Ret hote Rishtey - 6 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | रेत होते रिश्ते - भाग 6

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रेत होते रिश्ते - भाग 6



सारा ट्रैफिक रुका हुआ था। उसे व्यवस्थित किया जा रहा था। काली सदन से लेकर नरीमन पॉइण्ट के सिरे तक सडक़ पर ढेर सारे पुलिस के आदमी खड़े थे। कई गाडिय़ाँ इधर-उधर गश्त लगा रही थीं। मुख्य गेट से लगभग पौन किलोमीटर के क्षेत्र में पार्किंग की जगह बिलकुल भर गयी थी और अब देर से आने वाले लोग काली सदन से काफी दूर गाडिय़ाँ खड़ी कर-करके पैदल ही आ रहे थे। ट्रैफिक वालों का काम भी पूरी मुस्तैदी से चल रहा था। बम्बई शहर की लगभग सभी साहित्यिक हस्तियाँ इस समय काली सदन का ही रुख किये हुए थीं। बहुत से लोग आ रहे थे, बहुत से आ चुके थे। गहमा-गहमी थी। शहर के अखबारों-पत्रिकाओं से जुड़े सभी लोग वहाँ दिखायी दे रहे थे। कई सांस्कृतिक-सामाजिक संस्थाओं के नामी-गिरामी लोगों की तादाद पल-पल वहाँ बढ़ती जा रही थी। व्यावसायिक शहर बम्बई में वैसे तो ऐसे लोगों की स्थिति ऊँट के मुँह में जीरे जैसी भी नहीं थी, मगर फिर भी जो भी समुदाय था, वह उमड़ पड़ रहा था। विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और विद्यालयों से जुड़े भाषाओं में रुचि रखने वाले लोग, साहित्य में रुचि रखने वाले लोग जत्थों में आते जा रहे थे। कई फिल्मी हस्तियाँ भी दिखायी दे रही थीं। विशेषत: लेखन से जुड़े लोग, रंगकर्मी, गीतकारों, कवियों का जमघट था। अकादमियों से जुड़े लोग, पदाधिकारी, शब्द-शक्ति के पुजारी बम्बई की उस विराट इमारती बस्ती में अपने अस्तित्व को लहर-दर-लहर बिखराते जा रहे थे।
यहाँ पर आज एक शानदार समारोह था। इसमें शिरकत करने के लिए देश के एक मन्त्री भी पधारने वाले थे। इस बात ने कार्यक्रम की महत्ता, आयोजन की उपादेयता एकाएक बढ़ा दी थी। यह कार्यक्रम दो-तीन संस्थाओं के सम्मिलित सहयोग से आयोजित था। इस अवसर पर शहर के एक नामी डॉक्टर द्वारा लिखी गयी एक पुस्तक का विमोचन होने जा रहा था। साथ ही कुछ साहित्यकारों का सम्मान समारोह भी आयोजित था।
सम्मानित होने वाले लोग समय से काफी पहले आकर काली सदन में स्थान ग्रहण कर चुके थे और अब अन्य सभी लोगों के साथ दरवाजे की ओर उस व्यक्ति के लिए टकटकी लगाये हुए थे जो उन्हें सम्मानित करने के लिए सरकारी अमले के रथ पर सवार होकर आने वाला था। कई जोड़ी आँखें उस पारस पत्थर के दरस को प्यासी थीं जिसके छू देने भर से अपने-अपने क्षेत्र में साधनारत तीस-तीस वर्ष से सतत जूझ रहे लोग कृतकृत्य हो जाने वाले थे। हमारे देश में चित्रकारों, कलाकारों, कथाकारों, साहित्यकारों का अनवरत अपने कर्म में लीन रहना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता जितना उन्हें किसी राजनैतिक हस्ती का सार्वजनिक तौर पर समारोहपूर्वक छू देना। इस स्थिति को कभी कोई बदल नहीं पाता क्योंकि जो यह धृष्टता करने की सोचता भी है, उसे ‘छू’ दिया जाता है और इस तरह उसे जबरन महानता को प्राप्त होना ही पड़ता है। उसके बाद वह न कड़वा उगलने के लायक रहता है और न कड़वा निगलने के। उसके चारों ओर सब मीठा ही मीठा हो जाता है।
काली सदन के पिछवाड़े वाले गेट के बाहर वाली पान की दुकान पर कई पत्रकारों-लेखकों की भीड़ थी जो कार्यक्रम शुरू होने में होने वाले सरकारी विलम्ब का रचनात्मक उपयोग करने की दृष्टि से एक-दूसरे की जेबों से पान खाने और सिगरेट पीने में तल्लीन थे।
एक प्रतिष्ठित समाचार-पत्र के वरिष्ठ उपसम्पादक पान की पीक थूकते हुए बम्बई शहर की जनसंख्या की विस्फोटक स्थिति पर बड़ी उदात्त टिप्पणी कर रहे थे—‘‘इस शहर में मादरचोदों के पास बड़ा वक्त है, जरा कुछ हो, एक के बाद एक मुँह उठाये चले आयेंगे।’’
उनके ऐसा कहते ही मेरी दृष्टि दरवाजे की ओर गयी जहाँ से प्रख्यात कविश्री गौरव ऊपर की ओर देखते हुए चले आ रहे थे। वह शायद देख रहे थे कि जिस भवन में समारोह सम्पन्न होने जा रहा है वह कितने मंजिला है।
वरिष्ठ उपसम्पादक की टिप्पणी को रचनात्मक समर्थन दिया एक उभरते हुए प्रगतिशील कलमकार ने। बोले—‘‘अरे भई, एड्स पर लिखी हुई किताब का विमोचन है। लोग सोच रहे होंगे कम-से-कम किताब में नंगी औरतों के फोटू तो होंगे।’’ उनकी इस टिप्पणी पर आसपास के कई कलमकारों को पीक थूकनी पड़ी।
एक उग्र प्रतिक्रिया तुरन्त सुनाई पड़ी—‘‘अबे, कोई जरूरी है औरतों के फोटू ही होंगे। समलैंगिकों को नहीं होता एड्स?’’
