पार्ट 1
आषाढ़ का महिना था, हल्की ठंडी हवा गुनगुना रही थी और धीमे धीमे भोर की खुशबू फैल रही थी और प्रकृति ये संदेश दे रही थी की कुछ ही क्षणों में सूर्योदय होने को है ...
राकेश वही रोज की तरह मंदिर के पीछे वाले मैदान में लेटा हुआ था..मच्छरदानी के अभाव में अपने घुटने और हाथो को कस के बांधे हुए छोटे बच्चे की भांति सो रहा था ,,मच्छर बार बार कानो में आरती कर रहे थे। वह हर बार जोर से सिर को भनभनाता। लेकिन इस बार मानो मच्छरों ने संगीत कार्यक्रम आयोजन कर लिया हो। इस तीव्रता से एक दर्जन भर लगभग उसके कानो में झूँ..झूँ..कर रहे थे।अब उसे उठना ही पड़ा और उठते ही राकेश ने सीधे बॉटल उठाई मंदिर की टंकी से भरी और स्टेशन की और चला गया ... नित्य क्रिया से निवृत्त हो, रैन बसेरे को चला गया।
राकेश को अच्छी तरह से याद था कि आज उसे पंडित जी के घर लोन की सफाई करने जाना है...सो बिना समय व्यर्थ किए वह हाथ मुंह धो कर बालो को एक बार सेट करके अपनी फटी बनियान और उसके ऊपर बिना बटन की लाल रंग की बुशर्ट डाल कर उसके साथ एक घिसी हुई सफेदी लगी हुई काली पेंट पहन ली और पदवेश के रूप में साहब ने दो रंगी भांति भांति की चप्पल धारण कर ली और बेताज बादशाह बने रवाना हो गए.......
राकेश की उम्र महज सत्रह वर्ष थी, जब वह चौदह वर्ष का था तो उसके माँ- बापूजी एक बड़ी बहन और एक भांजी , कुलदेवी माता के दर्शन के लिए ‘ दादासुरी’ गए थे जहॉं बस पलटी से चारो मौत के भेंट चढ़ गए... राकेश अब अनाथ हो चुका था गरीबी तो जन्म से उसके साथ पाणिग्रहण करके आई थी लेकिन सिर से माँ- बापूजी का हाथ भी उठ गया.. ऐसी अवसाद भरी स्तिथि में भी गुजारा मुश्किल ही था की रही सही कसर उसके कुटुंब जनों ने जबरन फर्जी उधारी का थैला उसके माथे मढ दिया....कहने लगे की उसके बाप ने कुछ इक्कीस हज़ार रुपए, चार टका ब्याज पर उधार ले रखे थे सो अब दुगुने से भी अधिक पूरे पैतालीस हज़ार बाकी है.......
अब इस उधारी के नाम पर उसकी जमीन पर कब्जा कर उसे धक्के मार निकल दिया कभी गाय का चारा तो कभी खाद के फर्जी पर्चे बना कर उसे नोच खरोच के खाने लगे... इन सब से परेशान हो उसने ही कागज पर दस्तखत कर पिंड छुड़वा लिया और घर बार छोड़ फकीरों की भांति घूमने लगा बाकी कसर तंबाकू ने पूरी कर दी अब वह मांग मांग कर तंबाकू पीने लगा.......राकेश की कुल संपत्ति में केवल उसका शरीर ही शेष रह जो भी मात्र एक डेढ़ मण का था.................
बेताज बादशाह पैर घसीटते घसीटते पंडित जी के घर तक पहुंच चुका था और वहीं चौखट के बाहर एक जूट के पायदान पर कोने में जा बैठ गया.. उसके बिल्कुल पास से ही गंदी नाली का रास्ता था, वह नाक को बुशर्ट से रोक कर वहीं पंडित जी का इंतजार कर रहा था,,
पंडित जी का घर गवाड़ी के बीचो बीच था जहां एक दो दुकानें थी और ठीक सामने एक पीपल का गट्टा जिस पर चिंटियो की परेड चल रही थी.....उसी गट्टे की एक तरफ एक पानी का नल लगा हुआ था और दूसरी तरफ से सामने की ओर जैमणपुर मोहल्ले का रस्ता था.... कुछ देर राकेश बैठा रहा तभी पंडित जी का किवाड़ धीरे से खुला और उनका सुपुत्र माधव स्कूल का बस्ता लिए जा रहा था कान में दोनो ओर से छिली पेंसिल डाल रखी थी और हाथ में जगमगाती घड़ी पहने बालो को शूल के समान खड़ा करके फ़ैशन में निकल गया और तभी उसी किवाड़ से पंडित जी खादी चोला और धोती लपटे आ रहे थे उनकी यज्ञोपवित कानो में दो चक्कर लगा कर उलझी हुई थी अर्थात अभी शौच करके ही निकले है..
