारों में निर्भीकता से बढ़ता चला जाये।
हमारी मोटरबोट अब लगभग दूसरे किनारे के समीप आ गयी थी और अब उसे किनारे लगाने के लिए मोड़ा जा रहा था। यात्री उतरने के लिए अधीर थे और डगमगाती-हिलती बोट में कोई-न-कोई सहारा लेकर अपनी-अपनी जगह पर खड़े होने लगे थे। विदेशियों ने अपने कैमरे सँभाल लिये थे। जिस तरह उतरने के लिए बोट में बैठे लोग अधीर थे, उसी तरह किनारे पर खड़े वापस लौटने की प्रतीक्षा में कतारबद्ध लोग भी जल्दी-से-जल्दी बैठने के लिए उतावले थे। अधीरता कभी न समाप्त होने वाला गहना है जिसने मनुष्यता को आज के मुकाम पर पहुँचाने में अहम किरदार निभाया है।
हम लोग मोटरबोट से निकलकर उस लम्बे और सँकरे रास्ते पर चल पड़े जो कई दुकानों के बीच से होता हुआ गुफा की सीढिय़ों की ओर जाता था। सीढिय़ाँ दूर से ही दिखाई पड़ती थीं। उनकी आकर्षक कटावदार छवि दोनों ओर से रंग-बिरंगी दुकानों से घिरी प्रतीत होती थी। सीढिय़ों पर स्थान-स्थान पर पर्यटकों की रुचि वाले हस्तशिल्प, कीमती सजावटी वस्तुओं, कलाकृतियों आदि के ढेर लगे थे जिनके पीछे सौदागरों की ललक भरी दृष्टि भी तनी खड़ी थी। विदेशी सैलानियों के विदोहन को लालायित ये सौदागर देशी क्रेताओं के प्रति अधिक उत्साहित नहीं दिखाई देते थे। स्थान-स्थान पर रंग-बिरंगे परिधानों में सैलानी इनसे मोल-भाव कर रहे थे। आरती ने भी एक ऐसी ही दुकान की ओर कदम बढ़ाये तो शाबान ने टोक दिया। बोला— ‘‘यहाँ से कुछ खरीदना मत। ये सभी चीज़ें यहाँ शहर से अधिक दाम पर मिलेंगी।’’
आरती के बढ़ते कदम रुक गये। बोली—‘‘यहाँ से लौटते समय देखेंगे।’’ हम तीनों ही आगे बढ़ गये।
गुफाओं के भीतर बेहद शांति-सी थी। ठण्डक भी। जगह-जगह पर लोग मनोयोग से मूर्तियों को देख रहे थे। कहीं-कहीं बच्चे भाग-दौड़ कर रहे थे। कुछ लोग इस निस्सीम शांति का आनन्द लेने के लिए दीवारों से टेक लगाये यहाँ-वहाँ पलकें मँूदे बैठे थे।
कुछ लोगों ने वर्षों पहले अपनी लगन, कौशल, धैर्य और अभिरुचि को पत्थरों पर टाँक दिया था। और आज भी वे लोग इन पत्थरों में जिन्दा थे। लगता था, जैसे कहीं किसी दरार से, किसी झुरमुट से कोई अदृश्य हाथ कहीं भी, कभी भी निकल पड़ेंगे और आज की इन जिन्दगानियों पर नेह बरसायेंगे जो नेह के दुष्काल का जमाना देख रही हैं। आज कला बनने से पहले बिकने और आनन्द देने से पहले दाम देने के लिए अभिशप्त है।
गुफाओं से वापस लौटकर हम लोग जब नीचे आये तो लगभग चार बज चुके थे। वहीं एक छोटे-से होटल में हमने खाना खाया और दुकानों के बीच से टहलते-टहलते सागर किनारे के उस बिन्दु की ओर बढऩे लगे जहाँ से हमें लौटने के लिए नौका लेनी थी।
आरती अब एक दुकान के भीतर कुछ हस्तशिल्प की वस्तुएँ देखने की गरज से घुसी। शाबान भी उसके साथ ही था। मैं कुछ पल रास्ते पर ही ठहरा रहा। मैं एक-दो मिनट वहाँ खड़े रहकर दुकान के दरवाजे की ओर बढ़ ही रहा था कि मुझे सामने कुछ दूरी पर एक छोटी-सी नौका दिखाई दी और तट से जरा दूरी पर एक बड़े पत्थर के चबूतरे पर एक बूढ़ा बैठा दिखाई दिया। मेरा ध्यान फौरन उस बूढ़े की ओर चला गया। उसमें कुछ-न-कुछ विशेषता थी। वह एकदम गोरे रंग का लगभग सत्तर वर्षीय आदमी था जिसने बाँहोंदार, जीन की कमीज और गैलिसदार ढीली-ढाली पैंट पहन रखी थी। आदमी का चेहरा लाल सुर्ख था और उस पर झुर्रियों का जाल-सा दिखाई देता था। मैं सोचने लगा, सम्भवत: यही वह आदमी है जिसे उस रात हमने पिटने से बचाते हुए उसके मुकाम तक छोड़ा था और संदिग्धावस्था में मिलने के कारण वह पता भी नोट कर लिया था, जहाँ वह बूढ़ा गया था।