उनकी अन्वेषक दृष्टि को दाद पाने का ज्यादा अवसर नहीं मिल पाया क्योंकि तभी लालबत्ती वाली मर्सिडीज ने अहाते में सामने की ओर से प्रवेश किया और सभी ओर खलबली मच गई। साहित्यकारों के सम्मानित होने का पल तेज हवा के झोंके-सा आ गया। भीतर तालियों की गडग़ड़ाहट भर गयी।
इस बात की होड़ थी कि कौन मन्त्रीजी के साथ कितने फ्रेमों में कवर हो पा रहा है। किसको किन सम्पादकों या प्रकाशकों के कितनी नजदीक की जगह मिली है। छायाकार मन्त्री महोदय के चेहरे पर प्रत्येक हावभाव को कैद करने की दृष्टि से अपनी प्रतिभा उलीच रहे थे। चेहरे की हर रेखा-झुर्री को अलग-अलग एंगल से फ्लैशों की जद में लिया जा रहा था; मानो शहर की साहित्यिक गतिविधियों का आकलन मन्त्रीजी के चेहरे के मानचित्र से ही अगले दिनों के अखबारों में मूर्त रूप लेने वाला हो। कई वरिष्ठ साहित्यकार काँपने लगे थे। वे सोच-सोचकर नरवस हो रहे थे कि मंच पर जाते समय कहीं पोज देने में कोई कमी न रह जाये।
राज्याध्यक्ष साहब भी समारोह में थे। वैसे राज्याध्यक्ष साहब तो डॉक्टर साहब के करीबी दोस्तों में थे, जो समारोह के बाद पास के एक होटल में डॉक्टर साहब की ओर से दिये जाने वाले एक भोज के लिए भी आमन्त्रित थे, लेकिन मुझे भी राज्याध्यक्ष साहब ने कार्यक्रम के बाद वहाँ ठहरने के लिए कह दिया था। कमाल भी हम लोगों के साथ ही था।
कार्यक्रम के बाद हम लोग बाहर निकलकर एक ओर खड़े हो गये। भीड़ तेजी से छँटने लगी। लोग बाहर निकलते थे कि कुछ गाडिय़ाँ रवाना हो जाती थीं। और देखते-ही-देखते कारों का सिलसिला अहाते को वीरान करता जा रहा था। थोड़ी ही देर में वहाँ गिने-चुने लोग ही रह गये। हम लोग पैदल ही सडक़ के किनारे चलते हुए करीब के उस होटल की ओर बढ़े जहाँ शाम के भोजन का प्रबन्ध था। लोग दो-दो, चार-चार के झुंड में चल रहे थे ताकि हर कोई हर किसी से बात करने का अवसर उठा सके। डॉक्टर साहब को बधाइयाँ लगातार मिलती रही थीं। वह कुछ देर तक तो हम लोगों के साथ पैदल चलते रहे, फिर नजदीक से एक लम्बी-सी गाड़ी निकली और वह उसमें सवार हो गये। शेष लोग होटल की दिशा में रेंगने लगे।
गर्मजोशी से बातचीत हो रही थी। रहेजा साहब राज्याध्यक्ष साहब से उनकी नयी परियोजना के बारे में ज्यादा-से-ज्यादा जानकारी हासिल करते हुए उन्हें बता रहे थे कि पिछली बार सेंसर ने उन्हें कितना परेशान किया, एक बार तो मामला कोर्ट में जाने की नौबत भी आ गयी थी। रहेजा साहब के दो प्रोजेक्ट पिछले काफी समय सेंसर के चंगुल में पड़े रहे थे।
रहेजा साहब ने रहस्योद्घाटन किया कि उनके पास उनके थीम को पास करवाने के लिए कैसे-कैसे ऑफर आये पर उन्होंने किसी तरह समझौता नहीं किया और इसीलिए उनका मामला अब तक खटाई में पड़ा था। रहेजा साहब बीच-बीच में उत्तेजित हो जाते थे और जोर-जोर से बोलने लग जाते थे। आसपास चलते लोग भी तब उनके करीब हो जाते और उन्हें हाँ में हाँ मिलाकर उकसाते। ‘जख्मी औरत’ के लिए केन्द्र के एक मन्त्री की सिफारिश किस तरह ली गयी, उसका भंडाफोड़ रहेजा साहब बड़े रहस्यमय अन्दाज में कर रहे थे। मगर तभी किसी ने बताया कि जख्मी औरत के प्रोड्यूसर ने तो उन मन्त्री महोदय के प्रति आभार अपनी फिल्म के क्रेडिट्स में भी दिया था।
‘‘फिर उस फिल्म में एब्सर्ड पिक्चराइज तो कुछ नहीं किया गया था, केवल विषय ही तो विवादास्पद था।’’ एक पत्रकार महाशय बीच में बोले। राज्याध्यक्ष साहब और रहेजा साहब दोनों एक-दूसरे की ओर देखते हुए उस पत्रकार को एक-दूसरे का करीबी समझते हुए चुप हो गये। दो बड़ी तोपों को मंदा पड़ता देखकर पत्रकार की बन आयी। वह दुगुने उत्साह से बोल पड़े—
‘‘भई, यदि संवाद और दृश्यों में अश्लीलता न हो तभी ऐसे थीम पास किये जाते हैं। देखिये न, एजूकेटिव फिल्मों में भी सेक्स को किस तरह बिम्बों और रूपकों में दिखाया जाता है। अब आप सीधे-सीधे इन्टरकोर्स फिल्मा देंगे तो ब्लू फिल्मों और फीचर फिल्मों में भेद ही क्या रहा।’’
‘‘लेकिन विदेशी फिल्मों के लिए सेंसर का मानदंड अलग क्यों है?’’ तभी एक नौजवान महाशय भी बहस में बिना बुलाये दर्ज हुए। वह आगे बोले—‘‘यदि इंगलिश फिल्म में इन्टरकोर्स दिखाया जा सकता है, पात्रों को बिलकुल निर्वस्त्र दिखाया जा सकता है, तो भारतीय फिल्म के लिए यह निषेध क्यों?’’
इस विचारोत्तेजक चर्चा में अब केवल राज्याध्यक्ष या रहेजा साहब ही नहीं बल्कि इर्द-गिर्द के और लोग भी शामिल हो गये थे। एक स्वर सुनायी दिया—
‘‘भाई संस्कृतियों का फर्क भी तो होता है। जिस संस्कृति में जो चीज़ स्वाभाविक है, उसे वहाँ के केनवस पर दिखा दिया जाता है। भारत में अभी यह वर्जना है।’’
‘‘भारत की संस्कृति में गालियाँ स्वाभाविक हैं, फिर उन पर क्यों आपत्ति उठाता है सेंसर?’’
