Ret hote Rishtey - 5 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | रेत होते रिश्ते - भाग 5

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रेत होते रिश्ते - भाग 5



मैं ऑफिस में बैठा हुआ शाम को निकलने की तैयारी ही कर रहा था कि कमाल का फोन आया। मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि राज्याध्यक्ष साहब से मेरी सुबह ही फोन पर बातचीत हुई थी और उन्होंने मुझे बताया था कि वह एक जरूरी काम से दो दिन के लिए अहमदाबाद जा रहे हैं।
क्या राज्याध्यक्ष साहब का जाने का कार्यक्रम रद्द हो गया या वह कमाल के पास मेरे लिए कोई सूचना छोड़ गये हैं—यही सब सोचते हुए मैंने कमाल से बात की। वह कह रहा था कि हम लोग आज शाम को मिलें।
मैंने कमाल से कह दिया कि वह मुझे अँधेरी स्टेशन पर मिल जाये, मैं लगभग सात बजे तक वहाँ आ जाऊँगा। कमाल इस सूचना पर एकदम से खुश हो गया क्योंकि वह मुझे साथ लेकर शाम को वरसोवा जाना चाहता था। मुझे एक और सरप्राइज दिया कमाल ने। उसने बताया कि आज दोपहर को राज्याध्यक्ष साहब की डाक में मेरे लिए भी एक पत्र है। मैं चौंका। सोचा, क्या हो सकता है। कमाल से पूछा भी। मगर उसने बताया नहीं। बोला—‘‘मिलने पर खुद ही देखना।’’ और फोन रख दिया, मैं सोचता रह गया।
शाम को अँधेरी पहुँचा तो नियत जगह पर कमाल को पहले से खड़े पाया। मुझे देखते ही फौरन आगे बढक़र आया और हमने स्टेशन से बाहर निकलते ही एक ऑटो रिक्शा पकड़ लिया। इस समय रिक्शा भी हमें तुरन्त न जाने कैसे मिल गया, क्योंकि आमतौर पर इस समय बहुत भीड़ हो जाती थी और टैक्सी, रिक्शा के लिए भी बसों की भाँति लम्बी-लम्बी लाइनें लगा करती थीं। इस समय बम्बई के सभी उपनगरीय रेलवे स्टेशन इन्सानों की उल्टी किया करते थे और इस वमन में इमारतों से लोग उसी तरह निकला करते थे जैसे किसी बर्र के बड़े पुराने छत्ते में पत्थर मारने पर असंख्य मक्खियाँ निकला करती हैं। मक्खियों को फिर भी यह सुविधा रहती है कि वे एक-दूसरी से रगड़ खाये बिना आसमान में फैल सकती हैं; मगर इन्सानों को यह सुविधा उपलब्ध नहीं थी। उन्हें चाहे अनचाहे एक-दूसरे से रगड़ खाते हुए ही निकलना होता था। कुछ लोगों को यह पीड़ादायक लगता था तो कुछ लोगों को आनन्ददायक। बस इसी से तो आबाद है यह शहर—सोचता हुआ मैं कमाल को देख रहा था जो इतनी भीड़ में भी न जाने किस तरह बच-बचाकर सफेद सिल्क का कुर्ता और पाजामा पहने हुए था। चेहरे से भी फुरसत और ताजगी टपक रही थी। शायद राज्याध्यक्ष साहब के बाहर जाने के कारण वह भी फुरसत में रहा होगा।
इसी से ऑटो रिक्शा मिलते ही हम लपककर उसमें चढ़ लिये और वरसोवा की ओर चल दिये। कमाल के हाथों में सुनहरी मछलीनुमा छल्ले में एक चाबी थी जिसे रह-रहकर वह घुमा रहा था। मैं सोच रहा था शायद कार की चाबी होगी जो राज्याध्यक्ष साहब छोड़ गये होंगे। पर जब मैंने कमाल से पूछा तो उसने मेरे प्रश्न का उत्तर प्रश्न ही से दिया। बोला— ‘‘यदि राज्याध्यक्ष साहब कार छोडक़र जाते तो तुम्हें लेने मैं कार लेकर ही न आता?’’
