Badi Maa - 7 in Hindi Fiction Stories by Kishore Sharma Saraswat books and stories PDF | बड़ी माँ - भाग 7

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बड़ी माँ - भाग 7

7

लाला दीवान चन्द और कौशल्या ने कुछ जरूरी सामान और कपड़े वगैरह साथ लिए और मकान को ताला लगाकर तथा पड़ोसियों  को निगरानी रखने के लिए कहकर, अम्बाला शहर के लिए चल पड़े। कौशल्या की मौसी जी का मकान वार्ड न0 एक मंजी साहब गुरुद्वारा वाली गली में था। पुरानी तर्ज पर बना यह एक अच्छा खासा बड़ा मकान था। गली के साथ डयोड़ी थी, उसके आगे खुला आँगन था और दोनों बगलों व पीछे की और बरामदे समेत पाँच-छः कमरे बने हुए थे। परिवार छोटा था, इसलिए इतनी जगह उनके रहने के लिए पर्याप्त थी। पहली मंजिल पर तीन कमरे बने थे तथा साथ में खुली जगह भी थी, जो लगभग एक महीने से खाली पड़े थे। क्योंकि महीना भर पहले ही किरायेदार दूसरी जगह स्थानांतरण होने की वजह से मकान खाली कर गया था। कौशल्या के वहाँ आने की सम्भावना के कारण मकान को दोबारा किराये पर नहीं दिया गया था। मौसी जी बहुत संभ्रात और नेक दिल महिला थी। वह कौशल्या को अपनी लड़की की तरह ही मानती थी। जब भी कभी कोई शुभ अवसर आता या तिथि त्योहार होता तो वह लाला दीवान चन्द और कौशल्या को बुलाना नहीं भूलती थी। वो चाहे आएं या न आएं पर वह अपना असूल कभी नहीं तोड़ती थी। उस दिन भी जब वे घर पहुँचे तो परिवार में सब से ज्यादा खुशी मौसी जी को हुई थी। बल्कि यूँ कहिए कि इस बार तो कौशल्या का दुःख हलका करने के लिए उसने उन लोगों की कुछ ज्यादा ही आवभगत की, ताकि कम से कम वहाँ आकर उन्हें कुछ सकून तो मिल सके।

       देर रात तक सभी बैठकर उनके साथ सुख-दुःख बांटते रहे। दिन के सफर से थके थे, परन्तु प्यार-भावना भरे माहौल में उन्हें वह तकलीफ भी महसूस नहीं हुई। सुबह जल्दी उठकर लाला दीवान चन्द जी नहा-धोकर तैयार हुए। थोड़ा बहुत भगवान का नाम लिया और फिर नाश्ता करने के पश्चात् स्कूल की ओर पैदल ही निकल गए। हालांकि घर वाले किसी को साथ भेजने के लिए कह रहे थे, परन्तु लाला जी का मन बेटे के खो देने से इतना उच्चाट हो गया था कि वह किसी को भी जरा सी तकलीफ नही देना चाहते थे। रास्ते में एक-दो जगह गलत दिशा में मुड़े भी, परन्तु आखिर पूछते हुए वह स्कूल तक पहुँच ही गए। मि0 टंडन अपने कार्यालय कक्ष में पहले ही आए बेठे थे। अच्छे पढे़ लिखे रोबदार किसम के आदमी थे। सादे पहनावे में भी उनकी विद्वता उनके ललाट पर साफ दमकती थी। बिना मतलब के बोलना उनका स्वभाव नहीं था, परन्तु जब कक्षा में पढ़ा रहे होते तो आवाज में एक अच्छा खासा दम-खम होता था। लाला जी ने दरवाजे पर टंगी चिक को थोड़ा हटा कर अंदर झांका। मि0 टंडन कुछ जरूरी काम निपटाने में व्यस्त थे। उनका रुआब देखकर लाला दीवान- चन्द की अंदर जाने की हिम्मत नहीं हुई। वह धीरे से पीछे हट गए। परन्तु मि0 टंडन न देखते हुए भी भाँप गए थे। कागजों में निगाह गड़ाए ही बोले:

       ‘यस, कम इन। कौन हैं? अंदर आ जाइए।’

       लाला दीवान चन्द जी कमरे में दाखिल हुए और हाथ जोड़ कर मि0 टंडन को प्रणाम किया। उन्होंने हाथ के इशारे से लाला जी को अपने सामने वाली कुर्सी पर बैठने को कहा। वह बिना कुछ बोले कुर्सी पर बैठ गए। मि0 टंडन अपने काम में व्यस्त रहे। थोड़ी देर के पश्चात् उन्होंने कागजों को एक रजिस्टर में रखा और उसे बंद करके मेज के एक और रख दिया। फिर लाला जी की ओर देखते हुए बोलेः

       ‘जी कहिए।’