पहले वाले सज्जन को निरुत्तर हुआ जानकर वह नौजवान दुगुने उत्साह से बोल पड़ा—‘‘राही मासूम रजा साहब ने उस दिन के भाषण में यह सवाल उठाया भी था। अरे, यदि कोई पुलिसवाला किसी मुजरिम से अपराध उगलवाने के लिए बात कर रहा है तो वह अपने संवादों में श्रीमन-श्रीमन तो उच्चारेगा नहीं, वह तो माँ-बहन की गालियाँ ही देगा। फिर वहाँ स्वाभाविकता का ध्यान नहीं आता सेंसर को? लक्ष्मीकांत बेर्डे के लिए अनजाना साहब ने ‘जायज लूट’ फिल्म में संवाद लिखा था। कटवा दिया गया। केवल लिप मूवमेंट रह गया, आवाज हटवा दी।’’
‘‘क्या संवाद था?’’ एक स्वर उभरा।
‘‘अमाँ यार, छोड़ो, सेंसर ने कटवा दिया, तुम सबको रटवाकर छोड़ोगे।’’ कहते हुए एक कवि महोदय ने मानो सारी बात पर मिट्टी डालने की कोशिश की, जो इस चर्चा से उकता गये थे। कमाल ने हँसकर उनकी पीठ पर हाथ रखा और उन्हें इस अश्लील बातचीत को रोकने के लिए बधाई दी। वह प्रसन्न हो गये। बोले—
‘‘हाँ, यार...साली गालियाँ भी कोई एकेडेमिक डिस्कशन की चीज़ हैं? जब चाहे दे लो। इसमें बहस की क्या बात है!’’
होटल नजदीक आ गया था। सभी लोग भीतर दाखिल हो लिये और बातचीत अब छोटे-छोटे दायरों में सीमित हो गयी। डॉक्टर साहब ने खाने का बहुत अच्छा प्रबन्ध किया था। जो लोग पहले उनकी किताब पर एक बार उन्हें बधाई दे चुके थे, वे भी नजदीक आकर अब खाने के इन्तजाम पर बधाई दे रहे थे।
वहाँ से निकलते-निकलते हमें रात के दस बज गये।
राज्याध्यक्ष साहब ने मुझे वहाँ रोकने का प्रयोजन अब बताया। उन्हें सांताक्रूज में किसी से मिलना था और उसके बाद कलीना में ही वह रात को रुकने वाले थे। बोले—‘‘हम लोग सांताक्रूज चलते हैं। वहाँ से मुझे कलीना छोडक़र तुम लोग वापस चले जाना। कमाल तुम्हें घर पहुँचा देगा।’’ कार में बैठने के बाद शीशे चढ़ाये ही थे कि होटल के पास से एक लडक़ा दौड़ता हुआ आया। शायद पान लेकर आया था। दरवाजा खोलकर पान लिये और गाड़ी दौड़ पड़ी। पॉइंट से घुमाकर गाड़ी मरीन ड्राइव पर आ गयी। यहाँ पर रात के इस समय गाड़ी चलाने का आनन्द कुछ और ही था। सैकड़ों गाडिय़ाँ एक खास रिदम से दौड़ती-होड़ लगाती बढ़ती हैं। फैशन यह है कि जो गाड़ी बढिय़ा होती है उसके लोग आसपास वालों को नहीं देखते बल्कि सामने देखते चलते हैं। जो गाड़ी बढिय़ा नहीं होती, उसके लोग अपने से बेहतर गाड़ी के लोगों को देखते हैं। यदि फियेट या एम्बेसडर और मारुति साथ-साथ चल रही हैं तो फियेट वाले मारुति वालों को देखेंगे। लोगों का स्तर इसी बात से तय होता है कि वे कैसी गाड़ी में हैं, कैसे कपड़ों में हैं। यदि समीप से विदेशी बड़ी गाडिय़ाँ गुजरें तो मारुतियों के लोग उन्हें देखते हैं। बड़ी गाडिय़ों वाले किसी को नहीं देखते। हाँ, यदि कार की खिडक़ी पर कोई खूबसूरत लडक़ी या औरत हो तो यह नियम लागू नहीं होता। तब सब लडक़ीवाली कार की ओर ही देखते हैं। बल्कि कभी-कभी तो इन नियमों के ऐसे अपवाद तक होते हैं कि लडक़ी बिना गाड़ी के भी हो तो उसी को देखे जाने की प्रथा होती है। प्राय: गाडिय़ाँ लेन नहीं बदलती पर यदि नजदीक से गुजरने वाली लड़कियाँ देखने वालों की ओर देख लें तो लेन के ऊपर गाडिय़ाँ जरा-सी डगमगा जरूर जाती हैं। जिसके कपड़े जितने महँगे होते हैं, उसकी आँखें उतनी ही सस्ती होती हैं। ज्यादा हिलती-डुलती हैं। ड्राइवर या शोफर इधर-उधर नहीं देखते पर मालिक लोगों पर पाबन्दी नहीं होती।
फ्लाई-ओवर से सैकड़ों कारों का एक साथ उतरना रात को विशेष रूप से देखने योग्य होता है। एक ओर समुद्र की लहरों का सतत नर्तन और दूसरी ओर गगनचुंबी अट्टालिकाओं का भव्य प्रदर्शन इस जगह को अलौकिक रूप दे देते हैं और यह सब हम और भी डूबकर देख पा रहे थे क्योंकि राज्याध्यक्ष साहब कुछ सोचते हुए काफी धीमी गति से गाड़ी चला रहे थे।
एस.बी. रोड पर होटल हिमालया के नजदीक राज्याध्यक्ष साहब ने कार रोकी। आज कार में थोड़ा कुछ काम करवाने के लिए उसे विकास सेंटर के पास गैराज में ले जाना था। मैं और राज्याध्यक्ष साहब वहीं उत्तर गये, कमाल गाड़ी को गैराज ले गया। होटल के भीतर आकर राज्याध्यक्ष साहब ने इधर-उधर नजर दौड़ाई, फिर काउंटर पर आकर वहाँ बैठे आदमी से दो मिनट बात की। शायद वह किसी की प्रतीक्षा में थे जो हिमालया होटल में ही आने वाला था। थोड़ी देर रुककर हम लोग होटल से बाहर निकल गये। वहाँ से निकलकर धीरे-धीरे घूमते हुए हम लोग मिलन सिनेमा के सामने आये। वहाँ एक दुकान से सिगरेट का पैकेट खरीदकर राज्याध्यक्ष साहब ने सिगरेट सुलगायी और इधर-उधर देखते हुए आगे बढ़े। सिनेमा हॉल की ओर से थोड़ा और आगे बढऩे पर एक