पंडित जी और उनके बेटे के मध्य का पीढ़ी अंतराल न केवल वस्त्रों तथा चाल चलन से है अपितु उतना ही अंतर समझ तथा धैर्य का है और पीढ़ी का यह संघर्ष हमेशा से है जहां नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की मान्यताओं तथा धारणा को सिरे से नकारती है एवं परंपराओं को ढोंग कहती है और यह प्रथा सदियों से चली आ रही है जिसका उदाहरण महाभारत में दुर्योधन और धृतराष्ट्र तथा द्वापर में ही राजा कंश और उग्रसेन भी इसका अनुसरण कर चुके थे..
पंडित शिव बाबू गांव भर में विवाह और अंत्येष्टि आदि का काम करते है और खूब दान – दक्षिणा लपेटते हैं... पिछली दिवाली को ही पंडिताइन के लिए धनतेरस को सोने का चूड़ा और चांदी की पायल गढ़वा के लाए और खुद के लिए पांच तोले की चैन.....पूछने पर पंडित जी कहते कि किसी ‘धनसुख बाहेती ने पोते के नामकरण पर उसे और पंडिताइन को पहनाई है...’
मगर तफ़दीश करी तो पता चला कि, पंडित गांव का घी खा..लोगो से झूठ बोलता फिरता है और तहसील जा कर सुनार से गढ़वा कर लाया है और धनसुख बाहेती नाम का आदमी पूरे महानगर में नहीं है तो कौनसा पोता और कैसा नाम....। वहीं रही सही पंडित के अपने साढू रामकरण की लुगाई ने फैला दी और आखिर कार पंडित का पांडित्य गांव भर में पसर गया....
पंडित जी बाहर आते राकेश को बैठा देख जोर से चिल्ला के बोले ..’ अरे ! ओ अभागे इतनी देर क्यों कर दी रे आने में...दिहाड़ी तुम मजदूरों को पूरी चाहिए और काम पर आते आते दुपहर कर देते हो...’ ।
राकेश कुछ कहता उससे पहले पंडित ने उसे हाथ से इशारा करते हुए कहा..’ अब मेरा मुंह क्या देख रहा है भीतर जा पाइप और मोटर रखी होगी ले आ , और सुन, याद से किवाड़ बंद कर देना वरना मूषे पूरा सामान कुत्तर देंगे..’ राकेश भीतर गया परंतु खाली हाथ लौट और छपक कर बोला ..’ महाराज वो..वो पानी का पाइप तो नहीं है स्टोर में और मोटर भी नहीं दिखी कोई ..’
पंडित शिव बाबू ने भौहें तिरछी करी और डिक्टेटर बने गर्राते हुए बोले ‘अरे ! बिन सर पैर के आदमी तुझसे भीतर किसी से पूछा न गया ,यहां खाली हाथ चला आया नालायक ..शिव,शिव......शिव...शिव....’
राकेश की तरफ देखते हुए बोले.. ‘जा भीतर से ले आ किसी से निगह कर लेना कहां रखा है..’ राकेश अंदर गया और थोड़ी देर बाद फिर खाली हाथ लौट लेकिन इस बार आते ही बोला .. ‘महाराज जी वो पाइप लालू जी के यहां दे रखा है, कहो तो अभी उठा लाऊँ.....’ पंडित जी चश्मा साफ करते हुए बोले...‘नहीं रहने दे लालू के मकान बन रहा है, मोटर लगेगी उसे कुछ दिन..’ राकेश चट्टे पर खड़ा अगले आदेश के इंतजार में था और पंडित जी को देख रहा था कि अब कुछ बोले......,पंडित जी भीतर गए और स्कूटर की चाबी ले आए और स्टार्ट कर राकेश की और देख के बोले ..‘ आज तो कुछ काम है नहीं...कल देखते है ..अभी तो पुरषोत्तम के यहां भोजन है .. कल देखते है ..कल ..ठीक है..’ राकेश अब क्या कहता और कौनसा उसके कहने से कुछ होता, सो हामी में सर हिला दिया... पंडित जी चले गए और सामने देखा तो चींटियों की परेड भी खतम हो गई राकेश भी अब रैन बसेरे को चल दिया ...