       लाला दीवान चन्द जी बहुत निर्भीक और साफ दिल इंसान थे, परन्तु बच्चे के गम ने उन्हें इतना निरुत्साह कर दिया था कि कईं बार वह चाह कर भी अपनी जुबान नहीं खोल पाते थे। अतः वह मुँह से तो कुछ नहीं बोले, परन्तु जेब से उनके नाम लिखी गई चिट्ठी निकालकर मि0 टंडन की ओर बढ़ा दी। उन्होंने पत्र खोलकर पढ़ा और चेहरे पर सहानुभूति की झलक लाते हुए बोले:

       ‘ओह! यह तो बहुत बुरा हुआ। बड़े अफसोस की बात है।  हम इंसान लोग कर भी क्या सकते हैं? वो सर्व शक्तिमान है। उसकी करनी कौन रोक सकता है? जो उस विधाता ने लिख दिया है वह तो हर हालत में होना है। शायद यह पुनर्जन्म के सम्बन्ध थे, जो वह निभाकर चला गया। दीवान चन्द जी, अब हौसले के सिवाय और कोई साथी नहीं है। यह हिम्मत ही है जो बाकी की जिंदगी का सहारा बनकर साथ देती है। तुम भी हिम्मत से काम लो और एक नई जिंदगी की शुरूआत करो। हमारे यहाँ कुछ दिन पहले ही एक टीचर की पोस्ट खाली हुई है। मैं छः महीनों के लिए आपको उसके स्थान पर रख लेता हूँ। यदि आपका काम अच्छा रहा और परिणाम ठीक निकले तो मैं मैंनेजमेंट से आपकी सिफ़ारिश नियमित आधार पर रखने की भी कर दूँगा और मेरा मन यह कहता है कि वे मेरी बात मोड़ेंगे भी नहीं। जानते हो जिन महानुभाव की आप चिट्ठी लाए हो वे केवल मेरे मित्र ही नहीं अपितु मेरे सहपाठी भी रहे हैं। मैं उनका बहुत आदर करता हूँ।’

       इतना कहकर प्रधानाचार्य महोदय ने घंटी का बटन दबाया। घंटी की आवाज सुनकर बाहर बैठा सेवादार तेजी से अंदर आया और बोला:

       ‘जी साहब’।

       ‘पानी लेकर आओ।’ प्रधानाचार्य महोदय ने आदेश दिया।

       थोड़ी देर में सेवादार एक ट्रे में तीन गिलास पानी के ले आया। उसने एक गिलास प्रधानाचार्य महोदय के आगे रख दिया और फिर ट्रे लाला दीवान चन्द जी की ओर बढ़ा दी। लाला जी ने  गिलास उठाकर पानी पिया और फिर खाली गिलास ट्रे में रखते हुए बोले:

       ‘सर, मेरे लिए क्या हुक्म है ?’

       ‘तुम चाहो तो कल से डयूटी ज्वाइन कर लो।’ वह बोले।

       ‘पर सर आपने मेरे सर्टिफिकेटस तो देखे ही नहीं, फिर ऐसे में आपने मुझे रखने का इतना बड़ा निर्णय कैसे कर लिया है? सर, मुझे नौकरी मिले या न मिले यह इतना जरूरी नहीं है, पर मेरी वजह से अगर आप पर कोई आँच आए वह ठीक नहीं है। मैं तो पहले ही भगवान् का गुनाहगार हूँ और अपने कर्मों का फल भोग रहा हूँ। इसलिए अपने हित के लिए मैं आपको किसी परेशानी में नहीं डालना चाहता। आप पहले मेरी योग्यता जाँच लें और उसके बाद ही कोई निर्णय लें।’

       लाला दीवान चन्द जी की यह बात सुनकर मि0 टंडन बड़े जोर से हँसे। हँसते-हँसते उन्होंने एक हाथ से फिर घंटी का बटन दबाया और सेवादार के अंदर आने पर उसे दो कॅप चाय लाने के लिए बोला। यह सब देखकर सेवादार मि0 टंडन के चेहरे की ओर विस्मित आँखों से नज़र गड़ाए निहारता रहा। उसे हैरानी इस बात की हो रही थी कि इस फौलादी किस्म के आदमी में आज काँटों की जगह फूल कहाँ से खिल गए? उसे इस तरह खड़ा देखकर वह फिर बोले:

       ‘क्या सोच रहा है? जल्दी दो चाय लेकर आओ।’

       यह सुनकर सेवादार ने अपनी दोनों आँखें फड़फड़ाई मानो गहरी नींद से जगा हो और फिर मुड़कर तेजी से बाहर निकल गया। उसके जाने के बाद मि0 टंडन मेज पर कुहुनी रखकर थोड़ा आगे की ओर झुके और कहने लगे:

       ‘दीवान चन्द जी, आप मेरी इन आँखों की ओर देख रहे हो न, ये अब तक बहुत पारखी हो चुकी हैं। आदमी की नस-नस में क्या हो रहा है, इनसे छुप नहीं सकता। आपका चेहरा और मेरे मित्र की चिट्ठी कागजी प्रमाण-पत्रों से कहीं ज्यादा विश्वसनीय हैं मेरे लिए। फिर तुम कहीं भागे नहीं जा रहे हो, रहोगे तो यहीं पर। कल अपने प्रमाण-पत्र लेते आना, आराम से उन्हें भी देख लेंगे।’