छोटी-सी बस्ती पड़ती थी जहाँ इस समय काफी अँधेरा-सा था। वहीं ढूँढ़ते हुए एक गली में से हम लोग भीतर दाखिल हुए। शायद रोड लाइट ज्यादा तेज होने की वजह से ही वह बस्ती अँधियारी-सी लग रही थी क्योंकि वहाँ घरों के सामने जलने वाले बल्ब काफी मंद और धुँधले जल रहे थे। गली में आगे बढक़र एक घुमावदार नुक्कड़ के समीप एक छोटी-सी खोकेनुमा दुकान के पास राज्याध्यक्ष साहब खड़े हो गये। फिर सिगरेट के कश जल्दी-जल्दी लेकर उसे बुझाकर वहीं फेंका और मुझे साथ लेकर ही उस दुकान के भीतर दाखिल हो गये। दुकान किसी दर्जी की थी। एक व्यक्ति काउंटर पर खड़ा होकर किसी कपड़े को बिछाकर काटने की तैयारी कर रहा था। दो लडक़े भीतर की ओर स्टूलों पर बैठे हुए हाथ का काम कर रहे थे। राज्याध्यक्ष साहब को देखकर तीनों ने एक साथ हम लोगों की ओर देखा। भीतर वाला लडक़ा दो स्टूल उठा लाया और कपड़े से झाड़ता हुआ हमारी ओर देखने लगा। राज्याध्यक्ष साहब बैठे नहीं बल्कि आदमी के साथ दुकान के पीछे की ओर अहाते में चले गये। वहाँ एक और छोटा-सा कमरा था। कमरे में तेज ट्यूबलाइट जल रही थी। एक-दो कुर्सियाँ और एक मेज पड़ी थी जिस पर एक फोन रखा हुआ था। पास ही दो-एक अखबार-पत्रिकाएँ रखे थे। कमरे में दो कैलेंडर टँगे हुए थे जिनमें से एक काफी उत्तेजक था। कैलेंडर में एक लडक़ी लगभग बिना कपड़ों के थी और एक पक्षी उसके मोडक़र रखे गये घुटनों पर बैठा उसके वक्षस्थल की ओर देख रहा था। मुझे पक्षी की गरदन काफी अटपटी-सी लगी। उसकी आँखों में भी गन्दी-सी चमक थी। जब मैं कैलेंडर की ओर देख रहा था, स्टूल उठाकर लाने वाला लडक़ा भी उसी तसवीर की ओर देख रहा था और फिर एकाएक झेंपकर भीतर चला गया। राज्याध्यक्ष साहब फोन कर चुके थे और उसके बाद दुकान की बगल में लोहे की सीढिय़ों से एक तंग इमारत के चालनुमा बरामदे की ओर बढऩे लगे। मैं भी उनके पीछे-पीछे चल रहा था। दुकान के सभी आदमी दुकान में वापस लौट चुके थे। चाल के गलियारे में चलते हुए हम लोग एक छोटे-से कोठरीनुमा कमरे में आ गये। कमरा काफी सीलन और गंध भरा था। कमरे में सामान भी उसकी हैसियत से ज्यादा था। मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे वह कमरा कोई ऐसा ब्रीफकेस हो जिसमें जरूरत से ज्यादा वस्त्र भर दिये गये हों और अब वह बन्द नहीं हो पा रहा हो और यहाँ-वहाँ से उसमें से कपड़े और सामान बाहर झाँक रहा हो। दूसरा कमरा भी ऐसा ही था। एक खाट कोने में उठाकर खड़ी करके रखी गयी थी, जिस पर ढेर सारे कपड़े सूख रहे थे। कपड़ों से ही मैंने अन्दाज लगाया कि वह लगभग पाँच-छ: लोगों के परिवार का कमरा रहा होगा। कई साडिय़ाँ, कुछ पैंटें, एक दो पाजामें, ब्लाउज, स्कर्ट, जाँघिये और एक मैला-सा तौलिया उस खाट को चारों ओर से ढकने का प्रयास कर रहे थे।
राज्याध्यक्ष साहब एक कुर्सी पर बैठ गये। मैं भी नजदीक रखी एक तिपायी पर बैठ गया। तभी एक लडक़ी वहाँ आयी। वह दो गिलासों में पानी लिये हुए थी। लडक़ी लगभग बीस-बाईस साल की अविवाहित घरेलू-सी लडक़ी थी। उसने एक कुर्ता और घाघरानुमा पेटीकोट पहन रखा था। दो ही मिनट के बाद एक और औरत, जो पहले वाली लडक़ी से तीन-चार साल बड़ी थी, वहाँ आयी। उसके साथ एक आदमी भी था। आदमी देख मेरी ओर रहा था और राज्याध्यक्ष साहब से हाथ मिला रहा था। बाद में आने वाली इस औरत के बारे में यह अनुमान लगाना थोड़ा कठिन था कि वह विवाहित है या अविवाहित। वह अपने माहौल से काफी अलग थी। साँवला रंग था। वक्षस्थल अपेक्षाकृत भारी था और इस तरह के कुर्ते में और उभरकर दिखायी दे रहा था। कपड़े घरेलू थे। बालों को उसने तरतीब से बनाया हुआ था। मुझे तो ऐसा लग रहा था कि जैसे वह कपड़े बदलने से पहले अपना मेकअप पूरा करके चुकी थी और अब अपने रूप की अपेक्षा साधारण कपड़े पहने खड़ी थी। एक और दीवार पर उसी औरत का एक बड़ा-सा फोटो भी टँगा हुआ था जो ज्यादा पुराना नहीं था। फोटो में वह वास्तविक रूप से भी अधिक खूबसूरत नजर आती थी।
वह किसी बात पर खुलकर हँसी और कुछ बोली तो बहुत भली-सी लगी। उसकी हर बात में एक नाटकीयता थी।
थोड़ी ही देर में पहले वाली लडक़ी एक ट्रे में दो प्लेटों में मटन से बनी कोई चीज़ ले आयी। इच्छा न होते हुए भी हमें प्लेट हाथ में लेनी पड़ी। कमरा काफी गंदा था। मेरा ध्यान इस बात पर तब गया जब मैंने प्लेट से उठाकर मांस का एक टुकड़ा मुँह में डाला। इसी बीच वहाँ दो छोटे बच्चे भी आकर खड़े हो गये। एक बच्चा बिलकुल मेरे समीप आ गया और कौतुक से मुझे खाते हुए देखने लगा। लडक़ा मैले-से कपड़े पहने हुए था। मैंने प्लेट से उठाकर एक टुकड़ा उसकी ओर बढ़ाया, लेकिन उसने बहती हुई नाक को जोर से सुडक़ते हुए इनकार में सिर हिलाया और कोहनी से नाक पोंछने का उपक्रम भी किया। इस उपक्रम में नाक से बहते हुए द्रव की कुछ बूँदें उसकी कोहनी पर लग गयीं और उसमें से श्यान और चिपचिपे तार से निकलकर उसके हाथ पर फैल गये। उसके इनकार के बाद मटन का टुकड़ा मुझे अपने मुँह में डालना पड़ा जो मैंने बड़ी मुश्किल से डाला, कमरे की गन्दगी और आसपास के गंधीले वातावरण से वहाँ अजीब-सी स्तब्धता थी।