मैं अपनी उत्सुकता दबा न सका और आगे बढक़र उस बूढ़े आदमी के एकदम निकट चला गया। बूढ़े के चश्मे की कमानी एक ओर से टूटी हुई थी और उसने उसमें एक कपड़े की पतली-सी लीर बाँध रखी थी जिसे दूसरी ओर अपने कान पर लपेटा हुआ था। बूढ़े का ध्यान छोटी-सी नाव पर लदे तीन-चार आदमियों की ओर था पर वह खालिस इत्मीनान से वहाँ बैठा था। मैं निकट से उसे देखने लगा। यह भी हो सकता था कि यह आदमी वह बूढ़ा न हो और उससे मिलता-जुलता कोई दूसरा व्यक्ति हो फिर भी मैं गौर से उसे देखने लगा। मुझे उसकी जर्जर काली पैंट में दो-तीन पैबन्द भी घुटने के पास लगे हुए दिखाई दिये, जिससे मेरा शक यकीन में बदलने लगा। पैबन्द यकीनन ताजा थे और इस बात का सबूत थे कि बूढ़े की पैंट उस दिन कई जगह से फटी थी। बूढ़े का सिर बीच से बेशक गंजा था पर कनपटी के बालों और कपड़े की चश्मे में बँधी लीर से पता चलता था कि वह कई दिनों से नहाया नहीं है। कपड़े भी उसके बदन पर वही थे जो उसने मार खाते समय पहन रखे थे। मैं इस संयोग पर हतप्रभ था कि बम्बई जैसे लाखों की भीड़ वाले शहर में कोई भी व्यक्ति इस तरह कुछ ही दिनों के अन्तराल पर दोबारा मिल जाये। पर हो न हो, यह शख्स वही था, मुझे भरोसा होता जा रहा था।
मैंने बूढ़े से बातचीत करने का निश्चय किया। यद्यपि यह खतरनाक था क्योंकि इस समय उस रात वाली स्थिति नहीं थी कि मैं बूढ़े को बचाने वाले के रूप में सामने आया होऊँ। यदि बूढ़ा वास्तव में किसी गैंग से सम्बद्ध होता तो यह बात यहाँ मेरे लिए खतरनाक साबित हो सकती थी कि मैं उसका राज जान गया था। परन्तु जैसे अपराध का कोई व्याकरण नहीं होता, उसी तरह संयोगों का भी कोई व्याकरण नहीं होता। संयोगवश कुछ भी हो सकता है। मैं किसी बात का विचार किये बिना बूढ़े के बिलकुल सामने जाकर खड़ा हो गया। अब उसका ध्यान मेरी ओर गया। वह चश्मे की ओट से ध्यान से मुझे देखने की कोशिश करने लगा। उसकी आँखों पर डूबते सूरज की कठिन रोशनी पड़ रही थी जो चिलक-सी पैदा कर रही थी। उसने गौर से मेरी ओर देखने की कोशिश की क्योंकि अब मैं उसके एकदम इतना करीब था कि कोई प्रयोजनहीन व्यक्ति किसी व्यक्ति के सामने इस तरह आकर खड़ा न हो सके। बूढ़ा धीरे से पत्थर की चौकी से उठ खड़ा हुआ और मेरी ओर धूप का चौंधा बचाकर देखने लगा।
यह निश्चित था कि यह वही बूढ़ा आदमी था। लेकिन यह भी निश्चित था कि वह मुझे पहचाना नहीं था। एक तरह से मेरे लिए यह स्थिति और भी सुविधाजनक हो गयी। मेरे दिमाग में फुर्ती से बात आ गयी कि संजय धनराजगीर नाम के उस लडक़े को बूढ़े ने अपना परिचय ‘ग्लोबवाला’ कहकर दिया था। मैंने धीमे से लगभग बुदबुदाते हुए कहा—‘‘ग्लोबवाला!’’