       ‘सर मैं साथ लाया हूँ। अगर आप चाहें तो देख लें।’

       वह अपने सभी प्रमाण पत्रों की फाइल मि0 टंडन, प्रधानाचार्य   के आगे रखते हुए बोले।

       ‘कोई बात नहीं, देख लेंगे। पहले चाय तो लो।’

       यह कहते हुए मि0 टंडन कुर्सी की बैक को पीठ लगाकर  आराम से बैठ गए। बातें करते हुए वह लाला दीवान चन्द जी से उनकी पहली सर्विस के बारे में पूछने लगे। इतने में चाय भी आ गई। बातें करते हुए जब चाय खत्म हुई तो लाला दीवान चन्द जी हाथ जोड़ते हुए बोले:

       ‘सर, अब मुझे इजाजत दीजिए। मैं कल हाजिर हो जाऊँगा।’

       ‘ठीक है।’ मि0 टंडन गर्दन हिलाते हुए बोले।

       नमस्कार कहने के बाद लाला दीवान चन्द जी बाहर निकले और वापस चल पड़े। मन में पुरानी यादें सोचते हुए ध्यान कहीं और ही बंट गया। बजाय मौसी जी के घर की ओर जाने के वह दूसरी तरफ चल पड़े। अचानक जब आगे रेलवे फाटक आया तो एकदम चौंके। अपनी गलती का एहसास होने पर उन्हें मन ही मन बड़ी लज्जा आई। वह टाँगें जो जंगल में बीस-बीस किलोमीटर का सफर तय करके भी नहीं थकती थीं आज पता नहीं क्यों उनका साथ नहीं दे पा रही थीं। मन में आया कि यहीं कोई जगह देखकर बैठ जाएं। परन्तु फिर सोचने लगे कि उनके घर पर ठीक समय न पहुँचने के कारण कौशल्या पर पता नहीं क्या बीतेगी। वह बेचारी बिना वजह परेशान होगी। कुछ सोचकर रिक्शा वाले को बुलवाया और फिर  रिक्शा पर बैठकर मौसी जी के घर की ओर चल पड़े। जब घर पहुँचे तो कौशल्या पहले ही इंतजार में बैठी थी। उन्हें देखते ही बोली: 

       ‘क्या बात है? आपका चेहरा काफी उदास लग रहा है। कुछ  काम बना है कि नहीं?’

       ‘बताता हूँ, पहले पानी का एक गिलास तो लाओ, बड़ी प्यास लगी हैं। सच पूछो तो प्रकृति की गोद में रहकर अब शहर की भीड़ भरी जिंदगी अखरती है। मुझे तो चारों ओर शोर-शराबे और लोगों की भागदौड़ के सिवाय यहाँ और कुछ नज़र नहीं आता। पता नहीं इस माहौल में हम यहाँ पर रह पाएंगे भी या नहीं।’

       अभी वे बात कर ही रहे थे कि मौसी जी पानी का गिलास लेकर वहाँ पहुँच गई और बोली:

       ‘लो बेटा पानी लो। क्या रहा? तुम्हारा काम बना कि नहीं?  बहुत देर कर दी तुमने आने में, हम तो घबरा ही गए थे।’

       मौसी जी पानी का गिलास पकड़ाकर चारपाई पर बैठ गई। लाला दीवान चन्द ने पानी पीकर गिलास टेबल पर रख दिया और फिर पास पड़ी आराम कुर्सी पर बैठ गए। जेब से रूमाल निकालकर चेहरा साफ किया और फिर बताने लगे:

       ‘टंडन साहब जी बहुत ही भले आदमी हैं। आजकल ऐसे लोग विरले ही मिलते हैं। उन्होंने मुझे बड़े अदब से बैठाया। बड़े ही सहज भाव से बात की और बिना अधिक परिचय प्राप्त किए मुझे कल स्कूल आने के लिए कह दिया। मुझे तो ऐसा लगा कि शायद उनके रूप में परमात्मा हमारी मदद कर रहा है।’

       ‘बेटा, तुम ठीक कहते हो। धरती पर अभी भी अच्छाई कायम है, जिसके सहारे यह टिकी हुई है। वरना प्रलय आने में देर नहीं लगती। भगवान की कृपा से तुम्हारी नौकरी लग गई, यह बहुत अच्छी बात हो गई है। बच्चों में रहकर तुम्हारा दिल भी लगा रहेगा और इस बहाने जिंदगी भी कट जाएगी। वैसे भी बेटा शिक्षा देना एक नेक काम हैं। इससे बड़ा दान और कोई दूसरा नहीं है। अब तुम दोनों चिंता छोड़ो और आराम से रहो। अच्छा खासा मकान है और परमात्मा की कृपा से घर में सब कुछ है। सच कहूँ जब से तुम्हारे मौसा जी गए हैं मैं अकेली पड़ गई हूँ। दिन काटना पहाड़ समान लगता है। अब कौशल्या आ गई है तो मेरी यह चिंता भी खत्म हो गई है।’