राज्याध्यक्ष साहब धीमे स्वर में उन लोगों से बात कर रहे थे। आदमी खामोश-सा ही बैठा था। लडक़ी ही बातों के उत्तर दे रही थी। शायद उसे मेरे बारे में भी राज्याध्यक्ष साहब ने धीमे स्वर में कुछ बताया था क्योंकि वह अब बड़े आत्मीय तरीके से मेरी ओर देख रही थी। मेरी ओर उसके देखने के दौरान मैंने और भी बारीकी से उसके चेहरे की संजीदगी नोट की। लडक़ी में कुछ-न-कुछ ऐसा जरूर था जो उसे बाकी लोगों से अलग कर रहा था।
हम लोग उठे तो मेरे पैर से कोने में रखे एक प्याले को ठोकर लगी जो शायद काफी देर से वहाँ रखा हुआ रहा होगा। उस जूठे प्याले पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। प्याला फूट गया और उसकी एक किरच मेरे पैर के अँगूठे पर लगी। वहाँ से जरा-सा खून भी आने लगा। लडक़ी ने तुरन्त उठकर प्याले के टुकड़ों को समेटकर एक ओर किया। आदमी, दोनों बच्चों तथा दोनों लड़कियों ने मेरे गिर्द एक छोटा-सा घेरा बना लिया। लडक़ी भीतर गयी और तीन-चार मिनट बाद ही डिटॉल में भीगी कपड़े की एक पतली-सी पट्टी ले आयी। लडक़ी के पीछे-पीछे ही एक और लडक़ा चला आया। उसने झुककर मेरे अँगूठे के गिर्द वह भीगी हुई पट्टी लपेट दी। यद्यपि चोट नहीं लगी थी पर औपचारिकता और शिष्टाचारवश माहौल में गहमागहमी-सी कुछ ज्यादा ही हो गयी।
मैंने पट्टी को जरा कसते हुए उस पर हाथ फेरा, इतने में ही राज्याध्यक्ष साहब भी उठकर खड़े हो चुके थे। हम लोग बाहर निकलकर गली में चलते हुए मुख्य सडक़ पर आ गये। कुछ दूर तक वह आदमी भी हमारे साथ आया था, फिर वह वापस लौट गया। सडक़ पर चलते हुए मैंने एक सिगरेट जलायी और पैकेट राज्याध्यक्ष साहब की ओर बढ़ाया। मैं रुककर दोनों हाथों की ओट करके उनके मुँह में दबी सिगरेट को जला ही रहा था कि हिमालया होटल के गेट के पास कमाल गाड़ी लेकर आता दिखा।
हम लोग गाड़ी में बैठे और कमाल ने गाड़ी कलीना की ओर मोड़ दी। राज्याध्यक्ष साहब को कलीना मार्केट के निकट एक फ्लैट में छोडक़र वापस लौट रहे थे कि कमाल को सहसा जैसे कुछ याद आया। बोला—
‘‘फ्रांसिस से मिल लें क्या?’’
‘‘चलो, मिलेगा क्या इस समय?’’ मैंने कहा। क्योंकि वह प्राय: शाम के बाद ही घर से निकलता था।
कमाल ने जवाब दिये बिना तेजी से गाड़ी वापस घुमाई और उसी दिशा में आगे मेनरोड पर डाल दी। थोड़ी ही देर बाद हम फ्रांसिस के कमरे के सामने थे। फ्रांसिस एक चाल में रहता था जो मुख्य सडक़ से लम्बवत् थी। फ्रांसिस का कमरा चाल के उस दूसरे सिरे पर था जो सडक़ से दूर था। कमाल ने कार की डिक्की से एक छोटा-सा थैला निकाला और उसे बगल में दबाकर गाड़ी को वहीं छोड़ फ्रांसिस के कमरे की ओर बढ़ा।
फ्रांसिस घर पर ही मिल गया। कमाल के हाथ के थले की ओर देखते हुए उसने मुझे नमस्कार किया और दोनों की अगवानी करता हुआ भीतर की ओर आगे-आगे चलने लगा।
कमाल ने थैला फ्रांसिस की पत्नी को सौंप दिया, जो हम लोगों की आहट पाकर अभी-अभी भीतर रसोई से निकलकर कमरे में आयी थी। फ्रांसिस की एक बहन भी कमरे में ही थी और एक टूटे हुए दीवान पर अधलेटी दीवार में लगा पोर्टेबल टी.वी. देख रही थी। फ्रांसिस की यह बहन कद में काफी छोटी थी और लगभग छब्बीस-सत्ताईस वर्ष की हो जाने पर भी उसकी शादी अब तक नहीं हो पायी थी। यह लडक़ी मानसिक रूप से सामान्य नहीं थी। उसकी दृष्टि में भी थोड़ा टेढ़ापन था। वह हम लोगों को देखकर भी हिली नहीं। उसी तरह स्कर्ट पहने पैर फैलाकर लेटी रही। फ्रांसिस की पत्नी कमाल के दिये थैले को भीतर रखकर लौटी और दीवान के पास जाकर फ्रांसिस की बहन के नजदीक बैठ गयी। फ्रांसिस की पत्नी ने ऐसा जान-बूझकर किया था क्योंकि फ्रांसिस की वह विकलांग बहन कुछ इस तरह से लेटी थी कि उसकी स्कर्ट से उसकी जाँघें काफी ऊपर तक दिखायी दे रही थीं। बल्कि एक टाँग पर तो उसका अण्डरवीयर तक नजर आ रहा था। फ्रांसिस की पत्नी ने वहाँ बैठकर न केवल ओट कर दी बल्कि दुलार से उसके पैर पर हाथ फेरने के बहाने उसकी स्कर्ट भी सरकाकर नीचे कर दी। फ्रांसिस की पत्नी एकाएक बोली—
‘‘भैया, आम तो बहुत अच्छे हैं। अचार बनाऊँगी मैं...’’