चाबी वास्तव में एक फ्लैट की थी जिस पर हम लोग जा रहे थे। वरसोवा के समुद्रतट के किनारे थोड़ा एकांत में शांगरिला अपार्टमेंट्स इमारत में दूसरी मंजिल पर एक फ्लैट था जहाँ हम लोग आये थे। यह वही फ्लैट था जो कुछ समय पहले राज्याध्यक्ष साहब ने अपने दामाद और बेटी के लिए खरीदा था, मगर वे लोग अभी उसमें रहने के लिए नहीं आये थे। उसमें अभी रंग-रोगन और मरम्मत का कुछ काम भी बाकी था। इस जगह का इस्तेमाल भी फिलहाल राज्याध्यक्ष साहब ही किया करते थे। घर में घुसते ही कमाल ने मेरे हाथ में दोपहर को राज्याध्यक्ष साहब की डाक में आया वह पत्र पकड़ा दिया और स्वयं वीडियो पर ‘डेजी’ फिल्म लगाकर बाहर चला गया। मैंने लिफाफे में से कागज बाहर निकालकर देखा तो उसमें कुछ फोटोग्राफ थे और साथ में एक कागज में टाइप किया हुआ एक पत्र था। मैंने फोटो एक ओर रख दिये और पहले पत्र को जल्दी-जल्दी पढ़ गया। पत्र अँग्रेजी में लिखा गया था। पत्र मेरे लिए नहीं, राज्याध्यक्ष साहब के लिए ही था।
सभी फोटो शाबान के थे। चार फोटो रंगीन थे और दो काले-सफेद थे। एक फोटो स्वयं मेरा खींचा हुआ था। सभी चित्र बहुत सुन्दर थे और शाबान का बिलकुल नजदीक से खींचा गया क्लोजअप तो बेहद प्रभावशाली था। मैं बहुत देर तक उसे देखता रहा। उसकी आँखों में दो सुनहरी मछलियाँ थीं जिन्हें मैंने कभी बर्फ की सिल्लियों के बीच दबे हुए देखा था। इस समय बर्फ कहीं नहीं थी। सारे चेहरे पर पानी ही पानी बह रहा था; बल्कि गालों और होठों के नजदीक तो पानी बेहद साफ और गुनगुना था। मछलियाँ इठलाती हुई तैर रही थीं।
पत्र में शाबान का सारा विवरण व पता था। लेटरहैड पर खूबसूरत अक्षरों में उसका नाम ‘शाबान खान’ लिखा हुआ था।
मैं चकित होकर पत्र व चित्रों को उलटने-पलटने लगा, तभी दरवाजा खोलकर कमाल दाखिल हुआ। वह मेरी ओर देखकर चित्रों पर मेरी प्रतिक्रिया पढऩे की कोशिश करने लगा मगर वह बोला कुछ नहीं। हाथ में पकड़े हुए सामान को लेकर सीधा भीतर चला गया।
कमाल थोड़ी ही देर में दो गिलास लेकर उनका पानी झाड़ता हुआ वापस आया और बोला—‘‘क्या तुम्हें जानकारी थी कि राज्याध्यक्ष साहब के विज्ञापन पर तुम्हारा दोस्त भी आवेदन भेज रहा है?’’ शाबान से मेरे साथ सिर्फ एक बार मिल चुका था कमाल। पर उसके बारे में हमारी बातचीत कई बार हुई थी। और मैं देखता था कि कमाल कभी भी शाबान का नाम नहीं लेता था बल्कि हमेशा वह उसे ‘तुम्हारा दोस्त’ ही कहकर पुकारता था।
कमाल एक बहुत अच्छी शराब लाया था। जेब से निकालकर उसने फ्लैट की चाबी और सिगरेट का पैकेट सामने मेज पर डाला और गिलास उठा लिया। कमाल मुझे आज और दिनों से कुछ ज्यादा गहरा लग रहा था।
इन्सान गहरा कैसे होता है? इन्सान की गहराई कैसे मापते हैं? और सबसे बड़ी बात यह कि इन्सान गहरा क्यों हो जाता है? उथला होना तो बड़ा आसान होता है। फिर इन्सान कठिन चीज़ हाथ में क्यों ले लेता है? इन सब बातों का जवाब यही है कि इन्सान हाथ में कुछ नहीं लेता। कोई अनदेखा हाथ ही इन्सान को हाथ में लिये रहता है। इसलिए अपनी गहराई पर इन्सान का कोई अख्तियार भी नहीं रहता। इन्सान इस हाथ को देख पाये तो पकडक़र मरोड़ भी दे और जरूरत हो तो पुचकारकर चूम भी ले। पर ऐसा होता कहाँ है। आँखों की भी तो सीमा है।
आज न जाने क्या बात थी, कमाल बहुत पी रहा था। दो पैग के बाद वह मुझसे आगे निकल गया। मेरे तीसरे पैग के साथ उसने तीन बार गिलास खाली किया। मुझे कुछ अजीब-सा लगा। कमाल के साथ रहते हुए मैं महसूस करता था कि हम धूप में चल रहे हैं। लेकिन आज मुझे महसूस हो रहा था कि जैसे हम किसी धुँध से गुजर रहे हैं। मुझे कमाल कुछ व्यथित-सा भी लगा।