       यह कहकर मौसी थोड़ी देर के लिए चुप कर गई और फिर  कौशल्या की ओर देखती हुई बोली:

       ‘कौशल्या! खाने का वक्त हो गया है। इन्हें तो भूख लगी होगी।’

       ‘नहीं मौसी जी, आप आराम से बैठो। मेरे खाने की चिंता मत करो। जब भूख होगी मैं अपने आप कह दूँगा।’ लाला दीवान चन्द जी कुर्सी पर पसरते हुए बोले।

       ‘बेटा, तुम आराम से चारपाई पर लेट जाओ।’ यह कहते हुए मौसी कमरे से बाहर निकल गई। उसके पीछे कौशल्या भी रसोई की ओर चल पड़ी।

       शाम को खाना खाने के बाद लाला दीवान चन्द और कौशल्या के सोने की व्यवस्था ऊपर वाले कमरे में कर दी गई। बातों से निपटकर जब कौशल्या कमरे में पहुँची तो लाला जी अपनी कोई पुरानी किताब पढ़ रहे थे। कौशल्या को पास बैठते देखकर उन्होंने किताब को बंद करके एक ओर रख दिया और फिर कहने लगे:

       ‘कैसा लग रहा है यहाँ पर आकर?’

       ‘अच्छा है, ध्यान बंटने से कुछ परेशानी तो कम हुई है। वरना अकेले पड़े-पड़े तो बस एक ही विचार हमेशा दिमाग को कचोटता रहता था।’ वह बोली।

       ‘सो तो ठीक है। पर रिश्तेदारी में यों जमाई बनकर पड़े रहना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। मेहमान नवाजी एक-दो दिन की अच्छी होती है। यहाँ तो पूरी जिंदगी का सवाल है। कब तक पड़े रहेंगे दूसरों के घर। ये बात ठीक है कि मौसी जी ने कभी भी हमें गैर नहीं समझा, पर अब और बात है। आगे परिवार है। सबकी अपनी-अपनी जिंदगी होती है, जिसे उन्हें अपने ढंग से जीना होता है।’

       ‘तुम कहना क्या चाहते हो?’ कौशल्या ने दबी आवाज में प्रश्न किया।

‘मैं तो सोचता हूँ कि जितनी जल्दी हो सके रहने के लिए हम कोई अपना अलग से प्रबन्ध कर लें। इससे थोड़ी दूरी भी बनी रहेगी और प्यार भी बना रहेगा।’ उन्होंने स्पष्ट किया।

       ‘अभी से यह बात छेड़ना पागलपन नहीं होगा तो क्या होगा? न बाबा न, मुझसे तो यह सब कुछ नहीं होगा। ये जिम्मेवारी तुम खुद ही सम्भालो। मैं तो मौसी की गोद में खेली हूँ और जानती हूँ कि वह जैसी ऊपर से है वैसी अंदर से भी है। इसमें जरा भी फर्क नहीं है। हाँ, अगर तुम मेरी मानो तो महीना भर चुप रहो। बाद में कोई बहाना बनाकर बात कर लेना। अपना सामान भी तभी लाना बेहतर होगा।’ कौशल्या ने अपने मन की बात बताई।

       यह सुनकर लाला दीवान चन्द जी ने एक लम्बी साँस ली और बोले:

       ‘तुम ठीक कहती हो कौशल्या। जल्दबाजी में हमें कुछ भी नहीं करना चाहिए। महीने भर में स्कूल के माहौल का भी पता चल जाएगा और तब तक शहर में कुछ जान पहचान भी बन जाएगी। फिर कोई, भीड़ से हटकर, अच्छी सी जगह मकान ले लेंगे।’

       ‘वो तो ठीक है, पर अकेले रहकर टाइम काटना मेरे लिए बड़ा मुश्किल हो जाएगा। यहाँ पर तो मौसी जी के पास रहकर कुछ घर के कामों में और कुछ बातों में वक्त कट जाता है। वहाँ अकेली रहकर क्या करूँगी? और तो कोई बात नहीं, बस यह एक चिंता मुझे सताये जा रही है।’ कौशल्या कुछ मायूस सी होकर बोली।

       लाला दीवान चन्द जी ने थोड़ा चुप होकर सोचा और फिर बोले:    

‘मेरे जहन में एक बात आई है।’

       ‘क्या?’ कौशल्या बोली।

       ‘क्यों न तुम गरीब बस्ती के बच्चों की सेवा में लग जाओ। इससे एक तो परमार्थ होगा और दूसरे तुम्हारा समय भी कट जाएगा।’

       ‘कैसे?’ वह फिर बोली।

‘बच्चों को पढ़ा दिया करो और उन्हें कुछ साफ सफाई की  शिक्षा भी दे दिया करो। मेरे विचार में इससे भला कोई और काम नहीं है।’

       ‘चलो देखते हैं जो परमात्मा को मंजूर होगा।’

       कौशल्या ने एक लम्बी साँस ली। फिर पति-पत्नी काफी देर तक चुप रहे और फर्श की ओर देखते रहे। जब काफी देर तक सन्नाटा बना रहा तो कौशल्या बोली:

       ‘क्या सोच रहे हो?’