‘‘हाँ, मैं सारे यहीं ले आया।’’ कमाल बोला—‘‘आपका अचार बहुत टेस्टी होता है।’’
फिर कमाल मेरी ओर मुखातिब हुआ। बोला—‘‘तुम्हारे घर के नजदीक एल.आई.सी. कॉलोनी के पेड़ों के आम हैं। परसों रात को वहाँ से लौटते हुए कार की छत पर चढक़र मैंने तोड़े थे।’’
मैं चौंक गया। मेरा ध्यान घर के नजदीक की सडक़ पर लगे उस बोर्ड पर चला गया जिसे मैं आते-जाते देखा करता था। उस पर लिखा था—‘‘आम तोडऩा मना है।’’ कमाल कह रहा था, ‘‘मौसम में कौन छोड़ता है, सब तोड़ते हैं आम।’’ और फ्रांसिस की पत्नी फ्रांसिस की बहन को दुलार से फिर सहला रही थी।
फ्रांसिस की पत्नी हम लोगों के लिए कोकम शरबत बनाने के लिए भीतर चली गयी। तभी कमाल और फ्रांसिस में कुछ खुसर-फुसर शुरू हो गयी। फ्रांसिस जल्दी-जल्दी कमाल को कुछ बता रहा था।
‘‘वे लोग अभी भी यहीं हैं या चले गये?’’ कमाल ने पूछा।
‘‘जायेंगे कैसे! हाँ, अब कमरे पर ताला पड़ा है, काफी दिन से आये नहीं हैं।’’
‘‘तेरी कुछ बात हुई उनसे?’’
‘‘बात क्या, मैं मिलता तो सालों की गरदन काटकर चाल के दरवाजे पर लटका देता। मैं तो था ही नहीं।’’
फ्रांसिस की पत्नी शरबत ले आयी थी।
जब हम लोग फ्रांसिस से विदा लेकर वापस निकले तो मैंने इस विषय में कमाल से पूछा। उनकी बातों का जो अंश मैंने सुना था, उसका खुलासा कमाल ने किया।
फ्रांसिस की इस चाल में एक व्यक्ति रहता था जिसके कई गलत धंधे थे। कहते थे कि कभी-कभी बड़े-बड़े लोगों की गाडिय़ाँ भी इस चाल के बाहर ठहरती थीं। इस व्यक्ति के साथ दो-तीन आदमी और रहते थे। ये सभी किसी स्मगलिंग गैंग के लिए काम करते थे। यहाँ शाम के बाद ही चहल-पहल दिखायी देती थी। उस आदमी ने एक फोटो स्टूडियो खोल रखा था, जिसकी आड़ में कई गैरकानूनी गतिविधियाँ वहाँ पनप रही थीं।
इन्हीं लोगों ने फ्रांसिस की इस बहन को एक बार पकड़ लिया था। संयोग से फ्रांसिस के एक दोस्त की निगाह पड़ जाने से वे सभी उसे छोडक़र भाग छूटे थे और चाल के पिछवाड़े टूटे पड़े शौचालय के खंडहर से फ्रांसिस की बहन को उसी दोस्त ने वापस घर पहुँचाया था। स्कूल में पढऩे वाले चाल के ही दो लडक़ों ने बताया था कि इसे पहले भी वे लोग कई बार लेकर जा चुके हैं और एक-दो लोग देख भी चुके थे। लेकिन स्टूडियो वाले गैंग के डर से किसी ने किसी से कुछ कहा नहीं था। एक दिन फ्रांसिस की बहन को चाल की छत पर ले जाकर उन लोगों ने उसके कुछ निर्वस्त्र फोटो भी खींच लिये थे। कुछ दिन बाद यही घटना चाल की एक और लडक़ी के साथ हुई थी। वह स्टूडियो में फोटो खिंचवाने आयी थी, तब इन लोगों ने उसे एक फिल्म में काम दिलवाने का लालच देकर उसे भीतर ले जाकर उसके साथ मुँह काला भी किया था और उसके बिना कपड़ों के फोटो भी उतार लिये थे।
लेकिन यह बात छिपी नहीं रह सकी। कॉलेज के तीन-चार लडक़े एक बार अपने पासपोर्ट फोटो खिंचवाने उसी स्टूडियो में आये। जब वे अपने फोटो लेकर गये तो एक लडक़े के फोटो के लिफाफे में गलती से एक ऐसा निगेटिव चला गया जो किसी लडक़ी के निर्वस्त्र फोटो वाली रील से ही था। लडक़े ने संयोग से कुछ दिन बाद अपने फोटो की कॉपी निकलवाने के उद्देश्य से लिफाफे में रखा निगेटिव देखा तो वह चौंक गया। उसने अपने दोस्तों को वह फोटो दिखाया। दोस्तों में ही वरली के एक पुलिस अधिकारी का बेटा भी था। उसने वह निगेटिव पुलिस थाने में भिजवा दिया और सारी बात का ब्यौरा भी लडक़े से लेकर अपने पिता के मार्फत एक अफसर को दे दिया। पुलिस हरकत में आ गयी। स्टूडियो पर छापा पड़ा था और अब उन तीनों-चारों लोगों का कोई अता-पता नहीं था। स्टूडियो पर भी ताला पड़ा था।
और अब फ्रांसिस इसीलिए निश्चित था कि कम-से-कम पुलिस की ओर से कार्रवाई शुरू हो जाने के बाद यह सब यहाँ ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकेगा। लेकिन उसे यह चिन्ता जरूर थी कि उसकी बहन के इस तरह के और फोटो कहीं उन लोगों के पास न हों। यह वह स्वयं ही चाल के स्कूली लडक़ों से सुन चुका था कि उसकी बहन को वे गुंडे पहले भी दो-तीन बार उठाकर ले जा चुके हैं। लडक़ों ने भी यह बात अब पुलिस द्वारा छापा पड़ जाने के बाद ही बतायी थी। पहले वे बताने में डरते थे। वैसे भी बम्बई में यह मामला अब बड़ा संवेदनहीन बन चुका है। कौन उठाकर ले जाया जा रहा है और कौन अपनी या अपने रखवालों की मर्जी से जा रहा है, पहचान पाना कई बार मुश्किल होता है। फ्रांसिस की पत्नी ने तो लडक़ी का मेडिकल चेकअप करवाने और अपनी ओर से भी पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने के लिए फ्रांसिस पर जोर डाला था मगर फ्रांसिस बहन के भविष्य के बारे में सोचकर ही इन सब लफड़ों में पडऩे से कतराता था। वैसे सबूत के तौर पर उसके पास चाल के ही दो लडक़े थे जिन्होंने एक बार फ्रांसिस के कमरे के पीछे थोड़ी दूर पर बने गुसलखाने की छत पर एक लडक़े को कैमरा लिये चढ़े हुए देख लिया था। फ्रांसिस की बहन गुसलखाने में शाम के समय नहाने के लिए गयी हुई थी। लडक़ा कैमरा ठीक करने के बहाने तीसरे पहर के बाद से ही छत पर ताक लगाये बैठा था।