यह सही है कि कमाल को जिन्दगी के बहुत से अनुभव हो चुके थे। वह अरसे से राज्याध्यक्ष साहब के साथ भी काम कर चुका था। लेकिन उम्र उसकी कोई ज्यादा नहीं थी। उसके चेहरे पर एक भोलापन था ही, जो कभी-कभी बहुत मासूम बना देता था उसे। आज यह मासूमियत मुझे और भी दयनीय-सी लग रही थी। मैं थोड़ी ही देर में महसूस करने लगा कि आज की शाम सिर्फ समय काटने के उद्देश्य से मैं और कमाल यहाँ नहीं आ बैठे हैं बल्कि कमाल का कोई सोचा-समझा प्रयोजन है जो उजागर होने वाला है। इसी आलम में कमाल खोता जा रहा था। यहाँ तक कि बोतल आधी से अधिक खाली हो जाने के बाद अब उसकी आँखें भी सुर्ख होने लगी थीं। वह सोफे से उतरकर जमीन पर बैठ गया था और उसके दोनों पैर फैले हुए थे। वह सोफे के सहारे टेक लेकर अधलेटा-सा हो रहा था और उसकी आँखें पल-पल रंग बदलती जा रही थीं।
मैं अपना गिलास खाली कर चुका था और जब कमान ने उसे दोबारा भरना चाहा तो आग्रहपूर्वक मैने उसे रोक दिया। वह रुक तो गया पर मुझे लगा कि वह जैसे अकेला होता जा रहा है। मैंने उसे दोबारा थामने की गरज से गिलास में एक पैग और डान लिया। थोड़ा पानी मिलाकर मैंने कमाल के गिलास में पड़ी बर्फ का टुकड़ा अँगुली से निकाला और अपने गिलास में डाल लिया। कमाल एकटक मेरी ओर देखता रहा। मैंने साथ की प्लेट से थोड़ी-सी बर्फ उठाकर उसके गिलास में डाल दी। मुझे लगा, जैसे जिस पगडण्डी पर मैं और कमाल बढ़ते जा रहे थे, वह बीच में से चिरकर दो फाड़ होते-होते बच गयी। हम फिर एक-दूसरे के पैरों पर पैर रखे हुए बढऩे लगे।
‘‘राज्याध्यक्ष साहब के स्क्रीन वाले विज्ञापन की रेस्पॉन्स कैसी रही?’’ मैंने सहसा कमाल से पूछा।
इस प्रश्न के जवाब में कमाल ने एक बार गहरी नजर से मुझे देखा और फिर धीरे-से उठकर खड़ा हो गया। उसने एक अलमारी खोली और एक काला-सा फोल्डर निकालकर मेरे सामने धीरे-से सरका दिया। मैंने कबाब का एक टुकड़ा मुँह में डालकर अपना हाथ पास में रखे एक रूमाल पर रगड़ा और फोल्डर को खोलकर देखने लगा।
फोल्डर में लगभग तीन सौ तरह-तरह के फोटो थे। कुछ सादे थे और ज्यादातर रंगीन। यह सब देशभर से आये हुए सोलह-सत्रह से लेकर तीस साल तक के नौजवानों के अलग-अलग शैलियों में, अलग-अलग कोणों से खिचे हुए फोटोग्राफ थे। कई लोगों के चार-चार, पाँच-पाँच फोटो भी थे। फोल्डर के दूसरे हिस्से में एक क्लिप में लगे हुए लगभग साठ-सत्तर पत्र थे जो करीने से लगाकर रखे हुए थे। कुछ हाथ से लिखे हुए थे, कुछ टाइप किये हुए।
फोल्डर किसी गहरे पानी की झील की तरह दिखायी दे रहा था जिसमें ढेर सारी रंग-बिरंगी मछलियाँ तैर रही हों। हर मछली की आँखों पर उम्मीद के माणिक जड़े हुए थे। अलग-अलग किस्म के पहनावे, अलग-अलग रंगों के। कोई कपड़ों से ढँका-छिपा, तो कोई-कोई अनावृत देह में अपने देह-सौष्ठव का प्रदर्शन करता हुआ। कुछ लडक़ों के फोटो लड़कियों के साथ थे। एक चित्र में तो एक बीस-इक्कीस साल का लडक़ा अठारह साल की युवती को बाँहों में इस तरह कसे खड़ा था मानो किसी फिल्म का प्रेम-दृश्य ही हो। सरसरी तौर पर कुछ फोटो पलटकर मैंने हाथ में पत्रों वाला क्लिप ले लिया और एक के बाद एक पन्ने पलटने लगा।
कमाल का ध्यान अब मेरी ओर नहीं था। वह उसी तरह से जमीन पर अधलेटे अन्दाज में आँखें बन्द किए पड़ा हुआ था। उसके समीप आधा भरा हुआ गिलास रखा हुआ था। लेकिन मेरे फोल्डर बन्द करते ही उसने आँखें खोलीं और झटके से उठ खड़ा हुआ। उसने फोल्डर मेरे हाथ से लिया और उसे यथास्थान रखकर अलमारी को बन्द कर दिया।
मैं एकबारगी उठकर भीतर की ओर बने बाथरूम में गया और मुँह धोने लगा। लेकिन जब पलटकर नेपकिन से हाथ-मँुह पोंछता हुआ वापस आया, तब तक कमाल एक बार फिर अपना गिलास पूरा भर चुका था। अब बोतल भी खाली हो चुकी थी और उसने बोतल में बची हुई आखिरी कुछ बूँद मेरे गिलास में डाल दी थीं। मैंने लगभग गिरते हुए उसे ऐसा करने से रोका मगर मेरे बैठते-बैठते वह आधा-सा गिलास पानी मेरे गिलास में फिर डाल चुका था। मुझे न चाहते हुए भी गिलास हाथ में फिर लेना पड़ा।