‘‘यस...’’ वह मेरे करीब खिसक आया और आश्चर्य से मुझे देखने लगा। मैंने उसके निकट होकर गोपनीयता बनाये रखने का प्रयास किया ताकि वह निस्संकोच मुझसे बात कर सके। मैं अभी इस कशमकश में था कि इसे अपना परिचय देकर उस रात की बात याद दिला दूँ या कि इससे किसी व्यवसायी ग्राहक के रूप में मिलकर उसके बारे में और सुराग पाने की कोशिश करूँ। मैंने यकायक कहा—
‘‘मुझे आपकी मदद की जरूरत है।’’
‘‘बोलिये...मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ?’’ बूढ़ा तुरन्त तत्पर हो गया।
अब वह किसी भी पल मुझसे सवाल कर सकता था कि उसका पता मुझे कैसे मालूम हुआ किसने मुझे उसके पास भेजा है? मैं इस सवाल के प्रति सजग था।
‘‘मैं अगले महीने की तीन तारीख को इंडिया से बाहर जा रहा हूँ।’’ मैंने वैसे ही कहा।
‘‘आप इंडिया में रहते हैं या बाहर, किसी दूसरी जगह?’’ उसने पूछा।
‘‘जी नहीं, मैं दिल्ली का रहने वाला हूँ। लेकिन चार महीने के लिए मैं बाहर जा रहा हूँ। मैं खाड़ी में जाऊँगा। शायद मेरा इरादा आपके पास पहले भी पहुँचाया गया हो। मुझे मेरे एक परिचित ने आपसे मिलने के लिए कहा था।’’ मैंने स्वयं ही एहतियात बरतते हुए उसे सूचित किया। वह काफी आश्वस्त-सा दिखा।
‘‘नहीं सर, आपका कोई संदेश मुझे नहीं मिला। न ही किसी ने मुझे आपके बारे में बताया। पर एनी हाउ...आप बोलिये, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ?’’
‘‘मेरी अपनी एक विज्ञापन एजेन्सी है। मैं स्वयं एक अच्छा फोटोग्राफर भी हूँ। मैं बाहर सप्लाई करने के लिए कुछ फिल्म्स तैयार कर रहा हूँ।’’
‘‘पर मुझसे आपको क्या चाहिए?’’ बूढ़े की आँखों में किसी संदेह के बादल एकाएक घुमड़ते दिखाई दिये।
‘‘बम्बई मेरा एरिया नहीं है। मैं दिल्ली में काम करता हूँ। यहाँ मुझे आपकी मदद चाहिए।’’ मैंने उसका संशय ताडक़र (तोडक़र) भी काफी सहज बने रहने की कोशिश करते हुए कहा। मैं उसके और करीब खिसक आया और मैंने जान-बूझकर उसके सामने अपनी पीछे की जेब से निकालकर पर्स को खोला ताकि वह एक उड़ती नजर मेरे पर्स पर डाल सके। मेरे पर्स में इस समय नये नोटों की शक्ल में वे चार हजार रुपये थे जो दो दिन पहले राज्याध्यक्ष साहब से मिले थे। पाँच सौ रुपये वाले कई नोट बूढ़े का ध्यान मेरी ओर खींचने में सफल रहे।
बूढ़े का संशय घुलकर विलीन हो गया। वह एकाएक उठ खड़ा हुआ। बोला—
‘‘आइये, हम घर चलकर बात करेंगे।’’
‘घर? लेकिन यहाँ आपका घर कहाँ है?’’ मैंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा।