लेकिन यह सबूत पुलिस के लिए भी पर्याप्त नहीं था। फिर फोटो खींचने वाला लडक़ा कौन था, अब कहाँ था, किसी को पता नहीं था। उसे फोटो खींचते हुए भी देखा नहीं गया। हमारे कानून भी तो ऐसे हैं कि बद को पकडऩे के लिए बदनामी जरूरी है। कोई गलत करता रहे पर महत्त्वपूर्ण यह है कि वह गलत करता हुआ सार्वजनिक तौर पर देखा जाये।
फ्रांसिस से मिलकर तेजी से गाड़ी दौड़ाते हुए हम लोग घर की ओर चल दिये। देर भी काफी हो चुकी थी।
शायद कमाल को गाड़ी चलाते-चलाते ही ध्यान आया कि इन डॉक्टर साहब ने, जिनकी किताब का आज विमोचन था, कभी कमाल से किसी ऐसे लडक़े की व्यवस्था करने को कहा था जो डॉक्टर साहब के लिए लिखने का काम कर सके। डॉक्टर साहब आजकल फिर एक और किताब पर काम कर रहे थे। यह किताब भी बीमारियों से सम्बन्धित चिकित्साशास्त्र पर आधारित पुस्तक ही थी। डॉक्टर साहब को खाली समय बहुत कम मिलता था। इसलिए वह कोई ऐसा व्यक्ति चाहते थे जिसे वह दिनभर में कुछ घंटे डिक्टेशन दे सकें और वह व्यक्ति उनसे डिक्टेशन लेकर, लिखकर या टाइप करके सामग्री उन्हें यथासमय दे सके। कमाल ने सोचा शायद ऐसा कोई व्यक्ति मेरे परिचय के दायरे में हो, इसी से उसने मुझे यह बताया। इसी तरह की पेशकश बहुत साल पहले मुझसे बम्बई के एक बहुत ही नामी-गिरामी साहित्यकार ने भी की थी जो कि फिल्म जगत् के एक बहुत ही लोकप्रिय अभिनेता के पिता भी थे और बम्बई में अपने पुत्र के साथ ही रहते थे। उस वक्त उनकी पेशकश पर स्वयं मेरा ही नाम मेरे दिमाग में आया था परन्तु अब इस समय कोई ऐसा पात्र मेरे ध्यान में नहीं था। उस समय भी अन्य कई व्यवधानों के कारण मैं भी यह कार्य नहीं कर पाया था। कमाल को मैंने फिलहाल कोई उत्तर नहीं दिया।
कार तेजी से दौड़ती चली जा रही थी। रात बहुत हो चुकी थी। अभी हम लोग जोगेश्वरी के एक मन्दिर के समीप से गुजर रहे थे कि सहसा सडक़ पर थोड़ी भीड़ दिखायी दी। प्राय: इस शहर में ऐसी भीड़ का कोई प्रयोजन नहीं होता। आप कहीं भी खड़े होकर कुछ भी कहने या करने लगें तो तमाशबीन आपके इर्द-गिर्द खड़े हो ही जायेंगे या फिर जगह-जगह समय-असमय शूटिंग होते रहने से भी इस तरह की छोटी-मोटी भीड़ का जमावड़ा दिखायी दे जाता है। लेकिन यह इस तरह की भीड़ नहीं थी। कार तेजी से सडक़ पर जा रही थी। हम लोगों ने इस हलचल की ओर विशेष ध्यान भी नहीं दिया कि तभी एक बूढ़ा-सा आदमी सडक़ पर पछाड़ खाता हुआ बिलकुल हमारी कार के सामने आ गया। कमाल ने झटके से ब्रेक लगाये। कार झटके से रुक गयी। जोर की आवाज हुई। आसपास एक-दो गाडिय़ाँ और रुक गयीं। कुछ गाडिय़ाँ तेजी से लेन से बाहर निकलकर आगे बढ़ गयीं।
कमाल ने बूढ़े को एक बहुत ही घुमावदार गाली दी। शायद हम भी बूढ़े के एक ओर से गाड़ी निकालकर आगे बढ़ जाते मगर तभी बूढ़े के पीछे-पीछे तीन-चार लोग शोर मचाते हुए और आ गये। उनके पीछे-पीछे तमाशबीनों की भीड़ थी जो बूढ़े और कुछ युवकों के बीच बन गये उस तमाशे को देखने-सुनने की गरज से भीड़ के रूप में साथ-साथ आ रहे थे।
भीड़ उत्तेजित-सी थी। बूढ़ा बुरी तरह लस्त-पस्त था और अब बुरी तरह से लहूलुहान भी। उसके कपड़े जगह-जगह से फटे हुए थे। उसके मुँह, सिर और हाथ, जगह-जगह से खून बह रहा था। दो-तीन युवा लडक़े उसे मार रहे थे। वे मारते-पीटते और गाली देते हुए उसके पीछे-पीछे चले आ रहे थे। बूढ़ा जान बचाने की कोशिश में भागता-भागता सडक़ के बीचोंबीच आ गया था। बूढ़ा शक्ल से पारसी दिखायी देता था। उसकी उम्र लगभग सत्तर वर्ष होगी। वह बहुत ढीली-सी पैंट और गहरे हरे रंग की बाहोंदार, जीन के कपड़े की शर्ट पहने हुए था। उसकी आँखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा था। पैंट पुराने ढंग की गैलिसदार थी जिसकी एक ओर की पट्टी शायद किसी के खींचने से टूटकर एक ओर लटक गयी थी। उसके पैरों में जूता या चप्पल कुछ नहीं था, जो सम्भवत: इस भगदड़ में उसके पैरों से निकल गया होगा।