रात के ग्यारह बज चुके थे मगर कमाल उठने के मूड में नहीं था। मैंने घड़ी देखते हुए उसे झटपट उठने के लिए कहा। मुझे आश्चर्य हुआ कि कमाल पर मेरी बात का कोई असर नहीं हुआ। वह जमीन पर अब पूरी तरह लेट गया था। उसके पैर फैले हुए थे और सिल्क का सफेद कुर्ता-पाजामा अपनी सिलवटों से बेपरवाह हो चुका था। मैंने सोचा कि कमाल ने आज शराब ज्यादा पी ली है और वह अब उठ नहीं पायेगा। इस सोच से मुझे असुविधा से अधिक खीज-सी हुई क्योंकि मैं अपनी किसी भी बैठक को इस तरह खतम करने का आदी नहीं था कि मेजबान बेहोश होकर कमरे के बीचोंबीच चित लेट जाये और मेहमान अपने जाने का बन्दोबस्त देखे।
लेकिन मेरे और कमाल के बीच मेहमान-मेजबान जैसी कोई बात नहीं थी। मैं कमाल के ऊपर झुका और उसे पीठ की ओर से सहारा देकर उठाने लगा। मैंने थोड़ा जोर लगाकर उसे उठाया तो वह उनींदा-सा उठकर बैठ गया। मगर फिर झटके से खुद ही खड़ा हो गया। मुझे चौंका दिया उसने। लेकिन तत्काल ही उसे न जाने क्या हुआ कि उसने मेरे सामने आकर मेरे दोनों कन्धों पर हाथ रख दिया और भोलेपन से मेरी ओर देखता हुआ बोला—‘‘मैं जिस बात के लिए तुम्हें यहाँ लाया था, वह अभी नहीं हुई।’’ कहते हुए उसने फिर पलकें मँूद लीं और अपना सिर मेरे कन्धे पर टिका दिया। उसकी साँसों का गर्म भभका मेरे गले पर पड़ा। मैंने उसे उठाते हुए कहा— ‘‘अभी स्टेशन तक तो साथ में चलेंगे, रास्ते में बात हो जायेगी।’’
‘‘नहीं, आज तुम यहीं रुक जाओ, मुझे एक जरूरी बात करनी है।’’ उसने कहा।
कमाल कभी मुझे आप कहकर सम्बोधित करता था और कभी तुम कहकर। राज्याध्यक्ष साहब के सामने वह मुझे आप ही कहकर बुलाता था।
मैं उलझन में पड़ गया। मैंने कहा—‘‘तुम आज रात क्या यहीं ठहरने वाले हो? फिर मुझे पहले क्यों नहीं बताया था? मुझे तो घर जाना पड़ेगा। चलो तुम भी, चलते हैं।’’
कमाल कुछ नहीं बोला। कुछ ठहरकर धीरे से बोला—‘‘मैं भी यहाँ नहीं रुकूँगा। मलाड ही जाऊँगा। यदि आप रुकते हैं तो हम दोनों ही ठहर जायेंगे। पर अकेला तो मैं यहाँ नहीं सोऊँगा।’’
हम दोनों ही फ्लैट में ताला लगाकर बाहर निकल लिये। बाहर अच्छी ठंडी हवा चल रही थी। रात भी बड़ी सुहानी-सी थी। हम बस के लिए ठहरे नहीं, सडक़ पर ऐसे ही धीरे-धीरे बढ़ते चलने लगे।
रात के बारह बजते-बजते बम्बई अब शाम समेटने की तैयारी में थी। सडक़ों पर इंसानों की भीड़ कम होने लगी थी। वाहनों का आना-जाना बदस्तूर जारी था। बसें अब भी उसी तरह भरी हुई इधर-उधर घूम रही थीं। दुकानें बन्द हो चुकी थीं। दुकानों के बाहर फुटपाथों पर छतरियों की भाँति ‘घर’ खुलने लगे थे। सडक़ों पर यहाँ-वहाँ लपटों पर हाँडियाँ चढ़ी हुई थीं और बच्चे आग के गोलों के इर्द-गिर्द स्थिर बैठने लगे थे। उनकी आँखों के फैलाव अब थमने लगे थे क्योंकि मन-सहन में रखी इतिहास की किताब में आज का दिन उस दिन के रूप में दर्ज हो चुका था जब माँ-बाप, भाई-बहन लौट चुके थे और चूल्हा जल रहा था। बस यही बात बम्बई का दिन कामयाब घोषित करती थी। सडक़ के एक ओर जहाँ झाडिय़ों से सटा हुआ खाली मैदान पड़ा था, हाथ में पानी के डिब्बे और बोतलें लिये लोग यहाँ-वहाँ आते-जाते देखे जा सकते थे। लैम्पपोस्ट के उजालों में मर्दों और बीच के अँधेरों में औरतों के आदमजाद अनावृत जिस्म देखे जा सकते थे और इधर-उधर दौड़ती कारों में दुनिया की आपा-धापी देखी जा सकती थी। सडक़ से थोड़ी ही दूर पर सागर के किनारे जाते या वहाँ से लौटते चेहरों में भी दिन का इन्द्राज देखा जा सकता था। कहीं चेहरों की आभा सिकुडक़र जेब में आ चुकी देखी जा सकती थी तो कहीं जेब की गर्मी चेहरों पर चौंधा मारती देखी जा सकती थी। असंख्य चेहरे ऐसे भी देखे जा सकते थे जिन्हें यवनिका-पतन के बाद फिर-फिर रंगमंच पर आने के लिए मेकअप करना पड़ता था।
रोशनी की कतारों की ईंटों से बना मीलों लम्बा हिमालय-सा फैलाव और उन विराट इमारत-शृंखलाओं के इर्द-गिर्द टनों अस्थि-मज्जा के बुत रेंगते जा रहे थे, रेंगते जा रहे थे। किसी जीवन की कोई प्रत्याभूति नहीं थी, किसी भी जिन्दगी को कहीं भी, कोई भी, कैसा भी हादसा लील सकता था।
लम्बी चुप्पी के बाद मैंने कमाल से कहा—‘‘तुम कुछ कहना चाह रहे थे मुझसे, क्या बात थी?’’