       ‘कुछ नहीं, क्या सोचना है? बस यूँ ही मन में विचार आ रहे थे कि पता नहीं क्या भविष्य होगा?’ लाला दीवान चन्द जी निराशा भरे शब्दों में बोले।

       ‘मैंने आपको कितनी बार कहा है, आप ऐसा मत सोचा करो। कुछ अपनी सेहत का भी ख्याल रखो। अगर ऐसे ही सोचते रहे तो बस कट गई जिंदगी। अब कहाँ गया आपका वो हौसला? आप तो मुझे तसल्ली देते थे और अब खुद ही ढेर हो रहे हो। बंद करो अब यह सोचना और आराम से सो जाओ। सुबह स्कूल जाना है। शुरूआत अच्छी होनी चाहिए और उसके लिए ठीक नींद आना जरूरी है।’ कहते हुए कौशल्या ने टयूब लाइट बंद कर दी।

       सुबह लाला दीवान चन्द जी जल्दी उठ गए। नहा-धोकर  तैयार हुए और स्कूल खुलने से आधा घ्ंटा पहले ही वहाँ पर पहुँच गए। वे हैरान थे कि स्कूल के प्रधानाचार्य मि0 टंडन पहले ही आए बैठे थे। उनके कार्यालय कक्ष में जाकर लाला दीवान चन्द जी ने नमस्कार कहा और फिर बिना कुछ बोले चुपचाप कुर्सी पर बैठ गए। प्रधानाचार्य महोदय ने अपने सम्मुख रखा काम निपटाया और फिर लाला दीवान चन्द जी की ओर देखकर बोले:

       ‘गुड, वैरी गुड I दीवान चन्द जी आप तो पढ़ाई में जीनियस थे। मैंने आपके सर्टीफिकेटस देखे हैं। आप कहाँ जंगल की नौकरी में फंस गए थे। तुम्हें तो कहीं अच्छे शिक्षण संस्थान में होना चाहिए था।’

       ‘सर, ये तो आपकी मेहरबानी है।’ लाला दीवान चन्द जी ने शिष्टाचार के नाते कहा। 

       ‘दीवान चन्द जी, मैंने बोल दिया है। आप फिलहाल मिडिल स्तर की क्लासीस ले लेना। स्कूल खुलता है तो कार्यालय में जाकर क्लर्क से अपना टाइम-टेबल ले लेना, ठीक है।’ यह कहकर मि0 टंडन अपने काम मे व्यस्त हो गए।

       ‘ठीक है सर।’ कहकर लाला दीवान चन्द जी स्टाफ रूम में जाकर बैठ गए।

       स्कूल की घंटी के बाद प्रार्थना हुई और फिर छात्र अपनी-अपनी कक्षाओं में चले गए। लाला दीवान चन्द जी ने कार्यालय में जाकर अपना टाइम-टेबल लिया और पीरियड लेने के लिए चल पड़ें। स्कूल के माहौल में आज अघ्यापक के रूप में उनका पहला दिन थ। यूँ तो पास-पड़ोस के बच्चों को वह पहले भी परीक्षा के दिनों में पढ़ाते रहे हैं। परन्तु वह बात और थी। अपने घर में बैठकर पढ़ाना और स्कूल में छात्रों के एक बड़े समूह को पढ़ाने में जमीन-आसमान का अंतर होता है। मन ही मन सोच रहे थे कि इतने सालों जो आदमी जंगल में मूक वृक्षों को ही गिनता रहा वह इन चंचल और शरारती बंदरों से कैसे निपटेगा? जब आदमी को तजुरबा न हो तो उसे छोटी से छोटी बात से भी भय लगने लगता है। और आज वही कुछ हालत लाला दीवान चन्द जी की भी थी।

       अपनी क्लास में पहुँचे तो सभी छात्रों ने खड़े होकर नए मास्टर जी का अभिवादन किया। आठवीं कक्षा के छात्र थे और पीरियड था सामाजिक अघ्ययन का। लाला दीवान चन्द जी के लिए यह नई समस्या थी। उनका प्रिय विषय तो गणित था। वैसे तो उनके अधिकतर पीरियड गणित के ही थे, परन्तु सामाजिक विषय के अध्यापक का पद खाली होने के कारण कुछ कक्षाओं को यह विषय पढ़ाने का उतरदायित्व भी उन्हें ही सौंपा गया था। यह बात कतई नहीं थी कि वह यह विषय पढ़ा नहीं सकते थे। पड़ोस के आठवीं- दसवीं के बच्चों को वह सभी विषयों के बारे में पढ़ाते रहे हैं जो कि उनका एक शौक था। और उस दिन भी जहाँ तक इस विषय को पढ़ाने का प्रश्न था, उन्हें कोई ज्यादा कठिनाई का आभास नहीं हो रहा था।

       वैसे तो आठवीं कक्षा के बच्चे छोटे और अनुशासन में रहने वाले होते हैं, परन्तु हर जगह दो-चार ऐसे बिगड़ैल बच्चे भी मिल जाते हैं जो या तो बाप की अमीरी की वजह से या कुसंगती के कारण किसी न किसी रूप में सिर दर्द बने रहते हैं। लाला दीवान चन्द जी सोच रहे थे कि काश ऐसे बच्चे उनकी कक्षा में न हों, क्योंकि अपने  छात्र जीवन में वह ऐसे साहिबजादों को देख चुके थे।

       कुर्सी पर बैठकर उन्होंने अपने सामने वाले बैंच पर बैठे एक लड़के से पूछा:

       ‘बेटा, क्या नाम है तुम्हारा?’