कमाल ने गाड़ी रोककर एक किनारे लगा ली और अपनी ओर का दरवाजा खोलकर बाहर निकल पड़ा। उसे बाहर निकला देखकर बूढ़ा उसके पास आकर उससे लगभग लिपट-सा गया और फिर उसके घुटनों को पकडऩे की कोशिश में कार के बोनट से रगड़ खाता हुआ आगे वाले पहिये के पास गिर गया। बोनट पर बूढ़े की कनपटी से निकले खून ने एक काफी मोटी-सी धारी बना दी। खून काफी जोर से निकल रहा था। बूढ़ा कुछ बोलने की कोशिश कर रहा था परन्तु कुछ बोल नहीं पा रहा था। उसके मुँह से गूँ-गूँ जैसी अस्पष्ट-सी आवाज ही आ पा रही थी। उसका चश्मा भी एक ओर झूल गया था जिसे उसने अपने हाथ से पकड़ लिया। उसके गिरते-गिरते भी एक लडक़े ने आगे बढक़र उसकी पीठ में एक जोर की लात और जमा दी। लडक़ा अभी भी उत्तेजित होकर गालियाँ बकता हुआ बूढ़े पर लातों की बौछार किये जा रहा था। उसके साथ के दो-तीन युवक अब कुछ शांत हो गये थे पर वे भी साथ-साथ बढ़ते हुए बूढ़े की ओर ही आ रहे थे। आगे वाला युवक लगभग अठारह-उन्नीस वर्षीय किशोर होगा जो किसी अच्छे खाते-पीते घर का नजर आता था। लडक़े के बाल बुरी तरह फैलकर माथे पर आ गये थे। वह लाल कमीज और सफेद पैंट पहने हुए था। कमीज पर कुछ स्थानों पर खून और धूल-मिट्टी के मिले-जुले दाग लग गये थे। वह बहुत ही गुस्से में था। उसके सफेद जूतों के लेस खुलकर लटक गये थे पर वह रह-रहकर बूढ़े को लातों और घूँसों से मारे जा रहा था। उसके प्रहार थमने में ही नहीं आ रहे थे। बूढ़ा बीच-बीच में अँग्रेजी में कुछ बोलने की कोशिश कर रहा था। लडक़े ने एक बार जोर से बूढ़े के मुँह की ओर थूका। उसके थूक की लकीर-सी बनकर बूढ़े की नाक से होकर ठोड़ी से होती हुई गरदन तक फैल गयी। बूढ़ा बेहद दयनीय लग रहा था।
अब हम लोगों से नहीं रहा गया। कमाल ने आगे बढक़र लाल कमीज वाले युवक का हाथ पकड़ लिया और उसे समझाने के स्वर में बोला—‘‘यार, बात क्या है? तुम लोग अपने बाप की उमर के आदमी से इस तरह पेश आ रहे हो, आखिर गलती क्या है इसकी?’’
लडक़े ने घृणा से एक ओर देखकर थूक दिया और बिना कुछ बोले सिर को झटककर कार के बोनट पर अपना पैर रखकर जूते के फीते बाँधने लगा। उसके सफेद कपड़ों पर खून के दाग और जूतों के बड़े-बड़े लाल लेस एक जैसा ही भ्रम पैदा कर रहे थे। लडक़ा बिना कुछ बोले ही पलटने लगा। उसके साथी लोग भी सडक़ के किनारे थमे-से खड़े थे। तमाशबीनों की टकटकी भरी निगाहें अब भी मजमे पर लगी थीं मानो उन्हें रात का दूसरा प्रहर शुरू हो जाने का भी आभास न हो।
बूढ़ा लगभग अधमरा-सा होकर कार के दरवाजे से सहमा-सा चिपका खड़ा था। कमाल ने सहारा देकर उसे खड़ा किया और उसके चश्मे को सीधा करते हुए उसी से पूछा—‘‘आप ही बताइये अंकल, क्या बात हो गयी?’’
लडक़े व्यंग्य से हँस दिये। लाल कमीज वाला लडक़ा जाते-जाते पलटकर बोला—‘‘अरे, ये क्या बतायेगा साला भड़वा...हरामी...!’’
‘‘भाई बात क्या है, बताओ तो सही? सत्तर साल के एक आदमी ने ऐसा तुम्हारा क्या बिगाड़ा है।’’ मैंने भी कहा। लडक़ों में कुछ खुसर-पुसर हुई। फिर एक लडक़े ने मुझे इशारे से जरा अलग बुलाया और लगभग फुसफुसाने के ही अंदाज में मुझे घटना का संक्षिप्त ब्यौरा देने लगा।
सब सुनने के बाद मेरी आँखें आश्चर्य से फैली रह गयीं। मैंने सभी की ओर देखते हुए कहा—‘‘तुम में से कौन था? किससे बात की इसने?’’
वही लाल कमीज वाला लडक़ा आगे बढक़र आया। बोला—‘‘मैं था...इस साले मवाली को मैं पहले भी तीन-चार बार यहाँ घूमते देख चुका हूँ पर मुझे पता नहीं था। आज पहली बार इसने ये सब बात की।’’
‘‘तुम कहाँ रहते हो?’’
‘‘यहीं रहता हूँ गोरेगाँव में। आरे रोड पर।’’
‘‘क्या करते हो?’’
‘‘पढ़ता हूँ डालमिया कॉलेज में।’’
‘‘तुम्हारे पिता क्या काम करते हैं?’’
‘‘गोरेगाँव में ही इण्डस्ट्रियल एरिया में हमारी फैक्टरी है।’’
‘‘तुम्हारा नाम...’’
‘‘संजय... संजय धनराजगीर।’’
‘‘ठीक है।’’ मैंने कहते हुए अपनी जेब से अपना कार्ड निकालते हुए उसे दिया। मैंने कहा—‘‘यदि तुमसे बात करने की जरूरत होगी तो तुम आ सकोगे?’’
लडक़ा अब काफी नरम पड़ गया और उसने भी जेब से अपने नाम और पते का एक कार्ड निकालकर मुझे दिया। कार्ड काफी खूबसूरत और दो रंगों में छपा हुआ था। अँग्रेजी में सुन्दर शैली में उसका नाम कार्ड पर छपा था। नीचे पिता का नाम, पता और टेलीफोन नम्बर था।
‘‘ओ.के.... धन्यवाद’’ कहते हुए हम लोग कार के दरवाजे की ओर बढ़े। संजय ने आगे बढक़र मुझसे हाथ मिलाया और मेरे कार्ड को एक बार फिर देखते हुए जेब में रख लिया। बाकी लडक़ों ने संजय को घेर लिया और वे लोग पलटकर अँधेरे में विलीन हो गये।
हम लोग भी चल दिये। कमाल ने बूढ़े को उसके ठिकाने छोडऩे की गरज से कार में ही बैठा लिया था। बूढ़ा अब भी काँप रहा था। कार तेजी से चल पड़ी।