कमाल कुछ नहीं बोला।
दो-एक ऑटो रिक्शा सवारियाँ छोडक़र वापस लौटते हुए हमारे करीब से गुजरे, लेकिन हम लोग इस समय पैदल ही घूमने के मूड में थे। हम चलते रहे। एक बार फिर मैंने इशारा किया कमाल को—‘‘तुम कुछ कह रहे थे?’’
‘‘नहीं, कुछ नहीं!’’ कमाल ने कहा। मैंने भी ज्यादा आग्रह नहीं किया।
लगभग बीस-पच्चीस मिनट पैदल चलने के बाद हम स्टेशन के नजदीक आ गये। कमाल को भी मलाड जाना था इसलिए हम लोग एक ही गाड़ी में सवार हुए। भीड़ अपेक्षाकृत कम थी, मगर अभी भी गाडिय़ाँ भरी हुई ही आ रही थीं। बम्बई में अब दिनभर में भीड़ का कारण अलग-अलग होता है लेकिन भीड़ प्राय: हर समय ही होती है। कभी दफ्तरवालों का आलम होता है, कभी व्यापारी आते-जाते हैं तो कभी मजदूरों का समय होता है। कभी सौदा-बाजार के लिए गृहिणी-गृहस्थ निकलते हैं। लेकिन आदमियों से नहीं रीतते बम्बई के स्टेशन कभी। सब को यहाँ से वहाँ हर समय दौडऩे और दौड़ते रहने का शाप मिला है इस नगर में। बारह बजकर सोलह मिनट की गाड़ी मिली हमें। बैठने की जगह अँधेरी पर तो नहीं, पर गोरेगाँव तक आते-आते मिल गयी। कमाल मलाड पर उतर गया। एक खुशगवार शाम का पटाक्षेप थोड़ा बोझिल-सा हुआ था क्योंकि मैं अन्त तक वह बात जान नहीं पाया जो कमाल कहना चाहता था।
लगभग एक बजे मैं घर पहुँचा तो तुकाराम ने दरवाजा खोला। आरती और तुकाराम दोनों ही खाना खा चुके थे। आरती कोई पत्रिका लेकर अपने कमरे में थी। कपड़े बदलकर जब मैं बाथरूम से कमरे में आया तो आरती सामने खड़ी थी। बोली, ‘‘भैया, यह तार आया है।’’
तार हाथ में लेकर मैंने झटपट खोला। तुकाराम आज की डाक से आयी बाकी दो चि_ियाँ भी सामने मेज पर रखकर एक ओर खड़ा हो गया। तार खोलने की हड़बड़ी में मैं आरती से बैठने के लिए भी कहना भूल गया। वह अभी तक खड़ी थी। यद्यपि अब वह घर में काफी अभ्यस्त हो गयी थी और उसे इस छोटे-मोटे शिष्टाचार की अपेक्षा भी नहीं थी।
तार शाबान का था। वह अगले सप्ताह बम्बई आ रहा था। जब मैंने आरती को यह बताया तो उसके चेहरे पर चमक-सी आ गयी। लेकिन तार में अरमान के बारे में कोई सूचना नहीं थी। आरती ने भी कुछ पूछा नहीं। मैं कुछ बोलने ही वाला था कि मेरी निगाह साथवाले पत्रों पर पड़ी। दो में से एक पत्र अरमान का ही था। सम्भवत: आरती भी लिखावट से पहचान गयी हो पर क्योंकि अरमान ने पते में मेरा ही नाम लिखा था, आरती ने पत्र को खोला नहीं था। दूसरा पत्र मेरे नाम मनस्वी पत्रिका के सम्पादक का था जिसमें उन्होंने मेरी कहानी मिल जाने की सूचना दी थी।
अरमान का पत्र खोला तो उसमें तीन कागज थे। मैंने सोचा, आरती के नाम भी पत्र होगा। इसी से मैंने दिखते हुए अक्षरों को न देखते हुए पहले कागजों को देखना चाहा। मगर पत्र सिर्फ मेरे ही नाम था। तीन पेज का लम्बा पत्र अरमान ने मुझे लिखा था और आरती के लिए अलग से कोई पत्र या कागज नहीं था। मुझे अटपटा सा लगा। मगर आरती असम्पृक्त भाव से देखती रही। मुझे पत्र पढऩे में तल्लीन पाकर वह पलटकर रसोई में चली गयी, जहाँ वह शायद चाय बनाने की तैयारी करके आयी थी। मैं अरमान की चिट्ठी पूरी पढ़ गया। उसी तरह जमा-जमाकर अच्छी लिखावट में फुरसत से लिखी चिट्ठी थी जैसे वह मुझे विदेश से लिखता था। लेकिन आश्चर्य की बात यह थी, पूरी चिट्ठी में आरती के विषय में कुछ नहीं लिखा था सिवा एक जगह इस बात के कि आरती की वजह से मुझे परेशानी हो रही होगी। अरमान चिट्ठी में कभी भी कागज की कंजूसी नहीं करता था। यदि उसका अंतिम वाक्य भी पूरा होने से रह जाये तो वह उसके लिए नया कागज इस्तेमाल करता था। आड़े-तिरछे घुमाकर जगह का इस्तेमाल नहीं करता था। इसलिए तीन पृष्ठ पढ़ जाने के बाद भी पत्र बहुत लम्बा प्रतीत नहीं होता था। अन्त में यह जिक्र था कि शाबान भाई बम्बई आने के लिए कह रहे हैं पर वह साथ में अभी नहीं आ पा रहा है।
मुझे तो यह सब अटपटा-सा शुरू से ही लग रहा था। एक तो पत्र मेरे नाम लिखा। आरती के बारे में विशेष कुछ लिखा भी नहीं और अब ये, कि शाबान भाई यहाँ आ रहे हैं। फिर भी स्वयं अरमान आ नहीं पा रहा। क्या सोच रखा था इस लडक़े ने। मैं यही सोचता रहा।
आरती बिलकुल सहज थी। वह चाय बनाकर ले आयी और एक प्याला मेरी ओर बढ़ाकर इत्मीनान से बैठकर चाय पीने लगी। मैंने स्वयं ही संक्षेप में उसे अरमान के पत्र के बारे में बता दिया। उसे किसी तरह का अचम्भा या दु:ख नहीं हुआ था। कम-से-कम उसकी प्रतिक्रिया तो ऐसी कतई नहीं थी।
मेरी आशा के विपरीत बल्कि उसने तो पत्र की बात तुरन्त भुलाकर मुझसे पूछा— ‘‘भैया, कल आपको थोड़ा समय मिलेगा?’’