       ‘जी विनोद कुमार।’ लड़के ने खड़े होकर बताया।

       ‘ठीक है। क्या तुम सभी अपना-अपना नाम बताओगे?’ वह दूसरे लड़कों की ओर देखते हुए बोले। और इस तरह सभी लड़कों ने  बारी-बारी उठकर अपने नाम बताए। परिचय के पश्चात् लाला जी ने पूछा:

       ‘आज पढ़ाई का कौनसा पाठ है?’

       ‘जी पंचायती राज।’ एक लड़के ने खड़े होकर बताया।

       ‘ठीक है। तुम में से कौन-कौन छात्र गाँव से आते हैं?’

       कुछ लड़कों ने अपने हाथ खड़े करके बताया।

       ‘तुम्हें तो पंचायतों के बारे में सब कुछ पता होगा?’

       ‘जी सर।’ कई लड़के एक साथ बोले।

       ‘सरपंच क्या-क्या काम करता है? कौन बताएगा तुम में से?’

       लाला जी उनकी ओर देखते हुए बोले।

       ‘सर, चंदन के पिता जी सरपंच हैं।’ एक लड़का बोला।

       ‘तो ठीक है, चंदन तुम बाताओ सरपंच क्या-क्या काम करता है?’ लाला जी उससे पूछने लगे।  

       सुनकर चंदन थोड़ी देर के लिए तो हक्का-बक्का सा रह गया। उसे सरपंच के कार्यों के बारे में तो कोई ज्ञान नहीं था, परन्तु उसके पिता जी क्या काम करते थे, इसका उसे पूरा ज्ञान था। वह कुछ याद करता हुआ बोला:

       ‘सर, सरपंच के काम होते हैं शराब पीना, झगड़े करवाना और रोज शाम को माँ की पिटाई करना।’ यह कहते हुए उसकी आँखें भर आई।

       सुनकर पूरी कक्षा हँसने लगी। लाला जी सच्चाई समझ गए थे। दाएं हाथ से चंदन को बैठने का इशारा करते हुए बोले:

       ‘बेटा, यह सरपंच के कार्य नहीं होते हैं, बल्कि ये तो सामाजिक बुराइयाँ हैं।’

       नए मास्टर जी की मीठी बातें सुनकर लड़के समझ गए कि यह तो कोई निर्बल और निर्बोध प्राणी है, क्यों न इसके साथ कुछ मनोरंजन किया जाए। पीछे कोने में बैठे एक लड़के ने चुपके से अपने बैग में रखे घूँघरू बाहर निकाले और उन में से कुछ घुँघरू दूसरे लड़कों के हाथों दूसरे कोने पर बैठे लड़के के पास पहुँचा दिए। काम इतनी मुस्तैदी से हुआ कि मास्टर जी को इसकी भनक तक नहीं लग़ी। फिर आँख बचाकर एक हाथ बैंच के नीचे की ओर करके उन्हें बजाया। मास्टर जी जब उस ओर देखने लगे तो दूसरे कोने पर बैठे लड़के ने वही हरकत की। मास्टर जी ने बजाए डाँट फटकार लगाने के और यह पता लगाने के कि कौन शरारत कर रहा है, शाँत स्वभाव से कहा:

       ‘बेटा, छुपकर क्यों बजाते हो। मेरे से डरने की कोई बात नहीं है। तुम अभी बच्चे हो और बच्चे शरारत नहीं करेंगे तो और कौन करेगा। तुम्हारा जितना मन करे इन्हें बजा लो।’

       मास्टर जी की बात सुनकर बच्चों को बड़ा आश्चर्य हुआ। ये मास्टर जी तो कमाल के आदमी हैं। इन्हें तो तनिक भी गुस्सा नहीं आया, उलटे हम ही शर्मिंदा हो गए हैं। पूरी कक्षा में चुपी छा गई।  मास्टर जी धीरे से उठे और कोने में जाकर उन्होंने लड़के के आगे अपना दाहिना हाथ फैला दिया। लड़के ने चुप-चाप घूँघरू उनके हाथ पर रख दिए। फिर यही बात दूसरे कोने में दोहराई गईं। दोनों लड़कों से घूँघरू लेकर मास्टर जी वापस आकर कुर्सी पर बैठ गए। फिर उन्होंने कक्षा में बैठे सभी छात्रों की ओर नज़र दौड़ाई। उन्हें अपनी और देखते हुए देखकर लड़कों ने शर्म से अपनी आँखें नीचे की ओर झुका ली। उनकी अकथनीय बेबसी को देखकर मास्टर जी बोले:

       ‘मेरे प्यारे बच्चों! तुम्हें पश्चाताप करने की कोई जरूरत नहीं है। जब मैंने तुम्हारी बात का बुरा ही नहीं माना तो इसमें शर्मींदगी की कौन सी बात है। मैंने अपना ज्यादातर समय पौधों को रोपने और उनकी देखभाल में व्यतीत किया है। उन्हें स्वस्थ रखने और फलने-फूलने के लिए कितनी खाद और पानी की आवश्यकता होती है, इसका ध्यान मैंने हमेशा रखा है। उनके पालन-पोषण में थोड़ी सी कोताही भी उनकी बढ़त को प्रभावित कर सकती थी। मेरी नज़रों में उन छोटे-छोटे पौधों और तुममें कोई अंतर नहीं है। बुराई रूपी गर्मी का झोंका और क्रोध रूपी चिंगारी तुम्हारे कोमल मस्तिष्क को आघात पहुँचाने के लिए पर्याप्त हैं। तुम्हें जीवन में बढ़ना है और उस ऊँचाई को छूना है, जिसे देखकर हमारा, हमारे समाज का और हमारे देश का सिर गर्व से ऊँचा हो सके। तुम्हें फलना-फूलना है, उन अच्छाइयों को लेकर, जिनके सुखद अनुभव की मिठास का रसास्वादन हमारी आने वाली पीढ़ीयाँ ले सकें। यह सभी निर्भर करता है उस माली पर जो उन कोमल-कोमल अंकुरों को अपनी इच्छानुसार एक बड़ा वृक्ष बनने में उनकी सहायता करता है। और मेरे प्यारे बच्चों एक शिक्षक भी उसी माली के समान होता है। प्रकृति की गोद में अठखेलियाँ करते इन अबोध बच्चों का भविष्य बहुत कुछ एक शिक्षक पर ही निर्भर करता है। जितने भी महापुरूष, महान योद्धा और देशभक्त हुए हैं, उनके पीछे किसी न किसी शिक्षक का हाथ जरूर रहा है। चाहे वह गुरुकुल में शिक्षा देने वाला गुरू हो, चाहे घर में सच्चाई, सद्चरित्र और बहादुरी का पाठ पढ़ाने वाली माँ हो और चाहे देश की आन के लिए मर मिटने की कसम देने वाला कोई महान देश भक्त हो। तो मेरे प्यारे बच्चों, आज से हम उस मार्ग पर चलने की कोशिश करेंगे जो हमें अच्छाई, ईमानदारी, नेक दिली, इंसानियत, भाई-चारा, संप्रदायिक सौहार्द, मेहनत, लगन और आकाश की ऊँचाइयों को छूने की प्रेरणा दे। जिससे हम अपने समाज और अपने देश का नाम गौरवान्वित कर सकें।

       नए मास्टर जी की बात का प्रभाव छात्रों के कोमल हृदय पर काफी हद तक असर कर चुका था। उन्हें अपनी करनी पर ग्लानी होने लगी थी। उन्होंने इशारों-इशारों में कानाफूसी की और फिर खड़े होकर बोले:

       ‘सर! हमें माफ कर दो।’

       ‘किस लिए? किस लिए माफ कर दूँ? तुमने किया ही क्या है, जिसके लिए माफ कर दूँ। मंदिर में घंटी क्यों बजाते हैं, ताकि भगवान् अपने ध्यान से मन हटाकर भक्त की पुकार सुन सके। और आज तुमने घुँघरूओं से आवाज निकाल कर मेरे मन के वो विचार जो बहुत अरसे से दबे पड़े थे, बाहर निकालने में मेरी सहायता की है। मेरी माफी इसी में है कि जो आज मैंने कहा है तुम सभी भविष्य में उसका अनुसरण करो।’

       ‘सर, हम प्रण करते हैं कि आगे से हम आप द्वारा बताए गए रास्ते का अनुसरण करेंगे और कभी भी अपने शिक्षकों को शिकायत का मौका नहीं देंगे।’ नदी के बहाव की तरह सभी छात्र एक ही सुर में बोले।

       इतनी देर में पीरियड खत्म होने की घंटी बज गई। मास्टर जी खड़े होकर बोले:

       ‘बच्चों! अब मैं चलता हूँ। कल से हम अपनी पढ़ाई शुरू करेंगे और तुम्हारी हाजरी लगाना भी तभी से शुरू करूँगा।’