बूढ़े ने मुझे बताया कि एलीफेण्टा गुफाओं वाली इस पहाड़ी को पार करके इसके पीछे ही एक छोटी-सी बस्ती है, जिसमें वह रहता है। साथ-साथ थोड़ी दूर तक टहलते हुए चलते समय बूढ़ा काफी निर्भीकता से बातें करने लगा था। उसने बताया कि इस पहाड़ी के पीछे रायगढ़ जिले की सीमा शुरू होती है जहाँ पर एक कस्बा उरण है। बूढ़े का घर उरण में ही है पर उसने कस्बे के बाहर इस पहाड़ी के बिलकुल पीछे एक छोटी झोंपड़ी में भी अपना एक ठिकाना बनाया हुआ था। इस बस्ती में ज्यादातर वही लोग रहते थे जिनके एलीफेण्टा के इस बाजार में अपनी दुकानें या व्यवसाय थे। इस बस्ती में बाहरी लोगों की बहुतायत थी। महाराष्ट्र, गोआ, गुजरात और कर्नाटक के अलावा और भी कई प्रान्तों के विविध व्यवसायों से जुड़े लोग इस कस्बे में स्थायी रूप से आ बसे थे। बम्बई और गोआ की मिली-जुली संस्कृति वाला यह कस्बा बम्बई की भीड़-भाड़ से दूर भी था और वहाँ की रंगीनियों से लबरेज भी। बूढ़े के साथ चलते-चलते यह सब जानकारी मुझे मिली किन्तु मेरे साथ में शाबान और आरती के भी होने के कारण अभी मुझे बूढ़े के साथ जाने का इरादा छोडऩा पड़ा। मैंने उसे स्पष्ट बता दिया कि मेरे साथ दो पर्यटक और हैं और इसलिए मैं उसके घर नहीं चल सकूँगा।
बूढ़ा तुरन्त सहमत हो गया। शायद वह भी पहली ही मुलाकात में मुझे अपने घर ले चलने के जोखिम से मन-ही-मन शंकित रहा होगा। मैंने उसे बताया कि मैं अगले तीन-चार दिनों में उससे मिल सकूँगा। मैंने बूढ़े का पता जानना चाहा। इस पर थोड़ी देर के लिए वह खामोश हो गया। फिर कुछ सोचता हुआ-सा बोला— ‘‘बस्ती में मेरे पते पर पहुँचने में आपको बड़ी तकलीफ होगी क्योंकि वहाँ न तो तरतीबवार मकान हैं और न ही तरतीबवार नम्बर। वह तो बम्बई की झोंपड़पट्टी जैसा ही इलाका है।’’ पर थोड़ी देर बाद बूढ़ा स्वयं ही बोला—‘‘आप जब भी आयें, मुझे यहीं, शाम को इसी जगह मिलियेगा। मैं खुद आपको वहाँ ले चलूँगा।’’
‘‘लेकिन आप रोज शाम को इसी जगह पर रहते हैं?’’
‘‘हाँ, मैं सुबह बम्बई जाता हूँ, पर इस समय तक तो वापस लौट आता हूँ। यहाँ मेरी खुद की भी एक नाव है। मैं जब बम्बई नहीं जाता, तब सारे दिन यहीं रहता हूँ।’’
‘‘ओ.के. मि. ग्लोबवाला...!’’ मैंने हाथ मिलाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया।
बूढ़े ने हाथ तो बड़ी गर्मजोशी से मिलाया, पर साथ ही वह जोर से हँस भी पड़ा। कुछ रुककर स्वयं ही बोला—
‘‘ग्लोबवाला मेरा नाम नहीं है। मेरे पार्टनर का नाम है। मेरा नाम जोसफ है— जोसफ नादिर। वह कॉन्ट्रैक्टर है।’’
‘‘अच्छा-अच्छा, मि. नादिर...’’ मैंने कहा। मैंने महसूस किया कि बूढ़े के हाथ में बहुत गर्मी है और वह बड़ी आत्मीयता से हाथ मिला रहा है।
उससे रुखसत होकर मैं वापस मुड़ा तो जूस सेंटर के सामने हाथ में दो ठंडे पेय की बोतलें लिये खड़े हुए शाबान और आरती दिखायी दिये। मैं उनके समीप आते हुए स्वयं ही बोला—‘‘एक परिचित मिल गया था।’’
आरती ने एक और बोतल काउण्टर से लेकर मेरी ओर बढ़ा दी।
शाम होने लगी थी। हमें शाम को आर्मी क्लब में राज्याध्यक्ष साहब से भी मिलना था। इसलिए तुरन्त हम लौटने वाली नाव लेने के लिए किनारे पर आ गये।