मैंने एक पल को सोचा। शायद वह मेरी किसी संभावित उलझन को पहले ही भाँप गयी और स्वत: ही बोली—‘‘अच्छा, आप रहने दीजियेगा, मुझे जरा एक बार डॉक्टर के पास जाना था। मैं चली जाऊँगी।’’
‘‘अरे, क्या हुआ?’’
‘‘हुआ कुछ नहीं। वैसे ही जाना है।’’ कहती हुई आरती ने आँखें झुका रखी थीं परन्तु किसी तरह की उलझन या झेंप उसके चेहरे पर नहीं थी।
मैं भी कुछ अधिक पूछ नहीं सका।
खुद ही वह बोली—‘‘मैं नीलम की मम्मी के साथ चली जाऊँगी, आप परेशान मत होइयेगा।’’
‘नीलम?’ मैंने थोड़ा आश्चर्य से कहा; क्योंकि मैंने पहचाना नहीं था। फिर एकाएक ही मुझे ध्यान आया, शायद रिंकू का नाम नीलम ही तो है। तो रिंकू से आरती की पहचान हो गयी? मैं सोचता रहा।’’
दरअसल आरती मेरे घर में तो इस नाटकीय ढंग से आयी थी कि मैं आसपास के घरों में उसका परिचय किसी भी तरह करवा ही नहीं सका। अब उसे यहाँ रहते इतने दिन बीत गये थे। यह जानकर मुझे अच्छा लगा था कि आरती ने अड़ोस-पड़ोस के घरों में स्वयं ही परिचय कर लिया था। बल्कि परिचय यहाँ तक हो गया था कि वह नीलम की मम्मी को अपने साथ डॉक्टर के पास ले चलने तक की बात कर रही थी।
आरती ने अपना परिचय आसपास के घरों में क्या कहकर दे रखा होगा? वैसे तो बम्बई की जिन्दगी में लोग बहुत खुलेपन से जीने के आदी होते हैं और प्रत्यक्षत: उन्हें इस बात से विशेष फर्क नहीं पड़ता कि पास के घर में रहने वाला कौन है, कहाँ काम करता है, क्या कमाता है, कैसे खाता है; लेकिन फिर भी इन्सान की बुनियादी जरूरत तो होती ही है अपने माहौल को जानने की। घर में दिनभर रहने वाली महिलाएँ तो जान ही लेती हैं आस-पड़ोस को। बच्चे भी एक घर के माहौल को दूसरे घर में ले जाने के लिए अच्छे सम्पर्क-सेतु बनते हैं। या घरों में काम करने वाले नौकर यहाँ परिवारों को जोडऩे वाले तन्तु का काम करते हैं। संयोग से मेरे बारे में यह तीनों ही सुविधाएँ पड़ोसियों को उपलब्ध नहीं थी इसलिए मैं भी बिल्डिंग के तीन-चार घरों को छोडक़र शेष के बारे में बहुत ही सीमित जानकारी रखता था।
आरती दिनभर घर में रहती थी और उसी के बहाने नीलम, जिसे अब तक मैं रिंकू के नाम से पहचानता था, का आना-जाना घर में हो गया था। और इन्हीं वजहों से नीलम की मम्मी से भी आरती का अच्छा परिचय हो गया था। नीलम किसी कॉलेज में पढ़ती थी और आरती की अच्छी सहेली बन चुकी थी। आरती की बातों से ऐसा प्रतीत हुआ।
शिष्टाचारवश मुझे भी कहना पड़ा—‘‘मुझे भी कोई परेशानी नहीं होगी, तुम कहो तो मैं आ जाऊँगा और डॉक्टर के पास चलेंगे।’’ लेकिन असलियत यह थी कि मैं इस अटपटी स्थिति में परिचय के किसी डॉक्टर के पास आरती को लेकर जाने की स्थिति को टालना ही चाहता था।
रात का डेढ़ बज चुका था लेकिन शायद आरती दिन में काफी सो चुकी थी इसलिए तरोताजा दिख रही थी। तुकाराम बाहर जाकर बालकनी में सो चुका था। परन्तु आरती वहीं बैठ गयी। शायद अब तक वह भी मेरी दिनचर्या के बारे में काफी जान चुकी थी और यह भी समझ गयी थी कि मैं रात को कितनी भी देर हो जाने पर भी बिना थोड़ी देर पढ़े सोता नहीं था। मैं किसी भी स्थिति में बिस्तर पर आने के बाद भी आधा घंटा कुछ-न-कुछ पढऩे की आदत रखता था और यदि पढऩे के लिए ली गयी किताब या पत्रिका दिलचस्प हो तो यह मियाद बढक़र अधिक हो सकती थी। शायद इसी से आरती भी वहीं सामने कुर्सी पर बैठ गयी। हो सकता है कि दिनभर उसे अकेले रहते-रहते अब बातचीत करने के लिए मैं उपलब्ध हुआ था। इसी से वह आ बैठी थी।
‘‘आरती, तुमने नीलम की मम्मी को अपने बारे में क्या बताया है?’’ मेरे मुँह से तपाक से न जाने कैसे निकल गया। हालाँकि बाद में मुझे लगा कि मुझे आरती से इस तरह से सपाट सवाल नहीं पूछना चाहिए था। लेकिन आरती ने मेरी बात की प्रतिक्रियास्वरूप एक दूसरा सवाल ही मेरे सामने तान दिया। बोली—
‘‘भैया, अरमान ने आपको मेरे बारे में क्या बताया है?’’