राकेश ने इन्हीं सब में एक साल निकाल दिया कभी कहीं काम देखता तो कभी खाने के बदले बैगारी निकाल देता कभी पलदारी करता, सामान ढोने और लादने के अलावा वह कुछ काम न करता..फिर एक दिन अचानक बस स्टैंड पर खड़े खड़े कुछ क्रांतिकारी विचार आया तो तहसील जाने वाली बस के पीछे लटक गया.. उस दिन गर्मी इतनी थी की खून उबल जाए फिर भी बिना टिकट छत पर चढ़ गया और तहसील आते आते बेहोश हो गया... नींद खुली तो देखा कि वह बस के ऊपर बैठा है, नीचे पेट्रोल पंप है जहां रात को बसे खड़ी कर रखी है... दबे पांव उतरा और सीधा भागा कि दीमापुर के मुख्य बाजार में जा रुका ..और सर्किल के नीचे फुटपाथ पर सो गया...
सुबह नींद खुली तो देखा कि दीमापुर में अभी चुनाव का माहोल है, हालांकि उसने बस अड्डे पर कुछ खबरें तो सुनी थी लेकिन ऐसा माहौल नहीं देखा...वह उन लोगों के बीच अलग ही लग रहा था उसके और तहसील में कुछ घंटों का रास्ता था लेकिन यूं देखे तो कई वर्षों का अंतर था। उसने शायद ऐसे साफ सुथरे और खान पान के शौकीन नहीं देखे थे जो इस तरह से रहते थे। उसके गांव में अमीरों में महज पंडित जी थे वो भी तो ज्यादातर तहसील में ही रहते थे.... राकेश अब मजदूरी की जगह विधानसभा चुनावों की रैलियों में जाने लगा..
दिन भर रैलियों में घूमता, मुफ्त के नारे लगा कर शाम को चाय समौसा कभी पूड़ी भाजी तो कभी कभी लस्सी पी कर, फोकट के मज्जे लेता और वहीं कार्यालय के टेंट में सो जाता... रैलियों में कभी एक पार्टी तो कभी विपक्षी पार्टी की रैली में चला जाता, एक बार किसी निर्दलीय उम्मीदवार की रैली में चला गया लेकिन वहां जलपान के स्थान पर केवल सूखे भाषण मिले तो अब वहां नहीं जाता और ज्यादातर अच्छे नाश्ते वाली पार्टी की रैली में जाता,,,,उसे कहां हार जीत से मतलब था वह तो बस अपना पेट भरता और कहते जिसके नारे लगा देता..एक बार किसी पार्टी की रैली में विपक्षी का चिन्ह लगाए आ गया और नारे लगाने लगा...तभी एक पत्रकार की नजर पड़ी और उसने राकेश को रंगे हाथ पकड़ लिया. राकेश कुछ समझ पाता उससे पहले ही पत्रकार ने कैमरा लगा कर उसके सामने कर दिया और पूछने लगा...
पत्रकार : ‘आप कौनसी पार्टी के समर्थक है..? क्या आपकी कोई विचारधारा है...?
राकेश एक बार को चुप हुआ और इधर उधर देखते हुए धीरे धीरे कैमरे में देख के मुस्कुराते हुए, बिना संकोच किए बोला...
राकेश : ‘हमें तो जो भी पार्टी भर पेट खाना दे हम उसी के.... चाहे हाथी छाप हो या फूल वाली या वो तिरंगे हाथ वाली....’
राकेश का उत्तर सुन सभी हंसने लगे थे लेकिन पत्रकार शांत हो गया और उसे समझ आ गया कि राकेश ही नहीं वरन् पूरी जनता भी केवल भर पेट खाना और रोज़गार देने वाली तथा अमीर गरीब का भेद मिटाने वाली सरकार को ही चुनना पसंद करेगी न की अमीरों को शरण देने वाली सत्ता को....
पत्रकार ने अगला सवाल पूछना चाहा तभी एक सदस्य जो कि दिखने में किसी तथाकथित राष्ट्रवादी दल का लग रहा था अचानक से माइक के पास आ कर उसे घेर खड़ा हो गया..राकेश पीछे कहीं दब कर रह गया और और थोड़ी देर बाद ही वहां से चला गया.. हाथ में कोल्डड्रिंक का एक ग्लास और एक समौसा लिए धीरे धीरे चल रहा था, दोनों हाथों में खाने का सामान होने के कारण उस विपक्षी पार्टी का चित्र भी उसके हाथ से छूट गया और अब वह किसी पार्टी का न रहा बल्कि केवल समौसे का रह गया... थोड़ी देर तक राकेश की काया दिख रही थी फिर धुंधली होते हुए धीरे धीरे हवा विलीन सी हो गई.....
पत्रकार राकेश को जाते देख मानो निराशा से भर गया था और वह अपने आस पास के लोगो में राकेश के उस जवाब को तलाश रहा था कि कहीं से दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी के एक स्वतंत्र मतदाता की आवाज उसे पुनः फिर से सुनने को मिल जाए ..................