       ‘ठीक है सर।’ सभी छात्रों ने सिर हिलाकर उत्तर दिया।

       लाला दीवान चन्द जी का एक शिक्षक के नाते आज पहला दिन और पहला पीरियड था। बाहर निकलते हुए मन ही मन बड़े खुश थे कि इस नये काम की शुरूआत बहुत अच्छी रही। अपने आप को बच्चों में पाकर वह कुछ ताजगी महसूस कर रहे थे। वह भूल गए थे  कि इन छात्रों की उम्र और उनकी अपनी उम्र में बहुत अंतर है। वह तो आज स्वयं को उनके बराबर मान रहे थे। पहले की चाल, जो एक जिंदा लाश को ढोये जा रही थी, में आज आया बदलाव अब साफ नज़र आ रहा था। स्टाफ रूम की ओर चलते हुए मन में विचार आ रहे थे कि मैं अपनी पूर्ण जिंदगी छात्रों की भलाई के लिए समर्पित कर दूँगा। शायद यही मेरे पूर्वकृत कर्मों के उद्धार का एक रास्ता हो।

       दूसरी ओर छात्रों में भी नये मास्टर जी एक कौतुहल का विषय बन चुके थे। आज तक उनका जितने भी अध्यापकों से पाला पड़ा था, सभी छोटी से छोटी बात को लेकर उत्तेजित हो जाते थे और अपने गुस्से को किसी न किसी छात्र की पिटाई के रूप में प्रदर्शित करते थे। परन्तु ये पता नहीं किस फौलाद के बने हैं, महादेव जी की तरह, उकसाने पर भी गुस्से का पूरा ज़हर बड़े शाँत भाव से अपने गले से नीचे उतार लिया। हो न हो ये कोई महापुरूष हैं। इसलिए उन्होंने अपने मन में यह प्रतिज्ञा ठान ली कि वे उन्हें दिए गए वचनों पर पूरा उतरेंगे। केवल चालीस मिनट के सम्पर्क से ही सच्चे गुरु-शिष्य की परिपाटी कायम हो चुकी थी।

       नित्यप्रति लाला दीवान चन्द जी स्कूल आते, पूरी लगन और मेहनत से छात्रों को अपना विषय पढ़ाते और जब भी थोड़ा समय मिलता तो वे उन्हें शिष्टाचार, सभ्याचार, सदाचार, सहनशीलता, सच्चाई, कर्तव्य परायणता, परिश्रम और अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रेरणा देते। उनकी दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं आया था, अपितु उन्होंने स्वयं को अवश्य बदल लिया था। उन्होंने अपनी दाढ़ी, मूँछ और सिर के बाल कटवाने बंद कर दिए और पेंट की जगह सफेद पायजामा, कुर्ता और ऊपर से हलके बादामी रंग की कुर्ती पहननी शुरू कर दी थी। सक्ल-सूरत से एकदम कोई संत अथवा दार्शनिक लगते थे। अलबता पहले की अपेक्षा सेहत से कुछ कमजोर जरूर हो गए थे। उनकी शक्ल-सूरत और बदले हुए स्वरूप को देखकर कई बार उनके जानने वाले नजदीकी मित्रगण भी उन्हें पहचानने में गलती कर बैठते थे। परन्तु लाला दीवान चन्द जी अपने इस बदले स्वरूप से काफी संतुष्ट थे। साँसारिक इच्छाओं के प्रति अब उनका दूर का नाता भी नहीं रह गया था। लाला जी की अपेक्षा अपने आप को आचार्य कहलवाना उन्हें ज्यादा अच्छा लगाता था। उनके साथी अध्यापक गण तो उन्हें पहले ही आचार्य दीवान चन्द जी कहने लग गए थे।

       छात्रों के रूप में बच्चों का साथ पाकर वह पूरी तरह संतुष्ट  थे। बस मन में कहीं घुटन थी तो यह कि दूसरे के घर रहना उन्हें सिर पर रखे एक भारी बोझे के समान लग रहा था। इसके अलावा प्रतिदिन भीड़ भरे बाजार से गुजरना, वही तंग गलियाँ, शराफा बाजार की लोगों के हजुम से भरी सड़क, इस माहौल में वह अपने आपको असहाय महसूस कर रहे थे। उनका मन चाह रहा था कि यहाँ से निकलकर किसी ऐसी जगह पर चला जाए जहाँ पर एकांत हो और वे सुख से जी सकें। एक दिन रविवार की छुट्टी के दिन वह सुबह-सुबह निकले और घूमते हुए प्रीतनगर पहुँच गए। शहर से बाहर की ओर बसा यह स्थान उन्हें काफी अच्छा लगा और उन्होंने यहीं आकर रहने का मन बना लिया। मौसी जी को किसी तरह राजी करके उन्होंने आखिरकार प्रीतनगर में एक मकान किराये पर ले लिया और अपना सामान लाकर दोनों पति-पत्नी वहाँ पर रहने लगे। अपने आप को व्यस्त रखने के उद्देश्य से दीवान चन्द जी ने अब प्रइवेट तौर पर एम. ए. की पढ़ाई शुरू कर दी थी और कौशल्या सुबह घर का काम निपटाकर दिन में कुछ गरीब घरों के बच्चों को पढ़ाने लगी। छुट्टी के दिन दोनों मौसी जी के घर जाकर उसे मिलना नहीं भूलते थे। और इस तरह उनका समय गुजरने लगा।