मैं सकपका गया। शायद आज अरमान के मेरे नाम आये लम्बे खत ने आरती का यह विश्वास पक्का कर दिया था कि अरमान और मेरे रिश्ते बहुत नजदीकी हैं। निस्सन्देह, अरमान ने भी समय-समय पर उसे यह आभास दिया था। पर आज से पहले इतनी खुली तौर पर उसने मुझसे कुछ नहीं पूछा था। अरमान की अनुपस्थिति में अरमान के बारे में इस तरह बात करने का भी यह हमारा पहला अवसर था। इससे पहले हमने या तो औपचारिक सामान्य बातचीत ही की थी या फिर शाबान को लेकर बातचीत की थी। आज आरती ने सीधे-सीधे मुझे वह लकीर दिखाने को कहा था जिससे अरमान ने मेरे दिल में आरती के नाम को रेखांकित किया था।
इस दुस्साहस ने मुझे थोड़ा-सा उद्वेलित जरूर किया मगर साथ ही मुझे इतना साहस जरूर दे दिया कि मैं भी अपने मित्र की मित्र इस युवती से कुछ अन्तरंग सवाल पूछ लूँ।
‘‘आरती, तुम क्या समझती हो, क्या अरमान ने मुझे उससे कुछ अलग बताया होगा जो वास्तव में होगा!’’
‘‘मेरा यह मतलब नहीं है, भैया! मैं जानती हूँ कि अरमान आपको बिलकुल अपने बड़े भाई की तरह ही चाहता और मानता है, फिर भी मुझे यकीन है कि उसने अब तक आपको सच बात नहीं बतायी है।’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘मेरे और अरमान के बीच ऐसा कुछ नहीं है जो आप सोच रहे होंगे।’’ कहते हुए आरती ने पलकें झुकाकर अपने उभरे हुए पेट पर उड़ती-सी नजर डाली।
अब सचमुच मेरे चौंकने की बारी थी।
‘‘लेकिन लेकिन...’’
‘‘लेकिन क्या?’’ कहते हुए आरती ने दृढ़ आत्मविश्वास के साथ मेरी ओर देखा। वह बिलकुल आँखों में आँखें डालकर साहस से पहली बार इस तरह देख रही थी। उसकी आँखें एक बेहद पवित्र दर्प से दहक रही थीं।
‘‘लेकिन...अरमान...’’
‘‘अरमान के साथ बातचीत का आपको मौका ही कहाँ मिला, भैया! फिर अस्मान तो शाबान भाई के अन्देशे में पहले ही सूखकर आधा हो गया था। वह तो भारत आते ही आपसे यह कहने में बेइंतिहा मुश्किलात में आ गया था कि वह आज रात बाहर रहेगा। वह रात हम दोनों ने जागते हुए काटी है—किस तरह, वह हम ही जानते हैं।’’
‘‘लेकिन आरती, जो कुछ अब तक सामने आया है, उससे अलग भी अगर कुछ था या है, तो हमारे सामने आना चाहिए था न?’’
‘‘आयेगा, भैया!’’ कहते हुए आरती जब दीवार से सिर टिकाकर रुकी तो पहली बार वह मुझे दयनीय-सी लगी।
मैंने भरसक कोशिश की कि आरती किसी भी तरह भीतर से आहत महसूस न करे। मैं उठा और आरती के करीब आया। मैंने उसके कंधे को छूकर उसे दिलाया दिया। आरती कुछ न बोली। पत्थर के बुत की तरह खड़ी होकर दीवार के सहारे ही सिसकने लगी। मैं पलटकर बाहर गया और फ्रिज में से पानी की एक बोतल निकालकर से आया। फिर एक गिलास में उसे पानी देते हुए कहा—‘‘लो पानी पीकर बैठो यहाँ और मुझे बिना कुछ छिपाये सारी बात बताओ।’’
आरती अब जोर-जोर से हिचकियाँ ले रो रही थी। उसकी हिचकियाँ काबू से बाहर होती जा रही थीं और मैं घबरा रहा था कि आवाज सुनकर पड़ोस के घरों से किसी की बत्ती न जल जाये। बम्बई में पड़ोसियों के लिए पड़ोसी का निकलकर आना तो अनहोनी में शामिल होता ही है परन्तु इतनी संवेदना अवश्य जिन्दा होती है कि एक पिंजरे में कुछ अलग घटता देखकर दूसरे पिंजरे की हवा के कान खड़े हो जायें।
आरती ने गिलास थाम रखा था और अब वह धीरे-धीरे संयत होती जा रही थी। इसी समय बाहर कुछ बूँदाबाँदी शुरू हो गयी थी, क्योंकि तभी बालकनी का दरवाजा धीरे से खुला और बगल में दरी और तकिया दबाकर तुकाराम भीतर घुसा। वह उनींदा-सा ही आँखें मिचमिचाता आ रहा था लेकिन भीतर का दृश्य देखकर शायद उसकी इंद्रियाँ भी एकाएक जागृत हो गयीं। वह इतनी रात गये तक हम लोगों को जागा देखकर भौचक्का-सा था और दीवार के एक ओर खड़ी आरती की ओर ध्यान से देखे जा रहा था, जिसके चेहरे पर रोने के चिह्न अब भी बाकी थे। वह पानी का गिलास हाथ में लिये खड़ी थी। इस असमंजस में तुकाराम यह भी ध्यान नहीं रख पाया कि वह बदन पर सिर्फ एक छोटी-सी चड्डी पहने हुए कमरे के भीतर हम लोगों के सामने चला आया था। वह प्रश्नवाचक-सी नजर से कभी आरती की ओर और कभी मेरी ओर देखे जा रहा था। मैंने सहज होकर वातावरण को विचित्र होने से बचाने के लिए कहा—‘‘बाहर बारिश शुरू हो गयी क्या?’’
वह कुछ नहीं बोला और धीरे-धीरे भीतर रसोई के सामने के बरामदे में जाकर अपना बिस्तर बिछाने लगा। फिर वापस पलटकर कमरे में आया और एक गिलास उठाकर बोतल से पानी भरकर मुझे देने लगा। मैंने पानी ले लिया। फिर वह आरती की ओर बढ़ा और उसके हाथ से गिलास लेकर भीतर की ओर जाने लगा। वह इसी तरह नंगे बदन घूमता-घूमता सहसा चौंका और फिर भीतर से एक अंगोछा बदन पर लपेटता हुआ वापस आया।
‘‘चाय बनाऊँ, साहब?’’
‘‘नहीं।’’ मैंने एकदम से कह तो दिया, फिर न जाने क्या सोचकर मुझे आरती का खयाल आया। मैंने आरती से चाय के लिए पूछा। आरती ने एक नेपकिन से आँखें पोंछते हुए चाय के लिए इनकार में सिर हिला दिया। मैंने फिर से तुकाराम से मना किया।
आश्वस्त होकर तुकाराम भीतर चला गया और तकिया उठाकर उसने धम से बिस्तर पर फेंका और उसे पैर के नीचे दबाकर झट से सो गया।
तुकाराम के सो जाने के बाद मैं आरती की ओर मुखातिब हुआ। आरती भी अब जरा संयत-सी हो चुकी थी। रात के दो से भी ज्यादा बज रहे थे। यद्यपि मन के तालाब में अभी-अभी पड़े कंकड़ ने बहुत-सी तरंगें उठा दी थीं, फिर भी आरती को असुविधा से बचाने के लिए मैंने कहा—‘‘अब सो जाओ, आरती! जाओ, आराम करो।’’
आरती धीमी चाल से दूसरे कमरे में जाने लगी। जाते-जाते पीछे से मैंने फिर कहा—‘‘कल बात करेंगे। पर तुम किसी भी तरह की चिन्ता मत करना। तुम्हारी जो भी समस्या है, वह अब हम चारों की है।’’
आरती ने एक बार मुडक़र मेरी ओर देखा। उसकी ये निगाहें मुझे बहुत अच्छी लगीं। लगता था जैसे वह हम लोगों के प्रति आश्वस्त है और इस बात का भरोसा रखती है कि हम लोग उसे अपना समझते हैं। मैं अपनी इस सफलता पर अभिभूत था। मैं अरमान के निकट होने का विश्वास तो उसे दिला ही चुका था पर अब मैंने उसे यह भी भरोसा दिला दिया था कि वह मेरी मेहमान है और मेहमान के सारे दु:ख-तकलीफ मेरे अपने भी हैं।
मैं उस सारी रात सो नहीं सका। ये क्या अजीबो-गरीब उलझन है। आखिर आरती व अरमान का रिश्ता किस तरह का है। मुझे अब शाबान पर गुस्सा आने लगा था कि जिसकी वजह से अरमान अच्छी तरह से बातचीत नहीं कर पाया और बात इस उलझे ढंग से हम लोगों के सामने आयी। मुझे इत्मीनान था तो यह कि अगले ही सप्ताह शाबान यहाँ आ रहा था और फिर यह उलझन सिर्फ मेरी नहीं बल्कि हम तीनों की होगी।
इस उधेड़बुन में मैंने यह भी आरती को नहीं बताया कि शाबान का बम्बई आने का प्रयोजन फिलहाल क्या है। वैसे तो खुद मुझे भी यह बात कमाल से आज ही पता चली थी कि राज्याध्यक्ष साहब की फिल्म में काम करने के लिए शाबान ने स्क्रीन में उनका विज्ञापन देखकर अपना आवेदन भेजा है। शाबान इसीलिए आ रहा था।